दुनियाभर की: संसदीय चुनावों में वामपंथी धड़े की जीत की संभावना से जर्मनी के धनकुबेर परेशान
जर्मनी में रविवार को संसद के लिए चुनाव हैं। एक दिन पहले तक की रायशुमारियों और बाकी पूर्वानुमानों के हिसाब से देखा जाए तो वामपंथी रुझान वाली मध्यमार्गी पार्टी सोशल डेमोक्रेट्स (एसडीपी) अभी तक सबसे आगे है। उन्हें अभी सत्ता पर काबिज दक्षिणपंथी रुझान वाली मध्यमार्गी पार्टी क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन (सीडीयू) पर थोड़ी बढ़त हासिल है। देखना यह है कि क्या यह बढ़त रविवार तक बनी रहती है और नतीजों में झलकती भी है। वहां रायशुमारियां तकरीबन रोज हो रही हैं और एकाध फीसद की घटत-बढ़त रोज हो रही है।
जर्मनी के ये चुनाव महत्वपूर्ण हैं क्योंकि 16 साल बाद चांसलर एंजेला मर्केल अपने पद से हट रही हैं। 2005 में वह चांसलर बनी थीं और उसके बाद से वह न केवल यूरोपीय संघ के सबसे कद्दावर नेता के रूप में उभरीं, बल्कि दुनिया की सबसे ताकतवर महिलाओं में भी शुमार की जाने लगीं। अब वे चांसलर नहीं रहेंगी तो जाहिर है जर्मनी के लोग नए विकल्प तलाश रहे हैं। समाजवादी एसडीपी 1998 से 2005 तक भी गेरार्ड श्रोएडर के नेतृत्व में सत्ता में थी।
श्रोएडर ने अपने कार्यकाल में 2002 में इराक में अमेरिका द्वारा युद्ध छेड़े जाने का कड़ा विरोध किया था। लेकिन 2005 में मध्यावधि चुनावों में उनकी पार्टी बेहद मामूली अंतर से मर्केल के नेतृत्व में लड़ी सीडीयू से चुनाव हार गई थी। दरअसल दोनों के बीच अंतर इतना कम था कि चुनाव की शाम दोनों ही गठबंधन अपनी-अपनी जीत का ऐलान कर रहे थे। खैर, यह इतिहास की बात है कि कैसे मर्केल के नेतृत्व में सीडीयू व एसडीपी में एक महागठबंधन बनाने पर सहमति बनी। जर्मनी के लिए यह मर्केल दौर की शुरुआत थी। मजेदार बात यह भी रही कि मर्केल का महागठबंधन अभी तक कायम रहा है। चुनाव के बाद इस तरह के महागठबंधन की संभावना फिलहाल कम नजर आती है।
अब स्थितियां बदल चुकी हैं। एसडीपी यदि चुनावों में सबसे आगे रहती है तो ग्रीन पार्टी उसके गठबंधन में शामिल हो सकती है। ग्रीन पार्टी जर्मनी की राजनीति में तीसरे स्थान पर आती है। धुर वामपंथी लिंक पार्टी भी साथ आ गई तो तीनों मिलकर सरकार बनाने की स्थिति में आ सकते हैं।
सोलह साल बाद जर्मनी की सत्ता के फिर से वाम रुझान हासिल करने की संभावना पर थोड़ी हलचल तो है। मजेदार बात यह है कि खलबली वहां के धनकुबेरों में भी है। जर्मनी के बैंकर्स व कर वकीलों के हवाले से आ रही खबरों को सही माना जाए तो वहां के अरबपतियों में अपनी संपत्ति स्विस बैंकों में पहुंचाने की हड़बड़ी सी मची हुई है। कहा यह जा रहा है कि अगर एसडीपी, ग्रीन व लिंक का गठबंधन सत्ता में आता है तो वहां सपत्ति कर फिर से लगाया जा सकता है और विरासत कर भी राजनीतिक एजेंडे में शामिल किया जा सकता है। बैंकिंग व कर व्यवस्था से जुड़े कई लोगों का कहना है कि जर्मनी के उद्यमी परिवार काफी आशंकित हैं।
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कई विश्लेषक मानते हैं कि जर्मनी के चुनावी नतीजे जो भी रहें, वहां की राजनीति में वाम रुझान आना एक तय सी बात है। एक स्विस बैंकर का कहना था कि उसे ऐसे कई जर्मन उद्यमियों के बारे में जानकारी है जो चाहते हैं कि अगर जर्मनी में लाल रुझान बढ़े तो उनका एक पांव देश के बाहर सुरक्षित रहे। हाल यह है कि कई जर्मन धनकुबरों ने स्विट्जरलैंड में ज्यूरिख लेक के आसपास कोठियां खोजनी शुरू कर दी हैं। अगर हम मानते हैं कि किसी भी देश का संपत्तिशाली वर्ग सत्ता में बदलाव की हवा को पहले भांप लेता है तो यकीनन जर्मनी का संपत्तिशाली वर्ग भी राजनीतिक बदलाव का संकेत दे ही रहा है।
रायटर्स ने कई स्विस बैंकों व वित्त विशेषज्ञों के हवाले से यह खबर दी है कि पिछले कुछ महीनों से स्विस बैंकों में जर्मनी से धन की आवक सामान्य से काफी तेज हुई है। अब यह दीगर बात है कि स्विट्जरलैंड ‘कर चोरों की तिजोरी’ वाली अपनी छवि को कितना ही बदलने की कोशिश करे, ऐसा फिलहाल तो हो नहीं पा रहा है।
बहरहाल, जर्मनी की बदलती राजनीतिक धारा की बात करें तो ग्रीन पार्टी तो संपत्ति पर कर लगाने के मामले में एसडीपी से भी ज्यादा सख़्त है। हालांकि इस बात पर तो दोनों ही एकमत हैं कि ज्यादा कमाने वालों पर आयकर की दर भी ज्यादा होनी चाहिए।
एक स्थिर सरकार बनाने के लिए एससडीपी को सब तरफ से समर्थन की जरूरत तो होगी ही। चांसलर पद के लिए उसके उम्मीदवार ओलफ शुल्ज़ ने जर्मनी के ताकतवर स्टील उद्योग से वादा किया है कि वह सरकार में आए तो उसे पर्यावरण-अनुकूल उत्पादन प्रक्रिया में ढलने में पूरी मदद देंगे। शुल्ज़ इस समय जर्मनी के वाइस चांसलर हैं और मर्केल की सरकार में वित्त मंत्री। मर्केल के उत्तराधिकारी के तौर पर वह जर्मनी के लोगों की पहली पसंद हैं। मर्केल की पार्टी सीडीयू के नेतृत्व वाले गठबंधन की ओर से चांसलर पद के दावेदार आर्मिन लेशेट लोकप्रियता में शुल्ज़ से पीछे हैं।
एसडीपी के साथ हाथ मिलाने को तैयार ग्रीन पार्टी के एजेंडे में पर्यावरण के मुद्दे साफ तौर पर हावी रहते हैं। जर्मनी को यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था माना जाता है और वहां जलवायु परिवर्तन चुनाव प्रचार के केंद्रीय मुद्दों में रहा है। शुल्ज़ ट्रेड यूनियनों के मजबूत इलाकों में जाकर भी यह वादा करते रहे हैं कि वे बिजली उत्पादन की क्षमता को तेजी से बढ़ाने के पक्षधर हैं ताकि उद्योगों को कार्बन का उत्सर्जन कम करने में मदद दे सकें। उनका जोर पनबिजली व सौर ऊर्जा के साथ-साथ बिजली ग्रिड विकसित करने पर है। वह सरकारी मंजूरी की प्रक्रियाओं को भी कम जटिल बनाने के पक्षधर हैं।
बहुदलीय लोकतंत्र होने के बावजूद जर्मनी की चुनावी प्रक्रिया हमारे यहां से काफी अलग है। पार्टियों को संसद में प्रतिनिधित्व पाने के लिए कम से कम 5 फीसदी मत या फिर तीन निर्वाचन क्षेत्रों में जीत हासिल करनी होती है। जर्मनी के बावरिया इलाके में लोकप्रिय क्रिश्चियन सोशल यूनियन भी मर्केल की पार्टी की साझीदार है। इसके अलावा दो और पार्टियां वहां मजबूत हैं- फ्री डेमोक्रेट्स जिसे आम तौर पर उद्योगपतियों की समर्थक पार्टी माना जाता है और एएफडी यानी ऑल्टरनेटिव फॉर जर्मनी जो धुर दक्षिणपंथी और शरणार्थी-विरोधी पार्टी है। अगले चार साल के लिए सबका भविष्य रविवार को मतपेटियों में बंद हो जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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