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अमृतकाल’ में बढ़ रहे हैं दलितों-आदिवासियों के ख़िलाफ़ हमले

संसद में पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक़, उत्तर प्रदेश और बिहार में दलितों का उत्पीड़न सबसे अधिक हुआ है जबकि आदिवासियों के ख़िलाफ़ अपराध के सबसे ज़्यादा मामले मध्य प्रदेश और राजस्थान में दर्ज किए गए हैं।
attack on dalits
'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: NewsX

देश आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है। पिछले 75 वर्षों से देश में आज़ादी के उत्सव मनाए जाते हैं और इसमें देश के सभी नागरिक शामिल होते हैं। वे भी इन उत्सवों को मनाते हैं जिन्होंने अभी तक आज़ादी का अमृत नहीं चखा है। देश के करोड़ों गरीब जिनके सिर पर छत नहीं हैं, जिनके पास कोई सुरक्षित रोज़गार नहीं है या जो रोज़मर्रा के जीवन में दो वक़्त की रोटी के लिए संघर्ष करते हैं। इन लोगों के लिए आज़ादी का उत्सव मनाने के लिए किसी सरकारी फरमान की जरूरत नहीं है। ये लोग इसलिए भी आज़ादी का उत्सव मनाते हैं क्योंकि वे कहीं न कहीं इस उम्मीद में रहते हैं कि कभी तो उनके भी अच्छे दिन आएंगे।

मौजूदा मोदी सरकार ने आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ को मनाने के लिए बड़ी मुहिम छेड़ी हुई है और इसे ‘अमृतकाल’ का नाम दिया है। इसलिए घर-घर तिरंगा का आह्वान किया गया है और पूरी की पूरी सरकारी मशीनरी इसे जबर्दस्ती लागू करने पर आमादा है। अमृतकाल से मतलब यह है कि अब ऐसी व्यवस्था आ गई है जो देश के हर बाशिंदे की जरूरतों का ख्याल रखेगी और देश को तरक्की की तरफ ले जाएगी। लेकिन क्या यह एक हक़ीक़त है?

नहीं, यह हक़ीक़त नहीं है। हक़ीक़त यह है कि पिछले दो सालों में दलितों और आदिवासियों के खिलाफ हमले बढ़े हैं और जघन्य अपराधों में काफी बढ़ोतरी हुई है। दलितों के खिलाफ सबसे ज्यादा अत्याचार उत्तर प्रदेश और बिहार में बढ़े हैं और आदिवासियों के खिलाफ राजस्थान और मध्य प्रदेश में ऐसे मामलों में बढ़ोतरी हुई है।

मानसून सत्र में संसद में पेश गृह मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में दलितों और आदिवासियों के खिलाफ अपराधों के मामलों में लगातार वृद्धि हो रही है। ये आंकड़े हाल ही में मानसून सत्र के दौरान केंद्र सरकार ने पेश किए हैं।

तेलंगाना से कांग्रेस सांसद कोमाती रेड्डी और तेलंगाना राष्ट्र समिति के सांसद मन्ने श्रीनिवास रेड्डी द्वारा उठाए गए एक सवाल के जवाब में लोकसभा में पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक 2018 से 2020 के बीच दलितों और आदिवासियों के खिलाफ अपराधों के मामलों में लगातार बढ़ोतरी हुई है। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा ने लोकसभा में इस बाबत आंकड़े पेश किए हैं। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि 2018 से 2020 के बीच के दो वर्षों में दलितों और आदिवासियों पर अत्याचार में वृद्धि हुई है।

संसद में पेश किए गए इन आंकड़ों के मुताबिक 2018 में दलितों पर अत्याचार के 42,793 मामले सामने आए थे जबकि पिछले दो साल बाद यानी 2020 में यह आंकड़ा बढ़कर 50,000 हो गया है। वहीं अगर आदिवासियों की बात करें तो वर्ष 2018 में उनके खिलाफ अपराधों के 6,528 मामले दर्ज किए गए, जो वर्ष 2020 में बढ़कर 8,272 हो गए हैं। 2019 में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, दलितों के खिलाफ 45,961 मामले और 7,570 अपराध दर्ज किए गए थे।

दलितों के लिए यूपी और बिहार सबसे अधिक असुरक्षित राज्य

संसद में पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक, उत्तर प्रदेश और बिहार में दलितों का उत्पीड़न सबसे अधिक हुआ है। अकेले उत्तर प्रदेश में 2018 में 11,924 मामले दर्ज किए गए जबकि 2019 में, 11,829 मामले दर्ज किए गए, जो वर्ष 2020 में बढ़कर 12,714 हो गए हैं। वहीं, बिहार के मामले को देखें तो 2018 में यहां 7,061 अपराध दर्ज किए गए थे। 2019 में यह संख्या घटकर 6,544 हो गई, लेकिन वर्ष 2020 में, यह आंकड़ा फिर से बढ़कर 7,368 पर पहुंच गया था। आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि हिंदी पट्टी में दलितों और आदिवासियों का उत्पीड़न सबसे ज्यादा है।

आदिवासी उत्पीड़न

आदिवासियों के खिलाफ अपराध के सबसे ज्यादा मामले मध्य प्रदेश और राजस्थान में दर्ज किए गए हैं। मध्यप्रदेश में साल 2018 में आदिवासियों पर अत्याचार के 1,868 मामले दर्ज हुए थे। जो 2019 में घटकर 1,845 हो गए, लेकिन साल 2020 में एक बार फिर बढ़कर 2,401 हो गए हैं। वहीं, साल 2018 में राजस्थान में 1,095 मामले दर्ज किए गए थे। जो 2019 में बढ़कर 1,797 हो गए, लेकिन साल 2020 में यह आंकड़ा फिर से 1,878 पर पहुंच गया था।

सबसे भयावह मामला

सभी के दिल को दहला देने वाली घटना हाथरस बलात्कार की घटना थी जो वर्ष 2020 में हुई थी, पीड़िता का परिवार अभी भी न्याय के इंतज़ार में है। इस घटना में उच्च जाति के बाहुबलियों ने पीड़िता के साथ दुष्कर्म किया और फिर क़त्ल कर उसका शव खेतों में फेंक दिया था। यह घटना शाम के समय तब हुई जब पीड़िता अपनी मां के साथ चारा लेने गई थी। घटना के बाद पीड़िता ने नौ दिनों तक अस्पताल में जिंदगी के साथ की जंग लड़ी, लेकिन अंत में उसने दिल्ली के सफदरगंज अस्पताल में दम तोड़ दिया था। इस घटना की सबसे अधिक चौंकाने वाली कड़ी ये है कि पीड़िता के परिजनों को शव तक पहुंचाए बिना आधी रात को ही पीड़िता के शव का अंतिम संस्कार कर दिया गया था। परिवार अभी भी न्याय के इंतज़ार में है।

2020 तक उत्पीड़न के इन आंकड़ों के बाद भी उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्यप्रदेश से दलितों और आदिवासियों के खिलाफ उत्पीड़न खबरें आ रही हैं।

अभी 24 जुलाई को राजस्थान के जालौर जिले के सुराणा गांव में एक छात्र को शिक्षक द्वारा इसलिए पीट-पीट कर मार दिया गया क्योंकि उस बच्चे ने उस घड़े से पानी पी लिया जिसकी उसे इजाजत नहीं थी। अमृतकाल में जिस देश में स्कूल शिक्षक इतने जातिवादी हों कि उन्हें दलितों के बच्चों के द्वारा घड़े से पानी पीना भी बर्दाश्त नहीं तो सोचना होगा कि ये अमृतकाल किसका है। कम से कम गरीब, दलित और आदिवासियों का अमृतकाल तो यह नहीं है। राजस्थान में एक युवक मेघवाल की जातिवादी गुंडों ने इसलिए हत्या कर दी क्योंकि वह मुछें रखता था।

उत्तरप्रदेश में 2022 में ही दलित उत्पीड़न के करीब 16 मामले दर्ज़ किए गए हैं और उन मामलों को छोड़ दें जिन्हें सामंती बाहुबलियों के डर से रिपोर्ट ही नहीं किया जाता है। 10 मई को लखनऊ विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर रविकांत चंदन पर एबीवीपी के छात्रों ने उनके कार्यालय में हमला किया और जातिसूचक शब्दावली का इस्तेमाल किया तथा जानलेवा हमला किया। 18जून को लखनऊ जिले के ग्रामीण क्षेत्र मलिहाबाद के रानियामऊ गांव में आधी रात को शिवम रावत की चारपाई के नीचे बम रख दिया गया और विस्फोट हुआ जिसमें शिवम बुरी तरह घायल हो गया और बाद में उसकी मौत हो गई। शिवम की हत्या दो स्थानीय राजपूत जमींदारों के बीच विवाद के कारण हुई थी।

अयोध्या के बीकपुर इलाके की एक घटना में 8 अगस्त को गांव के युवकों ने दो दलित बहनों (उम्र क्रमशः 19 और 14 वर्ष) के साथ गन्ने के खेत में ले जाकर बारी-बारी से दोनों के साथ बलात्कार किया। हालांकि मामला दर्ज़ कर लिया गया है लेकिन न्याय की उम्मीद कम है जैसा कि अक्सर दलितों के मामलों में होता है।

एक और दिल दहला देने वाली घटना बिहार के छपरा जिले से सामने आई है। मामला रामपुर अटौली गांव का है। सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें उच्च जाति के बाहुबली पवन कुमार मांझी नमक युवक को रस्सियों से बांधकर डंडों और लाठीयों से पीट रहे हैं। बाद में पता चला कि युवक पर रुपयों से भरा बैग चुराने का आरोप था और इसलिए बिना किसी की परवाह किए उसे वहीं लाठी और डंडों से पीट-पीट कर मार डाला गया।

किसका ‘अमृतकाल’?

सवाल यह है कि जब देश की करीब 24 प्रतिशत आबादी, आर्थिक उत्पीड़न के अलावा जातीय उत्पीड़न का शिकार है तो फिर इसे अमृतकाल क्यों कहा जा रहा है। क्या सरकार खुद के आंकड़ों पर गौर नहीं कर पा रही है? या सरकार सबको अंधेरे में रखना चाहती है?

इसमें कोई शक़ नहीं कि कुछ लोगों के लिए यह अमृतकाल है। मोदी युग देश के पूंजीपतियों के लिए अमृतकाल बन कर आया है। क्योंकि मोदी सरकार ने पिछले आठ सालों में इन पूंजीपतियों या कहिए अपने दोस्तों को 10 लाख करोड़ रुपए के कर्ज़ की माफी दी है। यहां यह याद रखना जरूरी है कि यूपी के गांवों में बच्चों की शादी या इलाज़ के लिए शाहूकारों से दलित परिवार जो कर्ज़ लेते हैं उसे चुकाते-चुकाते उनकी पूरी उम्र बीत जाती है। लेकिन यहां सरकार, सरकारी खजाने से बड़े पूंजीपतियों को दिल खोल धन-संपदा दे रही है। जबकि ‘अमृतकाल’ में गरीब, दलित और आदिवासी जातीय हमलों का शिकार हैं और सरकार/प्रशासन के भीतर इसके खत्म करने को लेकर न तो कोई विचार है और न ही कोई तमन्ना।

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