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चौहान साहब, जैसे पत्थर ज़ख़्म या मौत देते हैं, वैसे ही मुस्लिम विरोधी नारे लोकतंत्र को नुकसान पहुँचाते हैं

पथराव करने वालों को दंडित किया जा रहा है, और उन लोगों को नहीं जो लोकतंत्र विरोधी नारे लगाते हैं, और हिंदुत्व की भड़काऊ राजनीति को बढ़ाते हैं।
चौहान

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हाल ही में पत्थरबाजों को भारतीय लोकतंत्र और समाज के लिए खतरा बताया है। लोग डर के मारे गुस्से में पत्थर नहीं मारते हैं; बल्कि, वे अपनी मांगों को मनवाने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं, या जो चौहान हमें विश्वास कराना चाहते हैं। “अगर कोई शांति से अपने मुद्दों को उठाता है, तो लोकतंत्र मज़बूत होता है। लेकिन किसी को भी सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की इजाजत नहीं है। मुख्यमंत्री ने फिर पत्थरबाजी करने के पीछे की मंशा को बताया: "पथराव कोई सामान्य अपराध नहीं है, बल्कि इससे लोगों की मौत हो सकती है, आतंक का माहौल बन सकता है, अराजकता पैदा हो सकती है और क़ानून व्यवस्था को नुकसान पहुंचा सकता है।"

लोकतांत्रिक आचरण पर चौहान के भाषण की विडंबना ये है कि उनका राज्य हिंदुत्व की ज़ोर आजमाइश का नया अड्डा बन गया है। दिसंबर के अंतिम सप्ताह में इसी ज़ोर आजमाइश को दिखाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके सहयोगी संगठनों ने अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए धन इकट्ठा करने के लिए जुलूसों का आयोजन किया, और जान-बूझकर  मुस्लिम इलाकों से जुलूस निकाला गया, धार्मिक स्थलों के सामने अपमानजनक नारे लगाए और घरों तथा मस्जिदों में तोड़फोड़ की गई। जनाब चौहान साहब ने अभी इस बात को स्पष्ट नहीं किया है कि क्या संघ कार्यकर्ताओं का इस तरह का आचरण लोकतांत्रिक हैं? 

लग तो ऐसा रहा है जैसे कि पत्थरबाज लोकतंत्र के लिए इसलिए सबसे बड़ा कटरा बन गया  क्योंकि उज्जैन में मुस्लिम बेगम बाग इलाके में हिंदू दक्षिणपंथियों का विरोध किया गया और वहाँ के निवासियों ने धन जुटाने वाले जुलूस पर पथराव किया था। यह जानते हुए कि अयोध्या में राम मंदिर उसी जगह बनाया जा रहा है जहाँ बाबरी मस्जिद को 6 दिसंबर 1992 को ध्वस्त कर दिया गया था, इसलिए जुलूस को मुस्लिम इलाके से ले जाने का विकल्प हिंदू विजयवाद का प्रतीक बना कर निकाला जा रहा था। इस धारणा को मुखर करने के लिए जुलूस में शामिल कार्यकर्ताओं ने अपमानजनक और यौन इशारा करने वाले नारे लगाए थे। जल्द ही, चारों ओर से पत्थर पड़ने लगे।

यह जानने के लिए कि पत्थर से घाव और जान जा सकती है किसी बड़े ज्ञान की जरूरत नहीं है। पत्थर घरों और कारों की खिड़की को भी चकनाचूर कर सकते हैं। कुछ दिनों बाद की गई दंडात्मक कार्रवाई में, उज्जैन प्रशासन ने उस एक घर को ध्वस्त कर दिया, जहाँ से दो मुस्लिम महिलाओं ने जुलूस पर पथराव किया था और उसका वीडियो रिकॉर्ड किया गया था। उन्होंने ऐसा किया, यह बात बराबर वाले हिंदू घर से पता चली जो ध्वस्त हुए घर से सटा हुआ था। वे दोनों महिलाएं मुस्लिम परिवार से संबंध भी नहीं रखती थी जिनका घर ध्वस्त किया गया।

उस परिवार की त्रासदी को थोड़ा अलग रखते हैं: क्या बेगम बाग के निवासी जुलूस को रोकने और अपनी कॉलोनी में कहर बरपाने से रोकने के लिए ईंट-पत्थर बरसा रहे थे? क्या वे जुलूस में शामिल लोगों के हिंसक इरादों को भापने में गलत थे, जो उन्हे "औरंगजेब की औलाद" कहने से बाज़ नहीं आ रहे थे? और जिन दो महिलाओं पर पथराव का आरोप लगाया है क्या उन्हे अंदाज़ा नहीं था कि उनके साथ क्या होने वाला है क्योंकि जुलूसी लोग यौन इशारे वाले नारे लगाए रहे थे?

ये कुछ ऐसे सवाल थे जिन पर मंदसौर जिले के दोराना गाँव के मुस्लिम निवासी उन दिनों विचार कर रहे थे, जब हिंदू दक्षिणपंथी संगठन फंड जुटाने के लिए सोशल मीडिया एवं जुलूस आयोजित करने के कार्यक्रम कर रहे थे। कुछ मुट्ठी भर पुरुषों को छोड़कर, बहुमत मुस्लिम परिवारों ने 29 दिसंबर की सुबह गाँव छोड़ने का फैसला कर लिया था। घंटों बाद, जुलूस दोराना के बीच से गुजारा, जिसमें डीजे संगीत के साथ शामिल लोग लाठियां और तलवारें लहरा रहे थे और भड़काऊ नारे लगाते हुए घरों में घुस रहे थे।

मोहम्मद हकीम ने बताया कि उनके घर में तोड़फोड़ की गई, लॉकर को तोड़ा गया, लाखों की ज्वैलरी और नकदी लूटी ली गई। उमर मोहम्मद मंसूरी ने अपनी किराने की दुकान लूटने की बात बताई। इस्लामिक हरे झंडे को गाँव की मस्जिद की मीनार से निकाल दिया गया और उसकी जगह भगवा झंडा लहरा दिया गया और मस्जिद के बाहर हनुमान चालीसा का पाठ किया गया। पुलिसकर्मियों की बड़ी तादाद की मौजूदगी में यह सब किया गया। दोराना में बहुमत में रहने वाले हिंदू परिवारों ने इसे रोकने के लिए हस्तक्षेप नहीं किया।

हकीम ने बताया, कि "हमें हिंदू परिवारों और प्रशासन ने धोखा दिया गया है।" “वे संविधान को नहीं मानते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर बनाने के लिए उन्हें [हिंदुओं] [बाबरी मस्जिद की जगह] दी है, जिसका निर्माण का काम शुरू हो चुका है। फिर वे क्यों इस तरह के विनाश क्यों कर रहे है?" हकीम कहने से पहले थोड़ा शांत होकर बोले, "उन्होंने दो बकरियों को भी मार डाला।"

दोराना में जुलूसियों पर पथराव नहीं किया गया था। क्योंकि गाँव में तो बहुत कम मुसलमान मौजूद थे।

इंदौर जिले के मुस्लिम गाँव चंदन खेड़ी में ऐसा नहीं था। शाकिर पटेल ने बताया कि जुलूस निकालने वालों ने अचानक चंदन खेड़ी में जैसे छापा मार दिया था, और मुसलमानों को बेदखल करने और उन्हें पाकिस्तान भेजने की धमकी दे रहे थे। तब तक कोई हिंसा नहीं भड़की, जब तक कि जुलूस ने गांव के ईदगाह मस्जिद की मीनार पर हमला कर इस्लाम के प्रतीक हरे झंडे को फाड़ नहीं दिया, मौजूद पुलिसकर्मी मुकदर्शक बने खड़े रहे। शाकिर के मुताबिक इसके बाद "दोनों पक्ष एक-दूसरे पर पथराव करने लगे।" गाँव से बहार जाते समय भी जुलूसियों ने कादिर पटेल के घर पर हमला किया, उनके दो ट्रैक्टरों को आग लगा दी और उनके परिवार के सदस्यों पर गोलीबारी की।

मध्य प्रदेश की ये कहानियाँ इस बात को साबित करती हैं कि हिंदू दक्षिणपंथी द्वारा नारे लगाने से क्यों लोगों को खतरा महसूस होता है। नारे लोगों को घायल नहीं करते और न ही मारते हैं। न ही उनकी संपत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं। लेकिन मुसलमानों के खिलाफ नारे, उनकी नागरिकता को चुनौती देने या उनके धर्म का अपमान करने और उन्हें भड़काने के लिए डिज़ाइन किए गए हैं। उन्हें हिंसा का जवाब नहीं देना था और न ही घोर असमान लड़ाई लड़ने के जाल में पड़ना था। 

भारत का अतीत इस बात की गवाही देता है कि जब कभी भी मुस्लिम इलाकों से मुस्लिम विरोधी नारे लगाते हुए जुलूस निकलते हैं, अक्सर उसी से दंगे की शुरुआत होती है। वे लोग जिनकी धार्मिक पहचान शायद पत्थर से बताई जाती है। मुसलमान को अपराधी माना जाता है। मुस्लिम को छोड़ सबको सब कुछ करनी की आज़ादी होती है। यह वह सामूहिक स्मृति है, कि  मुसलमान डर के मारे हाथापाई से बचने के लिए पत्थरों का इस्तेमाल करता है, अक्सर अचानक हुए हमले से वे अपनी सुरक्षा नहीं कर पाते हैं क्योंकि वे पुलिस की तटस्थता पर विश्वास नहीं करते हैं।

फिर भी चौहान ने पथराव को लोकतंत्र को खतरे के रूप में पहचाना है। सरकार इस खतरे का मुकाबला करने के लिए सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले लोगों की संपत्ति को अटेच करने का एक क़ानून बनाने की योजना बना रही है, या तो पथराव या अन्य तरीकों से हुए नुकसान की भरपाई की जाएगी। लोकतांत्रिक आचरण के मामले में चिंता जताने वाले मुख्यमंत्री चौहान को इस बात पर भी भाषण देना चाहिए था कि नफरत फैलाने वाले नारे  लोकतंत्र को कैसे नुकसान पहुंचाते हैं। उन्हे हिंदू सामाजिक-सांस्कृतिक समूहों के उन उदाहरणों का हवाला देना चाहिए थी जिनमें इतिहास के पन्नों में यह दर्ज़ हो कि सांप्रदायिक सौहार्द को नफरत की अलाव में कैसे बदला जाता है, और मुस्लिम इलाकों से जुलूस निकालने और बदतमीजी करने वाले व्यवहार कैसे किए जाते हैं। 

पेरिस आधारित संगठन विज्ञान पो द्वारा तैयार की गई दंगों की एक लंबी सूची से लिए गए कुछ उदाहरण को यहां चौहान जी के विचार के लिए पेश किया जा रहा हैं। 1970 में भिवंडी में विस्फोट हुआ, क्योंकि मुस्लिम इलाके से शिव जयंती का जुलूस निकाला गया था और वहाँ  मुस्लिम विरोधी नारे लगाए गए थे। 1979 में जमशेदपुर में "सांप्रदायिक हिंसा के लिए अनुकूल माहौल" बनाने के लिए जितेंद्र नारायण आयोग ने आरएसएस को ज़िम्मेदार ठहराया था। आरएसएस ने तब भी मुस्लिम इलाके से रामनवमी जुलूस निकालने पर ज़ोर दिया था। 1982 में, सोलापुर में दंगा हुआ क्योंकि विश्व हिंदू परिषद का जुलूस मस्जिद के पास रुका और ज़ोर से चिल्लाना शुरू कर दिया या, “जला दो जला दो पाकिस्तान।“´1989 में हिंदू संगठनों की मुस्लिम इलाके से अयोध्या के लिए पवित्र ईंटों को ले जाने की जिद के कारण भागलपुर में बर्बरता का नंगा नाच हुआ था। उन्होंने मुस्लिम विरोधी नारे लगाकर पहले से ही तनावपूर्ण हालत पैदा कर दिए थे। 

मुस्लिम विरोधी नारे भले ही न मार पाए, लेकिन ये नारे निश्चित तौर पर लोकतंत्र की भाषा नहीं हैं। इसका कारण यह कि शब्द, चाहे वे बोले या लिखे गए हों, समुदायों के बीच रंजिश पैदा करने के लिए डिज़ाइन किए गए हैं, जो भारतीय दंड संहिता की धारा 153 ए और धारा 153 बी, धारा 295 (ए) और धारा 298 के तहत दंडनीय हैं। विधि आयोग ने 2017 में, केंद्र सरकार से सिफारिश की कि थी कि वह उन शब्दों को दंडनीय बनाए जो "भय या चेतावनी" पैदा करने के उद्देश्य से इस्तेमाल किए गए हों, दो भावनाएँ जिन्हे हिंदू दक्षिणपंथ मध्य प्रदेश के मुसलमानों के खियाफ इस्तेमाल करता है। इसी तरह, जो लोग पत्थर मारते हैं और जीवन को खतरे में डालते हैं, उन्हे आईपीसी की धारा 336 के तहत दंडित किए जाने का पहले से ही प्रावधान हैं। मौत का कारण बनने वाले पत्थरबाज को हत्या करने के जुर्म में भी गिरफ्तार किया जा सकता  है।

चौहान का पथराव करने वालों पर आर्थिक दंड लगाने का प्रस्ताव और उन लोगों पर नहीं जो सांप्रदायिक नारे लगाते हैं, लोकतांत्रिक आचरण के बारे में उनकी गलत सोच को दर्शाता हैं। इससे हिंदुत्व समूहों को संभवतः तंज़ कसने की राजनीति को आगे बढ़ाने और अधिक ज़ोर आजमाइश की ताक़त मिलेगी। 

लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Mr Chouhan, Just as Stones Wound or Kill, Anti-Muslim Slogans Assault Democracy

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