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कोविड-19: क्या टीकाकरण के बाद भी अंग-प्रत्यारोपित कराए मरीज़ों के दोबारा संक्रमित होने का ख़तरा सबसे अधिक है?

हालिया किए गए अध्ययन में कहा गया है कि दोनों टीके लेने वाले प्रत्यारोपित मरीजों में एंटीबॉडी की कमी उन्हें कोविड-19 मामलों सबसे अधिक जोखिम की तरफ ले जाता है।
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कोविड से बचाव के लिए लगाए जाने वाले टीके उन लोगों की कहां तक हिफाजत कर सकते हैं, जिन्होंने किसी न किसी अंग का प्रत्यारोपण करा रखा है; इस बारे में अभी आंकड़ों का अकाल है। प्रत्यारोपण करने वाले चिकित्सक काफी समय से इसे लेकर चिंतित रहे हैं कि प्रत्यारोपित मरीज उस तरह संरक्षित नहीं हो सकते हैं, जितनी सुरक्षा की जरूरत कोविड के टीके से उन्हें चाहिए होगी। इसकी एक प्रमुख बात यह है कि प्रत्यरोपित मरीजों के mRNA टीके की पूरी खुराक ले लेने के बाद भी, उनका शरीर कोरोना वायरस के विरुद्ध एंटीबॉडी बनाने में सक्षम नहीं हुआ है। हालांकि कई अध्ययनों में mRNA टीके को सबसे अधिक प्रभावी होने की बात कही गई थी।

ट्रांसप्लांटेशन जनरल में हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन से जाहिर हुआ है कि प्रत्यारोपित मरीजों में एंटीबॉडीज कम बनती है, इसलिए जो टीके की पूरी खुराक ले लिए हैं, वे भी कोविड-19 के प्रकोप के लिहाज से सर्वाधिक जोखिम के दायरे में हैं। प्रस्फोट के मामले वे होते हैं, जिनमें मरीज अंतिम दूसरी खुराक लेने के कम से कम 14 दिनों के बाद कोरोना से संक्रमित हो जाते हैं। अमेरिका के जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसीन विभाग में काम करने वाले ट्रांसप्लांट सर्जन डॉरी सेगेव और उनके साथियों द्वारा समान अध्ययन किया गया है। 

प्रत्यारोपित किए गए मरीजों के मामले में, सामान्य तौर पर प्रतिरोधक-दमनकारी दवाओं का उपयोग किया जाता है। इन दवाओं के साथ प्रतिरक्षा प्रणाली (शरीर का रक्षा-तंत्र) प्रतिक्रिया को कम रखा जाता है ताकि शरीर को एक नए अंग को अस्वीकार कर देने से रोका जा सके। शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली के दमन के चलते ही प्रत्यारोपित अंगों वाले मरीजों पर वायरस के संक्रमण का खतरा बहुत बढ़ जाता है। 

इसके पहले मई 2021 में जामा (JAMA) में प्रकाशित एक अध्ययन के सह-लेखक डॉरी सेगेव  थे, जिसमें पाया गया कि कुल 658 प्रत्यारोपित मरीजों में से मात्र 54 फीसदी को mRNA के दोनों टीके लगे थे, जो कोरोना वायरस से बचाव के लिए एंटीबॉडीज विकसित करने के लिहाज से बेहद जरूरी थे। सेगेव के मुताबिक, “एंडीबॉडी का न्यून स्तर होना एक खतरनाक संकेत है, लेकिन इसका जरूरी मतलब यह नहीं है कि उनके पास कम सुरक्षा है।”

ट्रांसप्लांटेशन में प्रकाशित एक अद्यतन लेख में, डॉरी सेगेव और उनके साथी-सहयोगियों ने टीके से प्रत्यारोपित मरीजों को मिलने वाली सुरक्षा को मापने का प्रयास किया है। इन शोधार्थियों की टीम ने लगभग 18,000 लोगों के कोरोना वायरस संक्रमण और परीक्षण का डेटा जमा किया, जिन्हें किडनी या फेफड़े जैसे बड़े अंगों का प्रत्यारोपण किया गया था। वे लोग कोविड से बचने के लिए mRNA टीके ले चुके थे। इसमें पूरे अमेरिका के ट्रांसप्लांट केंद्रों से डेटा इक्कट्ठे किए गए थे। 

इन लोगों में से 151 लोगों को कोरोना वायरस से संक्रमित थे। फिर, इन संक्रमित मरीजों में से, आधे से अधिक मरीजों को कोविड-19 के गंभीर लक्षण को देखते हुए अस्पताल में भर्ती करना पड़ा था। उनमें मृत्यु की ऊंच्ची दर सर्वाधिक चिंतित करने वाली थी, ऐसे कि10 संक्रमित मरीजों से एक की मौत हो गई थी। इसका मतलब उन लोगों में मृत्यु-दर 10 फीसदी थी। इस अध्ययन में संक्रमण की 0.83 फीसदी (अध्ययन किए गए 18,000 मरीजों में 151 संक्रमित) की दर किसी को कम लग सकती है, लेकिन टीकाकृत हो चुके आम लोगों की तुलना में संक्रमण की यह दर ऊंची मानी जाती है। अध्ययन में यह भी पाया गया कि प्रत्यारोपित मरीजों में गंभीर रूप से बीमार होने की दर काफी ऊंची थी-आम लोगों की तुलना में 485 गुनी अधिक। 

हालांकि, अन्य विशेषज्ञों ने इस अध्ययन के आंकड़ों के प्रति अपनी आशंकाएं जाहिर की हैं। इनमें बर्लिन के चैरिटे यूनिवर्सिटी अस्पताल के एक नेफ्रोलॉजिस्ट ईवा श्रेज़ेनमेयर प्रमुख हैं। उन्होंने साइंस पत्रिका को दिए एक वक्तव्य में कहा कि इस बात की संभावना है कि सेगेव एवं उनके साथियों के अध्ययन में सफलता के मामलों को कम करके आंका गया है। ऐसे कुछ मरीज अध्ययन में शामिल किए जाने से इस वजह से छूट गए होंगे कि वे कोविड-19 के इलाज के लिए अन्य अस्पताल में भर्ती हुए हों और उनमें से कुछ ने अपनी सफलता के मामले की रिपोर्टिंग नहीं की होगी। 

टोरंट के यूनिवर्सिटी हेल्थ नेटवर्क के प्रत्यारोपण संक्रमण रोग विभाग की एक अन्य फिजिशिएन दीपाली कुमार ने भी ऐसे ही विचार व्यक्त किए हैं। दीपाली ने टिप्पणी दी कि किसी नतीजे पर पहुंचने के पहले उन लोगों के बारे में अधिक जानना चाहेगी, जो संक्रमण को मात देने में सफल रहे हैं। उन्होंने कहा,“चूंकि यह अध्ययन समरी डेटा पर आधारित है और इसमें मेडिकल रिकॉर्ड पूरा नहीं है। यह इस बारे में सूचना नहीं दे सकता कि क्या अंग प्रत्यारोपित कराए हुए पुराने मरीजों में सीरियस ब्रेकथ्रू हुआ है, या ऐसे मरीज में जिन्होंने विशेष प्रकार का प्रत्यारोपण करा रखा है। ऐसे बहुत सारे सवाल रह जाते हैं, जिनका जवाब अभी ढूंढ़ना है।” 

तो क्या तीसरी खुराक एक हल हो सकता है?

इस संभावना का पता लगाने के लिए अध्ययन जारी है कि क्या प्रत्यारोपित मरीजों को तीसरी खुराक (बूस्टर डोज) बेहतर संरक्षण मुहैया करा सकता है।

एनईजेएम (न्यू इंग्लैंड जनरल ऑफ मेडिसीन) में हालिया प्रकाशित अध्ययन में पाया गया कि प्रत्यारोपित मरीजों को जब फाइजर (Pfizer) के टीके (mRNA) दी गई तो उनमें से 68 फीसदी लोगों में एंटीबॉडी बना जबकि टीके की दोनों खुराक लिए ऐसे मरीजों में मात्र 40 फीसदी में ही एंटीबॉडी बन सका था। 

जामा (JAMA)  में 23 जुलाई को प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में, डॉक्टरों ने 159 मरीजों को मॉडर्ना की वैक्सीन (mRNA) की तीसरी खुराक दी थी, जिनके गुर्दा का प्रत्यारोपण हो चुका था। इसके पहले, इन्हें टीके की दो खुराक दी जा चुकी थी लेकिन उससे उनमें एंटीबॉडी या तो नहीं बना था या कम बना था। लेकिन, तीसरी खुराक के बाद, 49 फीसदी मरीजों में एंटीबॉडीज बनने शुरू हो गए थे। 

हालांकि, पूरी दुनिया में किसी भी टीके की तीसरी खुराक देने की इजाजत नहीं है। ऐसे प्रस्ताव को मंजूरी दिए जाने के पहले अभी और अध्ययन करने की आवश्यकता है।

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-

COVID-19: Are Transplant Patients at Higher Risk of Reinfection Even After Full Vaccination?

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