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तिरछी नज़र: बादशाह और उगाही का फ़लसफ़ा

"अलिफ़ एक बात बताओ, मेरे दिमाग़ में एक सवाल उठ रहा है। किसी के यहाँ छापा पड़वाना और फिर पैसे लेकर उसे बचाना पाप है या पुण्य।”
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कार्टूनिस्ट सतीश आचार्य के ट्विटर हैंडल से साभार

बादशाह उस रात उदास उदास थे। सुबह अपने राजमहल से दक्षिण दिशा में चार मील दूर एक नाली का उद्घाटन कर के आये थे जो बहुत ही सफल रहा था। दोपहर को एक पुराने अस्तबल के नये कमरे की नींव रखी थी और शाम के समय एक यातीमखाने में यतीमों के बीच माउथ ऑर्गन भी  बजाया था। दिन तो ख़ुशी से बीता था। चार बार कपड़े बदले थे। तीन बार तालियां बजी थीं। और भी बहुत कुछ हुआ था। पर रात आते आते बादशाह उदास हो गए थे।

हाँ, आप ठीक समझे। अब आप बादशाह को ठीक ठीक समझने लगे हैं। बादशाह अवाम को समझे न समझे, अवाम को बादशाह को समझना ही होता है। हाँ, आप ठीक ही  समझे। उदास हुए तो बादशाह ने अपने अव्वल नंबर के रत्न अलिफ़ को बुलवा भेजा। जैसा कि आपको पता ही है, अलिफ़ ने अपने महल से राजमहल पहुंचने में दो घड़ी से अधिक नहीं लगाए पर बादशाह को उदासी की घड़ी में वे दो घड़ी दो सदी जितने लम्बे लगे। अलिफ़ के आते ही बोले, "अलिफ़, बड़ी देर लगा दी आने में"।

"नहीं जहांपनाह, मुझे तो जैसे ही आपका बुलावा मिला, मैं दौड़ा दौड़ा चला आया। हज़ूर, मुझे तो दो घड़ी से भी कम समय लगा होगा", अलिफ़ ने कहा।

"हाँ, हाँ, ठीक है। तुम तो जल्दी ही आ गए हो। तुमने तो दो घड़ी भी नहीं लगाई पर न जाने क्यों मेरा ही मन ख़राब हो रहा है इसीलिए लगा कि तुम देर से आये हो", बादशाह ने कहा। "अलिफ़, जरा यह तो बताओ, इस शाही क़ाज़ी को क्या हो गया है"?

"पता नहीं क्यों जहांपनाह। यह शाही क़ाज़ी न जाने क्यों, कभी कभी अज़ीब अज़ीब सी हरकतें कर देता है", अलिफ़ ने भी जोड़ा।

"अच्छा, एक बात बताओ अलिफ़, क्या कभी ऐसा हुआ है कि हमने कभी भी किसी भी शाही क़ाज़ी का ध्यान न रखा हो। शाही क़ाज़ी की नौकरी ख़तम होने के बाद उसे इज़्ज़त न बख़्शी हो। जिस भी शाही क़ाज़ी ने हमारे से बना कर रखी है, हमारे मन की बात की है, हमने उसकी नौकरी के बाद भी उसे रसूख वाला रुतबा बख़्शा है या नहीं। फिर भी न जाने इस वाले शाही क़ाज़ी को क्या हुआ है", बादशाह ने दुख प्रकट किया।

"हज़ूर, आप ग़म न करें। यह तो इस शाही क़ाज़ी की किस्मत ही ख़राब है जो आप जैसे कदरदान बादशाह की कद्र नहीं कर रहा है। आपसे बिगाड़ कर भला कौन जी पाया है। और हज़ूर, आपने तो क़ाज़ियों का ही नहीं, अपने सभी अफसरआन् का ख्याल रखा है। जो बना कर चला है उसको उसकी नौकरी ख़तम होने के बाद और ऊँची नौकरी दी है। इस शाही क़ाज़ी की बात को इतना तूल न दें, जहाँपनाह। बस अपना मन दुरस्त रखें", अलिफ़ ने बादशाह को ढाँढस बंधाया।

अलिफ़ की बात सुन बादशाह खुश हुआ। उसे लगा अलिफ़ है तो सब सम्हाल लेगा। वह अपने तख़्त पर आराम से अधलेटा हो गया और अलिफ़ से बोला, "अलिफ़ एक बात बताओ, मेरे दिमाग़ में एक सवाल उठ रहा है। किसी के यहाँ छापा पड़वाना और फिर पैसे लेकर उसे बचाना पाप है या पुण्य।”

"जहांपनाह, यह तो बहुत ही पुण्य का काम है। एक तो ऊपर वाले ने आपको इस काबिल बनाया कि आप किसी पर छापा पड़वा सकें और दूसरे इतना काबिल बनाया कि छापा हटवा भी सकें। जनाब, यह तो बहुत ही भले का काम है", अलिफ़ ने जवाब दिया।

बादशाह को अब अलिफ़ की बातों में मज़ा आने लगा था। "और लोग जो यह कह रहे हैं, हम पर रिश्वत लेने का आरोप लगा रहे हैं। कह रहे हैं कि हम उगाही कर रहे हैं, उनका क्या"?

"जहांपनाह, यहाँ के लोग जरा कम समझदार हैं। जो लोग समझते नहीं हैं, उन्हें समझा दिया जायेगा कि यह उगाही नहीं, अहसान है। उन्हें समझा दिया जायेगा कि छापे के जंजाल में पड़े लोगों को सिर्फ हीरे जवाहरत ले, कुछ स्वर्ण मुद्राएं ले छोड़ देना, उन पर कितना बड़ा अहसान है। यह तो लोगों के सामने रास्ता होता है कि या तो वे छापे के बाद जेल जाएं, मुक़दमे बाज़ी झेलें, वकीलों पर खर्च करें, अपना अमन चैन खोयें और जुर्माना भी भरें या फिर आपको कुछ दे दिवा कर आराम की जिंदगी जियें। हज़ूर तो बस उनको चैन की जिंदगी जीने का एक मौका देते हैं। उन पर अहसान करते हैं ", अलिफ़ ने जवाब दिया।

अलिफ़ की बातें सुन, बादशाह के दिलोदिमाग़ को सुकून मिला। बादशाह उठ कर अपने आरामगाह की ओर बढ़ गए। अलिफ़ भी अपने महल लौट आया। अगली सुबह ही अलिफ़ ने सभी ढिंढोरचियों, सरकारी और गैर सरकारी को जरूरी आदेश दे दिया।

(लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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