23 साल जेल में बिताने के बाद निर्दोष साबित : क्या न्याय हुआ?
23 साल से ज़्यादा वक़्त जेल में बिताने के बाद जम्मू-कश्मीर के चार लोगों को राजस्थान हाईकोर्ट द्वारा बरी कर दिया गया। इन्हें 23 जुलाई को रिहा किया गया। इन लोगों को 21 मई 1996 को दिल्ली के लाजपत नगर में हुए विस्फोट मामले में आरोपी बनाया गया था।
रिहा हुए चारों लोगों की तरफ से मामले की लड़ाई लड़ने वाली वकील कामिनी जायसवाल कहती हैं, “लगभग 24 वर्षों से जेल में बेगुनाहों को बंद रखना शायद हमारी न्यायपालिका, प्रशासन और हमारे समाज के लिए सबसे बड़े शर्म की बात है। निर्दोष लोगों का जीवन बर्बाद करना हमारे लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता [पर हमला] पर एक गहरा धब्बा है।"
ग्रेटर कश्मीर की एक रिपोर्ट के मुताबिक 23 साल की उनकी लंबी सज़ा के दौरान तीनों बंदियों को एक बार भी जमानत या पैरोल पर नहीं छोड़ा गया। इनमें से कुछ ने अपने माता-पिता को भी खो दिया लेकिन वे उनके अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो पाए। दो दशकों के बाद दुनिया में कदम रखना उनके लिए एक गंभीर चुनौती होगी।
ये तीनों लोग श्रीनगर के रहने वाले हैं और इनकी गिरफ्तारी से पहले वे हैंडक्राफ्ट व्यवसाय से जुड़े थे जो कभी कश्मीर की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हुआ करती थी।
25 जुलाई, 1996 को मिर्ज़ा निसार हुसैन जिसकी उम्र उस वक्त 16 वर्ष थी वह काठमांडू में कुछ अन्य कश्मीरियों के साथ कालीन (कश्मीरी कालीन) के व्यवसाय में लगा था।
निसार हुसैन अपने आवास पर। फोटो: ज़ुबैर सोफी
वे बताते हैं कि वह अस्र (शाम की नमाज़) की नमाज़ पढ़ने के लिए गए थे और घर लौटते वक़्त उसे कुछ पुलिस वालों ने रोका जो सिविल ड्रेस में थे। वे उसे पकड़ कर एक सशस्त्र वाहन में ले गए।
निसार कहते हैं, "उन्होंने कुछ नहीं कहा। जब भी मैंने यह पूछने की कोशिश की कि क्या कारण था तो वे मुझे थप्पड़ और लात मारते थे।”
हिरासत में लिए जाने से पहले निसार की तस्वीर। ये तस्वीर निसार ने दी।
एक अन्य कश्मीरी हैंडीक्राफ्ट व्यवसायी लतीफ़ अहमद वाजा जो उस वक्त 21 साल के थे वह उसी इलाके के अपने घर पर थे और कुछ काम कर रहे थे जब उन्होंने अपनी खिड़की से देखा तो पाया कि कुछ लोग उनके घर की तरफ आ रहे थे।
लतीफ कहते हैं, "मुझे पता नहीं चला कि वे पुलिस वाले थे। वे साधारण कपड़े पहने हुए थे। मुझे लगा कि वे ग्राहक हैं लेकिन जैसे ही वे मेरे घर में दाखिल हुए उन्होंने मुझ पर बंदूक तान दी और मुझे साथ चलने के लिए कहा।” लतीफ को एक गाड़ी में बैठा लिया गया।
हिरासत से पहले लतीफ की तस्वीर।
लतीफ के बाद एक अन्य कश्मीरी महमूद अली जिसकी उम्र उस समय 24 वर्ष थी उसे भी उसी क्षेत्र से हिरासत में लिया गया।
अली अपने माता-पिता के कब्र पर। ज़ुबैर सोफी
इन सभी को हिरासत में लिया गया और कथित तौर पर अलग वाहनों में रखा गया। उनमें से किसी को भी इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी कि क्या हो रहा है और उन्हें कहां ले जाया जा रहा है। इन सभी को सोनौली सीमा से होकर दिल्ली लाया गया।
पहले नौ दिनों तक उन्हें कथित तौर पर अवैध हिरासत में रखा गया था। अली कहते हैं, “वे हमसे पूछते रहते थे कि लाजपत नगर में विस्फोट के लिए कौन ज़िम्मेदार था। मैं कहता रहा कि मुझे पता नहीं है। वास्तव में मैं उस समय लगभग एक वर्ष तक दिल्ली नहीं गया था। लेकिन वे मुझे प्रताड़ित करते रहे।”
वे कहते हैं, अन्य दो को भी इसी तरह प्रताड़ित किया गया था। कम से कम 10-15 दिनों के बाद उन्हें कथित तौर पर अवैध हिरासत में रखा गया था। जब उन्हें अदालत में पेश किया गया तो दिल्ली पुलिस ने उनकी रिमांड मांगी।
निसार बताते हैं, “हमें पुलिस स्टेशन ले जाया गया। वहां, मैंने अपने बड़े भाई सहित कई अन्य कश्मीरियों को देखा। उन्होंने हमें कई सादा कागज़ दिया और हमें उन पर जबरन हस्ताक्षर करने के लिए कहा।'' उनके बड़े भाई मिर्ज़ा इफ़्तिखार हुसैन जो उस समय 22 साल के थे उनको भी दिल्ली में हिरासत में लिया गया था।
निसार, अली और लतीफ़ को 22 मई 1996 के समलेटी बम विस्फोट मामले के सिलसिले में तिहाड़ जेल और बाद में जयपुर जेल ले जाया गया।
लतीफ कहते हैं, "वे जानते थे कि मैं निर्दोष था लेकिन वे मुझे पीटते रहे। वे कुछ भी नहीं बताते, लेकिन फिर भी मुझे दिन में दो बार पीटते।”
रिहा हुए इन लोगों के अनुसार जयपुर जेल के एक अधिकारी उन्हें कहते कि वह उनके निर्दोष होने के बारे में जानते थे लेकिन उन्हें तब तक रखा जाएगा जब तक कि मुख्य अपराधी नहीं मिल जाते।
बाद में एक बम विस्फोट मामले में गुजरात पुलिस द्वारा लतीफ को हिरासत में ले लिया गया और अली और निसार को शुरू में जयपुर में रखा गया था जहां उन्हें प्रताड़ित किया गया था।
अगले नौ महीनों तक लतीफ़ को गुजरात में रखा गया जबकि अली और निसार को जयपुर में। बाद में उन्हें तिहाड़ जेल ले जाया गया जहां वे जम्मू-कश्मीर के अन्य लोगों से मिले।
कई साल बीत गए लेकिन वे सभी जेल में ही रहे। 16 फरवरी 2000 को अली को एक दोस्त का ख़त मिला जिसमें उसे अपनी मां हाजरा की मौत की सूचना दी गई थी। उनकी मौत के चार दिन बाद उन्हें पत्र मिला था।
आंसू भरी आंखों से अली कहते हैं, “मैं रो पड़ा लेकिन मैं असहाय था। मैं अपनी मां को आख़िरी बार भी नहीं देख सका। मैं उनके जनाज़े में भी शामिल नहीं हो सका। मेरे लिए इससे बुरा कुछ नहीं हो सकता था।'
ज़्यादातर कश्मीरी बंदियों को अधिक सुरक्षा वाले वार्डों में रखा गया है। वे कहते हैं कि जब भी कश्मीर में सेना के साथ झड़प होती थी तो जेल में अन्य अपराधी और पुलिसकर्मी कश्मीरियों के साथ मारपीट करते थे।
वर्ष 2002 में तीनों लोग जेल में अफज़ल गुरु से मिले और उसके अच्छे दोस्त बन गए। लतीफ कहते हैं, “वह हमें उम्मीद नहीं छोड़ने के बारे में कहते थे। उन्होंने आश्वासन दिया एक दिन हमें न्याय मिलेगा। लेकिन कोई नहीं जानता था कि यह हमारी ज़िंदगी का लगभग आधा हिस्सा ले लेगा।”
वे आगे कहते हैं, “वह बहुत ही मिलनसार थे। यहां तक कि जेल के अधिकारी भी उनका सम्मान करते थे। वह बहुत बुद्धिमान थे। इसलिए,अधिकारियों को उनके साथ बात करने में मज़ा आता। उन्होंने ज्यादातर अपना समय किताबों को पढ़ने और नमाज़ अदा करने में बिताया। अफज़़ल एक अच्छे गायक भी थे।"
उनका वार्ड बदलता रहा और वे अनहोनी घटनाओं से खुद को बचाने के कई तरीका सीखते। अली कहते हैं, “वक़्त बीतने के साथ हम बाहर की दुनिया के बारे में भूलने लगे। हम कई लोगों से यह जानने के लिए बात करते कि हम अपनी उम्मीदों को कैसे ज़िंदा रख सकते हैं। हम वर्कआउट करते, बुरे परिस्थितियों में एक-दूसरे की मदद करते।''
23 फरवरी 2003 को ईद उल अजहा का चौथा दिन था। लतीफ के पिता गुलाम मोहम्मद वाजा काफी ज़्यादा लतीफ को याद कर रहे थे।
उस वक़्त उन्होंने अपनी 60 वर्षीय पत्नी नूरजहां से लतीफ की तस्वीर दिखाने के लिए कहा। नूरजहां कहती हैं, “मैं तस्वीर ले आई। उन्होंने उसे अपनी छाती से लगा लिया और आंखें बंद कर लीं। कुछ ही मिनटों के बाद वह अचानक उठ खड़े हुए और लतीफ को तीन बार पुकारा और सड़क पर गिर गए।”
उन्हें अस्पताल ले जाया गया लेकिन डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। अदालत और जेल अधिकारियों से कई अपील करने के बावजूद लतीफ़ को उनके पिता को देखने की इजाज़त नहीं दी गई थी।
उनकी ज़िंदगी जेल में ही गुज़रती रही। हालांकि 2008 में गुजरात विस्फोट मामले में लतीफ को बरी कर दिया गया था। लतीफ कहते हैं, "इससे पहले कि जज मुझे निर्दोष बताते, मामले के जांच अधिकारी युध वंशी मेरे पास आए और मुझसे माफी मांगी।"
जम्मू क्षेत्र के भदरवाह इलाके से इस्लामिया पब्लिक स्कूल में एक 34 वर्षीय (उस समय) स्कूल शिक्षक अब्दुल गनी गोनी भी उसी मामले में पकड़े गए थे।
30 मई 1996 को गोनी को समता एक्सप्रेस ट्रेन से गिरफ्तार किया गया था। गोनी तबलीगी जमात (इस्लाम की शिक्षा देने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान जाने वाले मुसलमानों का एक समूह) के एक सदस्य है।
अब्दुल गनी गोनी डोडा में अपने आवास पर। फोटो: ज़ुबैर सोफी
अली और अन्य लोगों की तरह उसे भी कथित तौर पर ग़ैर क़ानूनी हिरासत में रखा गया था और तीनों बम विस्फोटों में आरोपी थे।
वर्ष 2010 में इफ्तिखार, गोनी और अन्य को लाजपत नगर विस्फोट मामले से बरी कर दिया गया था। इस बीच अली, लतीफ और निसार अभी भी न्याय का इंतजार कर रहे थे। इफ्तिखार को छोड़ दिया गया। हालांकि अली और अन्य तीनों को जयपुर जेल ले जाया गया।
निसार कहते हैं, “जयपुर जेल तिहाड़ से भी बदतर है। दिन में दो बार पुलिस हमें प्रताड़ित करती थी। कई बार अन्य गैर-मुस्लिम कैदी हमें कश्मीरी होने के लेकर मारते थे।”
14 जून 2016 को अली को घर से कुछ बुरी खबर मिली। इस बार, उनके पिता हाजी शीअर अली भट की मृत्यु के बारे में ख़बर थी। अली कहते हैं, “मैं रो पड़ा। यह मेरे जीवन का सबसे बड़ा नुकसान था। मैं उनके जनाजे में शामिल होने में सक्षम नहीं था।" गोनी भी इसी भावनात्मक परीक्षा से गुजरे जब उन्होंने उसी वर्ष अपनी मां को खो दिया।
अली कहते हैं, “जेल में पिछले दो वर्षों के दौरान मैंने अपनी नोटबुक में पवित्र कुरान लिखना शुरू कर दिया क्योंकि मुझे लगा कि मैं जेल के अंदर ही मर जाऊंगा। मैंने खुद को यह याद दिलाने के लिए किया कि चाहे हमारा जीवन कितना भी कठिन क्यों न हो हमें कभी भी अपने आस्था या धर्म से दूर नहीं होना चाहिए।” वे यह भी कहते हैं कि क़ैद के दौरान वे उर्दू में हजारों किताबें पढ़ने में कामयाब रहे।
अली द्वारा जेल में लिखी गई क़ुरान। फोटो- ज़ुबैर सोफी
14 फरवरी 2019 को पुलवामा हमले के बाद जयपुर जेल में हालात कैसे बिगड़े इसके बारे में लतीफ बताते हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि जेल में तैनात पुलिस आते और बेरहमी से उन्हें पीटते।
वे कहते हैं, “हमारे चेहरे और सिर को छोड़कर हमे बुरी तरह से मारते क्योंकि यह पुलिस को मुसीबत में डाल सकता था। यह लंबे समय तक चलता रहा।”
आखिरकार इस साल 23 जुलाई को जायसवाल ने हम चारों को सूचित किया कि हम सभी मामलों से बरी किए गए हैं और वे जाने के लिए स्वतंत्र हैं।
अली कहते हैं, "सबसे पहले मैं इस खबर पर विश्वास नहीं किया था लेकिन यह सच था। हमें जेल के परिसर से बाहर जाना था। आखिर में हमें बाहर जाने की अनुमति दी गई लेकिन मुझे नहीं पता था कि यह कठिन होगा।”
एक बार परिसर से बाहर निकलने के बाद वे पहली बार एक पत्रकार से मिले जो उनके बारे में एक रिपोर्ट तैयार करना चाहते थे।
अली कहते हैं, "हम स्वतंत्र थे, लेकिन हमारे दिमाग स्वतंत्र नहीं थे। हम जयपुर से दिल्ली जा रहे थे। मैं जानबूझकर कार की पिछली सीट पर बैठ गया। मैं बार-बार पीछे देखता रहा कि क्या हमारा कोई पीछा कर रहा है।”
अगले दिन उन्होंने कश्मीर के लिए उड़ान भरी जहां कई लोग उनका स्वागत करने के लिए इंतजार कर रहे थे।
“सड़कें, कपड़े, इमारते, वातावरण सब कुछ कश्मीर में बदल गया। मेरे लिए चीजें बिल्कुल अलग और अजीब हैं। हवाई अड्डे से मैं सीधे अपने पैतृक कब्रिस्तान गया जहां मेरे माता-पिता दफन थे।”
जब पिछली बार अली ने उस कब्रिस्तान को देखा तो वह उतना भरा नहीं था जितना अभी भरा है। उसे अपने माता-पिता की कब्र तक पहुंचने में बहुत समय लगा क्योंकि वह यह देखने के लिए रुक जाते कि उनके दूसरे कौन से रिश्तेदारों की मौत हो गई थी और उनकी कब्रों को देखते।
आंखों से बहते आंसू के साथ अली कहते हैं, “कई अखबारों और चैनलों ने दिखाया कि मैं उनकी कब्र पर गिर गया। लेकिन मैं उनकी कब्र पर जाकर उन्हें गले लगाने की कोशिश कर रहा था। फिर उनकी तरफ से गले लगाने का इंतजार कर रहा था जो नहीं हुआ।”
उनके साथ हुए अन्याय के बारे में बात करते हुए जायसवाल कहती हैं कि न्याय के संरक्षकों द्वारा किया गया अन्याय कुछ ऐसा ही है जो व्यक्ति का (सिस्टम से) उम्मीद और विश्वास खत्म कर देता है; यह बस व्यक्ति को तोड़ता है।
कामिनी कहती हैं, “उन सभी के ख़िलाफ़ मामूली क़िस्म का सबूत भी नहीं था। यह हमारे सिस्टम में लोगों के पूर्वाग्रह से ग्रसित जेहन के कारण है जो एक विशेष क्षेत्र और धर्म से संबंधित लोगों के ख़िलाफ़ है। मासूमों को जेल में लगभग आधा और अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा बिताने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। यह हमारे सिस्टम और न्यायपालिका के लिए शर्म की बात है। न्यायपालिका सुनने को तैयार नहीं थी। मुझे ऐसे मामलों को लेने के लिए 'राष्ट्र-विरोधी' और 'आतंकवादी' करार दिया गया है।”
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