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एंकर्स का बहिष्कार: नाकाफ़ी है, नाकाम नहीं

नफ़रती या एजेंडा पत्रकारिता एक संस्थागत समस्या है लेकिन ध्यान रखिए जिन एंकर्स का बहिष्कार किया गया है, वे आज ख़ुद में एक संस्थान बन गए हैं। ये लोग पत्रकार हैं, ऐसा भ्रम किसी को नहीं पालना चाहिए।
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विपक्षी गठबंधन इंडिया ने 14 एंकर्स के बहिष्कार की घोषणा की तो इस पर मिलीजुली प्रतिक्रिया आई। कुछ ने इसे अच्छा क़दम बताया तो कुछ ने इसे विपक्ष का आपातकाल कहा। कुछ ने कहा कि ‘देर आयद, दुरुस्त आयद’ तो कुछ ने इसे नाकाफ़ी बताया, तो कुछ ने इसकी यह कहकर आलोचना की यह संस्थागत समस्या है, व्यक्तिगत नहीं और इससे कुछ हासिल नहीं होगा।

हम इस लेख में इसी आलोचना को समझने की कोशिश करेंगे कि यह समस्या व्यक्तिगत है या संस्थागत। और इस बहिष्कार का कोई फ़ायदा है या नहीं।

यहां यह भी साफ़ कर दें कि पत्रकार को बहिष्कृत या पत्रकारिता को निर्देशित करने के हम भी सख़्त ख़िलाफ़ हैं, लेकिन शर्त यह है कि सामने वाला व्यक्ति भी वाकई पत्रकारिता कर रहा हो। गोदी मीडिया, गोदी एंकर्स को लेकर किसी को कोई वहम या सहानुभूति नहीं होनी चाहिए। इन गोदी एंकर्स ने तो ‘डिबेट’ का ऐसा कोहराम मचाया है कि अब टीवी से रिपोर्टिंग और अन्य कार्यक्रम लगभग ग़ायब ही हो गए हैं। यानी इन्होंने ख़ुद पत्रकारिता की हत्या कर दी है।

तो मूल मुद्दे पर आएं...इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि मीडिया (प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों) में जो गिरावट आई है, नफ़रत का जो बाज़ार सजा है, जो हिंदू-मुस्लिम डिबेट और एजेंडा पत्रकारिता चल रही है उसकी मूल वजह तो संस्थागत ही है। जिस तरह पूंजी और सत्ता का गठजोड़ हुआ है, जिस तरह मालिकान और सत्ताधारी नेताओं के हित आपस में जुड़े हैं उसने ही मीडिया को गर्त में धकेल दिया है। अब मीडिया एक संचार माध्यम नहीं बल्कि एक बिजनेस है, जिसे फ़ासीवादी निज़ाम सूट करता है। अब पत्रकारिता एक पेशा नहीं बल्कि धंधा है। और धंधे के नियमों के तहत सब कुछ चलता है यानी ‘गंदा है पर धंधा है’। हालांकि यह हमेशा से रहा है। मीडिया को लेकर शहीद भगत सिंह की भी टिप्पणी देखें तो नफ़रत का बाज़ार आज़ादी से पहले भी सजा था।

भगत सिंह ने 1928 में ‘किरती’ पत्रिका में ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ शीर्षक से लिखे अपने लेख में साफ़ कर दिया था कि किस तरह दंगों के पीछे सांप्रदायिक नेताओं और अख़बारों का हाथ है।

भगत सिंह लिखते हैं—

“...दूसरे सज्जन जो सांप्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अख़बार वाले हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था। आज बहुत ही गंदा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अख़बारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शांत रहा हो।

अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि भारत का बनेगा क्या?”

भगत सिंह की चिंता वाकई जायज थी कि ‘भारत का बनेगा क्या?’, वही भारत आज बन गया है। यह तथाकथित मुख्यधारा का कॉरपोरेट मीडिया आज हमारे समय में न केवल पहले से ज़्यादा कुरूप बल्कि बेहद क्रूर रूप में सामने है।

तो इससे सहमत होते हुए भी कि यह एक संस्थागत बीमारी है। जाति का एंगल या सवाल भी इसमें शामिल है, लेकिन इससे अलग इस सुपारी या एजेंडा पत्रकारिता में व्यक्ति का भी कम रोल नहीं। यानी व्यक्ति की मानसिकता भी इसे प्रभावित करती है। इसे अभी हाल के एनडीटीवी के मुंबई ब्यूरो चीफ़ सोहित मिश्रा के प्रकरण से समझा जा सकता है, जिन्होंने अपने और पत्रकारिता के उसूलों के ख़िलाफ़ जाकर राहुल गांधी की प्रेस कॉन्फ्रेंस में हंगामा करने के अपने संपादक के फ़ैसले को मानने से इंकार कर दिया और अपने पद से इस्तीफ़ा तक दे दिया। अगर उनमें सच्ची पत्रकारिता के प्रति लगाव और मानसिक दृढ़ता न होती तो वे इसे ख़ुशी ख़ुशी कबूल कर लेते और आगे और तरक़्क़ी पाते।

हालांकि आप कह सकते हैं कि ऐसा करना यानी नौकरी पर लात मारना सबके लिए संभव नहीं है। लेकिन जिन लोगों की बात हो रही है वे करोड़ों में खेलने वाले लोग हैं।

यह सही है कि एक संस्थान में एक व्यक्ति या आपकी व्यक्तिगत राय की कोई क़ीमत नहीं है, लेकिन यह भी जान लेना चाहिए कि जिन 14 एंकर्स का बहिष्कार किया गया है, और जो कुछ नाम छूट भी गए हैं, जिन्हें आगे जोड़ा जाना चाहिए, वे महज़ एक व्यक्ति नहीं रह गए बल्कि एक संस्थान में बदल चुके हैं।

यह गोदी एंकर्स या एजेंडा पत्रकार इतने ताक़तवर हो गए हैं कि अपनी शर्तों पर काम करते हैं। यानी अपनी मर्ज़ी की तनख़्वाह लेते हैं (करोड़ों रुपये सालाना), अपनी मर्ज़ी का स्टाफ रखवाते हैं और अपनी शर्तों पर ही अपने कार्यक्रम करते हैं।

कोई कह सकता है कि ये एंकर्स हमेशा से ऐसे नहीं थे। कांग्रेस राज का उदाहरण दे सकता है। लेकिन मेरा मानना है कि कुछ तो वाकई अवसरवादी थी, लेकिन इनमें से ज़्यादातर ऐसे ही थे। पहले ढके-छुपे थे अब खाद-पानी मिलने पर खुलकर सामने आ गए हैं। वरना सत्ता का पक्षकार या प्रवक्ता बनना एक बात है और समाज में झूठ, नफ़रत और सांप्रदायिकता फैलाना दूसरी बात।

जी हां, मुझे भी मीडिया संस्थानों में काम करते क़रीब 28 बरस हो गए हैं जिनमें 12-13 बरस टेलीविज़न में भी काम किया है। मैंने देखा कि इस मानसिकता के पत्रकार मौका मिलते ही ख़बरों के साथ कैसा खेल करते रहे हैं।

मैं जानता हूं कि इन स्टार एंकर्स की हैसियत क्या है और ये किस तरह काम करते हैं और किस तरह ऐसे एंकर्स के बदलने से ख़बरों का स्वरूप या तेवर बदल जाता है। क्योंकि ये एक बड़ा नाम हो गए हैं और टीआरपी यानी मुनाफ़े का एक बड़ा हिस्सा इनके नाम और शो से आता है तो मालिक भी इनकी शर्तों को मानते हैं अब यह चाहे जैसा काम करें।

कोई संस्थान या मालिकान मोटा मोटा एजेंडा तो रख देते हैं कि उनकी सोच या नीति/राजनीति क्या है और किस तरह काम करना है। किन लोगों को टार्गेट करना है से ज़्यादा वे यह बताते हैं कि किन लोगों को टार्गेट नहीं करना है। इसी तरह रोज़-ब-रोज़ के काम में मालिकान हस्तक्षेप नहीं करते। यानी मालिकान तय नहीं करते कि किस ख़बर का क्या एंगेल होगा, उसे किस तरह दिखाना है। यह सब तय संपादक स्तर के लोग जो अब यह एंकर्स ख़ुद हो गए हैं, वही करते हैं।

मेरा अनुभव है कि बॉस (मालिकान नहीं बल्कि चैनल हेड, संपादक स्तर के लोग) के बदलते ही किस तरह चैनल और ख़बरों की तस्वीर और तासीर बदली है।

सहारा समय में जब पुण्य प्रसून वाजपेयी की नियुक्ति हुई तो किस तरह ख़बरों का चेहरा और तेवर बदला और जनता के मुद्दों ने जगह पाई, आप सबने देखा होगा। इससे पहले भी जब पुण्य प्रसून वाजपेयी और अभिसार शर्मा जैसे लोग एबीपी चैनल में थे उसका क्या रुख़ था और रूबिका लियाकत के आने या लाने के बाद कैसा हुआ। और अब फिर संदीप चौधरी के आने से भी काफ़ी कुछ बदला है। जिनका अघोषित बहिष्कार सत्तारूढ़ भाजपा ने कर रखा है।

इसी तरह कुछ अख़बारों का उदाहरण दिया जा सकता है। जब 1990 के दशक में हिंदी के तमाम अख़बार ‘राम जन्मभूमि आंदोलन’ की आंधी में बहे जा रहे थे, बाबरी मस्जिद को मस्जिद तक लिखने को तैयार नहीं थे, उस समय भी कुछ अख़बार अपने संपादकों की वजह से अपने उसूलों के साथ डटे थे। मेरा शुरुआती अख़बार बिजनौर टाइम्स बिजनौर उनमें से एक था।

इसी तरह राष्ट्रीय सहारा अख़बार का उदाहरण लिया जा सकता है। विभांशु दिव्याल और अरुण पांडे जैसे संपादकों-सहसंपादकों के समय में इस समय अख़बार का तेवर कुछ और ही था। हस्तक्षेप जैसे संस्करण की परिकल्पना अपने आप में शानदार थी। लिखने-पढ़ने वालों के घरों में आज भी शायद इसके अंक रखे हों। इसी तरह मंगलेश डबराल, कुमार आनंद, मनोहर नायक, चंद्रभूषण जैसे पत्रकारों के संपादन में निकली सहारा समय साप्ताहिक पत्रिका भी अपने आप में ख़ूब थी। बाद के दौर में अख़बार की हालत क्या हो गई, आपने देखी ही होगी।

ऐसे तमाम अख़बारों और चैनलों के उदाहरण दिए जा सकते हैं। इंडिया टुडे चैनल में ही राजदीप सरदेसाई और अन्य के कार्यक्रमों में अंतर साफ़ देखा जा सकता है।

एनडीटीवी अब तो अडानी का चैनल है, लेकिन जब नहीं बना था तब भी रवीश कुमार के शो और अन्य एंकर्स के शो का अंतर देखा जा सकता था। यहां उसके अन्य पत्रकारों या एंकर्स को कमतर बताना नहीं बल्कि कई तो बहुत अच्छे थे, बस यह बताना है कि ऐसा नहीं हो सकता कि एक ही चैनल में जो आज़ादी रवीश को मिली थी वो अन्य को नहीं थी या वे कोशिश करके इसे हासिल नहीं कर सकते थे। यहां यह भी उल्लेख कर दूं कि सत्तारूढ़ भाजपा ने उनका भी अघोषित बहिष्कार कर रखा था, लेकिन तब किसी ने कोई चिंता नहीं जताई थी।

फिर कहूं कि बड़ी समस्या तो संस्थागत है ही लेकिन व्यक्तिगत कैसे है और व्यक्ति कैसे इस पर प्रभाव डालता है इसे अन्य उदाहरणों के जरिये भी समझते हैं—

योगी सरकार में स्पष्ट एजेंडा होने के बाद भी एक एसएसपी (बरेली के एसएसपी प्रभाकर चौधरी) दंगे रोकने के लिए सख़्त क़दम उठा लेते हैं। भले ही उन्हें इसकी क़ीमत चुकानी पड़ती है।

क़ानून और क़ानून की किताब एक है लेकिन जज के बदलने से कितना फ़र्क़ पड़ जाता है, इसका तो अनुभव आप सबको ही होगा। गुजरात की निचली अदालत और हाईकोर्ट तक राहुल के जिस मानहानि केस को ठीक से सुनना भी नहीं चाहा और अधिकतम सज़ा मुकर्रर की, वहीं सुप्रीम कोर्ट ने उसे किस टिप्पणी के साथ स्थगित कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा—

“हम जानना चाहते हैं कि ट्रायल कोर्ट ने अधिकतम सज़ा क्यों दी? जज को फ़ैसले में ये बात बतानी चाहिए थी। अगर जज ने 1 साल 11 महीने की सज़ा दी होती तो राहुल गांधी को डिसक्वालिफाई नहीं किया जाता।

अधिकतम सजा के चलते एक लोकसभा सीट बिना सांसद के रह जाएगी। यह सिर्फ़ एक व्यक्ति के अधिकार का ही मामला नहीं है, ये उस सीट के वोटर्स के अधिकार से भी जुड़ा मसला है।”

इसी तरह महिला को गर्भपात की इजाज़त देने के मामले में भी जज, कोर्ट और राज्य बदलने से ही कितना फ़र्क़ आ गया। हालांकि वहां भी कॉलेजियम सिस्टम की शिकायत की जाती है।

गुजरात हाईकोर्ट ने जिस महिला को 26 हफ़्तों का गर्भ होने की बात कहते हुए गर्भपात की इजाज़त देने से इंकार कर दिया था उसी पर सुप्रीम कोर्ट ने पीड़िता को 27 हफ्ते का गर्भ गिराने की इजाज़त देने के साथ ही गुजरात हाईकोर्ट को सुनवाई में देरी के लिए फटकार भी लगाई।

सुप्रीम कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा, “गुजरात हाईकोर्ट में क्या हो रहा है? भारत में कोई भी अदालत किसी ऊंची अदालत के आदेश के ख़िलाफ़ आदेश पारित नहीं कर सकती। यह संवैधानिक फ़िलॉसफ़ी के ख़िलाफ़ है। हम हाईकोर्ट के इस तरह आदेश देने की सराहना नहीं करते।”

इसी तरह आपको बॉम्बे हाईकोर्ट की जज, जस्टिस पुष्पा गनेदीवाला के यौन उत्पीड़न के मामलों में दिए गए बेतुके फ़ैसलों का भी पता होगा। इन विवादित फ़ैसलों के चलते सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम को जस्टिस पुष्पा गनेदीवाला को बॉम्बे हाईकोर्ट में परमानेंट जज बनाने का फैसला भी वापस लेना पड़ा। इन जज साहिबा ने क़ानून की अपनी ही व्याख्या पेश कर दी।

मोर को ब्रह्मचारी कहने और उसके आंसू चुगकर मोरनी के गर्भवति होने का ‘ऐतिहासिक बयान’ देने कहने वाले राजस्थान हाईकोर्ट के पूर्व जज महेश शर्मा तो आपको याद ही होंगे।

ऐसे ढेरों केस हैं जहां जज की समझ और पूर्वाग्रह से फ़ैसले प्रभावित हुए हैं और जिन्हें उससे ऊंची अदालत ने बदला है। सुप्रीम कोर्ट में ही डीवाई चंद्रचूड़ के मुख्य न्यायाधीश बनने से कितना बदलाव महसूस किया गया है इसकी गवाही तो आप सब दे सकते हैं।

इसी तरह एक स्कूल में एक टीचर सांप्रदायिक सद्भाव का पाठ पढ़ाती हैं तो एक दूसरे स्कूल (मुज़फ़्फ़रनगर का थप्पड़ कांड) की टीचर एक मुसलमान बच्चे को उसके धर्म की वजह से टॉर्चर कर सकती है।

कहने का मतलब यह है कि संस्थान तो महत्वपूर्ण है ही लेकिन व्यक्ति भी कम महत्वपूर्ण नहीं है।

तो इससे असहमत न होते हुए भी कि पूंजी का अपना चरित्र है, पूंजीवादी मालिकान और अधिनायकवादी या फ़ासीवादी सत्ता का जैसा गठजोड़ है उसमें कुछ एंकर्स के बहिष्कार से कुछ ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, और न यह भ्रम रखना चाहिए कि यह या इन जैसे और एंकर्स अपने में कोई बदलाव लाने वाले हैं। कुछ लोगों का मानना है कि यह नाकाफ़ी है, जब तक विपक्ष पूरे चैनल या विपक्षी सरकारें इन चैनलों को दिए जाने वाले अपने विज्ञापन नहीं रोकेंगी तब तक ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। लेकिन इसके उलट हमने यह भी देखा कि विज्ञापन देने, न देने से भी इन चैनलों या इन एंकर्स के रवैये में कुछ ख़ास बदलाव नहीं आया है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल सरकार ने चैनलों को कितना विज्ञापन दिया है, फिर भी चैनलों या इन एंकर्स का हाल के दिनों में उनके प्रति क्या रुख रहा है यह सब जानते हैं। कांग्रेस की सरकारें भी कम विज्ञापन नहीं दे रहीं, लेकिन भाजपा का जितना पैसा, और दबाव है और मालिकों के अलावा ख़ुद इन एंकर्स की मानसिकता जैसी हो गई है, अब उसमें इससे पार पाना आसान नहीं है। फिर भी हमारा मानना है कि कुछ न करने से कुछ करना बेहतर है और अभी शुरुआती तौर पर बहिष्कार का ये मैसेज भी काम का है। जिस तरह भाजपा के नेताओं और मंत्रियों ने इसपर प्रतिक्रिया दी है, उससे साफ़ है कि चोट सही जगह पड़ी है।

हालांकि विपक्ष के बहिष्कार को बहिष्कार कहना भी पूरी तरह सही नहीं है, बहिष्कार या बैन जैसे शब्द तो सत्ता पक्ष के क़दम के लिए सही होते हैं। यहां तो किसी एंकर के शो में न जाने की स्वतंत्रता लेने का मामला है। अपना विरोध और असहमति जताने का जरिया है कि हम आपकी नफ़रती या सत्तापरस्त पत्रकारिता को सही नहीं समझते। हम उसका हिस्सा या मोहरा नहीं बनेंगे। यह अधिकार तो हर नागरिक को है और विपक्ष भी इसी का हिस्सा है। अगर यही क़दम सत्ता पक्ष उठाए तो ज़रूर चिंता करनी चाहिए और समझना चाहिए कि मीडिया या पत्रकार सही काम कर रहे हैं और सत्ता जनता के सवालों का सामना नहीं करना चाहती। विपक्ष से कैसी शिकायत! हालांकि विपक्ष से भी शिकायत की जा सकती है। अच्छा लोकतंत्र तो वही है जहां सत्ता के साथ विपक्ष भी जवाबदेह हो लेकिन एक तरफ़ा सवाल और पत्रकारों के भेस में सत्ता के प्रवक्ताओं और नफ़रत और घृणा के प्रचारकों से कैसे संवाद संभव है।

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