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जाति की ज़ंजीर से जो जकड़ा हुआ है,  कैसे कहें मुल्क वह आज़ाद है!

जब हम आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं, तो क्या हमें जाति की ज़ंजीरों पर विचार नहीं करना चाहिए, जो हमें आज भी दिमाग़ी तौर पर ग़ुलाम बनाए हुए है, जो आज भी एक स्टार खिलाड़ी को सिर्फ़ उसकी जाति की वजह से अपमानित करने से नहीं चूकती।
Vandana Katariya

हाल ही में हॉकी की स्टार खिलाड़ी वंदना कटारिया के घर के सामने जातिवादी हुड़दंगियों ने जो हुड़दंग मचाया वह न केवल शर्मसार कर देने वाला है बल्कि लोगों की जातिवादी सोच को उजागर करता है।

जापान के टोक्यो में चल रहे ओलिंपिक खेलों में अर्जेंटीना से मुकाबले में भारतीय महिला हॉकी टीम हार गई, जिसमे वंदना कटारिया एक दलित लड़की भी खिलाड़ी थी। इसको लेकर ही कुछ कथित उच्च जाति के लोग उत्तराखंड के हरिद्वार के रोशनाबाद में वंदना कटारिया के घर के सामने जाकर शर्मनाक जश्न मनाने लगे, पटाखे फोड़ने लगे, शर्ट उतार कर डांस करने लगे। वंदना के घर वाले जब बाहर आए तो उन्हें देख कर वे जाति सूचक गलियां देने लगे। कथित उच्च जाति के दबंगों का कहना था कि महिला हॉकी टीम में कई दलित जाति के खिलाड़ियों  को ले लिया गया है इसलिए टीम हार रही है। आरोपियों का कहना था कि केवल हॉकी से ही नहीं बल्कि हर खेल से दलितों को दूर रखा जाए।

इन उच्च जाति का दंभ भरने और दलितों को दीन-हीन नाकाबिल समझने वालों को यह भी देखना चाहिए कि ओलंपिक में इस ऊंचाई तक भी महिला हॉकी को ले जाने में ग़रीब और दलित लड़कियों का ही योगदान है। ओलंपिक में चौथे स्थान तक पहुंचना भी बहुत बड़ी बात है, जिस पर पूरे देश को गर्व होना चाहिए।

इसी ओलिंपिक खेलों में भारतीय पुरुषों की हॉकी टीम ने कांस्य पदक जीतकर देश का नाम रोशन किया है। उस टीम में भी गरीब और दलित खिलाड़ी हैं। हरियाणा का एक खिलाडी सुमित वाल्मीकि भी है। अब क्या ये जाति दम्भी लोग उसे फूलों की माला पहनाएंगे? उसकी काबिलियत का लोहा मानेगे? क्या ये स्वीकार करेंगे कि प्रतिभा किसी जाति विशेष की मोहताज नहीं होती। क्या ये मानेंगे कि  प्रतिभा में दलित-आदिवासी-बहुजन किसी से कम नहीं होते।

इस जाति की जकड़न को देखकर लगता है कि जिस तरह मोहनदास करमचंद गांधी ने एक समय ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन’  चलाया था उसी तरह आज ‘जातिवादियो जाति छोड़ो आंदोलन’ चलाने की आवश्यकता है।

सर्वविदित है कि देश को आजाद कराने की लड़ाई में गांधी जी ने 9 अगस्त 1942 को पूरे देश के युवाओं का आह्वान करते हुए ‘करो या मरो’ (डू ओर डाई) का संकल्प लिया था और अंग्रेजों से भारत को आजाद कराने के लिए ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा दिया था। इसलिए इस आंदोलन को भारत छोड़ो आंदोलन (क्विट इंडिया मूवमेंट) भी कहा जाता है। उस जमाने में गांधी जी ने अपने इस आंदोलन को सफल बनाने के लिए 6 साल संघर्ष किया और अंग्रेजों को 15 अगस्त 1947 को भारत छोड़ना पड़ा। उसी का परिणाम है कि आज हम आजादी की 75वीं जयंती मना रहे हैं।

पर इन पचहत्तर वर्षों में भी क्या हम उस भारत का निर्माण कर पाए जिसकी कल्पना हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने की थी। उस भारत की जिसके लिए उन्होंने अपनी कुर्बानी दी थी। उनका सपना था  - सभी प्रकार की गुलामियों से आजाद भारत। वे ऐसा भारत चाहते थे जिसमे सब आजादी के वातावरण में सांस लें। जहां असमानता, अन्याय , भेदभाव और छूआछूत न हो। हमें अंग्रेजों  की गुलामी से आजाद हुए पचहत्तर साल हो गए पर सवाल है कि अपने ही देश में व्याप्त जाति की गुलामी से कब आजाद होंगे?

जाति भारतीय समाज की एक कड़वी सच्चाई है। जाति की राजनीति भी खूब होती है। यह उच्च-निम्न क्रम पर आधारित सामाजिक व्यवस्था है। जिसे हिन्दू धर्म का भी संरक्षण प्राप्त है। संविधान लागू करते समय बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भी कहा था कि आज हम एक ऐसे लोकतंत्र में प्रवेश करने जा रहे हैं जहां राजनीति में सबको समानता होगी। सब के वोट का महत्व बराबर होगा। सब को बराबर का अधिकार होगा पर सामाजिक लोकतंत्र में असमानता और गैर बराबरी मौजूद रहेगी। आर्थिक लोकतंत्र असमानता पर आधारित होगा। उन्होंने प्रतिनिधित्व देने के लिए अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए संवैधानिक रूप से आरक्षण का प्रावधान किया। पर ज्यादातर लोग आरक्षण को जाति और गरीबी से जोड़ कर देखते हैं जो कि सही नहीं है। फ़िलहाल अच्छी बात है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार ओबीसी के आरक्षण का राज्यों को अधिकार देने के लिए संविधान में 102वां संशोधन करने जा रही है। भले ही इसे उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनावों के मद्देनजर ओबीसी के वोट लेने के लिए किया जा रहा हो।

दरअसल हमारे देश में जातिगत व्यवस्था होने के कारण आरक्षण को लेकर सवर्ण बनाम दलित, आदिवासी और पिछड़ा वर्ग का संग्राम चलता रहता है। यही  कारण है कि इनकी दूरियां भी बढ़ती जाती हैं। जातिगत जनगणना की मांग भी इसलिए उठती है कि जाति के अनुपात में शासन प्रशासन में लोगों का प्रतिनिधत्व हो। मान्यवर कांशीराम ने तो नारा ही बुलंद किया था कि “जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी”।

दलित, आदिवासी और पिछड़ों में भी अब चेतना आ रही है। वे जागरूक हो रहे हैं और अपने हक-अधिकारों के लिए आवाज उठाने लगे हैं। ऐसे में सवर्ण समाज को ये अपने दुश्मन नजर आते हैं। उन्हें लगता है कि ये दलित पिछड़े और आदिवासी उनके हिस्से की सरकारी नौकरियों पर कब्ज़ा कर रहे हैं। इसलिए ये “कोटे वाले” उन्हें कांटे की तरह चुभते हैं। मगर ऐसा वे नासमझी में, जागरूकता के अभाव में या स्वार्थी प्रकृति के कारण करते हैं। क्योंकि आनुपातिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो अभी भी सवर्ण समाज की ही सरकारी तंत्र में बहुलता है। वर्चस्व है। दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ा वर्ग (क्रमश 7 प्रतिशत 15 प्रतिशत और 27 प्रतिशत) का कुल  आरक्षण मिला भी दिया जाए तो भी 50 प्रतिशत से कम है। अब तो सरकार ने गरीब सवर्णों को भी आर्थिक स्तर पर 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान कर दिया गया है। फिर भी सवर्ण समाज असंतुष्ट है। इस असंतुष्टि के कारण ही कथित उच्च जाति के लोग दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों से  ईर्ष्या-द्वेष का भाव रखते हैं। परिणाम स्वरुप  सामान्य: पिछड़े और खासतौर से दलित और आदिवासी इनके भेदभाव और अत्याचार के शिकार होते हैं। उत्तर प्रदेश के आगरा के ब्राह्मण संगठन ‘सर्व ब्राह्मण महासभा’ की तो स्पष्ट मांग  है कि “सवर्णों का वोट चाहिए तो आरक्षण और एससी/एसटी एक्ट को तत्काल प्रभाव से ख़त्म करो।“

सामाजिक व्यवस्था, अशिक्षा, चेतना और जागरूकता के अभाव में कथित उच्च जाति के लोग अपनी जाति पर गर्व करते हैं और कथित निम्न जाति के लोगों को हेय दृष्टि से देखते हैं। उनमें उच्च जाति के होने का अहंकार आ जाता है। जाहिर है जहां जाति गर्व का या विशेष अधिकार का विषय हो तो ऐसे में कोई आसानी से भला जाति क्यों छोड़ना चाहेगा।

बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने जाति से होने वाले नुकसान को बहुत पहले पहचान लिया था। वे जानते थे कि जाति न केवल इंसान इंसान में भेदभाव करती है बल्कि देश के विकास में भी बाधक है। इसलिए उन्होंने जाति के विनाश की बात कही। उन्होंने अंतरजातीय विवाह को भी जाति विनाश में सहायक बताया था। पर जहां जाति का दर्प होगा, अहम होगा और स्वयं के उच्च होने का वहम होगा वहां अंतरजातीय विवाह क्या आसानी से होंगे?

अब यहां बात आती है शिक्षा की, चेतना की और संवैधानिक मूल्यों की। देश का संविधान जाति, लिंग, धर्म, नस्ल, क्षेत्र, भाषा से इतर देश के सभी नागरिकों को बराबर का अधिकार देता है। इसके लिए देश के सभी नागरिक संविधान की प्रस्तावना को ही आत्मसात कर लें तो उनकी मानसिकता में काफी परिवर्तन आएगा। प्रस्तावना में स्पष्ट कहा गया है -

“हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, समाजवादी, पंथ-निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिक को :

सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर  की समता, प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई.

(मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।“

इस प्रस्तावना के आत्मसात करने से सामान्यत: समता, समानता, न्याय और बंधुत्व की भावना बढ़ेगी। सर्व धर्म समभाव का भाव बढ़ेगा। लोग जाति से ऊपर उठेंगे। उनमे मानवता का विकास होगा। जाति की निरर्थकता का लोगों को अहसास होगा।

जब लोग जाति की निरर्थकता को  समझेंगे तो इसे स्वत: ही छोड़ देंगे। और जब जाति छूटेगी तब लोगों में बंधुत्व का भाव होगा। आपसी जुड़ाव होगा। सही अर्थों में तब सबका साथ होगा। सबका विकास होगा। देश समृद्ध होगा। कहते हैं कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना होता है। देश की एकता और समृद्धि के लिए क्या हम जाति को छोड़ने के लिए तैयार हैं?

आज हम भले ही स्वतंत्रता की 75वीं जयंती मनाने पर देश की आजादी को लेकर गौरवान्वित हो रहे हों। पर जो देश जाति की जंजीरों में जकड़ा हुआ गुलाम हो क्या उसे आजाद मुल्क कहा जा सकता है? वहां के दलित, आदिवासी और पिछड़े नागरिकों को, जो लगातार अन्याय, अत्याचार, भेदभाव, छूआछूत झेल रहे हों, क्या उन्हें आजाद देश के आज़ाद नागरिक कहा जा सकता है?

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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