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कोविड-19 : कैसे भारत और कोवैक्स ने दक्षिण एशिया के देशों को निराश किया

भारत द्वारा अपने वायदे से मुकरने के बाद दक्षिण एशियाई देश वैक्सीन की व्यवस्था करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस बीच वैश्विक मंच कोवैक्स भी वैक्सीन उपलब्ध करवाने में नाकाम रहा है। नतीज़तन इस क्षेत्र में बहुत कम टीकाकरण हुआ है और वैक्सीन की व्यावसायिक खरीद बहुत ऊंची दरों पर की जा रही है।
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दक्षिण एशिया के देश वैक्सीन की कमी से जूझ रहे हैं। अबतक उनकी आबादी के बहुत छोटे हिस्से का ही टीकाकरण हो पाया है। अब जब नए कोविड वैरिएंट्स का ख़तरा फिर से बढ़ रहा है, ऐसे में यह देश ज़्यादा से ज़्यादा वैक्सीन इकट्ठा करने की कोशिश में हर दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं।

मालदीव को छोड़कर, दक्षिण एशिया के सभी देशों में टीकाकरण का स्तर, मतलब ऐसे लोग जिन्हें टीके की दोनों खुराक मिल चुकी हों, वह एशिया के औसत टीकाकरण (7.6%) से कम है। यहां सबसे आगे श्रीलंका (3.8%) और भारत (3.6%) हैं। जबकि नेपाल और बांग्लादेश अपनी आबादी के 2.6 फ़ीसदी हिस्से को ही दोनों खुराक उपलब्ध करवाने में सक्षम रहे हैं। वही पाकिस्तान में सिर्फ़ 1.5% लोगों को पूर्ण टीकाकरण हुआ है।

भारत की असफल वैक्सीन कूटनीति

जनवरी में भारत ने अपनी वैक्सीन कूटनीति के तहत वैक्सीन का निर्यात शुरू कर दिया था। लेकिन वैक्सीन मैत्री कार्यक्रम के तहत सिर्फ़ कुछ ही वैक्सीन उपलब्ध करवाने के बाद भारत ने मार्च, 2021 में आपूर्ति अचानक से रोक दी। क्योंकि भारत में मार्च के महीने में कोरोना की दूसरी लहर के चलते तेजी से नए मामलों की संख्या बढ़ रही थी, ऐसे में दूसरे देश अधर में लटक गए।

भारत ने यह वैक्सीन आपूर्ति, दान और निर्माताओं द्वारा व्यावसायिक बिक्री के साथ-साथ कोवैक्स मंच की प्रतिबद्धताओं के तहत उपलब्ध करवाई थीं। आकृति 2 में दक्षिण एशियाई देशों को 29 मई तक भारत द्वारा उपलब्ध कराए गए टीकों की संख्या दी गई है। 

भारत द्वारा अपने वायदे से मुकर जाने के चलते बांग्लादेश और नेपाल जैसे पड़ोसी देशों को अपना टीकाकरण अभियान रोकना पड़ा और दूसरे स्त्रोतों की तरफ देखना पड़ा। सिर्फ़ जून में जाकर इनमें से कुछ देश अपना टीकाकरण अभियान दोबारा शुरू कर पाने की स्थिति में होंगे। 

मई में साइनोफार्म को विश्व स्वास्थ्य संगठन की अनुमति मिलने के बाद, भारत के बजाए अब चीन दक्षिण एशिया में वैक्सीन आपूर्तिकर्ता बन गया है। चीन ने नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका के साथ वैक्सीन की आपूर्ति के लिए समझौते किए हैं, इनमें वैक्सीन की कीमत और मात्रा के संबंध में खुलासा ना करने की बाध्यता वाला उपबंध भी डाला गया है। इस कवायद से चीन को कूटनीतिक तौर पर भी मदद मिल रही है।

रिपोर्ट्स के मुताबिक़, यह देश भारत के सीरम इंस्टीट्यूट से बनने वाली कोविशील्ड वैक्सीन की तुलना में चीन को वैक्सीन के लिए ज़्यादा कीमत चुका रहे हैं। जैसे साइनोफार्म के लिए श्रीलंका 15 डॉलर और बांग्लादेश 10 डॉलर चुका रहा है। रिपोर्ट्स के मुताबिक़ यह देश दूसरे स्त्रोतों की तरफ भी देख रहे हैं। जैसे श्रीलंका जापान से, नेपाल डेनमार्क से और बांग्लादेश अमेरिका में अपने देश के मूलनिवासियों से वैक्सीन के लिए संपर्क कर चुका है।

पाकिस्तान प्राथमिक तौर पर चीनी वैक्सीन- साइनोफार्म, कैनसाइनोबॉयो और साइनोवैक इस्तेमाल कर रहा है। हाल में पाकिस्तान ने 13 मिलियन डोज के लिए फाइजर से समझौता किया है और रूस से 10 मिलियन डोज के लिए बातचीत कर रहा है।

अफ़गानिस्तान को विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा अप्रैल तक जो तीस लाख डोज मिलनी थीं, अब वह अगस्त तक नहीं मिलेंगी। वैक्सीन मैत्री के तहत अफ़गानिस्तान को भारत पहले ही मार्च में 9.68 लाख खुराक देकर अपनी आपूर्ति रोक चुका है। अफ़गानिस्तान ने भी चीन से साइनोफार्म की कुछ खुराक खरीदी हैं।

कोवैक्स- उम्मीदों से कमतर साबित हुआ वैश्विक मंच

एक साल पहले चालू किया गया वैश्विक वैक्सीन मंच कोवैक्स, अब अपने वायदे के मुताबिक़ वैक्सीन उपलब्ध करवाने में संघर्ष कर रहा है। अमीर देश, जिनके द्वारा कोवैक्स में योगदान दिया जाना था, उन्होंने इससे कन्नी काट ली है और अपने द्विपक्षीय खरीद समझौतों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।

लांसेट के एक लेख के मुताबिक़, "अब तक दुनियाभर में जो 2.1 अरब वैक्सीन की खुराक लगाई गई हैं, उनमें से कोवैक्स से सिर्फ़ 4 फ़ीसदी से भी कम वैक्सीन की ही आपूर्ति हुई है। मुख्य रूप से कोवैक्स के लिए जिस वैश्विक वैक्सीन मंच की कल्पना की गई थी, वह अब ख़त्म हो चुका है। कोवैक्स अब सिर्फ़ पारंपरिक तरीके के सहायता-दान कार्यक्रम पर निर्भर हो गया है, जिसके चलते कम आय वाले देश अब अमीर देशों और मुनाफ़े से चलने वाली कंपनियों की दया पर निर्भर रह गए हैं।"

अमीर देश अपनी आबादी के एक बड़े हिस्से का टीकाकरण कर चुके हैं। इन देशों को जितनी जरूरत थी, इन्होंने उससे ज़्यादा टीकों का ऊपार्जन कर लिया है। दूसरी तरफ अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के गरीब़ देश अपनी छोटी सी आबादी को भी टीके की दूसरी खुराक उपलब्ध करवाने में संघर्ष कर रहे हैं।

लांसेट का लेख आगे कहता है कि कोवैक्स में वैक्सीन की कमी के बावजूद, समझौते के चलते यह मंच पांच में से एक खुराक अमीर देशों के लिए आरक्षित करने को मजबूर है। मई के अंत तक कोवैक्स ने करीब़ 8 करोड़ खुराक कम और मध्यम आय वाले देशों को उपलब्ध करवाई हैं, वहीं मंच की तरफ से 2.2 करोड़ वैक्सीन अमीर देशों को दी गई हैं।

इस मंच के तहत सदस्य देशों को जितनी वैक्सीन का वायदा किया गया था, उसका एक बहुत छोटा हिस्सा ही उपलब्ध करवाया गया है। उदाहरण के लिए, दक्षिण एशिया में भारत को छोड़कर, जो कोवैक्स में योगदान देने वाला देश है, बाकी देशों में कोवैक्स मंच के तहत उपलब्ध कराई गई वैक्सीन की संख्या, आंवटन से बहुत कम है। 

नेपाल, श्रीलंका और अफ़गानिस्तान को कोवैक्स के तहत आवंटित वैक्सीन में से सिर्फ़ 18 फ़ीसदी ही भेजा गया है, जबकि बांग्लादेश को तो सिर्फ़ 1% आपूर्ति ही की गई है। बांग्लादेश कोवैक्स के ज़रिए एक डोज वाली जॉनसन वैक्सीन खरीदेगा, लेकिन यह वैक्सीन भी जून, 2022 से ही उपलब्ध हो पाएगी। 

ऊंची कीमतों पर व्यावसायिक खरीद

कोवैक्स द्वारा दक्षिण एशिया में वैक्सीन उपलब्ध करवाने में नाकाम रहने से व्यावसायिक खरीद बढ़ी है।

घरेलू स्तर पर, अलग-अलग वैक्सीनों के लिए कीमतें भिन्न हैं। फिर सरकार द्वारा और सीधे बाज़ार में उपलब्ध करवाई जाने वाली वैक्सीन की कीमतों में भी अंतर है। कोवैक्स AMC की वैक्सीन की एक खुराक के लिए कीमत 3 डॉलर निश्चित की गई है। 

हालांकि G7 देशों ने एक अरब वैक्सीन उपलब्ध करवाने का वायदा किया है। लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि यह "सागर जितनी की जरूरत में सिर्फ़ कुछ बूंद की आपूर्ति" है। वैश्विक स्तर पर 6.8 अरब लोग हैं, जिन्हें वैक्सीन लगना बाकी है। इनके लिए 13.6 अरब खुराक की जरूरत होगी। जिस एक अरब का वायदा G7 देशों द्वारा किया गया है, वह कुल जरूरत का महज़ 7.4 फ़ीसदी ही है। हाल में अमेरिका ने ऐलान किया है कि अब वह एशिया को 5.5 करोड़ के बजाए सिर्फ़ 1.6 करोड़ वैक्सीन खुराक उपलब्ध करवाएगा। 

अमीर देशों द्वारा जितनी मात्रा में वैक्सीन का एकत्रीकरण किया गया है, जो उनकी जरूरतों से कई गुना ज़्यादा है, उसकी तुलना में इतनी कम मात्रा में वैक्सीन उपलब्ध करवाने का वायदा सिर्फ़ एक मजाक है। इसके उलट, गरीब़ देश अपनी आबादी को वैक्सीन उपलब्ध करवाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। अब जब नए वैरिएंट सामने आ रहे हैं, तब इनकी आबादी को और भी ज़्यादा ख़तरा बढ़ गया है। क्या गैर-बराबरी इससे ज़्यादा कठोर हो सकती है?

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

COVID-19: How India and COVAX failed the South Asian Countries

 

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