ग्राउंड रिपोर्टः वाराणसी को पहचान देने वाली ‘वरुणा’ और ‘असि’ की उखड़ती साँसें, क्यों नहीं सुन पा रहे मोदी?
रविवार का दिन। पूर्वाह्न नौ बजे का वक़्त। सीधे आसमान से सिर पर आ रही थीं सूरज की किरणें। पारा भी आसमान छूने के लिए बेताब। चिलचिलाती धूप और हरहराती लू के गर्म हवाओं के झोंके आने शुरू हो गए थे। वरुणा नदी के चलते कुछ खेतों में हरियाली थी। पशुओं को खिलाने के लिए आसपास के कई खेतों में चरी बोई गई थी, मगर ज्यादातर खेत खाली थे। इन्हीं खेतों के बीच एक साइफन बनाया गया था, जिसके जरिए लोग वरुणा का पानी निकालकर अपनी फसलों की सिंचाई किया करते हैं। खेतों के बीच खड़े आम के एक पेड़ की छांव में जनवादी संगठनों के लोग बैनर लगाकर बैठे हैं। ये वह लोग हैं जो वाराणसी को पहचान देने वाली वरुणा और असि नदियों को बचाने के लिए मुहिम चला रहे हैं। आंदोलनकारियों में किसान नेता रामजनम हैं तो साहित्यकार रामजी, अपर्णा, दीपक शर्मा संतोष कुमार और गोकुल दलित भी। वरुणा नदी की तरफ़ इशारा करते हुए अपर्णा कहतीं हैं, "देखिए, क्या हाल हो गया है वरुणा नदी का। वाराणसी के सांसद और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि हमारा गांव काशी में है। काशी के गांव की यह नदी मरघट में बदल गई है। इसकी मरती-उखड़ती सांसों को मोदी आखिर क्यों नहीं सुन पा रहे हैं?"
वाराणसी के चमांव गांव की अहिरान बस्ती से होकर गुजरती है वरुणा। इसी नदी पर है मस्जिदिया घाट। घाट के पास है बाबाजी की मड़ई जो आम के एक पेड़ के नीचे खंडहर में तब्दील होती जा रही है। सूख रही वरुणा नदी का हाल देखने से ऐसा लग रहा है, मानो आप किसी श्मशान में पहुंच गए हों। नदी को बचाने के लिए इकट्ठे लोग ग़मगीन हैं। वरुणा वही नदी है जो प्रयागराज जिले की फूलपुर तहसील के मैल्हन ताल से निकलकर, प्रतापगढ़, भदोही और जौनपुर से 162 किलोमीटर की यात्रा करती हुई वाराणसी पहुंचती है और गंगा में मिल जाती है।
उत्तर प्रदेश के वाराणसी को पहचान देने वाली वरुणा इसलिए मर रही है, क्योंकि इसमें पानी नहीं, सिर्फ कचरा बह रहा है और बेशुमार गंदगी भी। इस नदी के वजूद को बचाने के लिए जनवादी संगठन सालों से आवाज उठा रहे हैं, लेकिन शहर को स्मार्ट बनाने का दावा करने वाले हुक्मरान को कोई चिंता नहीं है। वरुणा नदी का अस्तित्व इसलिए संकट में है क्योंकि आधे शहर का सीवर इसी नदी में गिरता है। बाकी सीवर असि नदी में चला जाता है।
वरुणा को बचाने के लिए गोष्ठी करते जनवादी संगठनों के लोग
एक्टिविस्ट गोकुल दलित कहते हैं, "वरुणा के दोनों तटों पर अतिक्रमण करके बहुमंजिली इमारतें तान दी गई हैं। भदोही के कालीन कारखानों का कचरा भी सीधे वरुणा में गिराया जा रहा है। नदी के काले हो चुके पानी और उसमें से उठती दुर्गंध किसी को भी विचलित कर सकती है। लेकिन वाराणसी को अपना गांव बताने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वरुणा की कोई चिंता नहीं है। चिंता उन लोगों को भी नहीं है जो सिर्फ वाराणसी के गोदौलिया इलाके की तरक्की पर लहालोट हैं। नदियां मर रही हैं और किसान भी। इनकी चिंता किसी को नहीं है।"
साहित्यकार रामजी कहते हैं, "वरुणा की गोद में पैदा हुआ और पला भी। करीब तीन दशक पहले तक यही नदी तटवासियों को जिंदगी देती थी और अब यह मूक नदी खुद मृत्यु शैया पर पड़ी है। वाणी रहती तब वह अपनी पीड़ा जरूर इजहार करती। तब शायद यही कहती, "मैं वरुणा हूं। संगम नगरी के मैल्हन झील से निकलकर वाराणसी की गंगा में समाहित हो जाती हूं। इस लंबे सफर में अनगिनत घात-प्रतिघात सहन करते हुए मानव जाति के लिए अपना सब कुछ अर्पित कर रही हूं। फिर भी मेरे वजूद को मिटाने की कोशिशें हो रही है। पता नहीं मेरा गुनाह क्या है? जल दोहन के लिए मैंने न तो किसी से टैक्स लिया और न ही मेरा कोई स्वार्थ है। इसके बावजूद हुक्मरानों को हमारी चिंता नहीं है। प्रयागराज के संगम से लगायत वाराणसी के बीच कई पीढ़ियों से हमारा नाता रहा है। अपने तटवासियों को कभी गंगा के कोप से बचाया तो कभी सूखते खेतों को हरा-भरा किया। भूजल को भी सुधारा। बदले में कुछ भी नहीं मांगा। मैं संकट टालने में लगी रही और लोग हमारे सीने पर ही कंकरीट के जंगल खड़ा करते चले गए। घरों से निकलने वाले सीवर और कचरे के बोझ से दबी जा रही हूं। तकलीफ मुझे भी है, पर क्या करूं। लाचार हूं, क्योंकि मेरे पास अब कुछ भी समेटने की जगह नहीं बची है। मैं तो उस भगीरथ के इंतजार में बैठी हूं, जो मुझे सहेजकर नवजीवन दे। मेरी चिंता उन उन पीढ़ियों की है, जो अभी नहीं आई हैं। मेरा वजूद मिट गया तो दूसरी कोई वरुणा नहीं ला पाओगे।"
रामजी यह भी कहते हैं, "भारतीय संस्कृति एवं दर्शन में नदी को मां के समान माना गया है जो हमारे खेतों को, हमारे फसलों को अमृत रूपी जल देती है। ऐसे में वरूणा का दुख हमारी मां का दु:ख है। वरुणा हमारी मां है और हम अपनी मां पर आए संकट की अवहेलना नहीं कर सकते हैं। वरुणा मेरे लिए सिर्फ एक नदी नहीं, संस्कृति है। इसका प्रवाह रुक गया तो शहर का हाल वही होगा, जैसा दिलों के आर्टरी के ब्लॉकेज होने पर होता है। नदी के काले सीवर के पानी से उठती दुर्गंध मुझे विचलित करती है। विचलित इस बात से हूं कि इस नदी की गुहार को सुनने के लिए कोई तैयार नहीं है। इसकी पीड़ा कोई हरने के लिए तैयार नहीं है। इसका दुख-दर्द कोई बांटने के लिए तैयार नहीं है।"
वरुणा कहें या कचरे का डंपिंग स्टेशन
वाराणसी के राजघाट (सराय मुहाना) से फुलवरिया तक करीब 20 किमी के दायरे में वरुणा नदी गंदे नाले में तब्दील हो चुकी है। बड़े-बड़े सीवर और खुले हुए ड्रेनेज से गिरते हुए मलजल को कहीं भी देखा जा सकता है। लोहता, कोटवा से लगायत सरायमोहाना तक इस नदी में सीधे मल-जल गिराया जा रहा है। साथ ही घातक रसायन भी। कुछ लोगों के लिए यह नदी कचरे का डंपिंग स्टेशन है। नदी के किनारों पर चलने वाले कई कसाईखाने सिर्फ कागजों में बंद हो पाए हैं। शहर के तमाम होटलों, अस्पतालों और धागा रंगने वाली फैक्ट्रियों के कारखानों का केमिकलयुक्त जल इसी नदी में गिराया जा रहा है। वाराणसी को जिंदगी देने वाली वरुणा की पीड़ा किसी को सुनाई नहीं दे रही है। यह स्थिति तब है जब इसके किनारे बने पाथवे से गुजरते हुए लोग अपनी नाक ढक रहे होते हैं और कुछ छांव की तलाश कर रहे होते हैं।
ऐसे ही गिरते है् वरुणा में नाले
वाराणसी का मानचित्र वरुणा नदी के बगैर अधूरा है। भदोही से लेकर काशी के खिड़किया घाट तक इस नदी की लंबाई करीब 21 किमी है। कुल 40 से अधिक गांवों की देहरी को अपने जल से पखारती हुई वरुणा गंगा में जाकर मिलती है। अवैज्ञानिक तरीके से सीवर प्रबंधन के चलते यह नदी मरने की कगार पर है। इसे बचाने के लिए जनवादी संगठनों ने अब एक बड़ी मुहिम शुरू की है। ग्रामीणों के बीच जागरूकता के लिए मुहिम चलाई जा रही है। इस मुहिम से सामाजिक संगठनों को भी जोड़ा जा रहा है। “गांव के लोग” के बैनर तले 'वरुणा बचाओ संघर्ष समिति' गठित की गई है। इलाकाई लोग बताते हैं कि पिछले दो दशक से वरुणा में गिरने वाले सीवर को रोकने और नदी में किए गए अतिक्रमण को हटाने के लिए कई बार योजनाएं बनी और हर बार फाइलों में दफन हो गईं।
गांवों में भी उखड़ रही वरुणा की सांसें
किसान नेता रामजनम कहते हैं, "वाराणसी की वरुणा ऐसी नदी है जो करीब ढाई सौ किमी की परिधि में बारिश के पानी को समेट लेती है। तीन दशक पहले तक यह नदी काफी गहरी हुआ करती थी। पिछले सात-आठ सालों में वरुणा दुर्गति की कगार पर पहुंच गई है। पहले इसी नदी के सहारे ग्रामीण खेती किया करते थे और तटवर्ती इलाकों में अपने मवेशियों को चारा भी चुगाया करते थे। वरुणा के तट पर नागफनी, घृतकुमारी, सेहुड़, पलाश, भटकैया, पुनर्नवा, सर्पगंधा, चिचिड़ा, शंखपुष्पी, ब्राह्मी, शैवाल, पाकड़ के पेड़-पौधे नदी के पानी को जहरीला होने से बचाते थे। किसी जमाने में वरुणा का जल बेहतरीन एण्टीसेप्टिक का काम किया करता था। हुक्मरानों की बेशर्मी से अब इन पेड़-पौधों का वजूद ही मिट गया है।"
मोदी के विकास से डर लगता है
वरुणा कॉरिडोर बनवाकर सपा सुप्रीमो अखिलेश ने साल 2016 में खूब सुर्खियां बटोरी थी। उस समय इस नदी को बचाने के लिए मुहिम चला रहे जनसरोकारीय संगठनों और स्थानीय लोगों में उम्मीद जगी कि नदी साफ हो जाएगी। सत्ता बदली तो जैसे इस नदी के नसीब ही फूट गए। इसका भाग्य संवारने के लिए कोई दूसरा भगीरथ नहीं आया। अब जनवादी संगठन पदयात्रा निकाल रहे हैं और इस नदी के पुनरुद्धार के लिए मुहिम चला रहे हैं। इनकी मांग है कि वरुणा के साथ असि नदी में गिरने वाले नालों को फौरन बंद किया जाए और अतिक्रमणकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाए। दोनों नदियों की बदहाली की बात केंद्र और राज्य सरकारें स्वीकार करती आ रही हैं, लेकिन इस नदी की उखड़ती सांसों को बचाने की चिंता किसी को नहीं है।
वरुणा कॉरिडोर में वरुणा का हाल
वरुणा को बचाने के गोष्ठी में मौजूद अमन विश्वकर्मा कहते हैं, "वाराणसी के ग्रामीण बाशिंदों को अब पीएम मोदी के विकास के शब्द से ही डर लगने लगा है। विकास का दूसरा नाम चित्रकारी नहीं, नदियों और ताल-पोखरों का वैभव भी होता है। शहर का हाल देखिए। कहीं न कहीं, कोई न कोई सड़क खुदी हुई जरूर दिख जाती है। अनियोजित विकास और बेमतलब की योजनाओं पर पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। कहीं गंगा पाट दी जाती है तो कहीं उसकी रेत पर ही नहर खोदी जाने लगती है। अजीब मजाक हो रहा है इस शहर में। यहां विकास नहीं विनाश की धारा बहाई जा रही है। हर वक्त यही चिंता होती है कि जब वरुणा का वजूद ही मिट जाएगा तब हमारी पीढ़ियों का क्या होगा? जिस रोज गांव के लोग एक राय के साथ वरुणा नदी को बचाने के लिए आवाज बुलंद करेंगे तभी हुक्मरानों की नींद खुलेगी। वरुणा और असि सिर्फ हमारी ही नहीं, पूरे वाराणसी की नदियां हैं, जिन्हें बचाना वाराणसी के हर बाशिंदा का कर्तव्य है। ये नदियां नहीं बचेंगी तो शहर का ईको सिस्टम बर्बाद हो जाएगा और पर्यावरण भी।"
वरुणा बचाओ मुहिम में शामिल रामधनी, शारदा यादव, श्यामजीत यादव, पुरुषोत्तम पाल, पंचम विश्वकर्मा, लालजी यादव, विजयी कहते हैं, "अभी हम सांकेतिक आंदोलन चला रहे हैं। जल्द ही बेमियादी आंदोलन शुरू करेंगे। वरुणा के साथ असि को हम मरने नहीं देंगे। ये नदियां ही हमारी जिंदगी हैं। यही नदियां हमारे लिए रोजी-रोटी का इंतजाम करती हैं। आखिर हम इन्हें कैसे नाश होने देंगे? दोनों नदियों का वजूद मिट गया तो हमारी संस्कृति, परम्परा और हमारे देवी-देवता भी ख़त्म हो जाएंगे। जो हमारा बसाव है, जो अस्तित्व है, वो भी ख़त्म हो जाएगा। अगर आज हम इस नदी को जिंदा नहीं रखेंगे तो हमारी हालत वैसी ही हो जाएगी जैसी तालाब से निकाली जाने पर मछली की होती है।"
खुल रही एनजीटी की पोल
वरुणा नदी को बचाने के लिए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) की टीमें कई मर्तबा इसके उद्गम स्थल का मुआयना कर चुकी है, लेकिन स्थित पहले से बदतर है। वरुणा उत्थान समिति के सदस्य महमूद अहमद कहते हैं, "प्रयागराज के फूलपुर के नजदीक मैल्हन झील में पहले दमदम, मिझूरा, दायम तालों का पानी आता था, जिससे यह झील पूरे साल लबालब पानी से लबरेज रहा करती थी। नदी में नालों की गंदगी भरने और बराबर सफाई न होने से प्राकृतिक रूप से बनी मैल्हन झील का वजूद मिट सा गया है।"
जन-सरोकारों के लिए संघर्षरत वाराणसी के एक्टिविस्ट वल्लभाचार्य पांडेय कहते हैं, "साल 2016 में शहरी क्षेत्र के भीम नगर से आदिकेशव तक 10.03 किलोमीटर में 201.65 करोड़ की लागत से वरुणा कॉरिडोर का निर्माण कराया गया। नदी के दोनों किनारों पर सुंदरीकरण भी हुआ, लेकिन दम तोड़ रही इस नदी को बचाने के लिए कोई काम नहीं हुआ। हाल यह है कि इस नदी के उद्गम स्थल में ही पानी नहीं बचा है। आज स्थिति यह हो गई है कि वरुणा में कोई जीवन नहीं बचा है। पहले वरुणा में कई तरह के घोघे मिलते थे, लेकिन अब कुछ भी नहीं बचा है। वरुणा को बचाने के लिए हुक्मरान तो बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं, लेकिन होता कुछ भी नहीं है।"
कई स्थानों पर नदी का वजूद ही मिट सा गया है
वाराणसी को पहचान देने वाली वरुणा प्रयागराज के अलावा प्रतापगढ़ और जौनपुर में भी खेतों को सींचती है और सैकड़ों गांवों को जिंदगी देती आई है। वाराणसी के लोहता और शिवपुर में वरुणा के पानी से ही सब्जियां उगाई जाती थी और अभी भी उसी पानी से खेतों की सिंचाई होती है। एक अध्ययन से नतीजा निकला है कि वरुणा के पानी में जिंक, क्रोमियम, मैग्नीज, निकल, कैडमियम, कापर, लेड की मात्रा मानक से बहुत अधिक है। कुछ इलाकों में तो नदी का पानी पूरी तरह जहरीला हो गया है। यही जहर सब्जियों में भी घुस रहा है। नतीजा नदी के किनारों पर रहने वाले ज्यादातर लोग पेट, ऑत, लीवर और चर्म रोगों की जद में हैं।
वरुणा नदी को बचाने के लिए न सरकार संजीदा है, न ही नगर निगम के कर्ता-धर्ता। नदी की सफाई के लिए 11 जून 2022 को वाराणसी की महापौर मृदुला जायसवाल शास्त्री घाट पर पहुंचीं और फोटो सेशन कराने के बाद लौट गईं। ग्राम्या संस्थान से जुड़े एक्टिविस्ट सुरेंद्र सिंह कहते हैं, "हर कोई गंगा को साफ करने की बात करता है, लेकिन जब सहायक नदियां साफ नहीं होंगी तो गंगा कैसे साफ हो पाएंगी? वरुणा के साथ असि नदी को बचाने के लिए सालों से मुहिम चलाई जा रही है, लेकिन जो हाल पहले था और अब उससे ज्यादा बदतर है। घोर उपेक्षा के चलते इस नदी का वजूद ही खतरे में है। इस नदी को अगर पर्यटल स्थल के रूप में विकसित किया जाए तभी इसका वजूद बच सकता है।"
फाइलों में दफन जांच रिपोर्ट
वरुणा के साथ असि नदी को पुनर्जीवित करने के लिए वाराणसी के अधिवक्ता सौरभ तिवारी ने कमिश्नर और कलेक्टर को कई चिट्ठियां लिखी हैं। इनकी याचिका पर एनजीटी ने दोनों नदियों के पुनरुद्धार के लिए एक स्वतंत्र जांच समिति का गठन किया। समिति ने 230 पन्नों की रिपोर्ट भी सौंपी। न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने वरुणा और असि के पुनरुद्धार के बाबत यूपी सरकार को कड़े निर्देश भी जारी किए। वरुणा और असि को बचाने के लिए मुहिम चलाने वालों ने पीएम नरेंद्र मोदी तक से गुहार लगाई, लेकिन नतीजा वही, ढाक के तीन पात।
यह है बनारस की काली नदी असि, जो गंगा में हमेशा उड़ेलती रहती है भीषण गंदगी
वाराणसी के एक छोर पर वरुणा है और दूसरे पर असि नदी। ये दोनों नदियां गंगा की धारा में मिलती हैं। शहरियों के धतकर्म से ये ऐतिहासिक नदियां दुर्दशा की मार झेल रही हैं। असि नदी तो सीवेज नहर में बदल गई है। करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद वरुणा का अस्तित्व धरातल की ओर है। दोनों नदियों के किनारों पर खड़ी गगनचुंबी इमारतें किसी कायदे-कानून की मोहताज नहीं हैं। अवैध रूप से बनी तमाम इमारतों में रहने वालों को वरुणा नदी की बदहाली की तनिक भी चिंता नहीं है।
वरुणा के किनारे बने कई सितारा होटलों का सीवरेज नदी में ही गिरता है। कुछ चुनिंदा होटलों में मिनी सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगे हैं, लेकिन वो हाथी दांत सरीखे हैं। शायद ही कोई होटल होगा, जिसमें लगे ट्रीटमेंट प्लांट काम करते दिखते हों। वरुणा और असि नदियों के किनारे कायदा-कानून को तक पर रखकर खड़ी हजारों इमारतें से प्लास्टिक वेस्ट सीधे वरुणा में फेंका जा रहा है।
नगर निगम का स्वास्थ महकमा दावा करता है कि वरुणा और असि नदियां हर रोज करीब 600 किलो प्लास्टिक उगल रही हैं। यह प्लास्टिक नदियों का नहीं, उन इमारतों का है जो रोजाना धड़ल्ले से इनमें फेंका जाता है। वरुणा और असि नदियों से प्लास्टिक निकालने की जिम्मेदारी फिशर इंडिया प्राइवेट लिमिटेड नाम की एक कंपनी को सौंपी गई है। यह कंपनी मार्च 2021 से वाराणसी में काम कर रही है। शायद यह कंपनी भी दोनों नदियों में गिरने वाली गंदगी और कचरे को साफ कर पाने में हार मान बैठी है। फिशर एक जर्मन आधारित कंपनी है, जो नदियों से प्लास्टिक कचरा एकत्र करती है। फिशर इंडिया प्राइवेट लिमिटेड ने सिर्फ असि नदी से 38 टन प्लास्टिक इकट्ठा किया है। सबसे ज्यादा प्लास्टिक वरुणा नदी से निकाला जाता है। यह कंपनी इस नदी से हर महीने करीब छह टन प्लास्टिक निकालने का दावा करती है। सख्ती के बावजूद लोग अपने घरों से दोनों नदियों में प्लास्टिक वेस्ट फेंकने से बाज नहीं आ रहे हैं।
नाले में तब्दील नदियां
इसे जागरुकता की कमी कहें या फिर नौकरशाही की लापरवाही। वरुणा और असि का पानी अब छूने लायक नहीं रह गया है। छूने की कौन कहे, इसके किनारों पर बने पाथवे से गुजरने लायक भी नहीं रह गया है। असि नदी को प्रदूषण से बचाने के लिए नगर निगम ने शहर के राजघाट, अस्सी, नरोखा नाला, लख्खी घाट, सामने घाट पर बायोरेमेडीएशन यूनिट लगाई है। इस योजना पर करीब एक करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं। इसके बावजूद स्थिति जस की तस है, क्योंकि दोनों नदियों में गंदगी के साथ मलबा लगातार गिराया जा रहा है।
लाखों रुपये खर्चने की कहानी सुनाता वरुणा तट का साइनबोर्ड
असि नदी संघर्ष समिति के संयोजक गणेश शंकर चतुर्वेदी साफ-साफ कहते हैं, "वरुणा के साथ असि नदी की बर्बादी के लिए सीधे तौर पर वीडीए और नगर निगम के अफसर जिम्मेदार हैं। इन अफसरों ने अतिक्रमणकारियों से मिलकर दोनों नदियों की कोख पटवा दी है। जिन हुक्मरानों का सीना 56 इंच का है, वो कुछ नहीं कर पा रहे हैं। आखिर अफसर अब कहां इन नदियों को बहाएंगे? गंगा को राष्ट्रीय जलमार्ग से जोड़ने के नाम पर करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाए जा रहे हैं और असि व वरुणा की सुधि लेने की जरूरत ही नहीं समझी जा रही है। यह स्थिति तब है जब गंगा में जलपोत चलाने लायक पानी ही नहीं बचा है। वरुणा और असि नदियों के किनारे धड़ल्ले से प्लाटिंग की जा रही है। कोरोना के दौरान भूमाफिया गिरोहों ने नदियों के कोख को ईंट-पत्थरों से भरकर उनके किनारों पर कई इमारतें खड़ी करा दीं। नेता और अफसर तो चले जाएंगे, लेकिन बनारसियों का क्या होगा? "
नदी विज्ञानी प्रो. यूके चौधरी कहते हैं, "लगातार सूख रही गंगा में जलपोत चलाने की बात समझ में नहीं आ रही है। जब तक सहायक नदियां नहीं बचेंगी, तब गंगा का वजूद भी नहीं बचेगा। भूमिगत जल का स्तर नदी के स्तर से नीचे जाएगा तो सभी नदियां सूख जाएंगी। इन्हें बचाने के लिए बैंक स्टोरेज बनाया जाना बेहद जरूरी है। ऐसा न होने पर शहर में भूगर्भ जल पाताल में चला जाएगा।"
वरुणा और असि नदियों के बेजार होने का असर गंगा पर भी पड़ रहा है। वाराणसी में आधा दर्जन सीवर ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) लगने के बावजूद करीब 160 एमएलडी से अधिक सीवर हर रोज गंगा में गिर रहा है। वरुणा और अस्सी नदी के अलावा छोटे-बड़े 30 नाले चौबीस घंटे गंगा में सीवेज उड़ेल रहे हैं। यह स्थिति तब है जब गंगा में गिरने वाले नालों की टैपिंग, मरम्मत, शिफ्टिंग पर करीब 600 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं और सारा काम आधा-अधूरा पड़ा है। योजनाओं को मूर्त रूप देने के बजाय नौकरशाही धन के लिए मुंह बाए खड़ी है।
नालों को बंद करने का दावा
शहर के बीचों-बीच बहने वाली वरुणा नदी में कितने नाले गिर रहे हैं, इसका ब्योरा प्रदूषण नियंत्रण विभाग के पास नहीं है। जानकार कहते हैं, इस नदी में गिरने वाले छोटे-बड़े नालों की संख्या सैकड़ों में है, जबकि वाराणसी के क्षेत्रीय प्रदूषण नियंत्रण अधिकारी कालिका सिंह दावा करते हैं, " वरुणा नदी में गिरने वाले 11 बड़े नालों को जनवरी 2022 के पहले हफ्ते में बंद करा दिया गया है। पानी का स्तर कम होने से जगह-जगह गंदगी नजर आ रही है। वरुणा कि स्थिति सुधर रही है और घुलनशील ऑक्सीजन की मात्रा दुगुनी होने के साथ ही फीकल कोलीफार्म की मात्रा भी लगभग आधी रह गई है। वरुणा में प्रवाह के साथ ही पानी की गुणवत्ता में भी सुधार हो रहा है।"
बनारस से हुकुलगंज में बघवावीर नाले से वरुणा में गिलता मल-जल
कालिका यह भी दावा करते हैं, "वरुणा नदी को नया जीवन देने की कोशिशों का आगाज हो चुका है। वॉटरफॉल में निरंतरता बनाए रखने के लिए उद्गम स्थल से खिड़किया घाट तक गाद और सिल्ट हटाने की कार्य योजना तैयार कर ली गई है। डिसिल्टिंग, पौधारोपण और वेटलैंड एरिया बढ़ाकर वरुणा के नेचुरल सौंदर्य को पाने का लक्ष्य रखा गया है। नदी की सफाई, दोनों किनारे पर पाथवे रेलिंग, लाइट, पौधरोपण, बैठने के लिए कुर्सियां व पांच घाटों को पक्का बनाने का काम शामिल है। जल्द ही वरुणा नदी अपने नेचुरल स्वरूप में दिखने लगेगी। मास्टर प्लान पर काम शुरू हो चुका है। भदोही से लेकर वाराणसी तक में जहां भी नदी सूख गई है, ऐसे स्थानों की सफाई की जाएगी। वरुणा के साथ ही असि को पुनर्जीवित करने के लिए सीवेज पाइप डालने का खाका खींचा गया है। रमना एसटीपी से सीधे जोड़कर असि को पुनर्जीवित किया जाएगा। इससे पहले दोनों नदियों पर किए गए अतिक्रमण को हटाने के लिए अभियान चलाया जाएगा।"
हालांकि इसी तरह के दावे और वादे सालों से किए जा रहे हैं, लेकिन वरुणा और असि का हाल बद से बदतर होता जा रहा है। गांव के लोग सोशल एंड एजुकेशन ट्रस्ट के मैनेजिंग ट्रस्टी रामजी यादव कहते हैं, "वरुणा को बचाने की मुहिम अब तेज की जाएगी। बनारस के तमाम संगठनों से अपील की कि वे एक क्रमिक यात्रा निकालें जो वरुणा के दोनों किनारों से होकर गुजरे। किनारों पर बसे लोगों, किसानों, महिलाओं से बात करे और नदी को लेकर उनकी स्मृतियों को दर्ज करे। वरुणा जिस तरह से प्रदूषित होकर खत्म हो रही है उनकी संवेदनाओं को जगाए, ताकि वो नदी के पुनरुद्धार के लिए अग्रसर हों। जैसा की हम जानते हैं कि सरकारी योजनाएं और नेताओं के बयान प्रायः लोकप्रियता के लिए किए जाते हैं, लेकिन धरातल पर कुछ नहीं होता। ऐसे में जनता की संवेदनशीलता और जागृति की बहुत जरूरत है। वरुणा को बचाने के लिए अब क्रमित यात्रा निकाली जाएगी। उद्गम स्थल से लेकर संगम तक। इस दौरान नालों का रेखांकन होगा, पानी की सैंपलिंग की जाएगी और फिर प्रशासनिक अफसरों से मिलकर इस बात की गारंटी ली जाएगी कि वे इस दिशा में उचित कार्रवाई करें और गंदे नालों को रोकें और अतिक्रमण हटाएं। किसानों से भी यह अपील की जाएगी कि वे नदी में अतिक्रमण कर अपने खेतों का रकबा न बढ़ाएं और गंदगी न फेंके।"
(विजय विनीत वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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