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अख़लाक़ लिंचिंग मामला : 7 साल बीत गए मगर 25 में से केवल 1 गवाह ने दी गवाही, परिवार को न्याय का इंतज़ार

अख़लाक़ के हत्यारे उनके परिवार पर गौहत्या के आरोप लगा रहे हैं, और कथित तौर पर उनपर दबाव बनाया जा रहा है कि वह अख़लाक़ की हत्या का मुकदमा वापस लेंगे तभी गौहत्या का मामला वापस लिया जाएगा। 
Akhlaq

नई दिल्ली: दादरी के बिसाहड़ा गांव में जैसे वक़्त थम सा गया है– जो मूल रूप से भारत की मॉब लिंचिंग के टेम्प्लेट (यानि फोंस एट ओरिगो) के रूप में उभरा है- व्योवृद्ध असगरी के लिए यह महीना निराशा और मायूसी भरा है, जो सात साल से न्याय का इंतज़ार कर रही है, यह वह दुर्भाग्य भरा 28 सितंबर, 2015 का दिन था, जिसने उनके बेटे मोहम्मद अख़लाक़ को उनसे छिन लिया था। 

गाँव के कई लोग अभी भी 45 वर्षीय व्यक्ति का नाम सुनने से नफ़रत करते हैं, जिस पर कथित तौर पर एक गाय के बछड़े को मारने और उसके मांस को फ्रिज में रखने तथा खाने का आरोप लगाकर गाँव वालों ने उसे बेरहमी से पीट-पीट कर मार डाला था।

जब यह अफवाह फैली तो गाँव के 15-20 लोगों की जानलेवा भीड़ रात करीब साढ़े दस बजे उसके दो मंजिला घर में घुस गई, तब-जब परिवार रात के खाने के बाद सोने की तैयारी कर रहा था। उन्होंने अख़लाक़ के 29 वर्षीय छोटे बेटे मोहम्मद दानिश के सिर पर सिलाई मशीन दे मारी, वह बेहोश हो गया,उसके सर से खून बह रहा था और चोट से मांस बाहर आ गया था।(जैसा कि घटना के बारे में जानकार सूत्रों ने द्वारा बताया था)।

उन्होंने बताया की, दानिश को मरा मान, भीड़ ने अख़लाक़ की तरफ रुख किया, और उस पर  लोहे की छड़ों और डंडों से वार कर दिया। हमलावरों में से एक ने शाइस्ता (27) को धमकाया और उसके साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश की। उसने विरोध किया और उसे धक्का दे दिया।

यह भी बताया गया कि एक बड़ी भीड़ पीड़ितों का बाहर इंतज़ार कर रही थी, और वक़्त खत्म हो रहा था क्योंकि पुलिस वैन के सायरन बजने लगे थे। उन्होंने अख़लाक़ (जिसके शरीर से  बहुत खून बह रहा था लेकिन अभी भी होश में था) को पकड़ा और उसे नंगा कमरे से घसीटते हुए, कमरे में तोड़-फोड़ करते हुए बाहर ले गए। 

जैसे ही भीड़ अख़लाक़ को घसीटती हुई नीचे लाई, उसका सिर सीढ़ी की 14 सीढ़ियों से टकराता गया। उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया कि, "अख़लाक़ की माँ, पत्नी और बेटी के लिए यह सबसे बुरी यातना थी।"

जबकि अख़लाक़ ने शरीर में लगी गंभीर चोटों के कारण दम तोड़ दिया, दानिश की जान बच गई, उसे कई जटिल मस्तिष्क की सर्जरी से गुजरना पड़ा। उसकी खोपड़ी की हड्डी टूट गई थी और सामने वाले ललाट से खून बह रहा था।

सूत्रों ने कहा कि एक स्थानीय मंदिर से लाउडस्पीकर पर घोषणा की गई थी और गांव के लोग गोहत्या की अफवाह सुनकर ट्रांसफार्मर के पास इकट्ठा हो आगे थे जिसके यह घटना हुई।

सात साल बाद भी, उत्तर प्रदेश के गौतम बुद्ध नगर जिले के इस गाँव की गलियों और रास्तों में एक सरसरी सैर अभी भी किसी को भी यह विश्वास दिला देती है कि पिछले कुछ वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है।

स्थानीय लोगों के बीच मुस्लिम-लगने वाले नाम और मुस्लिम नाम अब भी ग्रामीणों को जैसे काटते हैं, वे परिवार के डर को सही ठहराते हैं, जिन्होंने अपने गांव में अचानक माहौल बदलने पर आश्चर्य व्यक्त किया है। 

यह संवाददाता, जब कह रहा था कि, "यह अख़लाक़ का गाँव है", उसके कैमरे को एक राहगीर ने रोका जो चाहता था कि वाक्य को सही किया जाए। उसने गुस्से से कहा, "यह बिसाहड़ा है, अख़लाक़ का गाँव नहीं।" 

मुक़दमे की धीमी गति 

हत्या के सात साल बाद, मुकदमा (एफआईआर संख्या 241/2015, पीएस जर्चा), जो पिछले साल ही शुरू हुआ था, अब सबूत दर्ज़ करने के चरण में पहुंच गया है। जबकि पहली चार्जशीट उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा दिसंबर 2015 में दायर की गई थी, आरोप केवल फरवरी 2021 में तय किए जा सके।

मामले के मुख्य चश्मदीद गवाह (असगरी, इकरामन - अख़लाक़ की पत्नी, दानिश और शाइस्ता) को 25 मार्च, 2021 को ग्रेटर नोएडा के सूरजपुर जिला और सत्र न्यायालय में एक फास्ट-ट्रैक अदालत के सामने पेश होना था, लेकिन ऐसा नहीं हो सका क्योंकि अदालत का समन उन तक नहीं पहुंच सका। 

मृतक परिवार के क़ाबिल वकील, युसूफ सैफी ने न्यूज़क्लिक को बताया कि: "हालांकि अदालत ने सम्मन जारी किया था, लेकिन पुलिस समन को परिवार तक समय पर नहीं पहुँचा पाई। फिर पेशी को अप्रैल तक टाल दिया गया, लेकिन वह पेशी भी नहीं हो पाई।”

अंतत: अख़लाक़ की बेटी शाइस्ता इस साल 16 जून को अपर जिला न्यायाधीश (फास्ट ट्रैक कोर्ट-1) रणविजय प्रताप सिंह के सामने गवाही देने में सफल रही। उसकी गवाही तीन दिनों तक चली। 

सैफी ने कहा कि शाइस्ता के बाद उसकी मां, उसके भाई और दादी की गवाही होगी।

"एक चश्मदीद गवाह के रूप में, उसने घटनाक्रम की पुष्टि की। उसने अपने पिता के साथ मारपीट और उसे मारने के लिए घर से बाहर ले जाते हुए देखा था। उसने उस आरोपी का नाम लिया जिसने इस क्रूर हत्या को अंजाम दिया था। वकील ने बताया कि, बचाव पक्ष के वकीलों में से एक ने उसके साथ जिरह की।" 

उसने पहले आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 164 के तहत अपना बयान दर्ज कराया था।

चश्मदीदों के अलावा 25 अन्य गवाहों में पुलिसकर्मी, डॉक्टर आदि शामिल हैं। आरोपियों के बयान भी दर्ज किए जाने हैं।

उन्होंने कहा कि, "आरोपियों की गवाही भी दर्ज़ की जाएगी क्योंकि उन्होंने अपने बचाव में सबूत पेश किए हैं।"

देरी के कारणों के बारे में पूछे जाने पर सैफी ने कहा कि बचाव पक्ष ने यह सुनिश्चित करने की पूरी कोशिश की थी कि किसी न किसी बहाने आरोप तय न हो सके। 

आगे बताया कि "उनके वकील तारीखों को आगे बढ़ाने आवेदन डाल रहे थे। उन्होंने सीबीआई जांच और मृतक परिवार के खिलाफ गोमांस रखने के खिलाफ मुक़दमा दर्ज करने के निर्देश की मांग करते हुए आवेदन भी दायर किए हैं। अन्य याचिकाएं भी दायर की गईं हैं। जबकि उनकी अधिकांश प्रार्थनाएं खारिज कर दी गईं, फिर भी कुछ को अनुमति दी गई है।"

इसके अलावा, उन्होंने कहा कि, पिछले साल सितंबर में वकीलों की हड़ताल और न्यायाधीशों के स्थानांतरण, मुक़दमे में ओर देरी का कारण बना। 

“एक बार जब सारे बयान हो जाएंगे तो फैसला सुरक्षित रख लिया जाएगा। हमें उम्मीद है कि यह मामला अगले सात-आठ महीनों में खत्म हो जाएगा।

सर्वोच्च न्यायालय के दिशानिर्देशों की स्पष्ट अवहेलना

न्यायालय का मानना है कि, "घृणा संबंधित अपराध जो असहिष्णुता, वैचारिक प्रभुत्व और पूर्वाग्रह के उत्पाद हैं उन्हे बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए; ऐसा न हो कि यह आतंक के कृत्यों में बदल जाए", सर्वोच्च न्यायालय ने 2018 में तहसीन एस॰ पूनावाला बनाम भारतीय यूनियन में अपराध से निपटने के लिए निवारक, उपचारात्मक और दंडात्मक कदमों सहित कई निर्देश जारी किए थे। लेकिन लगता है कि उत्तर प्रदेश में दिशानिर्देशों का कोई मतलब नहीं है।

अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि लिंचिंग और भीड़ की हिंसा के मामलों की सुनवाई विशेष रूप से प्रत्येक जिले में, निर्धारित अदालत/फास्ट ट्रैक अदालतों द्वारा की जानी चाहिए। और मुक़दमा अधिक से अधिक छह महीने के भीतर समाप्त होना चाहिए। 

मुक़दमे को सुनवाई के लिए अप्रैल 2016 में विशेष अदालत को भेजा गया था। छह महीने तो भूल ही जाइए कि घटना के सात साल बाद भी मामला अपने अंजाम तक नहीं पहुंचा है.

एडवोकेट सैफी ने बताया कि इसके किसी भी प्रावधान का पालन नहीं किया जा रहा है। "दिशानिर्देश कहते हैं कि एक नोडल अधिकारी, जो एक आईपीएस अधिकारी हो सकता है, को मामले की प्रगति को देखना होता है। इसमें ऐसा नहीं हुआ है। मैंने दो साल पहले वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को एससी दिशानिर्देशों की एक प्रति भी दी थी, लेकिन उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की। हालांकि मामले की सुनवाई फास्ट ट्रैक कोर्ट कर रही है, लेकिन प्रगति बेहद धीमी है।"

लापरवाह और आलसी अभियोजन पक्ष?

मुक़दमे के जांच अधिकारी इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह का अचानक वाराणसी स्थानांतरण कर दिए जाने के बाद, मामले में कोई प्रगति नहीं हुई है।

अख़लाक़ हत्याकांड में जांच अधिकारी के रूप में सिंह की अहम भूमिका थी। उसने पीड़ित परिवार द्वारा नामजद सभी 10 आरोपियों को गिरफ्तार किया था।

10 नामित आरोपियों के अलावा, शिकायतकर्ता इकरामन ने कहा था कि समूह में और भी लोग थे जिन्हें वे नहीं पहचान पाए थे।

विडंबना यह है कि इस घटना को व्यापक रूप से कवर करने वाले कुछ पत्रकारों के अनुसार, उन्हें पहचान करने या उन्हे पकड़ने का कोई प्रयास नहीं किया गया।

मोहम्मद अली, जिन्होंने द हिंदू के लिए इस मामले को व्यापक रूप से कवर किया था और अब इस पर एक किताब लिख रहे हैं, ने न्यूज़क्लिक को बताया कि "मेरी समझ यह है कि अभियोजन पक्ष ने प्राथमिकी के चरण से ही मुक़दमे को कमजोर कर दिया गया था। हम तुम जानते हैं कि मेरिट ऑफ केस महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है; यह पुलिस द्वारा तैयार किए गए मुक़दमे पर निर्भर करता है - प्राथमिकी दर्ज करना, सबूत इकट्ठा करना और चार्जशीट दाखिल करना। अदालत इन दस्तावेजों के आधार पर अपना फैसला सुनाती है। जिस तरह से मामला आगे बढ़ रहा है, मुझे डर है कि इसमें सब बरी हो जाएंगे। अदालत की कार्यवाही हमें जिस अंतिम नतीजे के लिए तैयार कर रही है, वह है निराशा।" 

यह पूछे जाने पर कि किस बात ने उन्हें इस हद तक निराश किया कि वह इस मामले में बरी होने की भविष्यवाणी कर रहे हैं, उन्होंने कहा कि यह "लिंचिंग का पहला मामला था जिसने दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा था"।

"आश्चर्यजनक रूप से, सभी आरोपियों को सिर्फ एक या दो साल में जमानत दे दी गई, और अभियोजन पक्ष मूकदर्शक बना रहा। आखिरकार, यह एक हत्या का मामला था। आरोपियों का महिमामंडन किया गया, उनका वीरतापूर्वक स्वागत किया गया और यहां तक कि उन्हें एनटीपीसी में नौकरी भी मिल गई। उनमें से एक (रविन सिसोदिया) जो न्यायिक हिरासत में मर गए थे, उनके शरीर को तिरंगे में लपेटकर एक शहीद के रूप में अंतिम संस्कार किया  गया था, "उन्होंने कहा, इस मामले की त्रासदी यह है कि भारतीय वायु सेना के एक सैनिक (अख़लाक़ के बड़े बेटे, सरताज) अपने पिता की हत्या के लिए न्याय पाने के लिए दर-दर भटक रहे हैं। 

यह पूछे जाने पर कि क्या परिवार भी अब इसे छोड़ना चाहता है क्योंकि वे भी इसे आक्रामक रूप से आगे नहीं बढ़ा रहे हैं, अली ने कहा कि तार्किक रूप से यह सही है, क्योंकि पहले से ही पीड़ित परिवार हार मानने की कोशिश करेगा।

निर्विवाद रूप से एक सख्त मामला?

पुलिस ने दावा किया कि उन्होंने आरोपियों के खिलाफ एक ठोस मुक़दमा तैयार किया है, और इसलिए आरोपी दोषी ठहराए जाएंगे। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने नाम जाहिर करने से इंकार करते हुए न्यूज़क्लिक को बताया, "हमने पेशेवर तरीके से जांच की है और दोषियों को सजा दिलाएंगे। दोषियों को अपने किए की कीमत चुकानी होगी।"

षड्यंत्र का विचार

3 दिसंबर, 2018 को बुलंदशहर में गाय के शवों को लेकर दक्षिणपंथी भीड़ द्वारा मारे गए इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की बहन ने पहले आरोप लगाया था कि उनके भाई की "हत्या इसलिए की गई क्योंकि वह दादरी लिंचिंग मामले की जांच कर रहे थे"।

उसने आगे आरोप लगाया था कि उसके भाई को खत्म करने की साजिश, उत्तर प्रदेश पुलिस ने रची थी।

अख़लाक़ के लिंचिंग मामले में एक जांच अधिकारी होने के नाते, सिंह प्रमुख सरकारी गवाहों में से एक थे। वह इस मामले में गवाह नंबर एक थे। 

'समझौता' करने की कोशिश

समझा जाता है कि सभी 18 आरोपी (अपने रिश्तेदारों के ज़रिए) अख़लाक़ के परिवार से समझौता करने के लिए 40 बार संपर्क कर चुके हैं।

जून 2016 में एक सूरजपाल की शिकायत पर, जिला अदालत के निर्देश पर अख़लाक़ के परिवार के सदस्यों (इकरामा, दानिश, शाइस्ता और जान मोहम्मद, जो मृतक के भाई है) के खिलाफ गोहत्या का मामला दर्ज किया गया था।

हालांकि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पुलिस को परिवार के खिलाफ कोई भी दंडात्मक कार्रवाई करने से रोक दिया था।

आरोपी अख़लाक़ के परिवार को गाय की हत्या करने वाले के रूप में पेश कर रहे हैं और कथित तौर पर उन पर यह कहते हुए दबाव बना रहे हैं कि अगर उनके खिलाफ मामले वापस लिए गए तो वे अपना गोहत्या का मामला वापस ले लेंगे।

हालांकि, पुलिस ने अख़लाक़ के परिवार पर गोहत्या का मुक़दमा दर्ज करने के तीन महीने बाद यह पाया कि अख़लाक़ और उसके परिवार ने कभी गाय की हत्या नहीं की है और उन्हे ऐसा कोई सबूत नहीं मिला है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

Akhlaq’s Lynching: 7 Years on, Only 1 of 25 Witnesses Testify as Trial Reaches Evidence Stage

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