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इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक कुकर्म का ज़रिया है

सभी बिके बॉन्ड में तकरीबन 87.5 फीसदी बॉन्ड 1 करोड़ , 12.4 फीसदी बॉन्ड 10 लाख वाले थे। इस तरह से अभी तक बिके बॉन्ड में तकरीबन 99.9 फीसदी बॉन्ड 1 लाख से अधिक मूल्य वाले थे।
Electorial bond

हम चाहे जितना मर्ज़ी कांग्रेस ,भाजपा या गठबंधन महागठबंधन कर लें । आम जन के मन में बसी राजनीति की गन्दी छवि को तब तक नहीं सुधार सकते ,जब तक राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे का हिसाब किताब पारदर्शी न बन जाए। एक राजनीतिक पार्टी तब तक खुद को जनकल्याणकारी नहीं साबित कर सकती जब तक वह खुद को चलाने वाले खर्च की आमदनी को सार्वजनिक करने का बीड़ा न उठाए। चुनाव आयोग तब तक खुद को  एक कारगर संस्था के रूप  में  प्रस्तुत नहीं  कर सकता जब तक वह चुनाव सुधार के तौर पर  राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे को आम जनता में उजागर करने  के लिए सही और कठोर कदम नहीं उठाए। चूंकि भारतीय लोकतंत्र राजनीति से संचालित होता है, इसलिए भारतीय लोकतंत्र की यह एक ऐसी परेशानी है जो चुनाव आयोग के कमरे में हाथी की तरह बैठी रहती है और चुनाव आयोग एक साथ एक चुनाव जैसे बोगस मुद्दे पर ध्यान देता रहता है।

राजनीतिक चंदे में मौजूद कई तरह के भ्रष्टाचार को रोकने के लिए साल 2017-18 के बजट में इलेक्टोरल बॉन्ड का सीगुफा छोड़ा गया। कहा गया कि यह इलेक्टोरल बॉन्ड चुनाव सुधार के लिए उठाया गया ऐतिहासिक कदम है। उस समय कुछ जानकारों को छोड़कर सबने तालियां पीटी । लेकिन असलियत यह थी कि जिस सरकार का आधार ही हज़ारों करोड़ के चंदे के भार पर खड़ा हो वह किसी तरह का ऐतिहासिक सुधार कर दे,ऐसा नामुमकिन लगता है। इसे अब साक्ष्यों से समझिए ।

जनवरी 2018 में इलेक्टोरल बॉन्ड की योजना को सरकार द्वारा जनता के उपयोग के लिए नोटिफाई कर दिया गया। अभी तक के  स्टेट बैंक द्वारा जारी इलेक्टोरल बॉन्ड के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया। यह पाया गया कि  बैंक से मुश्किल से ही  कम कीमत वाले बॉन्ड की खरीददारी हुई है। जुलाई माह में एक भी ऐसे बॉन्ड की खरीददारी नहीं हुई  जिनकी कीमत 10 लाख या 1 करोड़ से कम हो ।तकरीबन 99.7 फीसदी बॉन्ड की कीमत 1 लाख से ऊपर की थी। इलेक्टोरल बॉन्ड बिक्री के नियम के तहत केवल 10 दिनों के भीतर इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने का नियम बनाया गया है। इसी नियम के तहत 2 जुलाई से लेकर 11 जुलाई तक देश की 11 एसबीआई शाखाओं के लिए इलेक्ट्रोल बॉन्ड जारी किये गए। इनमें से केवल 5 बड़े शहरों दिल्ली,गांधीनगर ,मुंबई,गुवाहाटी और  कलकत्ता की बैंक शाखाओं से इलेक्ट्रोल बॉन्ड की खरीदारी हुई। बाकी 6 शहरों की शाखाओं से एक भी बॉन्ड की खरीदारी नहीं हुई। इसके साथ जहां मार्च के महीने में 520 बॉन्ड के  साथ 222 करोड़ रुपए राशि की बॉन्ड बिक्री हुई। वहीं जुलाई महीनें में बॉन्ड की बिक्री की संख्या घटकर 82 हो गई और इसकी बिक्री से मिली राशि भी घटकर केवल 32.5 करोड़ रुपये हो गई । इन 82 बॉन्ड में तकरीबन 10 बॉन्ड 1 लाख रुपए,44 बॉन्ड 10 लाख रुपए और 28 बॉन्ड 1 करोड़ रुपए वाले थे।

जनवरी से लेकर अभी तक जारी किए गए बॉन्ड इस ओर इशारा करते हैं कि छोटी कीमत वाले बॉन्ड की मांग  न के बराबर है । सभी बिके बॉन्ड में तकरीबन 87.5 फीसदी बॉन्ड 1 करोड़ , 12.4 फीसदी बॉन्ड 10 लाख वाले थे। इस तरह से अभी तक बिके बॉन्ड में तकरीबन 99.9 फीसदी बॉन्ड 1 लाख से ऊपर वाले थे।अगर संख्या के लिहाज़ से देखा जाए तो कुल 1065 बॉन्ड की बिक्री हुई जिसमें से 995 बॉन्ड 10 लाख से ऊपर वाले थे। electoral bond

(ग्राफिक्स) फैक्टली वेबसाइट से साभार

यह आंकड़ें इस ओर साफ - साफ इशारे करते हैं कि  इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिए किया  गया सुधार कोई सुधार नहीं है बल्कि  पूंजीपतियों द्वारा किए जाने वाली फंडिंग को कानूनी तरीके से  छिपाने का एक तरीका है। चुनाव सुधार की यह कोई ऐतिहासिक योजना नहीं है बल्कि चुनाव सुधार के नाम पर किया गया ऐतिहासिक फर्ज़ीवाड़ा है। अब आप पूछेंगे कि ऐसा क्यों? तो इसे बिंदुवार समझने की कोशिश करते हैं -

- इलेक्ट्रोल बॉन्ड एक ऐसा बॉन्ड होता है ,जिसपर न ही बॉन्ड खरीदने वाले का नाम लिखा होता है और न ही  बॉन्ड के ज़रिए फंडिंग लेने वाली पार्टी का नाम लिखा होता है। 

-- एक किस्म की kyc फॉर्म भरकर निर्धारित एसबीआई ब्रांच से 1 हजार ,1 लाख ,10 लाख और 1 करोड़ के मूल्य में अंकित इलेक्ट्रोल बॉन्ड की खरीददारी की जा सकती है ।

-- व्यक्ति ,कम्पनी,हिन्दू अविभाजित परिवार,फर्म,व्यक्तियों का संघ अन्य व्यक्ति और एजेंसी  इलेक्ट्रोल बॉन्ड की खरीददारी कर सकती है। इसके बाद इस बॉन्ड को विगत आम चुनाव में एक फीसदी से अधिक वोट पाने वाले किसी राजनीतिक दल को चंदे के रूप में  देने का प्रावधान होता है ,जिसे बॉन्ड के जारी किए दिन से  15 दिन के भीतर बैंक से क्रेडिट करा लेने का नियम होता है । यानी बॉन्ड की खरीददारी होगी और उसे किसी राजनीतिक दल को दिया जाएगा और राजनीतिक दल को 15 दिन के भीतर बॉन्ड की राशि मिल जाएगी। और इन सारी प्रक्रियाओं में किसी का भी नाम उजागर नहीं  होगा। सब बेनाम ही रहेंगे।

--  इलेक्ट्रोल बॉन्ड की राशि पर 100 फीसदी टैक्स की छूट मिलती है। यानी कि 500 करोड़ के इलेक्ट्रोल बॉन्ड पर 1 रुपए भी टैक्स भुगतान की जरूरत नहीं होती है ।

--- कम्पनी अधिनयम में हुए  हालिया संशोधन के मुताबिक राजनीतिक दलों को दिए जा सकने  वाले साढ़े सात फीसदी  चंदे की लिमिट वाले प्रावधान को हटा दिया गया है। यानी कि अगर एक कम्पनी चाहे तो अपने पूरे लाभ को चंदे के रूप में दे सकती है और दर्शा सकती है ।

-- कम्पनी के खातों में केवल इलेक्ट्रोल बॉन्ड की राशि लिखनी होती है, चन्दा हासिल करने वाले  राजनीतिक दलों  के नाम लिखने की जरूरत नहीं होती है।

 इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़े इन सारे प्रावधानों को एक साथ देखने पर यह हासिल होता है कि सरकार ने  केवल आम जनता में चुनाव सुधार के नाम पर हवा बनाने के लिए इलेक्टोरल  बॉन्ड जैसे बोगस योजना की शुरुआत की है। जब बॉन्ड से जुड़े सभी  पक्षकार  बेनाम  हैं ,टैक्स में सौ फीसदी की छूट है, कम्पनी अधिनियम से साढ़े सात फीसदी राजनीतिक चन्दा देने की लिमिट को हटा लिया गया है, खातों में  राजनीतिक चंदे के नाम पर किसी भी प्राप्तकर्ता के नाम लिखने की जरूरत नहीं है , ऐसे में पॉलिटीकल फंडिंग के नाम पर इलेक्टोरल बॉन्ड की योजना फर्जी लगती है। साथ में बैंक को पता होगा की खरीदने वाला कौन है। बैंक सरकारी है। अतः सरकार आसानी से हर खरीदने वाले का नाम जान जायेगी। और यह भी पता लगाया जा सकता है कि अगले 15 दिन के अंदर किस पार्टी ने कितना इलेक्टोरल बांड  जमा किया। यानि सरकार - और सिर्फ सरकार ही - जान सकती है की कौन किसको चंदा दे रहा है। फिर गोपनीयता तो रही नहीं। हाँ, बाकि तमाम जनता और विपक्ष ज़रूर अँधेरे में रहेंगे। आप सोच सकते हैं की मोदी और अमित शाह इस जानकारी का क्या करेंगे! ऐसे में एसबीआई से मिले अभी तक के आंकडें  यह साफ साफ अंदेशा जता रहे हैं कि   चंदे के तौर पर केवल कॉरपोरेट फंडिंग हो रही है, काले धन के भंडार को इलेक्टोरल  बॉन्ड से धड़ल्ले  से सफेद किया जा रहे है ,सरकार और पूंजीपतियों की सांठ गांठ बेतहाशा जारी है और इलेक्ट्रोल बॉन्ड के जरिए राजनीतिक लोकतंत्र के इन कुकर्मों को एक कानूनी सहारा भी मिल गया है। 

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