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वन संरक्षण कानून में संशोधन उत्तर पूर्व के राज्यों के लिए खतरे की घंटी, बड़े पैमाने पर प्रभावित करेगा

वन संरक्षण अधिनियम, 1980 के तहत संरक्षित वन क्षेत्र, अब केंद्र सरकार के दायरे में आएंगे और केंद्र के विवेक के अनुसार, उनका गैर-वनीय उपयोग किया जा सकेगा।
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फ़ोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स

देश के उत्तर-पूर्व क्षेत्र के राज्यों ने वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक- 2023 (FCAB) को लेकर चिंता जताई है जिसे मार्च माह में लोकसभा में पेश किया गया था और संसद की सेलेक्ट कमेटी को भेजा गया था।

विधेयक के कुछ प्रावधान जो वन संरक्षण अधिनियम-1980 में संशोधन करना चाहते हैं, वे उत्तर-पूर्व के राज्यों पर सबसे अधिक प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले हैं और अधिनियम के तहत प्रदत्त, इन क्षेत्रों के सुरक्षात्मक आवरण को खत्म करने वाले हैं। विधेयक के तहत प्रस्तावित प्रावधानों के अनुसार, अगर एक बार यह बिल पास हो गया तो अत्यधिक संवेदनशील राज्यों मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा और मणिपुर में भूमि की कई श्रेणियां अपना सुरक्षा कवच खो देंगी क्योंकि इन क्षेत्रों को व्यावसायिक दुरुपयोग से बचाने वाले कड़े नियम, संशोधन से ढीले (कमजोर) पड़ जाएंगे।

संशोधन कहता है:

(2) इस अधिनियम के प्रावधानों के तहत भूमि की निम्नलिखित श्रेणियां शामिल नहीं होंगी, अर्थात्: -

(ग) ऐसी वन भूमि, (i) जो अंतरराष्ट्रीय सीमाओं या नियंत्रण रेखा या वास्तविक नियंत्रण रेखा, जैसी भी स्थिति हो, के 100 किलोमीटर की दूरी के भीतर स्थित है, राष्ट्रीय महत्व और राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित रणनीतिक बुनियादी परियोजनाओं के निर्माण के उपयोग हेतु प्रस्तावित है।

Image: Morungexpress.com

मानचित्र देखें तो उत्तर-पूर्व क्षेत्र का करीब-करीब सारा क्षेत्र अधिनियम के तहत आवश्यक, 100 किमी के बफर क्षेत्र में आ जाता है। गुवाहाटी स्थित स्वतंत्र नीति विश्लेषक अंबा जमीर ने मोरुंग एक्सप्रेस में लिखा, "पूर्वी हिमालयी क्षेत्र या भारत का उत्तर पूर्वी क्षेत्र एक जैव विविधता हॉटस्पॉट है।  यह एक ऐसा क्षेत्र है जो इतनी अधिक स्थानीय वनस्पति और जीव प्रजातियों की मेजबानी करता है। कहा कि विकास या सुरक्षा के नाम पर इस क्षेत्र को वन संरक्षण अधिनियम के दायरे से बाहर रखा जाना अपने आप में विनाशकारी होगा।”

मिजोरम, त्रिपुरा और नागालैंड इस श्रेणी के अंतर्गत आते हैं क्योंकि वे दूसरे देशों से घिरे हुए हैं। मिजोरम क्रमशः पूर्वी और पश्चिमी दोनों सीमाओं पर म्यांमार और बांग्लादेश से घिरा हुआ है। असम के साथ इसे जोड़ने वाले एक हिस्से को छोड़कर देखें तो त्रिपुरा चारों ओर से बांग्लादेश से घिरा हुआ है और नागालैंड के साथ म्यांमार लगा है। हाइलैंड पोस्ट के एक  विश्लेषण के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय सीमा से 100 किलोमीटर की दूरी में इन राज्यों का लगभग पूरा क्षेत्र आ जाता है, इसके अलावा, यहां तक ​​कि मेघालय दक्षिण में बांग्लादेश से और मणिपुर म्यांमार से घिरा हुआ है। यही नहीं, अरुणाचल प्रदेश तिब्बत के साथ सीमा साझा करता है।
 
पूर्वोत्तर में अनारक्षित/अवर्गीकृत वन

संशोधन विधेयक केवल उन्हीं वनों की रक्षा करता है जो भारतीय वन अधिनियम 1927 के तहत आरक्षित वन और संरक्षित वनों के रूप में अधिसूचित हैं, गैर अधिसूचित वनों को छोड़ देता है। हालांकि, उत्तर पूर्व के राज्य, मुख्य रूप से ऐसे अवर्गीकृत वनों से बने हैं, जिन्हें टीएन गोदावर्मन थिरुमुलपाद बनाम भारत संघ और अन्य (1997) 2 एससीसी 267 (दिनांक 12 दिसंबर, 1996 मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनिवार्य तौर से संरक्षित किया गया है। बिल गोदावर्मन मामले में वर्णित 'डीम्ड फॉरेस्ट' के प्रावधानों को भी कमजोर करता है, जिसके तहत, कोई भी भूमि जो सरकार के रिकॉर्ड में वन के रूप में दर्ज है, के उपयोग के लिए 'फ़ॉरेस्ट क्लीयरेंस' की आवश्यकता होती है। बिल के अनुसार, केवल वे भूमि जो 25 अक्टूबर, 1980 को या उसके बाद वनों के रूप में दर्ज की गई हैं, को ही फ़ॉरेस्ट क्लीयरेंस की आवश्यकता के रूप में माना जाएगा। इस मामले में वन को उन सभी क्षेत्रों के रूप में परिभाषित किया गया है जो वन के शब्दकोश अर्थ से मिलते जुलते हैं। 

यह ध्यान रखना भी दिलचस्प है कि टी.एन. गोदावर्मन थिरुमुलपाद बनाम भारत संघ और अन्य (1997) 2 एससीसी 267 (दिनांक 12 दिसंबर, 1996) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि सरकारी रिकॉर्ड में वनों के रूप में 'दर्ज' किए गए सभी क्षेत्रों को 'वन मंजूरी' की आवश्यकता है। जबकि संशोधन विधेयक, स्पष्ट रूप से इस निर्णय को ढीला (कमजोर) करने का काम करेगा।

"उक्त निर्णय के बाद, अधिनियम के प्रावधानों को रिकॉर्ड किए गए वन क्षेत्रों में लागू किया गया था, जिसमें ऐसे दर्ज वन भी शामिल थे, जो पहले से ही विभिन्न प्रकार के गैर-वानिकी उपयोगों के लिए रखे गए थे, जिससे अधिकारियों को भूमि उपयोग में कोई भी परिवर्तन करने और किसी भी विकास या उपयोगिता संबंधी किसी कार्य की अनुमति देने से रोका जा सके। 

इसके अलावा, गैर-वन भूमि में लगाए गए निजी और सरकारी वृक्षारोपण में अधिनियम की प्रयोज्यता के संबंध में ढेरों आशंकाएं हैं। इस स्थिति के परिणामस्वरूप विशेष रूप से दर्ज वन भूमि, निजी वन भूमि, वृक्षारोपण आदि में उनकी प्रयोज्यता के संबंध में अधिनियम के प्रावधानों की गलत व्याख्या होने की संभावना है। इसलिए, विभिन्न क्षेत्रों में अलग अलग तरह की भूमि के लिए, अधिनियम की प्रयोज्यता और गैर-प्रयोज्यता की सीमा निर्धारित करना आवश्यक माना गया था।”

हाईलैंड पोस्ट के एक लेख में कहा गया है कि उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों के लोग और आदिवासी समुदाय, इस क्षेत्र में कुछ परियोजनाओं के कार्यान्वयन का विरोध कर रहे हैं। 1980 अधिनियम के कड़े प्रावधानों के बावजूद, लोग केंद्र सरकार के साथ अपनी चिंताओं को साझा नहीं कर पा रहे हैं। अब, यदि संशोधन विधेयक को मंजूरी मिल जाती है, तो सरकार आसानी से इन परियोजनाओं के कार्यान्वयन की अनुमति दे सकती है और उनके अधिकारों की रक्षा करने वाला कोई कानून नहीं होगा।

सीपीआईएम का बयान

2006 में, आदिवासियों या अन्य परंपरागत वन निवासियों द्वारा अधिकतम 4 हेक्टेयर तक खेती की भूमि के स्वामित्व के अधिकार की रक्षा करने के लिए, वन अधिकार अधिनियम- 2006 पारित किया गया था। जबकि संशोधन विधेयक- 2023, आदिवासियों में उपजे भय और चिंता का कोई समाधान नहीं करता है।

ईस्ट मोजो ने सीपीआईएम, त्रिपुरा के फ्रंट विंग, त्रिपुरा उपजाती गणमुक्ति परिषद द्वारा हस्ताक्षरित एक ज्ञापन साझा किया। जो उक्त विधेयक की खामियों को उजागर करते हुए, संयुक्त संसदीय समिति के अध्यक्ष राजेंद्र अग्रवाल को सौंपा गया। इसमें कहा गया है कि वन अधिकार अधिनियम, 2006, जो कि आदिवासियों के अस्तित्व के लिए सबसे महत्वपूर्ण है, का संशोधन विधेयक में कोई उल्लेख नहीं है और यह आदिवासियों के हाथों से "क्रोनी कैपिटलिस्ट्स" के हाथों में शक्तियों को स्थानांतरित करता है। आगे लिखते हैं कि आदिवासी देश के सबसे पिछड़े वर्ग हैं और हमेशा से वन क्षेत्रों में रहते आ रहे हैं लेकिन आज भी "उनकी प्रमुख समस्याओं में से एक, विस्थापन है। उन्हें जमीन के हक से वंचित रखा गया है"। 

इसमें कहा गया है, “एफ़आरए-2006 को किसी भी तरह से कमजोर करना आदिवासियों को अस्वीकार्य है। हम ग्लोबल वार्मिंग के खतरे और वन संरक्षण, वनीकरण, पारिस्थितिक संतुलन आदि की आवश्यकता से अवगत हैं और हम आदिवासी क्षेत्रों में विकास परियोजनाओं के कार्यान्वयन के खिलाफ नहीं हैं। लेकिन हम इजारेदार पूंजीपतियों के लिए वन भूमि और संसाधनों के निजीकरण के विरोध में हैं।”

इसमें आगे मांग उठाई गई है, ''वन क्षेत्रों में किसी भी विकासात्मक परियोजना को लागू करने से पहले संबंधित क्षेत्रों की ग्राम सभाओं की सहमति प्राप्त करना अनिवार्य किया जाए। वहीं जहां बेदखली अपरिहार्य है, वहां परियोजना का कार्यान्वयन शुरू होने से पहले, वननिवासियों यानी वनों पर निर्भरशील समुदायों का उचित पुनर्वास किया जाए और उन्हें उचित मुआवजा दिया जाए।

साभार : सबरंग 

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