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कैसे भारत में, ख़ासकर ग्रामीणों के लिए टीकाकरण एक ‘विशेषाधिकार’ है

भारतीय राज्यों को वैक्सीन की खरीद के लिए वैश्विक बाजार में एक-दूसरे से मुकाबला करने के लिए छोड़ दिया गया है।
कैसे भारत में, ख़ासकर ग्रामीणों के लिए टीकाकरण एक ‘विशेषाधिकार’ है
प्रतीकत्मक तस्वीर। चित्र साभार: एपी

अगर अप्रैल का महीना प्रमुख भारतीय शहरों में अंतिम संस्कार की जलती चिताओं की अंतहीन पंक्तियों वाली छवियों के साथ चिन्हित किया गया था, तो मई में उत्तर भारतीय राज्यों में उत्तर प्रदेश और बिहार के पास गंगा नदी में तैरते शवों की छवियाँ वायरस के अनियंत्रित प्रसार की दुखद अनुस्मारक थीं, जहाँ ग्रामीण भारत में अधिकांश भारतीय बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं, वैक्सीन या मूलभूत ढांचों तक पहुँच के बिना वायरस से लड़ने के लिए मजबूर हैं।

भारत में वायरस की दूसरी लहर उछाल ने बड़े पैमाने पर असंबद्ध और दुर्गम ग्रामीण क्षेत्रों में भयानक तबाही मचा रखी है। डाउन टू अर्थ के एक विश्लेषण के अनुसार, अप्रैल में “भारत में आधे से अधिक ...कोविड-19 मौतों”  इन ग्रामीण इलाकों में हुई हैं। सरकार की तरफ से ग्रामीण आबादी को न सिर्फ जानकारी और सुविधाओं से वंचित रखा गया, बल्कि चिकित्सा सुविधाओं या यहाँ तक कि टीकों तक पहुँच का भी अभाव बनाए रखा, जिसके चलते ग्रामीण क्षेत्र पूरी तरह से वायरस के सामने लाचार बने रह गए।

भारत में, दूसरी लहर के दौरान देश में पर्याप्त लोगों का टीकाकरण कराने के प्रयासों (जिससे  बेहद जरुरी हर्ड इम्युनिटी को पैदा करने और संक्रमण और मौतों की संख्या को नियंत्रित किया जा सके) में सरकार की तरफ से भ्रम और योजना की कमी दिखाई दी। विशेष रूप से इसे केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्त्व वाली सरकार में देखा गया, जिसने इसे पूरी तरह से राज्यों के उपर छोड़ दिया है कि वे अपने निवासियों का किस प्रकार से टीकाकरण करते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि टीकाकरण एक विशेषाधिकार बन गया है, जिसे देश के गरीबों और हाशिये पर रह रही आबादी के लिए हासिल कर पाना करीब-करीब असंभव सा बना दिया है। इस बारे में मैंने जिस डॉक्टर से बात की, डॉ. हरजीत सिंह भट्टी उनके मुताबिक “यह आम तौर पर अमीरों और प्रभावशाली लोगों के लिए एक विशेषाधिकार प्राप्त टीका है...यह व्यवस्था ग्रामीण और गरीब विरोधी है।”

जो लोग भारत में जमीनी स्तर पर काम कर रहे हैं उनका सवाल है कि ये टीके कैसे लोगों तक पहुचेंगे, विशेषकर गरीबों तक – जो ज्यादातर मामलों में इंटरनेट तक पहुँच नहीं रखते या उनके पास टीके के लिए अपॉइंटमेंट बुक करने का डिजिटल ज्ञान नहीं है। यहाँ तक कि जिनके पास इंटरनेट तक पहुँच भी है और नई तकनीक के प्रति लगाव है, उन्हें भी सरकार की कोविन वेबसाइट पर टीके के लिए पंजीकरण करने की कोशिश में दिक्कतें पेश आ रही हैं, जिसके बारे में सूचना है कि तकनीकी खामियों और लंबे प्रतीक्षा समय के कारण इसे नेविगेट करना काफी मुश्किल बना हुआ है।

टीका हासिल करने का विशेषाधिकार 

डॉ. भट्टी नई दिल्ली में प्राइवेट अस्पताल में काम करते हैं, जहाँ पर वे कोविड-19 के मरीजों के इलाज के प्रति जिम्मेदार हैं। लोगों का इलाज करते हुए उन्हें एक बात स्पष्ट हो गई कि: इस व्यवस्था को गरीबों और हाशिये के लोगों का उपचार करने के लिए नहीं बनाया गया है। समाज के इस तबके की मदद करने के लिए, उन्होंने और कुछ अन्य डाक्टरों ने मिलकर ग्रामीण भारत के लिए डॉक्टर्सऑनरोड पहल की शुरुआत की है, जो वायरस से लड़ने के लिए ग्रामीण भारतियों को कोविड-19 और टीकों के बारे में जागरूकता पैदा करने में मदद करती है और इसके साथ-साथ बुनियादी सुविधाएं भी प्रदान करती है।

भट्टी का मानना है कि भारत के टीकाकरण अभियान को मुख्यतया विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग के लिए लाया गया है। भट्टी के अनुसार, जो प्रोग्रेसिव मेडिकोज एंड साइंटिस्ट फोरम के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं, वे कहते हैं “इस व्यवस्था को गरीब लोगों के हिसाब से नहीं बनाया गया है, जिन्हें स्वास्थ्य सेवाओं को हासिल करने के लिए 100 किलोमीटर तक की यात्रा करनी पडती है। स्थिति की विडंबना यह है कि इस सबके बावजूद जब वे वहां तक पहुँच जाते हैं [स्वास्थ्य सेवा केन्द्रों], तब भी कोई मदद उपलब्ध नहीं होती क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित इन केन्द्रों में आवश्यक संसाधन या कार्यबल नहीं होता है या ये चालू हालत में नहीं होते हैं।” उनके अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में जरूरी परीक्षण का अभाव बना हुआ है, जिसके चलते मामलों की कम गिनती हो रही है। इसके अलावा, परीक्षण यदि हो भी जाता है, तो इसके नतीजों को आने में सात से दस दिन लग जाते हैं। भट्टी कहते हैं कि तब तक शायद मरीज वायरस के कारण इस दुनिया से चल बसता है- लेकिन परीक्षण के नतीजों में होने वाली देरी के कारण, इन मौतों को आधिकारिक कोविड-19 मौतों की गणना में शामिल नहीं किया जाता है।

वे कहते हैं “टीकाकरण नीति को गरीबों, वंचितों और ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए नहीं बनाया गया है। सरकार की मंशा पर गौर कीजिये। यहाँ पर दो वैक्सीन निर्माताओं [द सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया और भारत बायोटेक] के अलावा डॉ. रेड्डीज लैबोरेट्रीज द्वारा स्पुतनिक V का निर्माण किया जायेगा, जिसे 1,000 रूपये [लगभग 13$] में दिया जायेगा। हमें नहीं पता कि आखिर में इन्हें किस कीमत पर बेचेंगे, और क्या [राज्य या केंद्र] सरकारें जो इसे खरीदेंगी, इसकी पूरी लागत वहन करेंगी या नहीं। क्या भारत में पांच लोगों के परिवार वाले मध्य वर्ग या गरीब परिवार टीकाकरण कराने के लिए इतना अधिक भुगतान करने में सक्षम है, जब लॉकडाउन की वजह से उनके पास अपनी आजीविका का कोई साधन नहीं है? यह व्यवस्था ग्रामीण और गरीब विरोधी है। 

15 मई को प्रकाशित इकोनॉमिक टाइम्स के साथ एक साक्षात्कार में काउंसिल ऑफ़ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ़ जीनोमिक और इंटीग्रेटिव बायोलॉजी एंड इंडियन एसएआरएस-सीओवी-2 कंसोर्टियम ऑन जीनोमिक्स के निदेशक, डॉ. अनुराग अग्रवाल ने कहा था, “टीकाकरण स्तर...[ग्रामीण क्षेत्रों में] अच्छा नहीं चल रहा है...मैं ग्रामीण पक्ष पर टिप्पणी करने के लिए, सीधे तौर पर व्यक्तिगत ज्ञान या अंतर्दृष्टि या डेटा तक पहुँच के लिहाज से पर्याप्त रूप से सूचित नहीं हूँ। मुझे पता है कि भारत में भीतरी हिस्से बेहद विशाल हैं, मैं जानता हूँ कि वहां पर सुविधाओं की स्थिति का स्तर बेहद खराब है। किसी भी अन्य तर्कसंगत व्यक्ति की तरह, मैं भी ग्रामीण भारत के बारे में चिंतित हूँ।”

वायरस के उपचार के बारे में जागरूकता की कमी के बारे में बात करते हुए भट्टी कहते हैं, “ग्रामीण क्षेत्रों में मौतों का उचित तरीके से पंजीकरण नहीं हो रहा है, और न ही वायरस को लेकर सही तरीके से जांच की जा रही है, इसलिये वायरस के कारण हो रही कई मौतों की आंकड़ों में गिनती नहीं हो पा रही है।” वे आगे कहते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों और शहरी केन्द्रों में झुग्गियों में रहने वाले कई लोगों के पास मास्क और साबुन तक की उपलब्धता नहीं है और वे नहीं जानते हैं कि संक्रमित व्यक्ति को किस प्रकार से आइसोलेशन में रखा जाए। उनमें से अधिकांश के लिये, आइसोलेशन एक विशेषाधिकार है जिसे वे वहन करने की स्थिति में नहीं हैं, क्योंकि परिवार के कई सदस्य एक छोटे से कमरे में एक साथ रहते हैं।

पूर्वोत्तर भारत के एक पर्वतीय राज्य, मणिपुर में युवाओं और एलजीबीटीक्युआई समुदाय के साथ काम करने वाले गैर-लाभकारी संगठन, या आल की ओर से सदाम हंजाबम और उनकी टीम क्राउडफंडिंग के जरिये वहां के लोगों के लिये चिकित्सा सुविधा को व्यवस्थित करने की कोशिश में जुटी है। उन्होंने आपातकालीन स्थिति में चिकित्सा सुविधाओं को हासिल कर पाने में होने वाली कठिनाइयों और टीके पर स्पष्टता की कमी के बारे में बात की। उनका कहना था “मेडिकल क्लीनिक्स, जो अधिकांश मामलों में निजी स्वामित्व के अधीन हैं, शहर के केन्द्र में स्थापित हैं, और वहां तक पहुँचने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को किसी न किसी प्रकार के सार्वजनिक वाहन की जरूरत पड़ती है। लेकिन लॉकडाउन के दौरान सार्वजनिक वाहन उपलब्ध नहीं हैं, और ऐसी स्थिति में चिकत्सकीय सहायता को हासिल कर पाना उनके लिए उत्तरोत्तर एक चुनौती बनता जा रहा है।” भारत में जहाँ एक ओर वर्तमान में राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन नहीं लगाया गया है, वहीँ दूसरी तरफ विभिन्न राज्यों ने अपने राज्यों में लॉकडाउन उपायों को लागू कर रखा है।

हंजाबम, कोरोनावायरस की बीमारी से जुड़े कलंक के बारे में बताते हैं, जिसके चलते ग्रामीण क्षेत्रों में कई लोग अपने बीमार होने की बात को छिपाते हैं। “यह मौतों में वृद्धि के लिए जिम्मेदार है।”

वे आगे कहते हैं “मेरा टीकाकरण नहीं हुआ है। हमें बताया गया था कि 18 और उससे उपर [के उम्र के लोगों] के लिए 17 मई से टीके उपलब्ध हो जायेंगे, लेकिन [इम्फाल, मणिपुर] में बेहद कम स्लॉट उपलब्ध हैं। मुझे नहीं लगता कि मेरा इस साल टीकाकरण हो पायेगा।”

हंजाबम कहते हैं “टीकाकरण केन्द्रों का भी सही तरीके से प्रबंधन नहीं किया गया है। इन टीकाकरण केन्द्रों में टीकाकरण के लिए जिस प्रकार से भीड़ को अपनी बारी का इंतजार करना पड़ रहा है, उससे इन टीकाकरण केन्द्रों में जाने से वायरस से संक्रमित होने का खतरा उत्पन्न हो गया है।” उनके मुताबिक चूँकि प्रत्येक केंद्र पर टीके की उपलब्धता बेहद सीमित है, ऐसे में जो ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं जिन्हें नहीं पता कि वे कैसे अपने लिए अपॉइंटमेंट समय बुक कर सकते हैं, ने पहले से ही टीकाकरण की उम्मीद छोड़ दी है।  

इस बीच 15 मई को प्रधानमंत्री मोदी ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर, “घर-घर जाकर परीक्षण और निगरानी पर ध्यान केंद्रित करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा संसाधनों को बढ़ाने के लिए कहा था।”

डाउन टू अर्थ के अनुसार, जहाँ एक ओर “विश्व बैंक के मुताबिक 65 प्रतिशत से अधिक भारत ग्रामीण जिलों में निवास करता है... वहीँ दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रोफाइल 2019 के अनुसार, सरकारी अस्पतालों के मात्र 37 प्रतिशत बिस्तर ही ग्रामीण भारत में हैं।”

शहरी भारत की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है। मुंबई की एक वरिष्ठ वकील, अंबालिका बनर्जी मई के अधिकांश समये से टीकाकरण कराने के लिए अपॉइंटमेंट बुक कराने की कोशिश में लगी रहीं। बनर्जी कहती हैं “सरकार ने सभी वयस्कों के लिए टीकाकरण को क्यों खोल दिया, जब उसके पास टीकाकरण करने के लिए पर्याप्त टीके उपलब्ध नहीं हैं?”

बनर्जी के अनुसार “मैं अपने अपॉइंटमेंट के लिए बगैर किसी सफलता के तीन से चार घंटे जाया कर रही हूँ। कोविन वेबसाइट को नेविगेट कर पाना काफी कठिन काम है क्योंकि आप एक क्षण के लिए भी अपने लैपटॉप से ध्यान नहीं हटा सकते हैं, अन्यथा आपको एक बार फिर से लॉग इन प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा। प्रत्येक नागरिक को टीका पाने का अधिकार है; इसकी बजाय, इसे एक विशेषाधिकार के तौर पर माना जा रहा है। मैं एक शॉट के लिए [निजी अस्पताल के जरिये लगाने] 900 रूपये (12$) तक का भुगतान करने के लिए तैयार हूँ। ऐसा भी नहीं है कि इसे मुफ्त में मुहैय्या कराया जा रहा है।”

टीके की कीमत का निर्धारण कई कारकों पर निर्भर करता है, जिसमें व्यक्ति की उम्र, किस प्रकार के अस्पताल में इसे उपलब्ध कराया जा रहा है (वो चाहे सार्वजनिक हो या निजी), और किस तरीके से इसकी खरीद की गई है (क्या इसे केंद्र, राज्य या निजी क्षेत्र द्वारा ख़रीदा गया, और किस वैक्सीन निर्माता ने इसे बेचा है)। 

वैक्सीन मुहिम की हकीकत  

भारत ने अपने टीकाकरण अभियान को जनवरी के मध्य में शुरू किया था, जिसे फ्रंटलाइन एवं स्वास्थ्य सेवा में जुटे कर्मियों के प्राथमिकता समूहों को पेश किया गया था। दूसरे चरण में 60 वर्ष और उससे अधिक उम्र के लोगों और जो लोग 45 से 59 के बीच में ख़राब स्वास्थ्य हालतों के अधीन थे, का टीकाकरण देखा गया। 1 अप्रैल से, 45 साल और उससे अधिक के सभी लोगों के लिए टीकाकरण को खोल दिया गया था, और 1 मई से देश ने टीके की कमी का सामना करने के बावजूद, 18 वर्ष से अधिक उम्र के सभी वयस्कों के लिए टीकाकरण के लिए पंजीकरण को खोल दिया था। वास्तव में देखें तो मई में कई राज्यों को टीके की लगातार किल्लत की वजह से अपने टीकाकरण केन्द्रों को बंद करना पड़ा है। 

वर्तमान में, केंद्र दो निजी भारतीय निर्माताओं द्वारा उत्पादित सभी कोविड-19 टीकों की खुराक के 50 प्रतिशत हिस्से को राज्यों को प्रदान करने के लिए जिम्मेदार है: भारत बायोटेक, जिसने इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ वायरोलोजी के साथ मिलकर कोवाक्सिन विकसित की है, और दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीन निर्माता, सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया, जो कोविशिल्ड (एस्ट्राज़ेनेका से लाइसेंस प्राप्त) का उत्पादन कर रहा है। केंद्र ने वैक्सीन आपूर्ति का 50 प्रतिशत अपने जिम्मे लिया है जिसे वह राज्यों को मुफ्त में वितरित करेगी, बाकी के 50 प्रतिशत हिस्से को उसने राज्यों और निजी अस्पतालों को सीधे निर्माताओं से खरीदने के लिए छोड़ दिया है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया के एक विश्लेषण के अनुसार, निजी अस्पतालों द्वारा ख़रीदे जा रहे 25 प्रतिशत टीकों में से “बहुत कम” ग्रामीण क्षेत्रों में पहुँच रहे हैं।

टीके के घोर अभाव ने इस बीच राज्य सरकारों को मजबूरन टीकों की खरीद के लिए ग्लोबल टेंडर्स को जारी करने के लिए विवश कर दिया है, जिसके चलते राज्यों को अपने-अपने नागरिकों के टीकाकरण को सुनिश्चित करने के लिए एक दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने एक ट्वीट में इशारा किया है कि कैसे इस खरीद की रणनीति की वजह से देश की “ख़राब छवि” चित्रित हो रही है, यह कहते हुए कि इसके बजाय इस प्रक्रिया को केंद्रीकृत किये जाने की आवश्यकता है।

उन्होंने एक और ट्वीट में आगे कहा है कि अगर वैक्सीन निर्माताओं और देशों के वैश्विक समुदाय को अलग-अलग राज्यों के बजाय संयुक्त “भारत” के तौर पर संपर्क साधा जाता, तो हमारी मोलभाव की ताकत” काफी अधिक मजबूत होती, क्योंकि केंद्र सरकार के पास “इन देशों के साथ मोलभाव करने के लिए कहीं ज्यादा कूटनीतिक स्थान उपलब्ध है।” सच तो यह है कि फाइजर अरु मोडेरना ने कथित तौर पर “वैक्सीन के लिए भारतीय राज्यों से सौदा करने से” इंकार कर दिया है। 

भारत का टीकाकरण कार्यक्रम अपने केंद्रीयकृत स्वरुप के अभाव में दुहरी अपंगता का शिकार है- न सिर्फ केंद्र, राज्य और निजी क्षेत्र टीकों की खरीद में कितने सफल हैं, बल्कि निर्माताओं द्वारा प्रत्येक खरीदार के लिए प्रस्तावित मूल्य निर्धारण के मामले में भी। निर्माता केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और निजी अस्पतालों को वैक्सीन के लिए अलग-अलग कीमत बता रहे हैं। भारत की सर्वोच्च अदालत ने इस “अलग-अलग वैक्सीन के मूल्य निर्धारण” के पीछे की “तर्कसंगतता” पर सवाल खड़े कर दिए हैं। बिजनेस टुडे की खबर के मुताबिक केंद्र ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए केंद्र ने कहा है “केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और निजी बाजार के लिए कीमतों में यह अंतर उनके द्वारा मांगी गई मात्रा की वजह से है।”

जहाँ एक तरफ अधिकांश राज्यों ने वयस्कों को निःशुल्क टीका उपलब्ध कराने का फैसला लिया है, वहीँ प्राइवेट अस्पतालों से डोज लेने वालों को निश्चित तौर पर अपनी जेब से इसके लिए भुगतान करना होगा, जबकि अधिकांश देशों ने अपने नागरिकों के लिए टीकाकरण निःशुल्क कर दिया है। भेदभावपूर्ण मूल्य निर्धारण या राज्य सरकारों और निजी अस्पतालों को बढे हुए दरों पर टीकों को मुहैय्या करने से पड़ने वाले प्रभावों के बारे में बात करते हुए अर्थशास्त्री आर. रामकुमार ने फर्स्टपोस्ट को एक साक्षात्कार में बताया कि “इसका बड़ा दुष्प्रभाव इस प्रकार से पड़ने वाला है कि इससे भारत में लाखों-लाख और गरीब लोगों पर असर पड़ेगा, और उन्हें स्वास्थ्य उपाय तक पहुँच बना पाने से बाहर कर दिया गया है।”

केंद्र सरकार इस बीच टीकाकरण पर चारों तरफ से बन रहे दबाव के चलते एक नई योजना लेकर आई है, जिसमें यह दावा किया गया है कि 2021 के अंत तक समूची आबादी के टीकाकरण के लिये अगस्त और दिसंबर के बीच में उसके पास 2 अरब टीके उपलब्ध होंगे। यह बेहद महत्वाकांक्षी योजना लगती है जिसकी संभावना बेहद क्षीण है।

कैसे कार्रवाई की कमी से लोगों की जान चली गई 

1 जून तक, अमेरिका में 40.7 प्रतिशत या ब्राजील में 10.5 प्रतिशत आबादी के पूर्ण टीकाकरण के बरक्श भारत की 3.3 प्रतिशत आबादी का पूरी तरह से टीकाकरण किया जा सका।  

भारत में हर रोज करीब 3,000 मौतें हो रही हैं और देश में अभी तक कोरोनावायरस मामलों से जितनी मौतों की रिपोर्ट है, उस लिहाज से कुल मौतों के मामले में वह अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर है।

इस सबके बावजूद, केंद्र सरकार के सन्देश में स्वास्थ्य संकट की कमान अपने हाथ में लेने के बजाय सारा ध्यान अपनी छवि को बरकरार रखने पर है। इसने अपनी विफलताओं को स्वीकार करने से इंकार कर दिया है और वायरस के प्रसार को रोकने के लिए उपयोगी सूचना को साझा करने का कोई प्रयास नहीं किया है। जबकि भारत के स्वास्थ्य मंत्री, डॉ. हर्ष वर्धन तो लोगों को “कोरोनावायरस से तनाव को मुक्त करने के लिए “डार्क चाकलेट तक खाने की सलाह” दे रहे हैं। अभी हाल ही में उन्होंने एक हालिया लैंसेट रिपोर्ट, जिसमें सरकार द्वारा संकट से निपटने की आलोचना की गई थी, के खंडन के समर्थन में ट्वीट किया है।

दक्षिणपंथी मोदी सरकार द्वारा कोविड-19 के बारे में गलत सूचना और इसे कमतर आंकने में कुछ-कुछ अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के समान रुख दिखाया है, जिन्होंने कहा था कि लोगों को कोरोनावायरस से लड़ने के लिए कीटाणुनाशक का सेवन करना चाहिए, जिसे बाद में यह कह कर खारिज कर दिया कि वे “व्यंग्यात्मक” भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे। कोरोनावायरस की स्थिति से निपटने के लिए ट्रम्प और मोदी सरकार के बीच में कई अन्य समानांतर बातों को रखा जा सकता है। भारत की तरह ही अमेरिका में राज्य सरकारों को भी बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए संघीय सरकार से गुहार लगाते देखा गया था। ठीक ट्रम्प की तरह ही, जो राष्ट्रीय लॉकडाउन के आह्वान के खिलाफ थे, अब मोदी भी इस विचार से बचते दिख रहे हैं, जबकि विशेषज्ञों का मानना है कि इससे संक्रमण की दर पर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी। इसकी मुख्य वजह उस आलोचना के कारण है जिसे मोदी को पहली लहर के दौरान बेहद शार्ट नोटिस पर लॉकडाउन का आह्वान करने के कारण सामना करना पड़ा था। स्पष्ट जनादेश हासिल होने के बावजूद, दोनों नेताओं ने उन लोगों के विश्वास को चकनाचूर कर दिया, जिन्होंने उन्हें सत्ता तक पहुंचाया था।

इस बीच, भारत और इसका धीमा टीकाकरण अभियान शेष विश्व के लिए एक चेतावनी वाला किस्सा साबित हो रहा है। अफ्रीका के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के क्षेत्रीय निदेशक मात्सीदिसो मोएती ने कहा “भारत जैसी त्रासदी यहाँ अफ्रीका में नहीं घटित होती है, लेकिन हम सभी को पूरी तरह से सजग रहने की जरूरत है।” 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-

How Getting a Vaccine in India Is a ‘Privilege’ Especially For Those in Rural Areas

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