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ब्राज़ील : अमेज़न जंगलों में रह रहे आदिवासी समुदाय के आख़िरी इंसान की मौत, यह कैसी सभ्यता?

'मैन ऑफ़ द हॉल' कहे जाने वाले शख़्स अपने समुदाय के आख़िरी जीवित सदस्य थे। विडंबना यह है कि हमारी यह तथाकथित आधुनिक सभ्यता इस पुरखे का नाम तक नहीं जानती। 
Brazil
तस्वीर सौजन्य : बीबीसी

खबर है कि ब्राजील में अमेज़न के जंगलों में सदियों से रहते आए एक आदिम समुदाय के एक मात्र बचे रहे गए मनुष्य की भी मौत हो गयी है। हमारी यह तथाकथित आधुनिक सभ्यता इस पुरखे का नाम तक नहीं जानती। उन्हें ‘मैन ऑफ द होल’ कहा जाता था। इसकी वजह यह बताई जाती है कि इन्होंने अपने रहवास के आस-पास दर्जनों गड्ढे खोदे थे।

खबर में यह भी बतलाया जा रहा है कि यह मनुष्य अपने आदिम समूह में इकलौता ही था जो किसी तरह बचा हुआ था। ठीक ठीक जानकारी के अभाव में ब्राज़ील सरकार की इंडीजीनियस प्रोटेक्शन एजेंसी, फ़ुनाई  का कहना है कि बीते कई सालों में लगातार निगरानी करते हुए यह पाया गया कि इस समूह के ज़्यादातर मनुष्य धीरे धीरे गायब होते गए और पिछले कुछ समय से केवल इनके ही मौजूद होने के प्रमाण मिलते रहे हैं।

इधर कुछ समय से इनकी मौजूदगी का पता नहीं चल रहा था। इनका पता लगाने के लिए रूटीन निगरानी को इन पर केन्द्रित किया गया और इनके रहवास के आस-पास सघनता से जांच हुई। जिसमें इनका शव मिला है। शव को देखकर यह अंदाज़ा हो रहा है कि इनको मारे हुए कुछ वक़्त बीत चुका है। 

फिलहाल इनके शव को पोस्टमार्टम के लिए भेजा गया है जहां इनका डीएनए परीक्षण भी किया जाएगा और इनके कई महत्वपूर्ण अवशेषों को संरक्षित किया जा सकता है। पोस्टमार्टम के लिए भेजे जाते समय इस बेनाम और अपने आदिम समूह के अंतिम व्यक्ति को पत्तों से ढंका गया क्योंकि इनका एक फोटो इसी रूप में उपलब्ध है।

ब्राज़ील से आ रही खबरों में यह भी बतलाया जा रहा है कि जिस बेनाम मनुष्य को ‘मैन ऑफ द होल’ बताया जा रहा है उनकी उम्र अंदाज़न 60 के आस-पास है। जो लंबे समय से अकेले ही इस जंगल में रह रहे थे। इनकी भाषा, इनका खान-पान और इनकी जीवन-शैली की खासियतों के बारे में ब्राज़ील की इस एजेंसी को भी कोई ठोस जानकारी नहीं है। इसकी वजह यह बतलाई जा रही है कि ये कभी किसी बाहरी इंसान के संपर्क में आए ही नहीं। इनके साथ कभी किसी बाहरी इंसान का आमना-सामना नहीं हुआ। सरकार इनको लेकर चिंतित रही है लेकिन ऐसी कोई जुगत नहीं निकाल पायी कि इन्हें नजदीक से समझा जा सके या इनके साथ कोई रिश्ता बनाया जा सके। 

मैन ऑफ द होल के रूप में चिन्हित इस आदिम समूह के संभावतया अंतिम व्यक्ति के खत्म हो जाने की सूचना से भी भयावह एक दूसरी खबर है जो ब्राज़ील की इंडीजीनियस प्रोटेक्शन एजेंसी , फ़ुनाई  की जानिब से आ रही है और वो खबर है कि दुनिया के विशालतम नसर्गिक जंगलों में शुमार अमेज़न के जंगलों में तकरीबन 114 ऐसे पृथक आदिम समूहों की मौजूदगी रही है। हालांकि इनमें से किसी से भी ब्राज़ील सरकार की इस एजेंसी या किसी भी अन्य इंसान का कभी कोई संपर्क नहीं रहा है लेकिन इनकी मौजूदगी दर्ज़ की जाती रही है। इन 114 पृथक आदिम समूहों में से आज केवल 28 ऐसे समूहों का अस्तित्व के बारे में ही निश्चित तौर पर कुछ कहा जा सकता है लेकिन शेष आदिम समूहों की बड़ी संख्या यानी 86 ऐसे समूहों से किसी का कोई संपर्क नहीं है। इनके बचे रहने को लेकर भी कोई निश्चित सूचना नहीं है। 

ऐसे आदिम समूहों को दुनिया में ‘अनकोंटेक्टेड आदिम समूह’ कहा जाता है जिनका जंगल से बाहर की दुनिया से कोई संपर्क नहीं है। इनके बारे में कुछ भी जानना समझना मुश्किल है। चाह कर भी इनके लिए कुछ नहीं किया जा सकता है और ये भी किसी भी परिस्थिति में बाहरी दुनिया से कोई मदद नहीं ले सकते। 

इससे पहले भी ऐसे कई आदिम समूह स्वत: विलुप्त होते गए हैं जिनके बारे में हमारी आज की ‘सभ्य दुनिया’ को कुछ भी पता नहीं है। उनके बारे में कोई सूचना ही नहीं है और उनकी भाषा, उसका रहन-सहन, उनका अपनी ज्ञान -व्यवस्था और धरती पर बनती-बिगड़ती आयीं तमाम परिस्थितियों में खुद को बचाए रख पाने की कोशिशों से पैदा हुई तकनीकी आदि के बारे में हम कुछ नहीं जानते। 

लेकिन एक बुनियादी सवाल तो यहाँ उठता ही है कि आधुनिक होती गयी इस दुनिया की परिस्थितियाँ क्या उन परिस्थितियों से भी ज़्यादा भयावह हैं जहां जिनमें मनुष्य ने जीना- रहना और खुद को बचाना सीखा होगा? क्या हमारी आधुनिक दुनिया विरासत में मिली उस आदिम सभ्यता के लिए ही खतरा बन गयी है जिससे हम सब पैदा हुए होंगे? क्या मनुष्य के विकास की यह अवस्था ऐसे मोड़ पर आ खड़ी हुई हैं जहां हर पुरानेपन को यूं ही ढेर हो जाना होगा? 

इस बेनाम मनुष्य और इस मनुष्य के अपने आदिम समूह और ऐसे कितने ही आदिम समूहों का इस तरह जाना और इस धरती पर खत्म होते जाना क्या वाकई अच्छे संकेत हैं? यह दुनिया लाखों, करोड़ों सालों का हासिल है लेकिन कुछ समय से आधुनिक हुई यह सभ्यता अपने पुरानेपन के लिए विनाश के रास्ते रच रही है? 

ऐसे आदिम समूह, आज चीन्हें हुए आदिवासी समूहों और अलग अलग देशों में अलग अलग नामों से जाने वाले मूल निवासियों के वजूद को, उनकी संस्कृति को, भाषा को, रहन-सहन को, रीति-रिवाजों को इन आधुनिक निज़ामों में भी यथावत बने रहने का बुनियादी तर्क देते हैं। वो तर्क यह है कि जंगलों में पैदा हुए मनुष्य, जंगलों के साथ पाले-बढ़े मनुष्य, जंगली जीवों को समझते हुए, उनके साथ रहते आए मनुष्य न तो जंगल के लिए खतरा हैं, न जंगली जानवरों के लिए और न इस आधुनिक दुनिया और उनके निज़ामों के लिए भी। इसे मनुष्य और जंगल के बीच सदियों से बने अन्योनाश्रित संबंध कहते हैं। अब धीरे धीरे हालांकि यह माना जाने लगा है कि जंगलों में बसे आदिवासी समुदायों और ऐसे विरले आदिम समूहों से जंगलों को कोई खतरा नहीं है लेकिन दिलचस्प है कि इस पूरे विवेचन में भी जंगल केंद्र में है न कि मनुष्य। 

इस एक मनुष्य के साथ एक आदिम समूह की हमेशा के लिए धरती से विलुप्ति की घटना एकाध दिन की खबर है और ऐसी ही कोई अगली खबर तब एकाध दिन के लिए आएगी जब फिर किसी आदिम समूह का अंतिम व्यक्ति इसी तरह गुमनामी में और संभाव झाई बेनामी में इस धरती को हमेशा के लिए विदा कह देगा। संभाव है जाते जाते वो यह सोचे कि हमने ऐसी धरती की कामना नहीं की थी और कम से कम मनुष्यों की ऐसी पीढ़ी की कामना नहीं की थी जो हमें ही जंगलों के लिए खतरा बताए। 

जंगली जीवों के संरक्षण, जंगल के संरक्षण में हमें बड़ी बाधा के रूप में देखे और यह गुमान भी करे अपने आधुनिक तंत्र पर कि वो हमारा पुनर्वास करेंगे, हमें ‘मुख्य धारा’ में लाने की कोशिश करे और इस कोशिश में हमें बेनामी से खत्म हो जाने की परिस्थितियाँ पैदा करे। 

उल्लेखनीय है कि अभी बड़े पैमाने पर खनन के लिए ब्राज़ील के राष्ट्रपति जैर बोलनसारों की कथित संलिप्तता में अमेज़न के जंगल लंबी मियांद तक आग के हवाले किए जाते रहे हैं। क्या इस आग का इन आदिम समूहों की विलुप्ति से कोई सीधा ताल्लुक नहीं है? क्योंकि यह आग प्राकृतिक नहीं थी, आधुनिक होने का दावा कर चुके कृत्रिम मनुष्य के लिए विकास की अतृप्त लालसा से पैदा हुई आग थी जिससे बचना इन आदिम समूहों ने नहीं सीखा था। अगर आग प्राकृतिक होती तो ज़रूर इन समूहों को उससे निपटना आता। इस आग से खुद को बचा लेना आता। संभाव है इस आग से इन समूहों के लिए ज़रूरी बनस्पति नष्ट हो गयी हो और ये भूख से मरे हों? कितने ही जानवरों के ऐसे दृश्य उस दौरान शाया होते रहे हो जली-अधजली अवस्था में जंगल के किनारे पाये गए। क्या जिन 86 आदिम समूहों का कोई पता नहीं चल रहा है उन्हें भी इसी तरह जंगल में आग में झुलसा दिया गया होगा? 

विकास और पर्यावरण, विकास और धरती के मूल निवासियों के बीच एक सतत युद्ध जारी है। यह विकास इस युद्ध में हर तरह से भारी पड़ रहा है। मनुष्य इस विकास के इंजन का पुर्जा बनकर खुद विकसित होने के गुमान में धीरे धीरे मनुष्य होने के नैसर्गिक गुणों से हीन होता जा रहा है। अपनी आदिम भाषा, उस भाषा में संरक्षित स्मृतियों, प्रकृति के साथ सदियों में रचे-गढ़े सम्बन्धों से रिक्त होता जा रहा है। यह रीत चुके मनुष्यों द्वारा गढ़ा गया विकास है जिसमें किसी के लिए कोई जगह नहीं बची है। सारी जगह पर मुनाफे का कब्जा हो चुका है। मुनाफा, नैसर्गिक मनुष्य का गुण नहीं रहा। इसलिए यह विकास भी न तो नैसर्गिक है और न ही मानवीय। 

धरती से हमेशा के लिए विदा लिए हमारे इस बेनाम पुरखे को श्रद्धांजलि देने तक का विनम्रता भी बचे रहे तो दुनिया पर यकीन कायम किया जा सकता है।

(लेखक लंबे समय से सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हैं। सामयिक मुद्दों पर लिखते हैं। यहाँ व्यक्त विचार निजी हैं।)

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