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जाति-विमर्श और आरक्षण पर आज के सवालों की पड़ताल करती किताब

इन दिनों भारत में आरक्षण के स्वरूप को लेकर नये सिरे से बहस चल रही है, ऐसे में अशोक कुमार पाण्डेय के संपादन में सत्येन्द्र प्रताप सिंह द्वारा लिखी किताब 'जाति का चक्रव्यूह और आरक्षण' जातीय विमर्श और आरक्षण से जुड़े सवालों की विवेचना करती है।
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'जाति का चक्रव्यूह और आरक्षण' सत्येन्द्र प्रताप सिंह की 'राजपाल प्रकाशन' से हाल ही में आई यह किताब पढ़ते हुए एक बात पर मेरा ध्यान गया। बात यह कि वर्ष 2008 से मैंने न जाने कितनी बार महाराष्ट्र सरकार की बसों में सफर किया है, लेकिन इन बसों के अंदर पहले की तरह सांसद या विधायक के लिए आरक्षित सीटें नहीं दिखाई देतीं। पत्रकार के लिए आरक्षित सीट अवश्य देखी, पर किसी पत्रकार को उस सीट पर बैठे यात्रा करते हुए नहीं देखा। जाहिर है कि जिस तरह से स्थितियां बदली हैं, ये सीटें अब बेमानी हो गई हैं। सांसद, विधायक से लेकर सामान्यत: पत्रकार तक सामान्य बसों की बजाय निजी कारों में यात्रा करते हैं। हां, महिलाएं, बुर्जुग और विकलांग अवश्य ही आरक्षित सीटों पर बैठे दिखते हैं, क्योंकि इनके लिए आरक्षण अनिवार्यता की हद तक है, इसलिए इनके लिए सरकार ने आरक्षण की व्यवस्था रखी है।

कहने का मतलब यह है कि आरक्षण एक बहुआयामी अवधारणा है जिसे लागू करने के पीछे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य और कारण होता हैं।

हर लोक कल्याणकारी राज्य वंचित वर्ग को अवसर देकर उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने की कोशिश करता है। दुनिया भर से समाजवादी ही नहीं पूंजीवादी और यहां तक कि राजतंत्र व्यवस्था में भी पर्याप्त उदाहरण हैं जब वंचित वर्गों को आरक्षण का लाभ देकर बदलाव और बेहतरी के लिए प्रयास किए गए।

भारत में वंचित वर्ग को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए सामाजिक व शैक्षणिक आधार पर आरक्षण दिया गया तो इसके पीछे भी उद्देश्य और कारण था। लेकिन, इस तरह के आरक्षण के विरोध में एक पक्ष उभरा जिसने आर्थिक आरक्षण की पैरवी की। इस पक्ष की अगुवाई करने वाले मुख्यत: सवर्ण रहे। वहीं, वंचित वर्ग शासन और प्रशासन में प्रतिनिधित्व की मांग करता रहा। इनका तर्क है कि जातीय आधार पर कई पीढ़ियों तक अलग-थलग रखे जाने के चलते वे विपन्नता और शोषण के शिकार हुए, लिहाजा सामाजिक न्याय और समरसता के लिए आरक्षण अति आवश्यक है, क्योंकि इससे उन्हें शिक्षा और रोजगार में अवसर तो मिलेंगे ही साथ ही समाज में सम्मानजनक तरीके से जीने का जरिया भी हासिल होगा।

इन दिनों भारत में आरक्षण के स्वरूप को लेकर नये सिरे से बहस चल रही है, ऐसे में अशोक कुमार पाण्डेय के संपादन में सत्येन्द्र प्रताप सिंह द्वारा लिखी किताब 'जाति का चक्रव्यूह और आरक्षण' जातीय विमर्श और आरक्षण से जुड़े हर एक सवाल तथा संदेह की पड़ताल करती है। यह किताब भारतीय समाज खास तौर पर हिन्दी पट्टी में जाति और आरक्षण से जुड़े मुद्दे को अकादेमिक तरीके से उठाती है, जो आम पाठकों के लिए भी आरक्षण के हर पहलू तथा सामाजिक-आर्थिक यर्थाथ के बरक्स समझने में उपयोगी साबित हो सकती है।

मूलतः राजनीति विज्ञान के शोधार्थी छात्र और गए दो दशकों से पत्रकारिता कर रहे सत्येन्द्र प्रताप सिंह की यह किताब आर्थिक आरक्षण के समर्थकों द्वारा दी जा रही दलीलों के बीच आजादी के पहले और आजादी के बाद लगभग हर अहम घटना की संदर्भ सहित व्याख्या करते हुए उन झूठों से भी पर्दा उठाती है, जो सामाजिक-शैक्षणिक आरक्षण के विरोध में गढ़ी गई हैं।

उदाहरण के लिए, 'एशियन ऐज' में 4 सितंबर, 2015 को 'डिवाइड एंड सर्व' शीर्षक से पूर्व एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ऑफ इंडिया ने एक लेख लिख कर यह साबित करने की कोशिश की कि आरक्षण असल में अंग्रेजों की 'बांटो और राज करो' नीति की खोज है। लेख में कहा गया कि वर्ष 1950 में भारत का संविधान जब लागू हुआ तो आरक्षण का प्रावधान किया गया।

दूसरी तरफ, 'जाति का चक्रव्यूह और आरक्षण' में ऐसी बातों को तथ्यहीन बताते हुए आरक्षण की इस अवधारणा को विस्तार से रखती है कि कैसे और क्यों भारत में सबसे पहले कोल्हापुर के शासक शाहू जी महाराज ने वर्ष 1902 में आरक्षण दिया था। उसके बाद मैसूर के राजा ने वर्ष 1921 और बॉम्बे प्रेसीडेंसी में वर्ष 1931 को आरक्षण लागू किया गया था।

यह किताब अपने पहले चैप्टर से आरक्षण को भारतीय समाज में जाति की स्थिति, ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और वर्तमान चुनौतियों के साथ जोड़ते हुए एक तार्किक विजन डाक्यूमेंट प्रस्तुत करती है। आगे यह आरक्षण से जुड़े बुनियादी सिद्धांत और व्यावहारिक बिंदुओं की विवेचना करती है। 'जाति का चक्रव्यूह और आरक्षण' पर्याप्त तर्क, तथ्य और उदाहरणों के साथ यह समझाती है कि आरक्षण किसके लिए और क्यों जरूरी है। इसी कड़ी में किताब के भीतर करीब पचास पृष्ठों का एक चैप्टर है जो मंडल कमीशन पर राजनीतिक दृष्टि से प्रकाश डालता है।

वहीं, आरक्षण के अनुभव और प्रभावों को भागीदारिता के संदर्भ में समझने से जुड़ी सामग्री इस किताब को विशिष्ट बना देती है। इसके अलावा, यह किताब आरक्षण की मूलभूत व्यवस्था में छेड़छाड़ से होने वाली आशंकाओं पर बहुत बारीकी से अपनी बात कहती है।

सत्येन्द्र प्रताप सिंह ने 'भविष्य का सवाल' चैप्टर में नई आर्थिक नीतियों के दायरे से जाति और आरक्षण का सिरा पकड़ने के लिए गहन शोध अध्ययन किया है। इसके तहत उन्होंने आधुनिक विकास, खेती पर आए संकट, गांवों से शहरों की तरफ बढ़ते पलायन, विस्थापन, शहरीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण इत्यादि के नजरिए से जाति और आरक्षण से जुड़ी नई तरह की चिंताओं तथा आवश्यकताओं को दर्ज किया है।

किताब में अंत की पंक्तियां कुछ इस तरह से आई हैं: स्वतंत्रता के बाद की 75 साल की कवायदों में 2022 में प्रधानमंत्री पद पर विराजमान नरेन्द्र मोदी मोध-घांची जाति के हैं जो गुजरात की अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में आती है। वहीं, पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद उत्तर-प्रदेश की अनुसूचित जाति की सूची में शामिल कोरी जाति से आते हैं। उसके बावजूद वंचितों की भागीदारी और उनके सामाजिक-शैक्षणिक व आर्थिक उत्थान के मसले सुलझ नहीं पाए हैं। सामाजिक स्थिति यथावत है और हजारों की संख्या में जातियां व उससे जुड़ी नफरतें मौजूद हैं। ऐसे में हिस्सेदारी, सरकारी पदों पर आरक्षण के साथ सामाजिक आंदोलन की ज्यादा जरूरत है, जिससे हजारों जातीय खांचे में बंटे समाज को जातीय नफरत से बाहर निकाला जा सके।

लेखक ने पुस्तक के अंत में जाति और आरक्षण से समसामयिक मुद्दों जैसे ‘जाति जनगणना से समस्या क्यों है?’, ‘आरक्षण व्यवस्था से छेड़छड और उसके प्रभाव’ तथा ‘भविष्य के सवाल’ आदि पर भी विचार-विमर्श किया है।

(समीक्षक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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