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रोज़गार सृजन और बढ़ोतरी की रणनीति को लेकर केंद्र सरकार दो सर्वेक्षणों पर उम्मीद लगाए बैठी है

"पूंजी की तीव्रता में वृद्धि हमें कुछ समय के लिए विकास दे सकती है, लेकिन यह रोजगारहीन विकास हो सकता है, जो न तो टिकाऊ है और न ही वांछनीय है।" उन्होंने कहा कि विकास का यह मार्ग समय के साथ श्रम बाजार में बड़े पैमाने पर मोहभंग का कारण बनेगा।"
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कोलकाता: केंद्रीय श्रम मंत्रालय के दो सर्वेक्षणों - एक प्रवासी कामगारों पर और दूसरा घरेलू कामगारों पर - ने काफी प्रगति की है, और यह संभव है कि सर्वेक्षण के लिए नामित टीम जिसमें  वरिष्ठ अर्थशास्त्री और सांख्यिकीय विशेषज्ञ शामिल हैं, छह महीने या उससे कुछ अधिक समय में अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप दे दें।

श्रम मंत्रालय की पहल से निकटता से जुड़े, और अहमदाबाद स्थित लोक जागृति विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एमेरिटस अमिताभ कुंडू के अनुसार, यह सर्वेक्षण नई दिल्ली के उस  अहसास को दर्शाता है कि दीर्घकालिक आर्थिक विकास रणनीति में रोज़गार सृजन और श्रमिकों की भलाई एक प्रमुख चिंता का विषय है, जिससे सूत्रीकरण में सुविधा होगी यदि सर्वेक्षण और उसके विश्लेषण से हासिल साक्ष्य-आधारित इनपुट उपलब्ध होता हैं।

कुंडू, जो पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र पढ़ाते थे, ने बताया कि 2017-18 में 6.1 फीसदी की बेरोजगारी दर, 45 साल के इतिहास में काफी बड़ी रही है, और दो साल से अधिक समय तक चलाने वाली कोविड महामारी ने अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचाया है, जिसमें रोजगार सृजन की स्थिति सबसे खराब रही है। अधिकारी महसूस कर रहे हैं कि स्थायी आर्थिक लाभ के लिए रोजगार सृजन के साथ विकास होना चाहिए।

कुंडू ने न्यूज़क्लिक को बताया कि, "पूंजी की तीव्रता में वृद्धि हमें कुछ समय के लिए विकास दे सकती है, लेकिन यह रोजगारहीन विकास हो सकता है, जो न तो टिकाऊ है और न ही वांछनीय है।" उन्होंने कहा कि विकास का यह मार्ग समय के साथ श्रम बाजार में बड़े पैमाने पर मोहभंग का कारण बनेगा।

प्रवासी कामगारों का सर्वेक्षण उन स्थानों की पहचान करने की कोशिश कर रहा है जहां से वे आते हैं, उनकी शिक्षा का स्तर, यदि कोई है, या वे जिन व्यवसायों में लगे हुए हैं और  मजदूरी जो वे कोविड प्रकोप से पहले कमा रहे थे, इसका मक़सद यह भी जानना है कि, महामारी के दौरान स्थिति कैसे बिगडी, क्या जमीन मौजूद वास्तविकताओं में कुछ सुधार हुआ है और क्या भविष्य में ओर भी इस किस्म के झटकों की संभावना है जिन्हें कम करने के लिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए।

लाखों प्रवासी कामगारों की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए जरूरी पहलों को निर्धारित करने के लिए नियोक्ता-प्रवासी श्रमिक संबंधों की भी जांच की जाएगी। ऐसा नहीं है कि विधायी सुरक्षा उपायों की कमी है, लेकिन केंद्र और राज्यों के स्तर पर प्रशासनिक कार्रवाई को लागू करने में कोताही नज़र आती है। ऐसा कई विशेषज्ञों का आकलन है।

उम्मीद है कि घरेलू कामगारों का सर्वेक्षण अर्थव्यवस्था में बड़ा वेतन पाने वाले तबके के कई अनभिज्ञ पहलुओं पर प्रकाश डालेगा। घरेलू कामगार, जिनकी सामान्य पहचान, घर की सफाई, खाना पकाने, कपड़े धोने और इस्त्री करने, बच्चों या बुजुर्गों या परिवार के बीमार सदस्यों की देखभाल करने, बागवानी करने, घर की रखवाली करने, वाहन चलाने वाले, यहां तक कि घरेलू पालतू जानवरों की देखभाल करने जैसे काम वाले व्यक्ति के रुप में की जाती है। आईएलओ कन्वेंशन 189 के तहत, एक घरेलू कामगार "रोजगार संबंध के भीतर घरेलू काम में लगा हुआ कोई भी व्यक्ति" हो सकता है।

लेकिन, घरेलू कामगार असंगठित क्षेत्र का हिस्सा है, और बड़े पैमाने पर असंगठित हैं। पुरुष और महिला श्रेणी में विभाजित होने के अलावा, बाल श्रम, लिव-इन और लिव-आउट श्रेणियां, क्रूरता और  दुर्व्यवहार और राज्यों द्वारा अनुसूचित रोजगार में शामिल करने से संबंधित मुद्दे हैं। घरेलू कामगार (पंजीकरण, सामाजिक सुरक्षा और कल्याण) अधिनियम 2008 के तहत उनकी सुरक्षा, जो एक केंद्रीय कानून है, इसे राज्यों द्वारा अनुवर्ती कानून के माध्यम से सुनिश्चित किया जाना है। अन्य कानून भी हैं, और राष्ट्रीय घरेलू कामगार आंदोलन भी है।

कुंडू के अनुसार, केंद्र सरकार, योजनाओं के परिणामों का भी आकलन करना चाहती है, जैसे कि प्रत्येक किसान को 6,000 रुपये का नकद भुगतान, स्माइल (आजीविका और उद्यम के लिए हाशिए पर रहने वाले व्यक्तियों के लिए आर्थिक समर्थन, पीएम-दक्ष (प्रधानमंत्री दक्ष और कुशलता संपन्न हितग्राही), पीएमकेवीवाई (प्रधान मंत्री कौशल विकास योजना, स्टार्ट अप इंडिया योजना और, निश्चित रूप से, मनरेगा का भी आकलन शामिल है। यह पूछे जाने पर कि हम श्रम बाजार की व्याख्या कैसे करते हैं, उन्होंने कहा कि अवधारणा मूल रूप से एक प्रणाली को संदर्भित करती है जिसमें आपूर्ति - जो लोग अपना श्रम बेचना चाहते हैं - और मांग – जो श्रम खरीदने के इच्छुक हैं, मिलकर नए "रोजगार पैदा करते हैं और आय पैदा करते हैं"।

जो लोग श्रम खरीदना चाहते हैं वे जरूरतों के आधार पर नियमित या केजुयल रोजगार की पेशकश कर सकते हैं। यह उल्लेख किया जा सकता है कि वीवी गिरी नेशनल लेबर इंस्टीट्यूट एक विशेष अनुसंधान केंद्र है जिसे सेंटर फॉर लेबर मार्केट स्टडीज कहा जाता है, जो श्रम बाजार में चल रहे बदलाव पर ध्यान केंद्रित करते हुए अनुसंधान करता है, जो पूंजी, वस्तुओं और सेवाओं के लिए बाजारों से जटिल रूप से जुड़ा हुआ है।

जानकार लोगों ने न्यूज़क्लिक को बताया कि सर्वेक्षणों के बाद नीति बनाने में सहायक  बेरोजगारी के प्रकारों को ध्यान में रखा जाएगा। जो मोटे तौर पर कुछ इस तरह के रोजगार हैं:

  1. प्रच्छन्न बेरोजगारी: यह एक ऐसी बेरोज़गारी है जिसमें वास्तव में जरूरत से अधिक लोग काम करते हैं; इन्हे अधिकतर कृषि और असंगठित क्षेत्रों में पाया जाता है,

  2. सीजनल बेरोजगारी: यह रोजगार एक वर्ष में कुछ सीजन के दौरान मिलता है; भारत में खेत मजदूरों के पास साल भर शायद ही कोई काम होता है,

  3. ढांचागत बेरोजगारी: यह बाजार में उपलब्ध नौकरियों और उपलब्ध श्रमिकों के कौशल के बीच बेमेल होने से उत्पन्न होती है,

  4. सीनिकाल बेरोजगारी: यह व्यावसायिक चक्रों का परिणाम है; मंदी के दौरान बेरोजगारी बढ़ती है और आर्थिक विकास के साथ गिरती है; भारत में यह स्पष्ट नहीं है, लेकिन पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में यह आम है,

  5. तकनीकी बेरोजगारी: प्रौद्योगिकी में आए बदलाव के कारण नौकरियों का नुकसान; रोजगार का स्वचालन इसका एक प्रमुख कारण है,

  6. फ़रिक्सनल बेरोजगारी: इसे खोज बेरोजगारी भी कहा जाता है; यह नौकरियों के बीच मौजूद समय के अंतराल को संदर्भित करती है, तब-जब कोई व्यक्ति नई नौकरी की तलाश कर रहा होता है या एक नौकरी से दूसरी नौकरी में जा रहा होता है - एक अर्थ में, यह स्वैच्छिक बेरोजगारी का एक उदाहरण है क्योंकि कोई बेहतर अवसरों की तलाश में होता है और, 

  7. कमज़ोर या भेदयता वाली बेरोज़गारी: यह संदर्भ अनौपचारिक रूप से काम कर रहे लोगों के लिए है, जो बिना उचित नौकरी अनुबंध के काम करते हैं और निश्चित रूप से, कानूनी सुरक्षा के बिना काम करते हैं; उन्हें बेरोजगार माना जाता है, क्योंकि उनका कोई रिकॉर्ड नहीं होता है। यह भारत में एक गंभीर मुद्दा है।

न्यूज़क्लिक ने श्रम मंत्रालय की पहल पर विचार जानने के लिए दो ट्रेड यूनियन नेताओं से बात की, और हालांकि दोनों नेता वामपंथी थे, लेकिन उनके विचारों में भिन्नता स्पष्ट थी।

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) से संबंधित सीटू के महासचिव तपन सेन से पूछा कि: औद्योगिक श्रमिकों के बारे में आपका क्या ख्याल है; क्या यह एक समावेशी सर्वेक्षण हो सकता है जो वास्तव में रोजगार सृजन के लिए नीति निर्माण में सहायता करेगा? व्यापक बेरोजगारी ने अर्थव्यवस्था को गंभीर नुकसान पहुंचाया है और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल में भाजपा की अगुआई वाली एनडीए सरकार शायद ही कभी मजदूर समर्थक बात बोलती है। उनकी आजीविका, सुरक्षा और सामाजिक न्याय के लिए जो भी सुरक्षात्मक कानून थे, उन्हें रद्द करने के बाद उन्होंने प्रवासी श्रमिकों का एक सर्वेक्षण किया है। उन्होंने मजदूरों को ठेकेदारों के रहमोकरम पर छोड़ दिया है। 1979 के अधिनियमन को निरस्त कर दिया गया है।"

सीटू नेता ने आगे कहा कि, "सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बावजूद, केंद्र अपनी स्थिति में सुधार करने के लिए कतई भी तैयार नहीं है। घरेलू कामगारों के पंजीकरण का कोई प्रावधान नहीं है और नई दिल्ली ने अभी तक एक सुरक्षात्मक तंत्र बनाने के आईएलओ कन्वेंशन की पुष्टि नहीं की है। गिग इकॉनमी वर्कर्स की संख्या देखें; वे ऐप को नियंत्रित करने वाले व्यक्ति या एजेंसी की दया पर हैं। "मेरी नज़र में, ये सर्वेक्षण कुछ और नहीं बल्कि एक दिखावा है।"

रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े यूनाइटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस (यूटीयूसी) के महासचिव अशोक घोष, जिन्होंने हाल ही में केंद्रीय श्रम मंत्री भूपेंद्र यादव के साथ एक बैठक में हिस्सा लिया था, वे सर्वेक्षणों को एक अलग ही रोशनी में देखते हैं, भले ही वह भयानक बेरोजगारी की स्थिति को संदर्भित करते हैं।

घोष कहते हैं कि सरकारी आजीविका समर्थन के साथ-साथ, असंगठित श्रम के सबसे बड़े हिस्से को कवर करने वाले ये सर्वेक्षणों तत्काल, लघु, मध्यम और दीर्घकालिक खोज के  माध्यम से क्षेत्रों की पहचान की जाएगी और सामाजिक सुरक्षा जाल के साथ नियमित रोजगार के अवसर पैदा होंगे।

घोष न्यूज़क्लिक को बताते हैं कि, "मुझे लगता है कि केंद्रीय मंत्री सर्वेक्षण के परिणामों के बारे में गंभीर हैं, और एक जिम्मेदार संगठन के रूप में, यूटीयूसी इसे एक सुविचारित कदम के रूप में देखता है। हर जगह, श्रम बाजारों ने कोविड-19 के दौरान और बाद में बुरा समय देखा है। जबकि जमीनी हकीकत अलग-अलग देशों में भिन्न हो सकती है। केवल एक गहन अध्ययन ही किसी प्रमुख उद्देश्य के रूप में रोजगार सृजन के साथ आर्थिक विकास योजना तैयार करने में मदद कर सकता है।"

वे आगे कहते हैं, सर्वेक्षण पर सकारात्मक रुख किसी भी तरह से श्रमिकों के लिए हमारी लड़ाई को कमजोर नहीं करता है। याद रखें कि हर साल नौकरी चाहने वालों की संख्या बढ़ती है क्योंकि युवा अपनी शिक्षा पूरी करते हैं, और इस किस्म के कम भाग्यशाली लोगों को अपने परिवार का समर्थन करने की जरूरत होती है।”

रिकॉर्ड के लिए: 7 अक्टूबर के द टेलीग्राफ में एक लेख में, आईआईएम कलकत्ता में अर्थशास्त्र के पूर्व प्रोफेसर अनूप सिन्हा ने पाया कि: शिक्षा और स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे और समाज पर महामारी का असर लंबे समय तक रहने की संभावना है। यदि कोई इन आंकड़ों को जोड़ ले जो अधिकतर गैर-सरकारी स्रोतों से हैं- गरीबी के स्तर में बदलाव, बेरोजगारी, श्रम बल का अनौपचारिकीकरण, कृषि क्षेत्र में मारामारी, एमएसएमई क्षेत्र का लगभग आधा सिकुड़ जाना, और आर्थिक असमानता में भारी बढ़ोतरी से भारतीय अर्थव्यवस्था का ढ़ोल फट गया है।

विश्व बैंक की चेतावनी का हवाला देते हुए कि भारत की असमान रिकवरी जल्द ही लड़खड़ा सकती है, ऐसा 8 अक्टूबर को द हिंदू के संपादकीय में कहा गया है कि: निजी खपत, विशेष रूप से, इस वर्ष और अगले वर्ष प्रभावित होगी, बैंक ने विशेष रूप से आय और रोजगार के स्तर पर महामारी के असर को जिम्मेदार ठहराया है। ग्रामीण और कम आय वाले परिवारों के लिए महामारी अभी भी जारी है। यह अनुमान है कि 2020 में कम से कम 5 करोड़ 60 लाख  भारतीय गरीबी से नीचे खिसक गए होंगे। सरकार "मजबूत विकास के युग में प्रवेश" के बारे में चिंतित है, लेकिन "मुफ्त खाद्यान्न कार्यक्रम का विस्तार करने" के उसके फैसले से पता चलता है कि अर्थव्यवस्था के सभी अभिनेता अभी तक जंगल से बाहर निकलने में कामयाब नहीं हुए हैं।

एक लेख के शुरुआती तीन वाक्य, जिन्हे प्रिया देशिंगकर, स्कूल ऑफ ग्लोबल स्टडीज, यूनिवर्सिटी ऑफ ससेक्स, यूके ने लिखा है और जो प्रवासन और विकास की प्रोफेसर हैं   लिखती हैं "वर्तमान भारत में प्रवासियों को बाहर क्यों रखा जाता है: "आज़ादी के 70 से अधिक वर्षों के बाद भी, भारत सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से बहिष्कृत आबादी के बड़े हिस्से को विकास और कल्याण के लाभ नहीं दे पाया है और आज भी वे जीवनयापन के लिए  संघर्ष कर रहे हैं। इनमें से, भारत के नागरिक के रूप में अपने अधिकारों का इस्तेमाल करने के मामले में समाज के गरीब तबकों को यकीनन सबसे बहिष्कृत किया गया है। इसमें दलित समुदायों के पुरुष, महिलाएं और बच्चे, आदिवासी, गरीब कारीगर जातियां, कुछ धार्मिक अल्पसंख्यक और अन्य वंचित समूह शामिल हैं।

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