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आदित्य एल-1 मिशन: पहले चांद अब सूरज की बारी, बस 4 महीने का इंतज़ार!

मंगलयान या मार्स ऑर्बिटर मिशन के बाद, आदित्य एल-1, सुदूर अंतरिक्ष में भारत का अगला मज़बूत क़दम है। यह पृथ्वी-चंद्रमा प्रणाली से आगे निकलने की, भारत की पहली कोशिश है।
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फ़ोटो : PTI

बहुत ही सफल चंद्रयान-3 मिशन के ज़रिए चांद पर सॉफ्ट लैडिंग के सामर्थ्य का प्रदर्शन करने के बाद, इसरो ने 2 सितंबर, 2023 को अपना आदित्य एल-1 मिशन लॉन्च कर दिया, जिसका लक्ष्य सूरज का अध्ययन करना है। यह इसरो का एक और मिशन है, जिसका संबंध पिछले दो दशकों में शुरू की गई नये ढंग की गतिविधियों से है, जिनमें नज़र पृथ्वी से हमारे सौर मंंडल के अन्य हिस्सों की ओर मोड़ी जा रही है। यह कई दशक तक अपने ग्रह की ओर ही देखने यानी पृथ्वी पर केंद्रित एप्लीकेशनों की ओर उन्मुख मिशनों के बाद आया है। पहले वाले मिशनों में उपग्रहों को पृथ्वी की निचली कक्षाओं (एलईओ) में स्थापित किया जाता रहा था, जो पृथ्वी से संबंधित प्रेक्षण, रिमोट सेंसिंग, रिसोर्स मैपिंग आदि का काम करते थे या फिर संचार तथा नेवीगेशन प्रणालियों आदि के लिए, ज़्यादा ऊंचाई की जियोसिन्क्रोनस या जियोस्टेशनरी कक्षाओं में स्थापित होते थे। नया रुझान इसरो की बढ़ती क्षमताओं, आत्मविश्वास तथा महत्वाकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करता है। यह उत्तरोत्तर आई सरकारों की सहायता का और हाल के दशकों में कुछ अतिरिक्त फंड उपलब्ध होने का नतीजा है, हालांकि ये फंड अंतरिक्ष की सैर करने वाले अन्य देशों की तुलना में काफी थोड़े हैं।

मंगलयान या मार्स ऑर्बिटर मिशन (एमओएम) के बाद, आदित्य एल-1, सुदूर अंतरिक्ष में भारत का अगला मजबूत क़दम है। यह पृथ्वी-चंद्र प्रणाली से परे निकलने की, भारत की पहली कोशिश है।

वैज्ञानिक दृष्टि से आदित्य एल-1 मिशन के अनेक दिलचस्प तथा उल्लेखनीय पहलू हैं। बहरहाल, दो वजहों से हम इन पहलुओं पर फुर्सत से और बिना दबाव के नज़र डाल सकते हैं। एक तो यह कि आदित्य अंतरिक्ष यान को अपने लक्षित ठिकाने तक पहुंचने में करीब चार महीने लगने जा रहे हैं। इसके अलावा इस मामले में भारत को कोई ‘पहली बार’ के या अन्य रिकार्ड बनाने के पीछे भागने की ज़रूरत नहीं है!
आइए, इस मिशन पर हम ज़रा और नज़दीक से नज़र डालते हैं।

आदित्य एल-1 मिशन

आदित्य (सूर्य) अंतरिक्ष यान अपेक्षाकृत हल्का यान है, जिसका वज़न 1,480 किलोग्राम है। यह यान सेवन ऑब्ज़र्वेटरी ग्रेड का एक सूट लेकर गया है, जिसे स्वदेशी रूप से डिज़ाइन किया गया है और यह उपकरणों को लेकर गया है, जो सब मिलकर भारत की पहली सौर ऑब्ज़र्वेटरी बनाते हैं।

यह यान श्रीहरिकोटा से भारत के बहुत बार प्रयुक्त किए गए पीएसएलवी/एक्सएल मीडियम वेट रॉकेट लॉन्चर से छोड़ा गया था, सॉलिड ईंधन के अपेक्षाकृत बड़े कोर और साथ में बंधे छ: बूस्टरों के साथ। जैसाकि पृथ्वी से परे के मिशनों के लिए इसरो का वर्तमान तरीका है, इस यान को पृथ्वी के इर्द-गिर्द 235 किलोमीटर बाई 19,500 किलोमीटर के, बहुत ही लंबे अंडाकार ऑर्बिट में स्थापित किया गया था। उसके बाद से, उसके ऑर्बिट को ऊपर उठाने के तीन तरकीब अब तक किए जा चुके हैं। इसमें आदित्य पर लगे लिक्विड एपोजी मोटरों को उस समय फायर किया जाता है, जब यान अपने सबसे निचले बिंदु पर होता है और इस तरह उसे उत्तरोत्तर लंबे होते आर्बिटों में अंतरिक्ष में और दूर भेजा जाता है। 3 सितंबर, 5 सितंबर तथा 10 सितंबर को ऑर्बिटों को बढ़ाकर क्रमश: 245 x 22,459 किलोमीटर, 282 x 40,225 किलोमीटर तथा 296 x 71,767 किलोमीटर कर दिया गया। ऑर्बिट ऊपर उठाने के ऐसे दो और तरकीबों के बाद, आदित्य को पृथ्वी के प्रभाव क्षेत्र के या उसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति के दायरे से बाहर अंतरिक्ष में उछाल दिया जाएगा। यह काम गुलेल की तरह दूर फेंकने की तकनीक के सहारे किया जाएगा, जिसमें अब इसरो को महारत हासिल हो चुकी है। इसके बाद, आदित्य अपने क्रुइज़ चरण में प्रवेश कर जाएगा और उसे ट्रान्स एल-1 यात्रापथ पर डाल दिया जाएगा। यहां से अंतरिक्ष यान को ऐसी स्थिति में रखा जाएगा कि यह अंतरिक्ष में उस बिंदु के इर्द-गिर्द ऑर्बिट में प्रवेश कर जाए, जिसे एल-1 या लैग्रेंज पाइंट1 का नाम दिया गया है।

सूर्य-पृथ्वी प्रणाली के पांच बिंदुओं और खासतौर पर एल-1 को हम अगले खंड में समझेंगे तथा उस पर चर्चा करेंगे। यहां हमारे लिए इतना दर्ज कर लेना ही काफी है कि एल-1, सूर्य और पृथ्वी के बीच एक बिंदु है, जो मोटे तौर पर पृथ्वी से 15 लाख किलोमीटर दूर है यानी सूर्य की दूरी के 1 फीसद के बराबर दूरी पर है। यहां सूर्य और पृथ्वी के गुुरुत्वाकर्षण बल बराबर होते हैं या एक-दूसरे को काट देते हैं। इस बिंदु, एल-1 पर अगर कोई वस्तु आ जाए, तो सैद्घांतिक रूप से वह हमेशा-हमेशा वहीं ‘‘अचल’’ बनी रहेगी। अचल शब्द को उद्घरण चिन्हों के साथ रखा गया है क्योंकि ज़ाहिर है कि पृथ्वी चूंकि सूर्य की परिक्रमा करती है, इसलिए एल-1 पाइंट भी तदानुरूप गति से तथा ऑर्बिटल मोशन में इस तरह सूर्य का चक्कर लगा रहा होगा, कि पृथ्वी और सूरज के बीच उसकी स्थिति पूरी तरह जहां की तहां बनी रहे। अंतरिक्ष में चक्कर लगा रही किन्हीं दो चीज़ों के बीच इस तरह के बिंदु होते हैं।

आदित्य के लिए, एल-1 पाइंट का महत्व यह है कि उसे जब इस बिंदु पर बल्कि इसके गिर्द एक खास कक्षा में स्थापित कर दिया जाएगा, तो आदित्य का रुख हमेशा सूर्य की ओर बना रहेगा और वह इस मिशन के लिए ज़रूरी सभी प्रेक्षण दर्ज करता रहेगा और इसके साथ ही साथ पृथ्वी से दृश्यता की रेखा में भी बना रहेगा।

लक्ष्य क्या हैं?

आदित्य सौर ऑब्ज़र्वेटरी में अनेक उपकरण हैं, जिनसे सूर्य के कोरोना (Corona सूर्य के वायुमंडल का सबसे बाहरी भाग है) के विभिन्न पहलुओं का, सूर्य के चुम्बकीय क्षेत्र का, सूर्य पर उठने वाले चुम्बकीय तूफानों का, कोरोना से पदार्थ के फेंके जाने (सीएमई) या सूर्य से छूटने वाले इलेक्ट्रॉनिक चार्जयुक्त कणों के बड़ी मात्रा में प्रवाह का, अंतरिक्ष वातावरण व अन्य पहलुओं का अध्ययन किया जाएगा और हाथ के हाथ इन प्रेक्षणों तथा डेटा को पृथ्वी पर प्रेषित किया जा रहा होगा। इस मिशन के करीब पांच साल तक काम करने की उम्मीद की जाती है।

ज़्यादा तकनीकी पहलुओं में नहीं जाते हुए, इसका थोड़ा सा खुलासा करें तो आदित्य की सहायता से, सूर्य के वातावरण के सबसे बाहरी हिस्से यानी सूर्य के कोरोना के गर्म होने की गतिकी को बेहतर तरीके से समझने की कोशिश की जाएगी। इसकी चमक इतनी तेज़ होती है कि सामान्यत: मनुष्य की आंख इसे देख नहीं पाती है, लेकिन कोरोना सूर्य ग्रहण के दौरान, सूर्य के इर्द-गिर्द आग के एक गोले जैसा नज़र आता है।

एक और लक्ष्य, सूर्य के वातावरण की विभिन्न पर्तों के परस्पर जुड़ाव तथा उनकी गतिकी को समझना है। खासतौर पर कोरोना और क्रोमोस्फीयर को, जो कि हाइड्रोजन के ज्वलन के चलते लाल दिखाई देता है तथा सूर्य के दृश्यमान फोटोस्फीयर तथा बाहरी कोरोना के बीच, प्लाज़्मा की एक पतली-सी परत के रूप मेें होता है। आदित्य, सूर्य के संबंध में इस अब तक पूरी तरह से समझी नहीं जा सकी परिघटना की भी पड़ताल करेगा क्यों उसके उपरी वातावरण में 10 लाख डिग्री सेंटीग्रेड तक का ताप मिलता है, जबकि निचली पर्तों में सिर्फ 6,000 डिग्री सेंटीग्रेड तक ही ताप मिलता है।

आदित्य, विभिन्न दिशाओं में सौर हवाओं के असमान तापों की गुत्थी भी सुलझाने की कोशिश करेगा। सीएमईज़ तथा सूर्य से निकलने वाले चार्जयुक्त कणों के गुणों का नज़दीक से प्रेक्षण और सौर ज्वालाओं (Solar Flares) का अध्ययन, आदित्य के मिशन के अन्य विशेष पहलू हैं। सौर विकीरण के विभिन्न पहलू, अंतरिक्षीय वातावरण पर उनका प्रभाव और सौर हवाएं जिनसे पृथ्वी पर भू-चुम्बकीय तूफान उठ सकते हैं, जो इलेक्ट्रिकल तथा इलेक्ट्रॉनिक बुनियादी ढांचे के लिए बहुत ही विनाशकारी हो सकते हैं, अन्य पहलू हैं जिनका आदित्य द्वारा नज़दीक से अध्ययन किया जाएगा। सीएमई, सौर हवाएं तथा विकीरण, पृथ्वी पर पहुंचने से मोटे तौर पर एक घंटा पहले एल-1 पर पहुंचते हैं और इस तरह पृथ्वी पर इनसे प्रभावित होने वाले क्षेत्रों को पूर्व-चेतावनी दिए जाने की संभावनाओं के द्वार खुलते हैं।

इनमें से अनेक का खासतौर पर नासा द्वारा और यूरोपीय अंतरिक्ष तथा अकादमिक एजेंसियों के साथ गठबंधन में कुछ मिशनों में, पहले भी अध्ययन किया जा चुका है। मिसाल के तौर पर नासा का डिस्कवर मिशन, जिसे उसके इसके पूर्ववर्ती एसीई मिशन के उत्तराधिकारी के रूप में 2014 में लॉन्च किया गया था, एल-1 कक्षा में स्थापित है और सोलर फ्लेयर्स, सीएमईज़ तथा सौर हवाओं के लिए पूर्व-चेतावनी देने का काम करता है। पहले के अंतरिक्ष यानों की कक्षाओं की प्रकृति के चलते समय-समय पर मिलने वाले प्रेषणों को पिछले कुछ अरसे में नये ढंग की कक्षाओं के ज़रिए और बेहतर बनाया गया है। इन नई कक्षाओं की ओर पिछले कुछ अरसे में कहीं ज़्यादा ध्यान गया है, जैसे आदित्य के मामले में। नासा ने 1994 में जो विंड अंतरिक्ष यान छोड़ा था, उसने अनगिनत चक्कर लगाए थे, लेकिन बाद में उसे एक अनियमित, कथित लिसाजुअस कक्षा में डाला गया था, जिससे सौर हवाओं का अबाध रूप से प्रेक्षण कर सके और बाद में 2020 में उसे आदित्य जैसी कम अनियमित कक्षा में डाला गया था, जिससे डेटा को और बेहतर तरीके से दर्ज तथा प्रेषित कर सके। आदित्य का अपना खास ऑर्बिट, जो हमेशा सूर्य की ओर रुख बनाए रखना, लगातार पृथ्वी से दृश्य रेखा में रहकर संचार करना और कुछ पहलुओं का हाथ के हाथ अध्ययन करना संभव बनाता है, उल्लेखनीय नये योगदान करने जा रहा है।

एल-1 पर आदित्य का हेलो आर्बिट

लैग्रेंज पाइंटों को यह नाम, 18 वीं सदी के फ्रांसीसी गणितज्ञ जोसफ लुई लैग्रेंज के नाम पर दिया गया है। उन्होंने उस गुत्थी का हल निकाला था जिसे थ्री बॉडी प्राब्लम के तौर पर जाना जाता है (विचित्र बात है कि इसरो की वेबसाइट पर इसे टू बॉडी प्राब्लम का नाम दिया गया है!) कि क्या कोई ऐसा स्थिर कन्फिगरेशन संभव है, जिसमें तीन अलग-अलग बॉडीज़ एक-दूसरे की परिक्रमा करते हुए भी, एक-दूसरे के सापेक्ष एक ही स्थिति में बनी रह सकती हैं? उन्होंने इस समस्या के पांच हल खोजे थे, जहां किसी छोटी वस्तु को अपनी स्थिति में बनाए रखने के लिए आवश्यक बल को, अन्य दो वस्तुओं द्वारा डाला जाने वाला गुरुत्वाकर्षण बल प्रतिसंतुलित कर सकता है (देखिए, चित्र-1)। इनमें तीन स्थितियों में तीन वस्तुएं एक-दूसरे से एक लाइन में स्थित होती हैं। और दो अन्य बिंदु, दो लाइन में स्थित बिंदुओं के साथ, समबाहु त्रिभुज बनाते हैं।

जैसा कि देखा जा सकता है, एल-1 जिसके गिर्द आदित्य परिक्रमा कर रहा है, सूर्य और पृथ्वी की रेखा के बीच में स्थित है। यह सबसे सुविधाजनक बिंदु है क्योंकि यह आदित्य को सूर्य और पृथ्वी, दोनों को अपनी दृश्य रेखा में रखने की इजाजत देता है। चीन का चांग ऑर्बिटर इसी तरह एक भिन्न लग्रेेंज पर दूर की ओर, किंतु चांद के ऊपर स्थित है, जहां से लगातार चांद के अंधेरे हिस्से पर स्थित लेंडर से सिग्नल प्राप्त करता रह सकता है और उन्हें बराबर पृथ्वी पर भेजता रह सकता है।

पूरे परिपेक्ष्य में समझने के लिए बता दें कि नासा का प्रसिद्घ जेम्स वैब टेलिस्कोप, सूर्य से पृथ्वी की दूसरी दिशा में, एल2 लैग्रेंज पाइंट पर परिक्रमा करता है। यह टेलिस्कोप बहुत ही संवेदनशील, इन्फ्रा-रेड सेंसरों का प्रयोग करता है, जिन्हें सूर्य के विकीरण से बचाना ज़रूरी होता है, जो कि पृथ्वी तथा चांद, दोंनो से और यहां तक कि इसके अंतरिक्ष यान से भी परावर्तित होते हैं! इसलिए, इसे बहुत ही कारगर सन-शील्ड्स से लैस किया गया है और उसका रुख हमेशा सूर्य, पृथ्वी तथा चांद से दूसरी दिशा में रहता है!

बहरहाल, अब आदित्य पर लौटें। हालांकि, सैद्घांतिक रूप से लेग्रेंज पाइंट स्थिर होते हैं, फिर भी इनके इर्द-गिर्द परिक्रमा कर रहे उपग्रह पर हमेशा अंतरिक्ष के दूसरे बल भी काम कर रहे होते हैं और इसलिए उन्हें अपनी स्थिति में बनाए रखने के लिए, लगातार उनकी स्थिति में समायोजन करते रहना होता है और यह किया जाता है थ्रस्टरों को फायर करने के ज़रिए, जिसमें ईंधन खर्च होता है और अस्थिर होने का जोखिम भी रहता है। पांच-छ: अलग-अलग कक्षाओं पर काम करते हुए रॉकेट विज्ञानियों ने सबसे स्थिर कक्षाओं का पता लगाया है, जिनके मामले में सबसे कम स्टेशन रख-रखाव की यानी उपग्रह या अंतरिक्ष यान को अपनी स्थिति में बनाए रखने के लिए, थ्रस्टरों के कम से कम उपयोग की ज़रूरत पड़ती है। इस, सूर्य तथा पृथ्वी की ओर रुख रखने की क्षमता के लिए, यह पाया गया है कि शुद्घ रूप से अंडाकार कक्षा के बजाए, ज़रा-सी अनियमित कक्षा, जो मोटे तौर पर सूर्य-पृथ्वी की रेखा के समतल लंबवत हो, बेहतरीन है। इसी को हेलो आर्बिट कहते हैं। (देखिए, चित्र-2)

अब हमें चार महीने प्रतीक्षा करनी होगी कि आदित्य, एल-1 तक पहुंच जाए, अपने हेलो आर्बिट में चला जाए और अपना मिशन शुरू कर दे।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Destination Aditya-L1 Mission: 4 Months to go!

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