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दुनिया भर की: नॉर्वे में लेबर की अगुआई में मध्य-वाम गठजोड़ सत्ता में

नॉर्व में चुनावी मुद्दे बाकी देशों जैसे नहीं रहे हैं। नॉर्वे की नाजुक पारिस्थितिकी का असर यह है कि जलवायु परिवर्तन भी वहां बड़ा चुनावी मुद्दा रहा है, और साथ ही लोगों की आर्थिक सेहत के बीच बढ़ती खाई भी।
Norway
लेबर पार्टी के मुखिया जोनास गास्तोर और निवर्तमान प्रधानमंत्री कंजर्वेटिव पार्टी की एर्ना सोल्डबर्ग चुनाव से पहले एक डिबेट के दौरान। फोटो साभार: रायटर्स

खूबसूरत स्कैंडिनेवियाई देश नॉर्वे की चर्चा उसकी राजनीति के लिए कम ही होती रही है। लेकिन हाल ही में वहां एक महत्वपूर्ण राजनीतिक बदलाव हुआ है जिसकी वजह से वह सुर्खियों में है। वहां हुए संसदीय आम चुनावों में मध्यमार्गी व वाम रुझान वाली पार्टियों के विपक्ष को बहुमत हासिल हुआ है।

साल 2004 से कंजर्वेटिव पार्टी की नेता और पिछले आठ साल से प्रधानमंत्री एर्ना सोल्डबर्ग ने चुनावों में अपनी हार स्वीकार कर ली है। नॉर्वे की राजनीति में सोल्डबर्ग को अक्सर पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर की आयरन लेडी’ वाली छवि की तर्ज पर ‘आयरन एर्ना कहा जाता रहा है लेकिन इस बार के चुनावों में उनकी ताकतवर छवि का पासा पलट गया।

संयोग की बात है कि ब्रिटेन की ही तरह नॉर्वे भी नाटो का सदस्य तो है लेकिन यूरोपीय संघ में शामिल नहीं है। हालांकि ईयू से उसके आर्थिक रिश्ते अच्छे हैं।

बहुमत मिलने के बाद अब मध्यमार्गी व वाम पार्टियों वाले विपक्ष के लिए गठबंधन सरकार बनाना सबसे बड़ी चुनौती है। लेबर पार्टी के नेता जोनास गास्तोर ने कह ही दिया है कि वह अगली सरकार बनाने जा रहे हैं।

नॉर्वे की संसद में 169 सीटें हैं और सरकार बनाने के लिए 85 सीटों की जरूरत होती है। विपक्षी पार्टियों के पास पिछली संसद में 81 सीट थीं, लेकिन इस बार उनकी संख्या के 100 तक पहुंचने की उम्मीद है। नॉर्वे में समानुपातिक प्रतिनिधित्व की चुनावी व्यवस्था है। वहां सरकार का कार्यकाल चार साल का होता है और नियत समय से पहले चुनावों की वहां कोई व्यवस्था नहीं है।

नॉर्व में चुनावी मुद्दे बाकी देशों जैसे नहीं रहे हैं। नॉर्वे की नाजुक पारिस्थितिकी का असर यह है कि जलवायु परिवर्तन भी वहां बड़ा चुनावी मुद्दा रहा है, और साथ ही लोगों की आर्थिक सेहत के बीच बढ़ती खाई भी। नॉर्व तेल व गैस का भी बड़ा उत्पादक है लिहाजा प्रचार में मुद्दा यह भी रहा है कि पेट्रोलियम का इस्तेमाल कैसे कम किया जाए और अगर कम किया जाए तो उस पर निर्भर रोजगार की कैसे भरपाई की जाए। जाहिर है कि पर्यावरण-समर्थक पार्टियों की जीत के बावजूद यह प्रक्रिया लंबी चलने वाली है।

इन सारे, और यूरोपीय संघ से कैसे रिश्ते रखे जाएं, जैसे मुद्दों पर नीतिगत तालमेल बनने के बाद ही लेबर पार्टी बाकी दलों के साथ सरकार बना पाएगी। लेकिन सबसे बड़ी पार्टी होने के कारण लेबर पार्टी की जिम्मेदारी भी सबसे बड़ी होगी। जोनास को इस बात का इल्म भी है और नतीजों के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधन में उन्होंने इस बात को स्वीकार भी किया कि देश को नई दिशा देने के इच्छुक लोगों को साथ लेकर चलना होगा। इस काम में उन्होंने सबसे पहले सेंटर पार्टी और समाजवादी वाम पार्टी से बातचीत शुरू करने की बात कही।

दरअसल, लेबर पार्टी के पास सेंटर पार्टी और समाजवादी पार्टी को मिलाकर भी बहुमत लायक सीटें हैं। वह चाहे तो बाकी दो दलों- मार्क्सवादी रेड पार्टी और ग्रीन पार्टी का समर्थन न भी ले। लेकिन फिलहाल इस बारे में कई बात नहीं हुई है। दूसरे खेमे में कंजर्वेटिव पार्टी को हमेशा लिबरल पार्टी का साथ मिलता रहा है।

विश्लेषकों का मानना है कि नई सरकार के अधीन सार्वजनिक खर्च का बजट तो शायद बहुत ज्यादा न बदले लेकिन थोड़े कर बढ़ सकते हैं और प्राथमिकताओं में बदलाव आ सकता है। लेबर पार्टी के नेता पहले ही कह चुके हैं कि वह सार्वजनिक सेवाओं को लोगों को सस्ते में उपलब्ध कराने के लिए निचले व मध्यम वर्ग पर से कर का बोझ कम करके संपन्न तबके पर ज्यादा कर लगाने के हक में हैं। उन्होंने प्रचार के दौरान कहा था कि वे मध्य वर्ग पर और बोझ नहीं डालेंगे लेकिन अत्यधिक संपन्न लोगों और कमाई में ऊपर के 20 फीसदी लोगों को ज्यादा कर देने के लिए तैयार रहना होगा।

सेंटर पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी को साथ लेकर चलना भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं होगा क्योंकि सेंटर पार्टी का आधार मुख्य रूप से ग्रामीण इलाकों में है और सोशलिस्ट पार्टी का शहरों में। जाहिर है कि तेल से लेकर कर तक, हर मुद्दे पर इनकी राय आम तौर पर एक-दूसरे से उलट होती है। आने वाले दिनों में यह साफ होगा कि सरकार का खाका क्या रहता है। लेबर पार्टी अपनी 48 सीटों के दम पर अकेले अल्पमत सरकार चलाना चाहे तो वह भी चला सकती है लेकिन फिर हमेशा उसके सिर पर तलवार लटकी रहेगी।

वैसे नॉर्वे में लेबर पार्टी के लिए सत्ता में रहने की तुलना में सत्ता के बाहर रहने के मौके कम ही रहे हैं। 1928 के बाद यह पहली मर्तबा ही हुआ था कि लेबर पार्टी आठ साल तक सरकार से बाहर रही। वरना तो दूसरे विश्व युद्ध के बाद से 76 सालों में 50 साल लेबर पार्टी सत्ता में रही है। इसलिए सरकार चलाने की कला तो उन्हें आती है।

हालांकि जोनास गास्तोर को अपनी खुद की छवि से भी मुकाबला करना होगा। दुनियाभर में श्रमिक वर्ग की पार्टी के तौर पर मानी जाने वाली लेबर पार्टी के मुखिया खुद एक बेहद संपन्न परिवार से आते हैं। एक वक्त था जब उनकी यह पृष्ठभूमि एक श्रमिक पार्टी के नेता के रूप में उनके उभरने के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा थी। वह 2014 से ही लेबर पार्टी के मुखिया हैं। 2017 का चुनाव तो वह नहीं जिता पाए थे लेकिन इस बार उन्होंने विपक्षी मध्य-वाम पार्टियों को तीन दशकों की उनकी सबसे बड़ी जीत दिला ही दी।

जोनास कहते रहे हैं कि 1980 के दशक में पेरिस के पढ़ाई के दिनों में वर्गभेद की समझ ने उन्हें समाजवादी लोकतंत्र की तरफ मोड़ा। वह कहते हैं कि अगर आर्थिक बोझ सबपर बराबर रहे तो जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए जरूरी नई सख्त नीतियों को सहजता से लागू किया जा सकेगा। हमें एक ऐसा समाज चाहिए जहां लोगों के बीच अंतर कम से कम हो।

जोनास तत्कालीन सोवियत संघ में भी रहे हैं और वहां असंतुष्टों के साथ काम करते रहे हैं। बाद में वह नॉर्वे की पहली महिला प्रधानमंत्री ग्रो हार्लेम ब्रंटलैंड के भी खास रहे। वह 2010 में विदेश मंत्री भी रह चुके हैं। अब प्रधानमंत्री की भूमिका में वह नॉर्वे की राजनीति को क्या दिशा देते हैं, यह देखना है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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