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भारत की नई डाक नीति किस तरह लाखों लोगों को हाशिए पर धकेल रही है

भारतीय डाक की सब्सिडी वाली बुक पोस्ट सेवा को समाप्त करने का सरकार का फैसला, शिक्षा को एक परिवर्तनकारी और मुक्तिदायी सार्वजनिक लाभ के रूप में देखने की बुनियाद पर सीधा हमला करता है।
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शिक्षा न केवल व्यक्तिगत सशक्तिकरण का रास्ता है, बल्कि असमानता और उत्पीड़न के खिलाफ प्रतिरोध का एक शक्तिशाली ज़रिया तरीका भी है। भारतीय डाक की सब्सिडी वाली बुक पोस्ट सेवा को समाप्त करने का सरकार का हालिया निर्णय शिक्षा को एक परिवर्तनकारी और मुक्तिदायी सार्वजनिक लाभ पहुंचाने की कोशिश के रूप में देखने की नींव पर सीधा हमला करता है।

दशकों से, बुक पोस्ट सेवा किफायती पुस्तक वितरण को सुनिश्चित कर रही थी, जिससे आर्थिक रूप से वंचित समुदायों को शिक्षा सुलभ हुई है और पढ़ने की संस्कृति को बढ़ावा मिला है। इसके हटने से छात्रों, जमीनी स्तर के संगठनों और छोटे प्रकाशकों की बहुत ही महत्वपूर्ण जीवनरेखा समाप्त हो गई है, जिससे ज्ञान लाखों लोगों की पहुँच से बाहर हो गया है।

26 दिसंबर, 2024 को प्रेस सूचना ब्यूरो की विज्ञप्ति में ठेठ द्विअर्थी बात करने के षड्यंत्र को छिपाने का प्रयास किया गया है: कि 125 वर्षों के बाद किया गया एक विधायी सुधार है; कि इस अभ्यास का आदर्श वाक्य ‘डाक सेवा, जन सेवा’ है, जिसका उद्देश्य “अधिकतम शासन और न्यूनतम सरकार” और “आत्मनिर्भर भारत” है। सरल और संक्षिप्त भाषा में, इसका उद्देश्य “एक आवश्यकता के लिए एक उत्पाद” को समेकित करना और ‘व्यापार करने में आसानी’ को बढ़ावा देते हुए अतिरेक से बचना है। हालाँकि, करीब से जाँच करने पर, नए अधिनियम को सस्ती और सुलभ डाक सेवा के ताबूत में अंतिम कील के रूप में पहचानना मुश्किल नहीं है।

यह कोई अलग-थलग नीतिगत समायोजन नहीं है, बल्कि निजीकरण और निगमीकरण के एक बड़े नवउदारवादी एजेंडे का हिस्सा है। 1991 के एलपीजी (उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण) सुधारों के दिनों से ही निजी कूरियर कंपनियों को बढ़ावा और संरक्षण देने के ज़रिए इंडिया पोस्ट का व्यवस्थित विनाश किया गया। यह झूठे और तुच्छ आधारों पर एनएफपीई या नेशनल फेडरेशन ऑफ़ पोस्टल एम्प्लॉइज जैसे डाक कर्मचारी यूनियनों पर अंकुश लगाने और उनकी मान्यता समाप्त करने के साथ-साथ किया गया - चाहे वह 1995 में हो या ज़्यादा ख़ास तौर पर 2023 में किया उठाया कदम हो। ज़्यादा चिंता की बात यह है कि यह निषेधात्मक नीति पूरी तरह से पूर्ण नियंत्रण के बारे में है, जिसे ज्ञान तक पहुँच को प्रतिबंधित करने, असहमति को दबाने और प्रणालीगत असमानताओं को मज़बूत करने के लिए डिज़ाइन किया गया है।

आइए रजिस्टर्ड बुक पोस्ट को समाप्त करने और इसे रजिस्टर्ड पार्सल के साथ मिलाने के वर्तमान निर्णय की बारीकियों पर एक नज़र डालें। इसकी घोषणा इन शब्दों में की गई है “मौजूदा उत्पादों की अहमियत को कम होने को ध्यान में रखते हुए और एक ज़रूरत के लिए एक उत्पाद होने की दृष्टि से परिचालन दक्षता को अनुकूलित करते हुए मेल और पार्सल उत्पादों को युक्तिसंगत बनाया गया है, कर्मचारियों के बीच काम करने में आसानी और नागरिकों के बीच आसान समझ को बढ़ावा दिया गया है। सभी मौजूदा उत्पादों की विशेषताओं को प्रत्येक प्रकार के एक अम्ब्रेला उत्पाद में शामिल किया गया है। उदाहरण के लिए, विभिन्न उत्पादों को अलग-अलग दर स्लैब में बुक पैकेट के तहत व्यक्तिपरक वर्गीकरण के माध्यम से जाने के बजाय, बुक पैकेट, पैटर्न और सैंपल पैकेट और मुद्रित पुस्तकों वाले बुक पैकेट को एक उत्पाद में शामिल किया गया है”।

फिर भी, यह भारी लागत वृद्धि (5 किलो की एक पुस्तक पोस्ट के लिए यह 80 रुपये से बढ़कर लगभग 230 रुपये हो जाती है) को पूरी तरह से छुपाता है। एक संदिग्ध सेल्समैन की तरह, सरकारी मशीनरी बेशर्मी से नई नीति और मूल्य वृद्धि को “लोगों के पक्ष में” निर्णय के रूप में पेश करती है। हालाँकि, इस सब्सिडी को खत्म करके, सरकार शिक्षा को एक सार्वजनिक वस्तु से एक अभिजात वर्ग के विशेषाधिकार में बदलने की अपनी परियोजना को आगे बढ़ाती है, बहिष्कार के चक्र को जारी रखती है और सामाजिक स्तरीकरण को गहरा करती है।

विरासत को समाप्त करना

ऐतिहासिक रूप से, पुस्तकों के लिए भारत की रियायती डाक दरें शिक्षा के लोकतंत्रीकरण के प्रति उसकी प्रतिबद्धता का प्रतीक थीं। 1837 के डाकघर अधिनियम या 1898 के भारतीय डाकघर अधिनियम जैसे औपनिवेशिक कानूनों के तहत शुरू की गई और स्वतंत्रता के बाद के सुधारों के माध्यम से मजबूत की गई, इन सब्सिडी ने इस विचार का समर्थन किया था कि शिक्षा सभी के लिए होनी चाहिए, न कि केवल अमीरों के लिए होनी चाहिए। उन्होंने हाशिए पर पड़े समूहों, दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और आर्थिक रूप से वंचितों के लिए शैक्षिक सामग्री तक पहुँचना और अभाव के जड़ चक्र से मुक्त होना संभव बनाया था।

सब्सिडी दरों के खत्म होने से यह प्रगतिशील विरासत खत्म हो जाएगी। ग्रामीण और वंचित क्षेत्रों में लाखों छात्र, जो पहले से ही वित्तीय और भौगोलिक बाधाओं के कारण पारंपरिक संस्थानों से वंचित हैं, अब एक और बाधा का सामना कर रहे हैं। दूरस्थ शिक्षा कार्यक्रम, जो अध्ययन सामग्री वितरित करने के लिए सस्ती डाक सेवाओं पर निर्भर हैं, अत्यधिक महंगे हो जाएंगे। कई लोगों के लिए, यह उनकी शैक्षिक आकांक्षाओं के अंत का संकेत है।

छोटे प्रकाशक, जो वंचित तबकों को को बढ़ावा देते हैं और प्रमुख नेरेटिव को चुनौती देते हैं, वे भी खतरे में हैं। कम मार्जिन पर काम करते हुए, वे महत्वपूर्ण दृष्टिकोणों को वितरित करने के लिए सस्ती डाक पर निर्भर हैं, जिन्हें मुख्यधारा का मीडिया अक्सर अनदेखा कर देता है। बढ़ी हुई लागत कई लोगों को व्यवसाय से बाहर कर देगी, वैकल्पिक नेरेटिव को चुप करा देगी और बौद्धिक नियंत्रण को मजबूत करेगी। इनमें से कई छोटे प्रकाशक क्षेत्रीय भाषा के उद्यम हैं जो हमारे लोगों की जीवंत बहुभाषावाद को बढ़ावा दे रहे हैं। यह मूल्य वृद्धि उनके लिए अस्तित्व का खतरा है और सांस्कृतिक लेन-देन को प्रतिकूल रूप से प्रभावित और खराब करेगी।

ज्ञान तक पहुँच को जानबूझकर सीमित करना साहित्य में दी गई भयावह चेतावनियों की याद दिलाता है। जॉर्ज ऑरवेल की किताब, 1984, ने एक ऐसे समाज का चित्रण किया जहाँ आलोचनात्मक विचारों को व्यवस्थित रूप से दबाकर सत्ता बनाए रखी जाती थी, जबकि रे ब्रैडबरी की फारेनहाइट 451 ने एक ऐसी दुनिया की कल्पना की जहाँ विचारों और असहमति को दबाने के लिए किताबें जलाई जाती थीं। आज, भारत इन भयावह परिदृश्यों को दर्शाता है; किताबों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने या उन्हें जलाने से नहीं, बल्कि उन लोगों की पहुँच से बाहर करके जिन्हें उनकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।

असमानताओं को बढ़ाना

यह नीति मौजूदा असमानताओं को और बढ़ाती है, खास तौर पर ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर पड़े समुदायों को वंचित करती है। दलित और आदिवासी, जो अक्सर खराब बुनियादी ढांचे वाले दूरदराज के इलाकों में रहते हैं, किताबों और शैक्षिक सामग्री तक पहुँचने की लागत बढ़ने के कारण बढ़ती बाधाओं का सामना करते हैं। महिलाओं, खास तौर पर पितृसत्तात्मक और गरीब घरों में, और भी अधिक पीड़ित होने की संभावना है, क्योंकि परिवार पुरुष सदस्यों के लिए सीमित संसाधनों को प्राथमिकता देते हैं।

इसके अलावा, यह धारणा कि ऑनलाइन स्रोत भौतिक पुस्तकों की जगह ले सकते हैं, मौलिक रूप से त्रुटिपूर्ण है। कई दूरदराज के इलाकों में अभी भी इंटरनेट की उपलब्धता कम है या नहीं है, जिससे डिजिटल संसाधनों तक पहुँच अविश्वसनीय या असंभव हो जाती है।

इसके अलावा, ऑनलाइन क्षेत्रीय भाषा की पठन सामग्री की कमी गैर-अंग्रेजी भाषी आबादी को और भी अलग-थलग कर देती है, जिससे उनके पास सीखने और आत्म-सुधार के लिए और भी कम विकल्प रह जाते हैं। इन समुदायों के लिए, सस्ती मुद्रित पुस्तकें और सामग्री शिक्षा और सशक्तिकरण के लिए अपरिहार्य उपकरण बनी हुई हैं।

वंचित समुदायों को सशक्त बनाने के लिए महत्वपूर्ण जमीनी स्तर के संगठनों पर भी बुरा असर पड़ा है। सस्ती शैक्षिक सामग्री उनकी जीवनरेखा रही है - जागरूकता बढ़ाने और कार्रवाई को संगठित करने के लिए आवश्यक उपकरण रही हैं। डाक खर्च बढ़ने से ये संगठन शिक्षित करने, संगठित करने और उत्पीड़न का विरोध करने की अपनी क्षमता खो देते हैं। इससे सामूहिक आंदोलन कमज़ोर होते हैं और वंचित समुदायों को समाज के हाशिए पर रखने वाली संरचनात्मक बाधाएँ और बढ़ जाती हैं।

यह नीति समानता के साधन के रूप में शिक्षा के लोकतांत्रिक आदर्श से पीछे हटने का संकेत देती है। इसके बजाय, यह यथास्थिति को मजबूत करती है, यह सुनिश्चित करती है कि ज्ञान विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के हाथों में ही केंद्रित रहे। मुद्रित सामग्री को लगातार दुर्गम बनाकर, सरकार शिक्षा तक पहुँच रखने वालों और शिक्षा से वंचित लोगों के बीच की खाई को चौड़ा कर रही है, जिससे हाशिए पर पड़े समुदाय और भी हाशिए पर चले गए हैं।

नियंत्रण जमाने का एजेंडा

सब्सिडी वाले डाक दरों को हटाना एक वित्तीय उपाय से कहीं ज़्यादा है - यह एक राजनीतिक कार्य है। यह शिक्षा का निजीकरण करने, असहमति को दबाने और सत्ता को मजबूत करने के सरकार के व्यापक एजेंडे से मेल खाता है। पुस्तकों और शैक्षिक संसाधनों तक पहुँच को प्रतिबंधित करके, राज्य बौद्धिक स्वतंत्रता को कमज़ोर कर रहा है, जो लोकतंत्र की आधारशिला है।

निजीकरण असमानताओं को और मजबूत करता है, शिक्षा को बाजार संचालित वस्तु में बदल देता है। सार्वजनिक संस्थान, जो कभी सस्ती शिक्षा की रीढ़ थे, लाभ-उन्मुख निजी संस्थाओं के पक्ष में व्यवस्थित रूप से खत्म हो रहे हैं। डाक शुल्क में बढ़ोतरी इस प्रवृत्ति को और तेज करती है, जिससे आर्थिक रूप से वंचित समूहों के लिए ज्ञान तक पहुँचना मुश्किल होता जा रहा है।

स्वतंत्र प्रकाशक जो सत्ता को चुनौती देने वाले और बहस को बढ़ावा देने वाले आलोचनात्मक साहित्य उपलब्ध कराते हैं, वे सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए हैं। ऐसी सामग्रियों के वितरण पर आर्थिक अवरोध लगाकर, सरकार प्रभावी रूप से असहमति को दबाती है और बौद्धिक स्पेस को सीमित करती है।

यह रणनीति राज्य के हस्तक्षेप के पैटर्न में अच्छी तरह से फिट बैठती है जिसका उद्देश्य नेरेटिवों को नियंत्रित करना है। चाहे सेंसरशिप के माध्यम से, आलोचनात्मक साहित्य पर प्रतिबंध के माध्यम से, या अब, आर्थिक दुर्गमता के माध्यम से, लक्ष्य स्पष्ट है: आलोचनात्मक विचार के साधनों को सीमित करना और वैकल्पिक दृष्टिकोणों को दबाना।

ऑरवेल ने इतिहास के पुनर्लेखन के माध्यम से बौद्धिक नियंत्रण की चेतावनी दी थी, जबकि ब्रैडबरी ने विचारों से डरने वाले समाज का चित्रण किया था। भारतीय सरकार अब इन तरीकों को गुप्त रूप से अपना रही है, कठोर प्रतिबंध और सामूहिक रूप से किताबें जलाने की जाघ आर्थिक अवरोध लगा रही है, जिससे वही भयावह परिणाम हो रहे हैं।

प्रतिरोध के रूप में शिक्षा

शिक्षा प्रतिरोध की आधारशिला है। यह व्यक्तियों को आलोचनात्मक रूप से सोचने, अन्याय पर सवाल उठाने और वैकल्पिक भविष्य की कल्पना करने में सक्षम बनाती है। पुस्तकों को आर्थिक रूप से दुर्गम बनाकर, सरकार न केवल सूचना तक पहुँच से वंचित कर रही है, बल्कि सक्रिय रूप से बौद्धिक स्वतंत्रता को कमजोर कर रही है जो लोकतांत्रिक प्रतिरोध को बनाए रखती है।

डाक दरों में यह बढ़ोतरी कोई तटस्थ आर्थिक समायोजन नहीं है, यह ज्ञान के लोकतंत्रीकरण को खत्म करने की एक सोची-समझी चाल है। यह वंचित समूहों के लिए नई बाधाएं खड़ी करता है, जमीनी स्तर के आंदोलनों को दबाता है और सामूहिक प्रगति की क्षमता को खत्म करता है।

इसके परिणाम बहुत भयानक हैं। एक ऐसा समाज जहाँ शिक्षा एक विशेषाधिकार है, न कि अधिकार, सत्ता को चुनौती देने, प्रगति की कल्पना करने और समानता को बढ़ावा देने की अपनी क्षमता खो देता है। जैसा कि ऑरवेल ने चेतावनी दी थी, ज्ञान तक पहुँच को नियंत्रित करने वाला राज्य अपने लोगों की आत्मा को नियंत्रित करता है। इसी तरह, ब्रैडबरी की चेतावनी, किताबों के बिना दुनिया के बारे में, क्योंकि उन्हें जला दिया जाता है, एक ऐसे समाज के खतरों को रेखांकित करता है जो विचार और रचनात्मकता को दबाता है।

कार्रवाई का आह्वान

वर्तमान निर्णय का विरोध किया जाना चाहिए - न केवल उन लोगों के लिए जो सीधे प्रभावित हैं, बल्कि उन लोकतांत्रिक आदर्शों के लिए भी जो इससे खतरे में हैं। शिक्षकों, छात्रों, प्रकाशकों और नागरिकों को एकजुट होकर यह मांग करनी चाहिए कि शिक्षा और ज्ञान सार्वभौमिक अधिकार बने रहें, न कि कुछ धनी लोगों के लिए विशेषाधिकार।

डाक दरों में इस बढ़ोतरी के खिलाफ लड़ाई हमारे लोकतंत्र की आत्मा की एक लड़ाई है। अगर इसे चुनौती नहीं दी गई तो यह असमानताओं को और बढ़ा देगा, आलोचनात्मक आवाज़ों को चुप करा देगा और न्यायपूर्ण और समतापूर्ण समाज की नींव को नष्ट कर देगा। आइए इस पल को हमें शिक्षा को एक सार्वजनिक वस्तु के रूप में संरक्षित करने और एक ऐसे भविष्य के लिए हमारी प्रतिबद्धता को सुनिश्चित करने के लिए प्रेरित करें जहाँ ज्ञान तक पहुँच का जश्न मनाया जाता है, न कि उसे वस्तु के रूप में देखा जाता है। निष्क्रियता की कीमत सिर्फ़ किताबों का नुकसान या अदृश्य होना नहीं है, बल्कि आज़ादी का नुकसान भी है।

डॉ. एन. सचिन, दिल्ली विश्वविद्यालय के दयाल सिंह कॉलेज में अंग्रेजी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। डॉ. शिरीन अख्तर, दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज में अर्थशास्त्र विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। ये विचार उनके निजी हैं।

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