Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को कैसे बदला? : भाग 1

उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का संगठित विरोध 1920 के दशक के अंत में शुरू हुआ था। जवाहरलाल नेहरू ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन के ज़रिए महत्वपूर्ण योगदान दिया था।
nonaligned movement
Image courtesy : India Today

6 सितंबर 1961  में सबसे पहले गुटनिरपेक्ष आंदोलन सम्मेलन में बेलग्रेड घोषणा को अपनाया गया था। फिर 20 सितंबर 1961 को न्यूयॉर्क में संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत यूनियन के बीच सामान्य और पूर्ण निरस्त्रीकरण पर मैकक्लो-ज़ोरिन समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे। दोनों ही समझौतों में बहुत कुछ समान बातें है। हक़ीक़त यह है कि बेलग्रेड घोषणा ने मैकक्लो-ज़ोरिन समझौते के अंतिम संस्करण को काफी हद तक प्रभावित किया था, जो कि बहुत ही शक्तिशाली संयुक्त बयान था। दुर्भाग्य से, सहमत सिद्धांतों को लागू करने से सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ के भाग्य पर पड़ने वाले संभावित प्रतिकूल प्रभाव ने मौजूदा शक्तियों से सख्त विरोधी-प्रतिक्रियाओं को उकसाया था। नतीजतन, पिछले साठ वर्षों में, सहमत सिद्धांतों के अनुसार कार्रवाई करने के बजाय, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूएसएसआर के भीतर स्थापित व्यवस्थाओं ने सार्वजनिक स्मृति से मैकक्लो-ज़ोरिन समझौते को मिटाने के लिए व्यवस्थित और सोचे समझे कदम उठाए।

इस तरह, गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) प्रभावी रूप से पटरी से उतर गया था और विध्वंसक ताकतों ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सदस्य देशों को एक-दूसरे के खिलाफ सफलतापूर्वक खड़ा करने या शासन में बदलाव से काफी कमजोर कर दिया था। हालांकि गुटनिरपेक्ष आंदोलन  अव्यवस्थित था, लेकिन यह कैसे विकसित हुआ यह इस बात का प्रमाण है कि इसमें अभी भी अंतरराष्ट्रीय संबंधों को चलाने की क्षमता थी। जब कभी भी दुनिया के लोग सहमत सिद्धांतों के आधार पर ठोस कार्रवाई की मांग करते हैं, तो गुटनिरपेक्ष आंदोलन - निरस्त्रीकरण और शांति को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए - अभी भी सैन्य-औद्योगिक गहठजोड़ के हितों को चुनौती देने के मामले में एक शक्तिशाली शक्ति बन सकता है और दुनिया पर हावी हो सकता है।

गुटनिरपेक्ष आंदोलन की उत्पत्ति 

गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सिद्धांत को विकसित होने में लंबा समय लगा। इस आंदोलन के विकास के पीछे प्रमुख प्रेरकों में से एक निस्संदेह जवाहरलाल नेहरू थे, जो बाद में भारत के पहले प्रधान मंत्री बने। 1925-'27 के दौरान नेहरू लगभग दो वर्षों के लिए यूरोप में थे और उन्हें कई यूरोपीय राजनीतिक कार्यकर्ताओं और आंदोलनों और अन्य एशियाई, अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी राष्ट्रवादियों के साथ बातचीत करने का अवसर मिला, जो निर्वासन में रह रहे थे या यूरोप के दौरे पर थे। वे 10 से 14 फरवरी 1927 तक ब्रुसेल्स में आयोजित औपनिवेशिक दमन और साम्राज्यवाद के खिलाफ पहली अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर से केवल एक भागीदार ही नहीं थे। बल्कि वे इसके प्रमुख आयोजकों में से एक थे। सम्मेलन में 34 देशों के 134 संगठनों का प्रतिनिधित्व करने वाले 174 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था - मुख्य रूप से एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका से ये प्रतिनिधी आए थे। क्लारा जेटकिन, रोमेन रोलैंड, मैक्सिम गोर्की, एमके गांधी, अप्टन सिंक्लेयर, अल्बर्ट आइंस्टीन, मैडम सन यात-सेन, अर्न्स्ट टोलर और अन्य जैसी कई प्रसिद्ध हस्तियों ने भी अपने समर्थन के संदेश भेजे थे। यह तब था जब सम्मेलन की समाप्ति पर लीग अगेंस्ट इम्पीरियलिज्म एंड नेशनल इंडिपेंडेंस का गठन किया गया था - नेहरू इसकी कार्यकारी समिति के सदस्यों में से एक थे – और तब जाकर उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का संगठित विरोध एक ठोस तरीके से शुरू हुआ था।

नेहरू के विचारों को 1927 की कांग्रेस में विचार-विमर्श कर काफी मजबूती से ढाला गया था, जहां उनके साथ जेटी गुमेदे (तत्कालीन अफ्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस, दक्षिण अफ्रीका के अध्यक्ष), मोहम्मद हट्टा (बाद में इंडोनेशिया के उपराष्ट्रपति), लियाउ हंसिन (सीईसी सदस्य, कुओमिन्तांग, चीन), मेसली हाज (अल्जीरियाई राष्ट्रवादी), हेनरी बारबुसे (फ्रांसीसी लेखक), फेनर ब्रोकेवे (ब्रिटिश उपनिवेश विरोधी कार्यकर्ता) और कई अन्य इस बातचीत में शामिल थे। अन्य उपनिवेशवाद विरोधी और साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलनों के साथ एकजुटता व्यक्त करने की पहल करके, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में सबसे आगे रहते हुए, नेहरू धीरे-धीरे अंतरराष्ट्रीय कद के एक प्रमुख भारतीय राजनेता बन गए थे।

भारत की अंतरिम सरकार के प्रमुख होने के नाते नेहरू ने जो प्रमुख विदेश नीति का निर्णय किया और घोषणा थी कि भारत उन देशों के समूहों में शामिल नहीं होगा जो एक दूसरे के खिलाफ गठबंधन कर रहे थे, लेकिन उन सभी देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करने का प्रयास करेंगे जो एक-दूसरे के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध चाहते हैं। 7 सितंबर 1946 को एक रेडियो संबोधन के दौरान, नेहरू ने कहा, "हमारा प्रस्ताव है, जहां तक संभव हो, एक दूसरे के खिलाफ गठबंधन करने वाले समूहों की सत्ता की राजनीति से दूर रहें, जिन्होंने अतीत में विश्व युद्धों का नेतृत्व किया है और जो फिर से नेतृत्व कर सकते हैं और जो बड़े पैमाने पर आपदाएं पैदा कर सकते हैं... दुनिया, आंतरिक प्रतिद्वंद्विता और घृणा और आंतरिक संघर्ष के बावजूद, घनिष्ठ सहयोग और विश्व राष्ट्रमंडल के निर्माण की ओर अनिवार्य रूप से आगे बढ़ रही है। यह एक ऐसे विश्व का सपना है जिसके लिए स्वतंत्र भारत काम करेगा, एक विश्व जिसमें स्वतंत्र लोगों का मुक्त सहयोग हो और कोई वर्ग या समूह एक-दूसरे का शोषण नहीं करेगा।"

जुलाई 1945 में कंजरवेटिव पार्टी की हार के बाद चर्चिल अपने प्रधानमंत्रित्व को खोने के बाद, सभी संभावनाओं के मद्देनजर, नेहरू 5 मार्च 1946 को फुल्टन, मिसौरी, संयुक्त राज्य अमेरिका में विंस्टन चर्चिल के टकराव संबंधी बयानबाजी के कारण हुए नुकसान की मरम्मत करने की कोशिश कर रहे थे। चर्चिल के भाषण का दारोमदार पश्चिमी और पूर्वी देशों के बीच विभाजित दुनिया को चित्रित करने का था, अर्थात उनका कहना था कि, विश्व "ईसाई सभ्यता" बनाम "साम्यवाद", में बंट गया है और उन्होंने बिना किसी देरी "साम्यवाद" द्वारा उत्पन्न खतरे के "निपटान" की आवश्यकता पर जोर दिया था। अपने उत्तेजक भाषण में, चर्चिल ने कहा, "... कम्युनिस्ट पार्टियां या फ़िफ्थ कॉलम, ईसाई सभ्यता के लिए एक बढ़ती चुनौती और खतरे की घंटी है... हमें बहुत ही सबसे नासमझ होंगे यदि समय रहते हमने इसका मुक़ाबला नहीं किया ... क्योंकि आँखें बंद करने से हमारी मुश्किलें और खतरे कम नहीं होंगे होंगे। केवल इंतजार करने से कि आगे क्या होगा, उन्हे हटाया नहीं जा सकता है; न ही उन्हें तुष्टीकरण की नीति से हटाया जा सकता है। एक समझौते की आवश्यकता है, और यह जितना अधिक विलंबित होगा, उतना ही कठिन होगा और हमारे खतरे उतने ही बड़े होंगे।"

इसी संदर्भ में नेहरू के 7 सितंबर 1946 के दिए गए भाषण का महत्व और बढ़ जात है। नेहरू ने राष्ट्रों के विरोधी गुटों में शामिल होने और एक दूसरे के खिलाफ खड़े होने का विरोध किया था।

एशियाई संबंध सम्मेलन

एक सामान्य विदेश नीति के विकास में सहायक, पहला एशियाई संबंध सम्मेलन 23 मार्च से 2 अप्रैल 1947 तक दिल्ली में विश्व मामलों की भारतीय परिषद (आईसीडब्ल्यूए) के तत्वावधान में गैर-सरकारी स्तर पर आयोजित किया गया था। 28 देशों ने इसमें भाग लिया, जिसमें इंडोनेशिया के तत्कालीन प्रधानमंत्री जैसे सरकारी प्रतिनिधि और पूर्व सोवियत संघ के कुछ एशियाई गणराज्यों के प्रमुख व्यक्ति शामिल थे। संयुक्त राष्ट्र, अरब लीग और ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, अमेरिका और यूएसएसआर के अनुसंधान संस्थानों के पर्यवेक्षकों ने भी इसमें भाग लिया था। जापान को छोड़कर, जो उस समय अमेरिका के कब्जे में था, सभी प्रमुख एशियाई देशों का सम्मेलन में भाग लेने का निर्णय एक सुखद संकेत था। इसने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दृढ़ उपनिवेशवाद-विरोधी और साम्राज्यवाद-विरोधी रुख और 2 सितंबर 1946 को बनी भारत की तत्कालीन अंतरिम सरकार में उनके गहरे विश्वास के प्रति उनके उच्च सम्मान का संकेत दिया था। 23 मार्च 1947 को अंतरिम सरकार के प्रमुख के रूप में नेहरू ने अपने स्वागत भाषण में सम्मेलन के मुख्य उद्देश्य को रेखांकित किया और कहा कि, "विश्व शांति के लिए संयुक्त एशिया" एक साथ खड़ा है। उन्होंने कहा, "हम मानवीय मामलों में एक ऐसे चरण में आ गए हैं जब उस एक विश्व और किसी प्रकार के विश्व फेडरेशन की आदर्श जरूरत प्रतीत होती है, हालांकि रास्ते में कई खतरे और बाधाएं हैं। लेकिन हमें उस आदर्श के लिए काम करना चाहिए, न कि किसी ऐसे समूह के लिए जो इस बड़े विश्व समूह के रास्ते में आड़े आए।"

नेहरू से पूरी तरह सहमत होकर महात्मा गांधी ने 2 अप्रैल 1947 को सम्मेलन के समापन सत्र के दौरान अपने संबोधन में कहा,

"बेशक, मैं एक दुनिया में विश्वास करता हूं। और मैं अन्यथा कैसे सोच सकता हूं ... पश्चिम आज परमाणु बमों के विस्तार की ओर है, क्योंकि परमाणु बमों के विस्तार का अर्थ है दुनिया का पूर्ण विनाश, न केवल पश्चिम का, बल्कि यह दुनिया का विनाश होगा ... यह आपके ऊपर है कि आप न केवल एशिया को, वरन पूरी दुनिया को इस दुष्टता, पाप से निजात दिलाने के लिये काम करें।

यही वह आदर्श है जिसे एशियाई संबंध सम्मेलन ने अपने प्रतिभागियों के माध्यम से दुनिया को बताने की कोशिश की थी - मानवता की एकता और सभी युद्ध को समाप्त करने की जरूरत। इसलिए, यह बहुत स्पष्ट है कि ब्रिटिश प्रशासन ने भारत का विभाजन कर इस आदर्श को नष्ट करने का इरादा किया था।

इंडोनेशिया पर सम्मेलन

स्वतंत्र भारत की विदेश नीति के गुटनिरपेक्ष और अंतर्राष्ट्रीयवादी चरित्र का पहली बार प्रदर्शन तब हुआ जब इंडोनेशिया पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन 20 से 23 जनवरी 1949 तक दिल्ली में आयोजित किया गया था। 1942 में जापान के कब्जे से पहले इंडोनेशिया लगभग 118 वर्षों तक डचों के कब्जे में रहा था। द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में जापान के आत्मसमर्पण के बाद,  इंडोनेशिया ने 17 अगस्त 1945 को स्वतंत्रता हासिल की थी। हालाँकि, 19 दिसंबर 1948 की रात को हॉलैंड और सशस्त्र बालों ने इंडोनेशिया में औपनिवेशिक शासन को बहाल करने के लिए के किए गए प्रयास ने नव-उपनिवेशवाद के संभावित खतरे के संकेत नए-उपनिवेशित देशों को भेजें।  इंडोनेशिया की राजधानी जोगजकार्ता को डच पैराट्रूपर्स ने कब्ज़ा लिया और राष्ट्रपति सुकर्णो, प्रधानमंत्री मोहम्मद हट्टा और इंडोनेशियाई सरकार के अन्य सदस्यों को पकड़ कर एक अलग द्वीप में क़ैद कर दिया गया था।

नेहरू ने हॉलैंड की कार्रवाई की तीखी निंदा की और कहा कि यह एक निर्लज्ज आक्रामकता है।  उन्होंने सभी भारतीय बंदरगाहों और हवाई अड्डों को डच जहाजों और विमानों के लिए बंद करने का फैसला किया था। बर्मा के प्रधानमंत्री यू नु के प्रस्ताव पर नेहरू ने एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करने का फैसला किया। ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड सहित उन्नीस देशों ने इसमें भाग लिया। दिल्ली सम्मेलन ने डच आक्रमण की निंदा की और इंडोनेशियाई सरकार के गिरफ्तार सदस्यों की तत्काल रिहाई की मांग की और जोगजकार्ता से डच सैनिकों की वापसी और 1 जनवरी 1950 तक संयुक्त राज्य इंडोनेशिया को सत्ता हस्तांतरण की मांग की थी।

नतीजतन, भारत द्वारा 24 जनवरी को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सम्मेलन में प्रस्ताव रखने  के बाद, और फिर 28 जनवरी 1949 को सुरक्षा परिषद के हस्तक्षेप के बाद ही 7 मई 1949 को यह शत्रुता समाप्त हुई थी। संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में एक गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए और इंडोनेशिया से डच उपनिवेशवाद की औपचारिक की घोषणा की गई। इंडोनेशिया पर हुए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन ने अंतरराष्ट्रीय विवादों को निपटाने में एक सक्षम मध्यस्थ के रूप में भारत के कद को स्पष्ट रूप से बड़ा कर दिया था। 

लेखक, दिल्ली साइंस फोरम के संयुक्त सचिव और कोइलिशन फॉर न्यक्लियर डिजार्मामेंट एंड पीस के लिए बने गठबंधन की राष्ट्रिय संवन्य समिति के सदस्य हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

(यह गुटनिरपेक्ष आंदोलन की श्रृंखला का पहला भाग है। निम्नलिखित भाग 19 नवंबर 2021 को प्रकाशित किया जाएगा।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

How NAM Changed International Relations: Part 1

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest