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कैसे चीन में हो रहा ओलंपिक पश्चिम के लिए हौआ बन गया है 

ओलंपिक खेलों का इतिहास इस बात को दर्शाता है कि कैसे अमेरिका एवं अन्य साम्राज्यवादी देशों को चीन और वैश्विक दक्षिण के संघर्ष के साथ-साथ अंततः इसके वैकल्पिक मॉडलों, दोनों को ही स्वीकारने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। 
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1963 के खेलों में नई उभरती ताकतों में चीनी प्रतिनिधिमंडल की उपस्थिति (चित्र साभार: विजय प्रसाद)

1990 के दशक की शुरूआत में, ओलंपिक मुहिम में दुबारा से शामिल होने के बमुश्किल एक दशक बाद ही बीजिंग के द्वारा सन 2000 में खेलों की मेजबानी के लिए बोली लगाई गई थी। दुर्भाग्य से तब तक, अमेरिकी नीति हनीमून के वर्षों की मेल-मिलाप के रुख से स्पष्ट तौर पर हटने लगी थी। यहाँ तक कि निक्सन और रीगन जैसे कट्टर-प्रतिक्रियावादी अमेरिकी राष्ट्रपतियों तक के लिए नकचढ़े सोवियत विरोधी के विरुद्ध जमीनी राजनीति के नाम पर चीनी जनवादी गणराज्य (पीआरसी) को जोश के साथ गले लगाने के दिन भी लद चुके थे। प्रथम शीत युद्ध की समाप्ति के साथ ही नवउदारवादी “मानवाधिकारों” के एक सार्वभौमिक (भले ही बड़े पैमाने पर यह पाखण्ड था) हथियारकरण के पक्ष में, अमेरिकी साम्राज्यवादी बयानबाजी के लिए मार्गदर्शक ढाँचे के तौर पर साम्यवाद का विरोध भी कम होता चला गया। यह एक ऐसा असंबद्ध मार्ग था जो अपने साम्राज्यवादी मूल में बुर्जुआ लोकतन्त्रों के पक्ष में पूरी तह से झुका हुआ था, जिसके साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए चीन, माओ युग तुलना में शायद ही अपने को तैयार पा रहा था।   

निश्चित ही अमेरिकी मुख्यधारा के समाचार-पत्र, बीजिंग की बिड के विरोध में एकजुट हो गए, जिसमें न्यूयॉर्क टाइम्स ने नाजी जर्मनी के साथ इसकी सहज और अब-पारलोकिक समरूपताओं की आशंका व्यक्त करनी शुरू कर दी थी। इस बात को हांगकांग विश्वविद्यालय के इतिहासकार जू गुओकी ने अपनी 2008 की पुस्तक ओलंपिक ड्रीम्स: चाइना एंड स्पोर्ट्स, 1895-2008 में संदर्भित किया है: “वर्ष 2000 में जिस शहर पर विचार किया जा रहा है वह बीजिंग है, लेकिन इसका जवाब 1936 वाला बर्लिन है।” कांग्रेस के दोनों सदनों में द्विदलीय बहुमत ने अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक कमेटी (आईओसी) से जोरदार शब्दों में मानवाधिकारों के आधार पर इस बोली को ख़ारिज करने का अनुरोध किया। इस आयोजन में, बीजिंग आखिरी दौर से पहले तक प्रत्येक दौर के मदतान में अग्रणी रहा, लेकिन आखिर में सिडनी से 45-43 से हार गया। बाद में यह बात उभरकर आई कि सिडनी आयोजन समिति ने न सिर्फ एकमुश्त घूस (आईओसी के लिए पाठ्यक्रम में यह चलता है) के जरिये अपने लिए दो-वोट का अंतर हासिल कर लिया था, बल्कि लन्दन-आधारित एक मानवाधिकार संगठन के माध्यम से चीन-विरोधी बदनाम करने वाला अभियान चला रखा था। इस प्रकार श्वेत एंग्लो सेटलर उपनिवेशों के बीच की जुगलबंदी प्रबल बनी रही, और सिडनी ओलंपिक वहां के मूल निवासियों के खिलाफ ऑस्ट्रेलिया द्वारा किये गए नरसंहार के लिए वास्तव में नुकसानदायक लीपापोती वाला मंच बन गया।

इसके बावजूद अपनी हार और खेलों के इर्दगिर्द “राजनीतिकरण” की पश्चिमी शक्तियों के नग्न पाखंड से बाखबर रहने के बावजूद, बीजिंग ने एक बार फिर से 2008 ओलंपिक के लिए बोली लगाई। इस बार इसे आसान जीत हासिल हो गई, जिसमें 2000 की हार की परिस्थितियों के लिए हासिल व्यापक सहानुभूति का कारक होने के साथ-साथ हमले की रेखाओं को बेअसर करने के लिए तैयार की गई एक महीन पीआर अभियान का भी योगदान था, जिसके अभाव ने पिछली बार इसकी मुहिम पर पानी फेर दिया था। बिड कमेटी के अधिकारी वांग वेई ने आईओसी को आश्वस्त किया कि, “चीन में आने वाले खेलों के साथ, वे न सिर्फ अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने में मददगार साबित होने जा रहे हैं, बल्कि शिक्षा, चिकित्सा देखभाल और मानवाधिकारों सहित सभी सामाजिक क्षेत्रों को भी बढ़ाएंगे।” खेलों से पूर्व के महीनों में तिब्बत में बड़े पैमाने पर अशांति को हथियार बनाने की अथक कोशिशों के बावजूद, पश्चिमी अभियान समूहों के द्वारा सीमित बहिष्कार की अपीलों का भी कोई असर नहीं पड़ा। 2008 बीजिंग ओलंपिक इतिहास में चीन को “पदार्पण करने वाले दल” के तौर पर जाना गया और उभरती विश्व शक्ति के रूप में यह इसके बढ़ते आत्मविश्वास में एक मौलिक पल बन गया।

यह अर्थपूर्ण है कि जुल्स बॉयकोफ़ जो कि ओलंपिक खेलों के मुखर आलोचक रहे हैं, जिनकी किताब पॉवर गेम्स पर मैंने इस विषय पर और इस विषय से संबंधित अन्य लेखों के लिए अपने शोध पर काफी हद तक भरोसा किया है, ने 2008 खेलों की इस लोकप्रिय धारणा या चीनी इतिहास के व्यापक वृत्त-चाप के संदर्भ में इनके महत्व के बारे में कोई उल्लेख तक नहीं किया है। इसके बजाय उनके द्वारा इन्हें विशेष रूप से एक विशिष्ट अभिजात्य परियोजना करार दिया गया है और सारा ध्यान आलोचनात्मक आख्यानों पर केंद्रित रखा गया है, एक ऐसी प्रवृत्ति जिसे उन्होंने 2022 बीजिंग खेलों पर अपनी सबसे हालिया टिप्पणी में दोगुने जोरशोर से रखा है। संभवतः 2008 बिड के दौरान बीजिंग के आश्वासनों को उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया में सबसे अधिक खुलासा करने वाली रेखा के तौर पर लिया है, जो कुछ इस प्रकार से है: “मानवाधिकारों का सपना कभी नहीं आया। यह बता रहा है कि आज न तो चीन और न ही आईओसी इस बात की कसमें खा रहे हैं कि ओलंपिक से लोकतंत्र को बढ़ावा मिलेगा।” ऐसा जान पड़ता है कि बॉयकोफ़ को यह सब एक सकारात्मक विकास के तौर पर नहीं नजर आ रहा है: कि चीन का अपने खुद के मॉडल पर बढ़ता आत्मविश्वास उसे पश्चिमी साम्राज्यवादियों को उनके पसंदीदा (जो कि गहरे पाखंडी स्वरूप) विवेकपूर्ण शब्दों में संबोधित करने की आवश्यकता से मुक्त करता है। जैसा कि न्यूयॉर्क टाइम्स ने इसे संक्षेप में लिखा है, “जहाँ एक वक्त था जब सरकार ने खेलों को सफल बनाने के लिए अपने आलोचकों को आश्वस्त करने का प्रयास किया था, आज यह उनकी अवहेलना कर रहा है...। चीन ने तब विश्व की शर्तों को पूरा करने के लिए तैयार था। अब दुनिया को चीन की बात माननी पड़ेगी।”  

यह उन अभियानों में एक व्यापक विश्लेषणात्मक कमी को दर्शाता है जो ओलंपिक को अपनेआप में एक अविभाजित राजनीतिक लक्ष्य समझते हैं: वे साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था की तुलना में विभिन्न मेजबान देशों की स्थितियों को समझने में विफल साबित होते हैं। “ओलंपिक” या “मानवाधिकारों” को सार्वभौमिक श्रेणियों के तौर पर सपाट कर देना प्रभावी तौर पर दोनों की मानक पश्चिमी समझ को विशेषाधिकार देना है। व्यवहार में देखें तो यह स्वंयभू लोकतंत्रों द्वारा ओलंपिक के घोर असमान एवं विषम व्यवहार की ओर उन्मुख कर देता है, जिसकी मेजबानी शाही मूल के द्वारा की जाती है, जो कि ऐतिहासिक रूप से भारी बहुमत-बनाम कुछ के बीच में होती है, जो कि नहीं हैं। वास्तव में देखें तो स्थानीय ओलंपिक-विरोधी अभियान समूह निःसंदेह उन सामाजिक विस्थापनों से लड़ने में अपनी जगह पर बिल्कुल दुरुस्त हैं, जिन्हें वे हर मेजबान शहरों में होता देखते पाते हैं। (पूरा खुलासा: मैंने पहले ही इस प्रकार के एक समूह, नोलिंपिक्स एलए के साथ काम कर रखा है, जिसने 2028 के लास एंजिल्स ओलंपिक के उच्चकुलीनता एवं नस्लीय निगरानी से जोड़ने पर बेशकीमती काम किया है।) 

लेकिन वहीँ 2002 में जब साल्ट लेक सिटी के द्वारा मेजबानी की गई तो अफगानिस्तान पर अवैध अमेरिकी आक्रमण को लेकर गुस्सा कहाँ चला गया था? उसी तरह वहां और इराक में ब्रिटेन के युद्ध अपराधों को लेकर क्या हुआ जब लन्दन द्वारा 2012 में मेजबानी की गई? जब टोक्यो ने 2021 में मेजबानी की थी तो मानवता के खिलाफ औपनिवेशिक अपराधों के लगातार स्वीकार से इंकार करने पर जापान का क्या हुआ? समूचे मेजबान देशों को “मानवाधिकारों के लिए दुह्स्वप्न” का अभियोग (बॉयकोफ़ का चीन और कजाखस्तान के लिए लगाया गया भोंडा ठप्पा, जब बीजिंग और अल्माटी 2022 के लिए एकमात्र निर्णायक बचे रह गए थे) तो मानो ये उपाधियाँ शाही मूल के बाहर के देशों के लिए आरक्षित रखी गई थीं। नवजात ओलंपिक विरोधी आंदोलन को यदि कभी भी 1960 और 70 के दशक में आईओसी को झकझोर कर रख देने वाली उस महान नस्लवाद विरोधी लामबंदी की सुसंगति को अंजाम पर पहुंचाना है तो उसे इन वैचारिक अंध रुख का परित्याग करने की आवश्यकता है। वर्तमान में इसमें उम्मीद की किरण ना के बराबर नजर आती है, क्योंकि बॉयकोफ़ और उनके “वाम” खेल-लेखक साथी डेव ज़िरिन जैसे प्रमुख हस्तियों के द्वारा बिना किसी आलोचनात्मक रुख के अमेरिकी विदेश विभाग की तर्ज पर शिनजियांग और पेंग शुआई दोनों पर 2022 खेलों तक प्रचार किया जा रहा है।

नई उभरती शक्तियाँ 

आप सवाल कर सकते हैं कि चीनी जन गणराज्य के पास अन्तराष्ट्रीय खेलों की दुनिया में दो दशकों से भी अधिक समय तक ओलंपिक वनवास काल में (1952 से लेकर 1980 तक) करने के लिए क्या था? संयुक्त राज्य अमेरिका और अन्य पश्चिमी शक्तियों के साथ “पिंग-पोंग कूटनीति” की कहानी पहले से ही अच्छी तरह से दस्तावेजित की जा चुकी है, जो एक स्पष्ट उत्तरी इतिहास लेखन में पूर्वाग्रह को दर्शाती है। लेकिन एक ऐसे समय में जिसमें “चीन और पश्चिम के बीच की गांठों को खोलने” की मांग उठ रही हो, और अन्य परियोजनाओं के बीच बेल्ट एंड रोड पहल के जरिये दक्षिण-दक्षिण सहयोग के लिए प्रयास किये जा रहे हों, ऐसे समय में खेलों की नई उभरती शक्तियों (जीएएनईएफओ) के दफन कर दिए गए इतिहास को उजागर करने का समय है।

जीएएनईएफओ, असल में सुकर्णो की इण्डोनेशियाई सरकार की दूरदर्शी उपनिवेशवाद विरोधी नेता और गुट निरपेक्ष आंदोलन के सह-संस्थापक द्वारा साम्राज्यवाद-विरोधी एवं ज़िओनवाद-विरोधी एकजुटता के एक साहसिक कदम के चलते उभरा था। 1962 में, एक मेजबान के तौर पर इंडोनेशिया ने चौथे एशियाई खेलों में इजराइल और च्यांग काई शेक के कुओमिन्तांग (केएमटी) शासन को आमंत्रित करने से साफ़ इंकार कर दिया था और इसके लिए उसे आईओसी से सरसरी तौर पर निलंबित कर दिया गया था। इसके जवाब में, सुकर्णों ने घोषणा की कि: 

“अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक खेल खुले तौर पर एक साम्राज्यवादी औजार साबित हुए हैं...। अब हमें साफ़-साफ इस बात को कहना होगा कि खेलों का राजनीति से कुछ न कुछ संबंध है। इंडोनेशिया अब राजनीति के साथ खेलों को मिश्रित करने का प्रस्ताव करता है, आइये अब हम जीएएनईएफओ अर्थात नई उभरती शक्तियों के खेलों को... पुराने स्थापित अनुक्रम के खिलाफ स्थापित करें।” 

उनकी यह हौसलाअफजाई करने वाली बयानबाजी चीनी आईओसी प्रतिनिधि डोंग शौई के 1958 के तत्कालीन आईओसी अध्यक्ष एवरी ब्रुंडेज के खिलाफ उनके पक्ष की व्यापक रूप से याद दिलाती है, लेकिन इसमें कोई रहस्यमयी “ओलंपिक भावना” जैसा अवेशष नहीं जुड़ा हुआ था। चीन ने 1963 में जीएएनईएफओ को सुव्यवस्थित करने और बढ़ावा देने में मदद करने के लिए उल्लासपूर्वक भाग लिया, जिसमें 48 देशों से आने वाले 2,200 खिलाड़ियों के जकार्ता आने-जाने की यात्रा लागत शामिल थी, जो बड़ी संख्या में वैश्विक दक्षिण से थे। इसे एथलेटिक जीत में भरपूर फसल काटने को मिली, और कुल पदक तालिका में शीर्ष यह पर रहा, जिसके बाद दूसरे-दर्जे के दल के साथ रूस और फिर इंडोनेशियाई मेजबान का स्थान रहा- और साथ ही उभरती हुई तीसरी दुनिया के खिलाड़ियों से जोशीली मंगलकामना हासिल हुई। 

इसके बाद कोई दूसरा जीएएनईएफओ नहीं हो सका, जिसकी वजह भयानक अमेरिका समर्थित तख्तापलट थी, जिसने सुकर्णों को अपदस्थ करने और 1965 में सुहार्तों की सैन्य तानाशाही को स्थापित करने में अपनी भूमिका निभाई थी। लेकिन इतिहास का यह हिस्सा दुरुस्त करने का काम पूर्व से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि बीजिंग 2022 का सबक और कूटनीतिक बहिष्कार के लिए लिया गया कदम भले ही कितना भी हास्यास्पद हो, सच्चाई यह है कि ग्लोबल नार्थ में संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके सहयोगियों के लिए कभी भी चीन को अपने इलीट क्लब में वैध सदस्य के तौर पर पूरी तरह से स्वीकार कर पाना नामुमकिन है। मेजबान के तौर पर अपनी वर्तमान भूमिका को देखते हुए पीआरसी के अधिकारियों के लिए खेलों के “राजनीतिकरण” की निंदा करने में काफी विवशता महसूस हो सकती है। लेकिन उनके लिए, चीनी जनता के लिए और शेष विश्व के लिए इस तथ्य को ध्यान में रखना बुद्धिमत्तापूर्ण होगा कि वे ओलंपिक के राजनीतिकरण को दुनियाभर के श्रमिकों एवं उत्पीडित राष्ट्रों के लिए एक लंबी, पवित्र परंपरा के तौर पर पेश करें। इस परंपरा में चीनी जनवादी गणराज्य का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है, जिस पर उसे न्यायसंगत तौर पर गर्व होना चाहिए। 

साभार : पीपल्स डिस्पैच

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