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उत्तराखंड के नेताओं ने कैसे अपने राज्य की नाज़ुक पारिस्थितिकी को चोट पहुंचाई

पिछले पांच वर्षों में राज्य की सरकार ने वन-विरोधी, नदी-विरोधी और वन्यजीव-विरोधी फैसले लिए हैं और हैरत की बात तो यह कि प्रदेश के किसी भी नेता ने इसे रोकने के लिए अपनी तरफ से कोई हस्तक्षेप नहीं किया।
Uttarakhand Wildlife
जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क में हिरण। प्रतिनिधिक छवि।

उत्तराखंड के वन मंत्री हरक सिंह रावत ने फिर दोहराया है कि उन्हें 2022 के विधानसभा चुनाव में कोई दिलचस्पी नहीं है। उनके इस बयान को उनकी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि रावत को विधानसभा चुनाव का टिकट न मिले।

पिछले पांच सालों में हरक सिंह रावत की निगरानी वाले राज्य के वन विभाग का हर फैसला वन-विरोधी, नदी-विरोधी और वन्यजीव-विरोधी रहा है। राज्य में प्राकृतिक आपदाओं की बारम्बरता और उनकी तीव्रता खतरनाक रूप से बढ़ी है। इनको देखते हुए बुनियादी संरक्षण के विचारों-सिद्धांतों के प्रति वन मंत्री रावत की पूर्ण अवहेलना किसी को भी हतप्रभ कर देती है। जब राज्य सरकारें ही नियम-पुस्तिका में बताए गए हर आदेश का उल्लंघन करती हैं तो फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ग्लासगो में कैसे यह घोषणा कर सकते हैं कि भारत पर्यावरण मानदंडों की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है?

उत्तराखंड में दो सबसे प्रसिद्ध वन्यजीव अभयारण्य हैं- जिम कॉर्बेट टाइगर रिजर्व और राजाजी नेशनल पार्क। इन दोनों अभयारण्यों को बीचोबीच एक सड़क बना कर उन्हें विभाजित करने की अनुमति ली जा रही थी। राज्य का वन विभाग जिम कॉर्बेट रिजर्व में सड़क बनाने की परियोजना का प्रमुख प्रस्तावक था। यह अभयारण्य देश में उन गिने-चुने रिजर्व में आता है, जहां बाघ की ठीक-ठाक आबादी है। प्रस्तावित मार्ग के जरिए रामनगर को मंत्री के निर्वाचन क्षेत्र कोटद्वार से जोड़ा जाना था पर शुक्र है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस परियोजना को खारिज कर दिया। हालांकि इसके बावजूद वन मंत्री ने कॉर्बेट पार्क के अंदर जारी अवैध निर्माणों से आंखें मूंदे रहे। इन निर्माणों में कथित तौर पर प्रतिपूरक वनरोपण और योजना प्राधिकरण के फंड को डायवर्ट किया गया है।

राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण ने इन अनधिकृत इमारतों को गिराने का आदेश दिया है, लेकिन सवाल है कि इन निर्माण की अनुमति पहले किसने और किस आधार पर दी? अब ये प्राकृतिक पर्यावास वहां पहले से जारी आवास निर्माण की प्रक्रिया में पहले ही नष्ट हो चुके हैं।

राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के भीतर लालढांग और चिल्लरखाल के बीच एक सड़क बनाने के उत्तराखंड सरकार के प्रस्ताव को रद्द करने के लिए एक बार फिर उच्चाधिकार प्राप्त समिति और सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा।

सरकार वन्यजीव संबंधी मंजूरी को पहले हासिल किए बिना ही यह निर्माण कर रही थी। राज्य सरकार अभी भी आंशिक रूप से अपना रास्ता बनाने और लालढांग और चिल्लरखाल के बीच सड़क के एक छोटे हिस्से का निर्माण करने में सफल रही है, जहां कॉर्बेट टाइगर रिजर्व राजाजी राष्ट्रीय उद्यान से मिलता है।

इसके बाद उत्तराखंड सरकार ने केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से संपर्क कर  उन्हें बताया कि रक्षा उद्देश्यों के लिए कॉर्बेट के माध्यम से सड़क आवश्यक है, क्योंकि यह गढ़वाल राइफल्स मुख्यालय को रानीखेत में कुमाऊं रेजिमेंट मुख्यालय से जोड़ेगी। राज्य सरकार ने इस संबंध में इसी आशय का एक पत्र राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल को भी भेजा था।

पिछले पर्यावरण नियमों से लाभ उठाने के लिए रक्षा और राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं का हवाला देना सबसे सुविधाजनक बहाना है। सुप्रीम कोर्ट ने चारधाम सड़क को पेव्ड सोल्जर के साथ डबल-लेन बनाने की अनुमति दी है, हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि इसके निर्माण ने क्षेत्र को आपदा के लिहाज से मुफीद बना दिया है। पिछले तीन वर्षों में, उत्तराखंड ने एक के बाद एक जानलेवा भूस्खलन का सामना किया है, जिसमें बड़े सड़क मार्ग सप्ताहों से लगातार बंद हैं। वैज्ञानिकों द्वारा खतरनाक परिणामों के बारे में चेतावनी दिए जाने के बावजूद अदालत से रक्षा और सुरक्षा के आधार पर मंजूरी मिल गई है।

हालांकि इन सबमें उत्तराखंड सरकार का सबसे निर्मम फैसला था 2020 में राज्य के एकमात्र हाथी अभयारण्य शिवालिक हाथी रिजर्व को गैर अधिसूचित किया जाना। ऐसा जॉली ग्रांट हवाई अड्डे के विस्तार के लिए किया गया था, हालांकि हवाई अड्डे के अधिकारी वैकल्पिक स्थलों पर विचार करने के लिए तैयार थे।

शिवालिक रिजर्व राज्य के वन प्रभागों का अभिन्न अंग है, जो देहरादून, हरिद्वार, लैंसडाउन, हल्द्वानी, टनकपुर और रामनगर में फैले हुए हैं और इसमें कॉर्बेट रिजर्व और राजाजी पार्क के कुछ हिस्से भी शामिल हैं। यहां तक कि केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय भी इस क्षेत्र को गैर-अधिसूचित करने वाले अविश्वसनीय आदेश से हैरान रह गया था और उसने एक पत्र लिखकर कहा कि डायवर्जन के लिए प्रस्तावित क्षेत्र उच्च संरक्षण मूल्य का है और नदी के किनारे के जंगलों को विखंडित कर देगा।

राज्य के मुख्य वन्यजीव वार्डन जबर सिंह सुहाग ने हाथी रिजर्व का बचाव नहीं किया। इसकी बजाय, उन्होंने जनवरी 2021 में कहा, "आज, इसे हाथी रिजर्व नाम दिया गया है। कल कुछ बटरफ्लाई रिजर्व आ जाएगा। इस तरह तो उत्तराखंड में कोई काम ही नहीं हो सकता।” सुहाग ने हाथी गलियारे के अस्तित्व के बारे में उत्पन्न चिंताओं को खारिज करते हुए मौज में कहा, "हाथी कहीं से भी गुजर सकते हैं" और जानवरों की निर्बाध आवाजाही के लिए फ्लाईओवर बनाने का सुझाव दिया।

इस तरह के ट्रैक रिकॉर्ड वाले वनपाल को कम से कम किसी भी देश में फटकार लगाई जाएगी, लेकिन जाहिर तौर पर उत्तराखंड (भारत) में नहीं। इस पूरे प्रकरण पर रोक लगाने और राज्य सरकार से यह सवाल पूछने के लिए कि "प्रकृति के रक्षक इस तरह के विनाश को कैसे अंजाम दे सकते हैं?" मार्च 2021 में मामले को उत्तराखंड उच्च न्यायालय के सिपुर्द कर दिया गया था।

हां, वास्तव में, वे विनाश कैसे कर सकते हैं? उत्तराखंड में चुनावी उन्माद के चरम पर हैं और  गंगा के किनारे सैकड़ों ट्रैक्टर रेत और पत्थर ढोते हुए दिखाई दे रहे हैं। हालाँकि कांग्रेस और भाजपा दोनों ने गंगा, यमुना और अन्य नदियों पर रेत खनन को समाप्त करने का वादा किया है, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और कांग्रेस नेता राहुल गांधी सहित किसी भी नेता ने, जिन्होंने चुनावी रैलियों को संबोधित किया है, ने कभी इस मुद्दे का उल्लेख नहीं किया है। [राजनीतिक हलकों में यह अफवाह है कि हरक सिंह रावत कांग्रेस पार्टी में लौटना चाहते हैं, जिसे उन्होंने भाजपा में शामिल होने के लिए छोड़ दिया था।]

हम कुछ प्रमुख पुलों के ध्वस्त होने से रेत खनन की सीमा का अनुमान लगा सकते हैं, जो राज्य में अत्यधिक निकासी के कारण ढह गए हैं। इनमें देहरादून को ऋषिकेश से जोड़ने वाला महत्त्वपूर्ण रानी पोखरी पुल, सोंग नदी पर बना सहस्रधारा से मालदेवता को जोड़ने वाला पुल, और गौला नदी पर करोड़ों की लागत से बना हल्द्वानी पुल, जो 9 अक्टूबर को ढह गया था, वे सब शामिल हैं।

यदि ये पर्याप्त नुकसान नहीं थे, तो हाल ही में नदी की तलहटी खनन की अनुमति देने वाले एक आदेश से राज्य के राजनेताओं के लालच और हद दर्जे की पर्यावरण-उपेक्षा का अनुमान लगाएं। इनसे उत्तर भारत के जल संसाधन खतरे में पड़ जाएंगे क्योंकि कई महत्त्वपूर्ण नदियाँ हिमालय से निकलती हैं। वर्तमान में इन नदी तलों पर भारी मशीनें चल रही हैं, जिनसे भारी तबाही हो रही है।

पर्यावरणविद लवराज सिंह ने नई रेत खनन नीति को उत्तराखंड उच्च न्यायालय में चुनौती दी है। उनकी जनहित याचिका पर अभी सुनवाई चल रही है, लेकिन नदियों के किनारे रहने वाले लोग इस बात को लेकर पीड़ित हैं कि कैसे मशीनों के जरिए खनन कर क्षेत्र की पारिस्थितिकी को नष्ट किया जा रहा है।

पर्यावरणप्रेमियों के विरोध जताने एवं अदालतों की कई सख्ती के बावजूद, उत्तराखंड सरकार अपने विनाशकारी रास्ते पर अग्रसर है। राज्य सरकार और भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण टिहरी बांध के पास जॉली ग्रांट हवाई अड्डे से कोटी कॉलोनी तक 30 किलोमीटर लंबी सड़क और सुरंग बनाने पर जोर दे रहे हैं। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने इस डबल लेन सुरंग के लिए मंजूरी मांगी है, जो बनने पर दुनिया में सबसे लंबी सुरंग हो सकती है। सरकार ने फैसला किया है कि वह इस पर एक विस्तृत परियोजना रिपोर्ट तैयार करेगी, लेकिन हिमालय क्षेत्र की नाजुकता, जहां मानवजनित या प्रदूषण पैदा करने वाली मानवजनित गतिविधियां बहुत अधिक हैं, उन्हें देखते हुए यह परियोजना पारिस्थितिकी पर एक बड़ा सवालिया निशान है।

यह बहुत संभव है कि न्यायालय के हड़काने के बाद वन मंत्री रावत ने वन की परिभाषा को बदल कर पुराने पर्यावरण नियमों को हासिल करना सबसे आसान रास्ता अपनाने का फैसला किया हो। इसलिए राज्य ने एक नया अध्यादेश जारी किया जिसमें कहा गया था कि "10 हेक्टेयर या उससे अधिक के किसी भी भूमि के टुकड़े पर 60 प्रतिशत सघन आच्छादन और 75 प्रतिशत देशी पौधों की प्रजातियों को अधिसूचित वनों के अलावा अन्य माना जाएगा"।

पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित और नैनीताल के एक कार्यकर्ता शेखर पाठक ने एक बयान जारी किया है कि यह पुनर्परिभाषा वन संरक्षण अधिनियम, 1980 को कमजोर करने का एक स्पष्ट प्रयास है, जिससे वन भूमि के और दुरुपयोग की छूट मिल जाती है। वन मंत्री रावत ने आलोचकों को यह कहते हुए जवाब दिया है कि यह निर्णय विशेषज्ञों और अधिकारियों के साथ गहन परामर्श के बाद ही लिया गया है। लेकिन असली मंशा केंद्र की पूर्व मंजूरी के बिना जमीन को डायवर्ट करना है। एक अन्य पर्यावरण कार्यकर्ता रीनू पॉल ने इस परिभाषा में फेरबदल के खिलाफ नैनीताल उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की है।

उत्तराखंड का 'विकास' विचित्रता की हद तक है। सबसे खूबसूरत पैदल रास्तों में से एक नौ किलोमीटर का किपलिंग ट्रायल है, जो देहरादून को मसूरी से जोड़ता है। यह सभी मौसम के लिहाज से उपयुक्त घुड़सवारों के चलने का भी रास्ता है,जिस पर भारत में जन्मे ब्रिटिश पत्रकार-लेखक रुडयार्ड किपलिंग ने 1880 के दशक में ट्रेकिंग की थी और अपने उपन्यास 'किम' में इस बात का जिक्र किया था कि पहाड़ों के प्राकृतिक सौंदर्यशास्त्र को बिगाड़ते हुए उसका कंक्रीटकरण किया जा रहा है।

इन सभी कदमों ने पहले से ही आपदाग्रस्त इस राज्य में जलवायु परिवर्तन की आपदाओं को जन्म दिया है। फरवरी 2021 की चमोली आपदा, जिसमें कई लोग मारे गए थे, वह इसी   का सिर्फ एक और प्रकटीकरण थी। अक्टूबर के अंत में रिकॉर्ड तोड़ बेमौसम बारिश ने कम से कम 250 किमी वन भूमि को बहा दिया है। वन विभाग के आंकड़ों से पता चलता है कि पांच प्रमुख नदियों, गौला, नंधौर, कोसी, शारदा और रामगंगा में आई विप्लवकारी बाढ़ के साथ इनके आसपास बसे जंगल भी बह गए थे।

ये पांचों नदियाँ कॉर्बेट टाइगर रिजर्व और अन्य जैव विविधता संपन्न क्षेत्रों से होकर बहती हैं। इनसे करीब 600 किमी जंगल की सड़कें भी नष्ट हो गईं हैं लेकिन इनसे न तो वन मंत्री और न ही मुख्यमंत्री चिंतित हैं। उनका तो एकमात्र फोकस राज्य में किसी भी तरह सत्ता में वापसी पर है। भले इस बीच, उत्तराखंड की जनता अपनी नदियों, जंगलों और पहाड़ियों के निरंतर विनाश का सामना करे।

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

How Uttarakhand Leaders Hurt the Fragile Ecology of their State

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