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अब रोटी बनाम बाबरी का मामला

इस मुद्दे से आगे बढ़ना कठिन है, लेकिन व्यवहारिक तौर पर यही विकल्प बेहतर है।
ayodhya
Image courtesy: Live Law

बाबरी मस्ज़िद मामले में सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय पीठ के फ़ैसले पर अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं आई हैं। जो लोग मस्ज़िद गिराने का हिस्सा थे, वे फ़ैसले का समर्थन कर रहे हैं। उनका मानना है कि फ़ैसले ने उनकी आस्था और विश्वास का सम्मान किया है। अल्पसंख्यक समुदाय, लोकतांत्रिक, बहुलतावादी और क़ानून के शासन में विश्वास करने वाले लोग इसे न्याय का घोर उल्लंघन मान रहे हैं।

कोई जो भी माने, लेकिन फ़ैसले के बाद भी एक सवाल रह गया है: अब आगे क्या? जो लोग बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनाने से जुड़े हुए थे, उन्हें कोर्ट ने 'न्यास' का एक हथियार दे दिया है। इसके ज़रिये वे अपना सपना पूरा कर सकते हैं। कुछ मानवाधिकार समूह और मुस्लिम संगठन सुप्रीम कोर्ट से मामले पर दोबारा विचार करने की अपील करना चाहते हैं। फिर भी ज़्यादातर मुस्लिम संगठन अब मामले से आगे बढ़ना चाहते हैं। इनका मानना है कि अयोध्या मामले ने न केवल मुस्लिम समुदाय को तोड़ दिया है, बल्कि इससे सांप्रदायिक राजनीति भी मज़बूत हुई है। इसने बहुलतावाद को बहुत नुकसान पहुंचाया है और भारतीय संविधान के भाईचारे के विचार को घायल कर दिया है।

इस मुद्दे से 'आगे बढ़ने' के लिए अलग-अलग क्षेत्रों की 100 से ज़्यादा मुस्लिम शख़्सियतों ने खुला ख़त लिखा है। इनमें शबाना आज़मी, नसीरुद्दीन शाह और नागरिक अधिकार कार्यकर्ता पत्रकार जावेद आनंद भी शामिल हैं। ख़त के मुताबिक़, "हम सुप्रीम कोर्ट द्वारा ज़मीन के मामले में आस्था को क़ानून के ऊपर रखने के तथ्य पर मुस्लिम, संवैधानिक विशेषज्ञों और पंथनिरपेक्ष संगठनों की नाख़ुशी में साथ हैं। हम इस पर सहमत हैं कि कोर्ट का फ़ैसला न्यायिक तौर पर त्रुटिपूर्ण है, लेकिन हमारा मानना है कि अयोध्या मामले को ज़िंदा रखने से भारतीय मुस्लिमों को नुक़सान ही होगा।"

यह सही है कि क़ानून और न्याय का राज बनाए रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट से मामले पर दोबारा विचार करने के लिए कहना ज़रूरी समझ में आता है। लेकिन अगर कोई इस मुद्दे के आसपास की राजनीति देखे, तो कोई असहमति नहीं रह जाती कि इस मुद्दे ने सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया है। उदाहरण के लिए आरएसएस और इसके अनुषांगिक संगठन बाबरी पर हुए ध्रुवीकरण के चलते हमेशा से कहीं ज़्यादा मज़बूत हो चुके हैं। आरएसएस के राजनीतिक संगठन बीजेपी को भी अपनी चुनावी ताक़त तब बढ़ाने का मौक़ा मिला, जब इस विवाद को सार्वजनिक जीवन में उतारा गया। 1984 में केवल दो सीटें जीतने वाली बीजेपी के पास आज 303 सांसद हैं। 

आरएसएस ने लव जिहाद, गोमांस, घर वापसी और पाकिस्तान से नफ़रत की भाषणबाज़ी पर आधारित राष्ट्रवाद जैसे दूसरे ध्रुवीकरण के मु्द्दों को भी उठाया है, लेकिन राम मंदिर निर्माण आरएसएस के संगठनों और बीजेपी के लिए केंद्रीय मुद्दा बना रहा। राजनीतिक पार्टी बनने के बाद से ही राम मंदिर निर्माण ऐसा मुद्दा रहा है जो बीजेपी के हर चुनावी कैम्पेन में शामिल रहा है।

जब देश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ एकजुट था, तब हिंदू दक्षिणपंथियों ने इन जज़्बात को बदनाम करने के लिए कई क़दम उठाए थे। यह जो भावनात्मक उभार है, उसका मूल मुस्लिमों से नफ़रत है। इसके तहत उन्हें बाहरी बताया जाता है। बाबरी मुद्दे पर यह भावनाएं इस तरह उमड़ीं कि आज मुस्लिमों को समाज के हाशिए पर पहुंचा दिया गया है।

तो अब कोई भी इस मुद्दे से 'आगे बढ़ने वाले' ख़त का मतलब समझ सकता है। जबतक राम मंदिर कैंपेन जारी रहेगा, तब तक समाज में रोटी, कपड़ा, मकान और रोज़गार हाशिए पर रहेंगे और आस्था से जुड़े मुद्दे आगे रखे जाते रहेंगे। ऊपर से आस्था को राजनीतिक लक्ष्यों के लिए अपने हिसाब से ढाला जा रहा है। छह से सात दशक पहले तक कोई भी नहीं कहता था कि भगवान राम का जन्म किस निश्चित जगह पर हुआ। अयोध्या में मस्जिद किस जगह पर है, इसकी भी कोई बात नहीं करता था। लेकिन अब यह हिंदुओं में आम विश्वास है कि मस्जिद उस जगह बनाई गई, जहां राम पैदा हुए थे। इस दौरान धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा जारी रही। जैसा कई अध्ययनों में बताया गया कि इस दौरान सबसे ज़्यादा पीड़ित मुस्लिम रहे। इस तरह की हिंसा से केवल बीजेपी को राजनीतिक फ़ायदा हुआ। मुस्लिम समुदाय की प्रताड़ना और वंचना की कहानी बाबरी मस्जिद के समानांतर चलती है।

जीवन की अनिश्चित्ता के अलावा हिंसा और दूसरे मुद्दों से कई तरह के नुकसान हुए हैं। रंगनाथ मिश्र कमीशन और सच्चर कमेटी ने बताया कि कैसे मुस्लिम समुदाय की आर्थिक और समाजिक स्थिति ग़र्त में पहुंच चुकी है। इसलिए रिव्यू पेटिशन दाख़िल न करने की मांग के साथ लिखे गए इस ख़त का मक़सद समझा जा सकता है।

और सिर्फ़ मुस्लिम ही क्यों? अब आरएसएस और इसका उग्र संगठन विश्व हिंदू परिषद मंदिर बनाने के लिए कमान संभाल चुका है, तो जानना चाहिए कि हिंदू बहुसंख्यक समुदाय, जिनके नाम पर मंदिर बनाया जा रहा है, उनकी दिक़्क़तें क्या हैं। असग़र अली इंजीनियर मेमोरियल में हाल ही में अपने भाषण में बुद्धिजीवी और अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने बताया कि बहुसंख्यकवाद, बहुसंख्यकों के अधिकारों में बढ़ोत्तरी नहीं करता, यहां तक कि उन्हें कोई उपभोग संबंधित चीज़ों का फ़ायदा भी नहीं पहुंचाता। बहुसंख्यकों के ग़रीब तबक़ों को इस तरह की राजनीति के लिए चारे की तरह इस्तेमाल किया जाता है, जिसका फ़ायदा अपने घर और ऑफ़िस में बैठे कुलीन उठाते हैं।

फिर भी रिव्यू का लेना अभी संशय में है। क्या कोर्ट को अपने विसंगति भरे फ़ैसले पर दोबारा विचार करने के लिए कहकर किसी को असल मायनों में न्याय के लिए लड़ना चाहिए? या हमें पीछे मुड़कर देखना चाहिए कि इस मुद्दे पर फ़ायदा किसे हुआ? जब हमारा देश बना था, उस वक़्त हम जिस दिशा में देख रहे थे, क्या हमें उस पर दोबारा ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए? हमें भौतिक विकास के रास्ते पर चलना चाहिए, कृषि संकटों को दूर करना चाहिए, बेरोज़गारी दूर करने के लिए ज़रूरी क़दम उठाने चाहिए, वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देना चाहिए और हमें तय करना चाहिए कि हमारे बच्चे अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से न मर पाएं। शबाना आज़मी और दूसरे लोगों ने समय पर हस्तक्षेप किया है और इसे गंभीरता से देखने की ज़रूरत है।

राम पुनियानी सामाजिक टिप्पणीकार और एक्टिविस्ट हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

In a Matter of Bread Versus Babri

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