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बैंक यूनियनों का ‘निजीकरण’ के ख़िलाफ़ दो दिन की हड़ताल का ऐलान

दो सरकारी बैंकों के प्रस्तावित निजीकरण के ख़िलाफ़ बैंक कर्मचारियों के संयुक्त मंच ने सरकार को 16 व 17 दिसंबर की हड़ताल का नोटिस दे दिया है। 
Bank union strike

यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियंस (यूएफबीयू) ने दो सरकारी बैंकों के प्रस्तावित निजीकरण के खिलाफ 16 दिसंबर से दो दिन की देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया है। यूएफबीयू बैंक कर्मचारियों का एक संयुक्त मंच है इसके तहत बैंकों की नौ यूनियनें आती हैं।

यूएफबीयू के सदस्यों में अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ (एआईबीईए), अखिल भारतीय बैंक अधिकारी परिसंघ (एआईबीओसी), राष्ट्रीय बैंक कर्मचारी परिसंघ (एनसीबीई), अखिल भारतीय बैंक अधिकारी संघ (एआईबीओए) और बैंक कर्मचारी परिसंघ (बीईएफआई) शामिल हैं। इंडियन नेशनल बैंक एम्प्लॉइज फेडरेशन (INBEF), इंडियन नेशनल बैंक ऑफिसर्स कांग्रेस (INBOC), नेशनल ऑर्गनाइजेशन ऑफ बैंक वर्कर्स (NOBW) और नेशनल ऑर्गनाइजेशन ऑफ बैंक ऑफिसर्स (NOBO)। 

गौरतलब है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस साल की शुरुआत में वित्त वर्ष 2021-22 का बजट पेश करते हुए 1.75 लाख करोड़ रुपये जुटाने के विनिवेश लक्ष्य के तहत सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों के निजीकरण की घोषणा की थी। इससे पहले सरकार ने 2019 में आईडीबीआई बैंक में अपनी बहुलांश हिस्सेदारी एलआईसी को बेचकर आईडीबीआई बैंक का निजीकरण कर दिया था। इसके अलावा पिछले चार साल में 14 सरकारी बैंकों का विलय किया गया है।

बैंक कर्मचारी यूनियनों का कहना है कि "राष्ट्र और इसके लोग" देश के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के मालिक हैं और चुनी हुई सरकार को महज़ इनकी "रखवाली" करने  का दायित्व है। लेकिन नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार के आक्रामक तरीक़े से निजीकरण की तरफ़ बढ़ रही है। हम इस क़दम की कड़ी आलोचना करते है।


सीतारमण ने इस साल 2021-22 के वित्तीय वर्ष में अपने बजट भाषण के दौरान दो पीएसबी (आईडीबीआई बैंक के अलावे एक और बैंक) और एक सामान्य बीमा कंपनी के निजीकरण का ऐलान किया था। उन्होंने चालू वित्त वर्ष के लिए 1.75 लाख करोड़ रुपये के विनिवेश लक्ष्य को हासिल करने के लिए जीवन बीमा निगम (LIC) की आंशिक प्रारंभिक सार्वजनिक पेशकश (IPO) शुरू करने की केंद्र की प्रतिबद्धता को भी दोहराया था।

आपको बता दे इसी साल 15 मार्च को सरकार के इसी क़दम के ख़िलाफ़ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और पुराने निजी बैंकों के क़रीब 10 लाख कर्मचारी दो दिन की हड़ताल पर चले गये थे। बैंक कर्मचारियों के साथ जनरल इंश्योरेंस कॉरपोरेशन (GIC) और एलआईसी के कर्मचारी भी शामिल हो गये थे, उन्होंने एक दिन के लिए अपनी ड्यूटी भी छोड़ दी थी।

हाल ही में सरकारी बैंकों के निजीकरण के विरोध में बैंक अधिकारियों के सबसे बड़े संगठन ऑल इण्डिया बैंक ऑफिसर्स कन्फेडरेशन (AIBOC) के आह्वान पर ‘बैंक बचाओ, देश बचाओ’ अभियान के तहत देश के अलग-अलग राज्यों में पैदल मार्च किया गया और रैलियाँ निकाली गईं। बैंक बचाओ, देश बचाओ अभियान के तहत भारत यात्रा पर निकले बैंकरों ने मंगलवार 30 नवम्बर को दिल्ली के  जंतर-मंतर पर बड़ा विरोध प्रदर्शन किया। जिसके बाद AIBOC की ओर से जो जन जागरूकता अभियान 24 नवंबर से भारत यात्रा के साथ शुरू हुआ था उसका 30 नवम्बर को समापन हुआ।

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बैंक कर्मियों ने बैंक के निजीकरण के खिलाफ आवाज उठाई। इनका कहना है कि सरकार संसद में जो बिल लाने जा रही है उससे बैंकों के निजीकरण का रास्ता साफ होगा और रोजगार के अवसर कम होंगे। साथ ही किसानों, छोटे व्यवसायियों, स्वयं सहायता समूह समेत कमजोर वर्गों के लिए ऋण सुविधा भी लगभग खत्म हो जाएगी।

आपको बता दें कि केंद्र सरकार दो सरकारी बैंकों का निजीकरण करने की बड़ी तैयारी कर रही है। इसी के चलते संसद के इस शीतकालीन सत्र में बैंकिंग कानून संशोधन विधेयक लाया जा सकता है। इससे सरकार को बैंकिंग नियमों में बदलाव करने का अधिकार मिल जाएगा। वहीं जिन दो बैंकों का निजीकरण करने के तैयारी चल रही है, उसका भी रास्ता साफ़ हो जाएगा।
 सरकार ने बैंकिंग अधिनियम (संशोधन) विधेयक, 2021 को संसद के मौजूदा सत्र के दौरान पेश करने और पारित करने के लिए सूचीबद्ध किया है।

बैंक कर्मचारी यूनियन के नेता कहते है कि, "निजी बैंकों का इतिहास बैंकिंग नाकामियों से अटा-पड़ा है, एक के बाद एक बैंक बंद होते गए, जिससे उनके कर्मचारियों और जमाकर्ताओं को बहुत परेशानी हुई।" फ़ेडरेशन यह बात देश में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पहले वाले दौर की बात कर रहा है। 1969 में कम से कम उन 14 बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था, जो उस समय देश में काम कर रहे थे।

कमर्चारियों की  यूनियन बीईएफ़आई ने कहा कि तब से देश के "आर्थिक विकास" और इसकी "संप्रभुता" को लेकर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की तरफ़ से निभायी गयी "शानदार भूमिका" के साथ देश ने एक लंबा सफ़र तय किया है।

सार्वजनिक बैंकों की संख्या कम करने की सिफ़ारिशें 1991 से उस नयी राष्ट्रीय आर्थिक नीति के आगमन के बाद से गठित कई समितियों की तरफ़ से की जाती रही हैं, जिसने वैश्विक खिलाड़ियों के लिए भारतीय बाज़ार खोल दिये थे।

उन्हीं सिफ़ारिशों को अब मोदी सरकार आक्रामक तरीक़े से आगे बढ़ा रही है। इसका नतीजा यह हुआ है कि 2014 तक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की संख्या 27 थी, जो घटकर 12 रह गयी है। यह वही साल था, जब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) ने केंद्र में सत्ता संभाली थी।

बीईएफ़आई के महासचिव, देबाशीष बसु चौधरी ने न्यूज़क्लिक से कहा कि , “बैंक कर्मचारी 1991 से ही बैंकों के निजीकरण के विचार का विरोध कर रहे हैं। यह जनता, यानी बैंकों के ग्राहकों को उतना ही नुक़सान पहुंचायेगा, जितना कि बैंक के कर्मचारियों का मनोबल गिरायेगा।”
 
अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी एसोसिएशन (AIBEA) के महासचिव सीएच वेंकटाचलम ने एक बयान में कहा कि बैंक कर्मचारी यूनियनों के महासंघ यूएफबीयू ने इसके विरोध का फैसला किया है। उन्होंने कहा कि यूएफबीयू ने आईबीए को 16 व 17 दिसंबर की हड़ताल का नोटिस दे दिया है। वेंकटाचलम ने कहा है कि भारत जैसे विकासशील देशों में बैंकों में बड़े पैमाने पर जनता की बचत जमा होती है। इसका इस्तेमाल व्यापक आर्थिक विकास में होना चाहिए। सरकारी बैंकें सामाजिक सोच वाली होती है, इसलिए इसलिए विकास के लिए ये सर्वथा उपयुक्त हैं।

(समाचार एजेंसी भाषा के इनपुट के साथ)

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