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इलेक्शन हैकिंग : क़िस्से दूर और पास के

नेटफ़्लिक्स की फ़िल्म, “The Great Hack”, कैम्ब्रिज एनालिटिका और ट्रम्प के चुनावों पर ध्यान केद्रित करती है, बताती है कि कैसे एक वैश्विक दक्षिणपंथी नेटवर्क बड़े धन और गहन विभाजनकारी संदेश का इस्तेमाल कर के चुनावों को प्रभावित करता है।
इलेक्शन हैकिंग

नेटफ़्लिक्स फ़िल्म "The Great Hack” ट्रम्प के 2016 के चुनावों में कैम्ब्रिज एनालिटिका की भूमिका से संबंधित कुछ बड़े मुद्दे सामने रखती है - कि कैसे वैश्विक तकनीकी दिग्गजों से हमारे लोकतंत्र को ख़तरा पैदा हो गया है। यह फ़ेसबुक डाटा नहीं है जिसे कैम्ब्रिज ने "हैक" कर लिया था, बल्कि पुरा चुनाव ही हैक कर लिया गया था। और जो दांव पर लगा है वह सिर्फ़ एक चुनाव नहीं है, बल्कि लोकतंत्र का सारा भविष्य है। अगर चुनावों को हैक किया जा सकता है, तो लोकतंत्र को भी हैक किया जा सकता है। फ़िल्म हमारे समय के एक मौलिक सवाल को उठाती है: क्या ज़्यादातर जगहों में ज़्यादा से ज़्यादा चुनावों को अच्छी डाटा "टीम" द्वारा जीता जा सकता है, वो डाटा टीम जो पैसों से ख़रीदी जाती है?

भारत में 2014 और 2019 में हुए आम चुनाव पर भी कुछ इसी तरह के सवाल उठ रहे हैं। शिवम सिंह की किताब, हाउ टू विन एन इंडियन इलेक्शन में जीत का वही समान आधार शामिल है जो बताता है कि चुनाव को वास्तव में बड़े धन और बड़े डाटा के इस्तेमाल से हैक किया जा सकता है।

चुनावों में विज्ञापन और मीडिया सलाहकारों की भूमिका कोई नई बात नहीं है। मास मीडिया में हुई बढ़ोतरी से, साबुन और डिटर्जेंट बेचने के तरीक़े भी राजनीति को बेचने के तरीक़े बन गए हैं। अब जो इसमें जुड़ गया है वह है माइक्रो टारगेटिंग (यानी नीचे के स्तर पर निशाना साधना) की शक्ति: जानकारी के आधार पर प्रत्येक व्यक्ति से जुड़ना, हर समय की ख़बर रखना, वो ख़बर जो हमारे ज़हन में टिक-टिक करती है। आज की तारीख़ में एक औसत व्यक्ति डिजिटल प्लेटफॉर्म पर 5,000 डाटा प्वाइंट उत्पन्न करता है और पर्याप्त डिजिटल छाप भी छोड़ता है; इनका उपयोग बड़ी डाटा कंपनियां हमारी व्यक्तिगत पसंद को ध्यान में रख लक्षित विज्ञापनों के ज़रिये हमें निशाना बनाती हैं। यह वही डाटा है जिसने गूगल, फ़ेसबुक और अमेज़ोन - और अब अलीबाबा और वीचैट को दुनिया की दस सबसे बड़ी और शक्तिशाली कंपनियां बना दिया है।

हम इसके बारे में बहुत कुछ जानते हैं। “The Great Hack” हमें समझाता है कि इनमें से बहुत सारे "उपकरण" सैन्य मनोवैज्ञानिक कार्यों (या सायोप्स) और साइबर युद्ध तकनीकों से आए हैं। इन्हे निर्यात नियंत्रण व्यवस्था के तहत हथियार के रूप में भी वर्गीकृत किया गया है। इन उपकरणों का उपयोग किसी भी देश में घृणा, विघटन और विभाजन को पैदा करने या जनसाधारण में फैलाने के लिए किया जाता है - दूसरे शब्दों में "दुश्मन" के रैंक में फ़र्ज़ी समाचार को फैलाना - या उन देशों में किसी भी लक्षित आबादी को शासन परिवर्तन के लिए उकसाने के लिए इस्तेमाल करना शामिल है।

फ़िल्म की अन्य अंतर्दृष्टि यह है कि चुनाव में मतों का बहुमत नहीं है जो चुनावी जीत को सुनिश्चित करता है। चुनाव जीतने के लिए वोटों को आम तौर पर तय किया जाता है, और जिन्हें शिफ़्ट करना मुश्किल होता है। जो ख़ास मायने रखता है वह वोटों का एक छोटा सा हिस्सा है। अगर इन वोटों को शिफ़्ट कर दिया जाता है, तो वे चुनाव को हार से जीत की ओर ले जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिकी चुनावों में, चुनावी कॉलेज प्रणाली की एकतरफ़ा प्रकृति को देखते हुए, तीन राज्यों के सिर्फ़ 70,000 मतदाताओं ने ट्रम्प को हिलेरी के ख़िलाफ़ जीत दिला दी।

यदि हम एक मतदाता के मनोवैज्ञानिक प्रोफ़ाइल को समझते हैं, या जिसे कैम्ब्रिज एनालिटिका के अलेक्जेंडर निक्स साइकोमेट्रिक प्रोफ़ाइल कहते है, तो हम दो काम कर सकते हैं। हम उन मतदाताओं को हतोत्साहित कर सकते हैं जो शायद दूसरे पक्ष को वोट देने जाने वाले हो। और फिर हम "हमारी तरफ़" वाले मतदाताओं को घर से बाहर निकल वोट देने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं। फ़िल्म त्रिनिदाद में एक सफल उदाहरण पेश करती है: श्वेत युवाओं को विरोध व्यक्त के रूप में मतदान न करने के लिए एक "आंदोलन" का संदेश भेजा गया था। उन्हें संदेश दिया गया था कि कैसे वोट न देना कितना "सहज" है, जबकि दूसरे पक्ष को परिवार के मूल्यों, माता-पिता की बात सुनना आदि के बारे में संदेश देकर मत डालने के लिए प्रोत्साहित किया गया।

यूपी के हाल ही में हुए भारतीय चुनावों में, डाटा विश्लेषण से पता चलता है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के गढ़ों में समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी के गढ़ों की तुलना में बेहतर मतदान हुआ था, जो एक समान अभियान की सफलता को दर्शाता है। यदि आप विपक्ष के मतदाता हैं, तो आपको ऐसे संदेशों के साथ लक्षित किया जाएगा कि सभी राजनेता भ्रष्ट हैं और चुनाव बिना किसी उद्देश्य के होते हैं। भाजपा के मतदाताओं के लिए, संदेश यह होता है कि वोट डालना देशभक्ति का काम है और इसके ज़रिये "हम दुश्मनों" पर मज़बूत प्रहार कर सकते हैं।

हालांकि The Great Hack”, कैम्ब्रिज एनालिटिका और ट्रम्प के चुनावों पर ध्यान केद्रित करती है, बताती है कि कैसे एक वैश्विक दक्षिणपंथी नेटवर्क बड़े धन और गहन विभाजनकारी संदेश का इस्तेमाल कर के चुनावों को प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए, यह ब्राज़ील में बोल्सोनारो की जीत में दिखाई देता है। फ़िल्म फ़ेसबुक और गूगल की भूमिका को भी संबोधित करती है, जिसने एक सोशल मीडिया दुनिया बनाई है जो हमें जोड़ने के बजाय हमें विभाजित करती है। फ़ेसबुक ने एहसास किया कि, जल्दी ही हमारी चिंताएं और हमारे डर "लाइक" की तुलना में विज्ञापन के उपकरण के रूप में अधिक शक्तिशाली हैं। वे अनिवार्य रूप से विज्ञापनदाताओं को हमारी चिंताएं, भय और घृणा बेच सकते हैं। इसने हमारी मानवता के सबसे ख़राब पक्षों को सोशल मीडिया स्पेस में विस्फोट करने का एक बड़ा कारण बना दिया है।

मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) के शोधकर्ताओं ने पाया है कि: नकली समाचार वास्तविक समाचारों की तुलना में गहरे, तेज और व्यापक होते हैं यानी उनका असर तेज़ होता है।

घृणा टीवी स्क्रीन की तरफ़ भी खींचती है। यह नफ़रत फैलाने वाले और नकली समाचार फैलाने वाले टीवी के बढ़ने की व्याख्या करता है: अमेरिका में फॉक्स न्यूज और भारत में रिपब्लिक/ज़ी/टाइम्स नाउ जैसे टरोल चैनल मौजूद है। आज मीडिया स्पेस में, विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सभी रूपों में, टीवी से लेकर सोशल मीडिया तक में यह बड़ा परिवर्तन है।

सवाल यह है कि अब हमें क्या करना चाहिए? इस बारे में The Great Hack का तर्क है कि डाटा की गोपनीयता और हमारे डाटा का व्यक्तिगत स्वामित्व ही इसका जवाब है। हालाँकि, जो डाटा हमारे पास है, वह इसकी संभावना को भी खोलता है कि बड़े निगम (कंपनी) वास्तव में हमारे डाटा के स्वामी हो सकते हैं, लेकिन केवल इसे ख़रीदने के बाद। यह बड़ी डाटा कंपनियों के अंतर्निहित व्यापार मॉडल को नहीं बदलता है। हमारी नज़रों में निजी संपत्ति के रूप में डाटा को अभी भी किसी अन्य सामान की तरह ख़रीदा और बेचा जा सकता है, और बड़ी तकनीकी कंपनियों के हाथों में डाटा और शक्ति को केंद्रित करने की पूरी छूट देता है।

निजी संपत्ति के रूप में यह डाटा उस तथ्य को भुला देता है कि डाटा केवल हमारा व्यक्तिगत डाटा नहीं है, बल्कि हमारे सामाजिक संबंधों का डाटा भी है, और डाटा जो विभिन्न समुदायों और समूहों से संबंधित है। अपने हाथों में डाटा को रखने के तरीक़े पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय, हमें अपने डाटा पर ध्यान देना चाहिए कि डाटा हमारे लिए सामान्य कैसे है, यह जनसाधारण से कैसे संबंधित है और डाटा कोई वस्तु नहीं है। हमें अपने सामाजिक संबंधों और सामुदायिक डाटा को इस तरह से लेना चाहिए ताकि उसे ख़रीदा और बेचा न जा सके।

दूसरा, हम अपने चुनावों और लोकतंत्र की सुरक्षा कैसे कर सकते हैं? इसका जवाब हमेशा से चुनावों में पैसे की भूमिका को कम करने में रहा है। बड़े डाटा के लिए बड़ा पैसा चाहिए। छोटे दलों का मानना हो सकता है कि प्रशांत किशोर या किसी अन्य चुनाव विश्लेषिकी कंपनी से भाजपा के विशाल धन के भंडार का मुक़ाबला करने के लिए पर्याप्त हो सकता है - एसोसिएशन ऑफ़ बिलियन माइंड्स में इसके 4,000 सदस्य हैं, और विभिन्न अन्य कंपनियां जो इसकी चुनाव मशीनरी के लिए काम करती हैं। हां, यदि आप बड़ी रकम पर बैठे हैं जैसा कि इनमें से कुछ क्षेत्रीय दल हैं, तो आप इसे एक राज्य में इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन अगर आपके पास मोटी रकम नहीं है तो आप कुछ नहीं कर सकते हैं। हमें चुनावों में धन की भूमिका को सिमित करने को लोकतांत्रिक और प्रगतिशील अभियान के रूप में चलाने की आवश्यकता है यदि चुनावी लोकतंत्र और प्रगतिशील राजनीति का इस देश में भविष्य सुनिश्चित करना है।

अब सवाल उठता है क्या हम सोशल मीडिया का उपयोग करके एक जन आंदोलन का निर्माण कर सकते हैं? सोशल मीडिया दिग्गज इस खेल में तटस्थ नहीं हैं। उनका व्यापार मॉडल नफ़रत को बढ़ावा देने और दक्षिणपंथ की ओर बहुमत को झुकाने के लिए बना है। एल्गोरिथम केवल गणित नहीं हैं। वह हमारे पूर्वाग्रहों और जुकरबर्ग की व्यावसायिक ज़रूरतों को एल्गोरिथम में मिला देते हैं। वैश्विक दक्षिणपंथ की तरफ़ बहुमत को झुकाने और नफ़रत की राजनीति को बढ़ाने के लिए इसे गुगल और फ़ेसबुक के कोशिका में संकर्मित किया गया है। दक्षिणपंथ की नकल की राजनीति जो वाम और लोकतांत्रिक स्पेस में घुस गयी वह इसका जवाब नहीं है।

क्या तब सब खो गया है? नहीं। हमें समाज में एक वैकल्पिक दृष्टि बनाने के लिए मौजूदा मीडिया के साथ, जन आंदोलनों, डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म, रचनात्मकता और संख्यात्मक शक्ति को बढ़ाना होगा। हर तरह से सोशल मीडिया का उपयोग करना, लेकिन वास्तविक दुनिया और इसकी वास्तविक समस्याओं को ध्यान में केंद्रित रखते हुए ऐसा करना होगा। लोकतांत्रिक मीडिया और वाम आंदोलनों को मज़बूत करना, न केवल डिजिटल मीडिया को। और विश्वास करना कि लोगों को डर और घृणा के नाम पर थोड़े समय के लिए तो मोड़ा जा  सकता है, लेकिन लंबे समय तक नहीं। वे जमीन पर आंदोलनों के माध्यम से वास्तविक मुद्दों पर वापस आएंगे। ऐसे मुद्दे जो हमें फूट, एकजुटता और नफ़रत के बजाय आपस में बांधते हैं। यह हमारी लड़ाई है: कि नए को पुराने के साथ कैसे जोड़ा जाए; और इसे रचनात्मक रूप से कैसे इस्तेमाल किया जाए।

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