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मोदी सरकार के व्यवसायिक कोयला खनन से 2.8 लाख नौकरियां पैदा होने का दावा काल्पनिक है

दूसरी तरफ़ यह भी माना जा रहा है कि अगर निजी खिलाड़ियों को नीलाम करने की जगह सभी कोयला ब्लॉक कोल इंडिया लिमिटेड को दे दिए होते, तो ज़्यादा नौकरियां पैदा की जा सकती थीं।
 कोयला खनन
Image Courtesy: mining.com

कोयला खनन में निजी खिलाड़ियों के प्रवेश से निश्चित ही उत्पादन में वृद्धि होगी। लेकिन सत्ताधारी बीजेपी के दावे के उलट, निजी खिलाड़ियों के प्रवेश से खनन क्षेत्र के रोज़गार में वृद्धि होना मुश्किल है।

18 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश में 41 कोयला ब्लॉकों के लिए द्विस्तरीय इंटरनेट-नीलामी (E-Auctioning) की घोषणा की थी। इस दौरान मोदी ने दावा किया कि इससे लाखों नौकरियां पैदा होंगी और कोयला क्षेत्र को स्थिरता मिलेगी। कोयला क्षेत्र दशकों से सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी ''कोल इंडिया लिमिटेड (CIL)'' के नियंत्रण में है।

इसके तुरंत बाद गृहमंत्री अमित शाह ने प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ़ करते हुए इसे ऐतिहासिक बताते हुए कहा कि यह एनडीए सरकार के 'आत्मनिर्भर भारत' बनाने की दिशा में एक कदम है। शाह ने दावा किया कि इस कदम से 2.8 लाख नौकरियां पैदा होंगी और इससे 33,000 करोड़ रुपये का पूंजीगत निवेश आएगा। साथ में राज्य सरकारों के लिए 20,000 करोड़ रुपये का सालाना राजस्व पैदा होगा।

लेकिन जो लोग ज़मीन पर खनन प्रोजेक्ट से प्रभावित लोगों के साथ काम कर रहे हैं, उनका मानना इससे बिलकुल उलट है। इन लोगों के मुताबिक़ केंद्र सरकार के विश्लेषण में व्यावसायिक खनन प्रोजेक्ट से अपनी आजीविका गंवाने वाले लोगों को शामिल नहीं किया गया। इन लोगों को विस्थापन और जंगल-पानी के स्त्रोतों तक पहुंच पर प्रतिबंध से अपनी आजीविका गंवानी पड़ेगी। जिन कोयला ब्लॉकों को नीलामी के लिए आवंटित किया गया है, उनमें से कई घने जंगलों या संरक्षित क्षेत्र के ''पर्यावरणीय स्तर पर संवेदनशील (ईको सेंसटिव जोन)'' इलाकों में पड़ते हैं।

खनन से प्रभावित और उससे चिंतित लोगों, संस्थानों और समुदायों के मंच ''माइन्स, मिनरल्स एंड पीपल्स'' के अध्यक्ष रेब्बाप्राग्दा रवि के मुताबिक़, ''केंद्र सरकार द्वारा लिए गए फ़ैसले में उन लोगों की हिस्सेदारी नहीं है, जिनका फ़ैसले से बहुत कुछ दांव पर लगा है। केंद्र सरकार और कॉरपोरेट के अलावा दूसरे लोगों से बात नहीं की गई। संविधान की पांचवी अनुसूची इस बात का प्रावधान करती है कि संबंधित जनजातीय इलाकों में किसी तरह के प्रोजेक्ट के लिए जनजातीय परामर्शदायी समिति को विश्वास में लेना जरूरी होता है। केंद्र सरकार का फ़ैसला इस प्रावधान का उल्लंघन करता है। इसके अलावा पांचवी अनुसूची के अंतर्गत आने वाले इलाकों में ''पंचायत के कानून (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) 1996'' खनन गतिविधियां करने के लिए ग्राम सभा से अनुमति जरूरी होती है। यह वह इलाके होते हैं, जहां बड़ी संख्या में आदिवासी आबादी होती है या फिर आसपास के इलाकों की तुलना में आदिवासियों की आबादी आर्थिक तौर पर कमजोर होती है।''

यह तथ्य है कि बड़ी मात्रा में मशीनरी और ऑटोमेशन (स्वसंचालन) की जरूरत वाली ''ओपन कास्ट माइनिंग'' में ''अंडरग्राउंड माइनिंग'' की तुलना में कम रोज़गार का सृजन होता है। ऊपर से खदान विकसित या चलाने वालों (MDO) का स्थानीय आबादी को नौकरी के मौके उपलब्ध कराने का इतिहास बहुत अच्छा नहीं रहा है। ना ही इन लोगों ने अपनी गतिविधियों के चलते होने पैदा होने वाले पर्यावरणीय मुद्दों पर गंभीर चिंता जताई है। 

नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में काम करने वाली कांची कोहली का कहना है ''खाद्य सुरक्षा और आजीविका के नज़रिए से भी इस बात का आंकलन करना जरूरी है कि कितने लोगों की ज़मीन, जंगल और जल तक पहुंच खत्म होगी। बिना इस आंकलन के खनन गतिविधियों से रोज़गार पैदा होने की बात कहना एकतरफा है। एक गंभीर आर्थिक संकट के दौर में खनन गतिविधियों के बढ़ने से कई आजीविकाएं खत्म हो जाएंगी और इलाके में मौजूद खाद्यान्न सुरक्षा ढांचा लंबे अंतराल में नष्ट हो जाएगा। जंगलों को सिर्फ़ खड़े पेड़ों की तरह नहीं देखना चाहिए, बल्कि यह आजीविका का एक पूरा पर्यावरणीय ढांचा हैं। छत्तीसगढ़ से कई ग्राम सभाओं ने केंद्र को खत लिखकर कहा है कि वे पहले से ही 'आत्मनिर्भर' हैं।''

मौजूदा नीलामी प्रक्रिया के ज़रिए पैदा होने वाली नौकरियों में लोगों को कांट्रेक्ट पर काम पर रखा जाएगा। यह एक ऐसा सिस्टम है, जहां नियोक्ता हाथ से किए जाने वाले कामों के लिए स्थानीय आबादी के सबसे निचले वर्ग के लोगों को नौकरी पर रखता है। केंद्र सरकार द्वारा निजी क्षेत्र को व्यावसायिक खनन करने की अनुमति देने के विरोध में ''ऑल इंडिया कोल वर्कर्स फेडरेशन'' जुलाई के पहले हफ़्ते में तीन दिन की हड़ताल पर जाएगा। बता दें यह संगठन सार्वजनिक क्षेत्र के कोयला खनन में लगे देश भर के पचास लाख से ज़्यादा मज़दूरों का प्रतिनिधित्व करता है। 

फेडरेशन के जनरल सेक्रेटरी डी डी रामनंदन ने न्यूज़क्लिक से कहा, ''यह बहुत बड़ा मिथक है कि नीलामी से 2.8 लाख नौकरियां पैदा होंगी। हमें इन नीलामियों से 35,000 से ज़्यादा नौकरियां पैदा होने की उम्मीद नहीं है। पहले जारी पैमानों के हिसाब से, एक मिलियन टन उत्पादन पर 700 नौकरियों से भी कम रोज़गार था। लेकिन मशीनीकरण, ओपन कास्ट माइनिंग और MDO मॉडल के चलते यह आंकड़ा तेजी से गिरा है।''

फेडरेशन केंद्र सरकार के उस फ़ैसले का भी विरोध किया है, जिसके तहत खनन क्षेत्र में 100 फ़ीसदी विदेशी निवेश को अनुमति दी गई है। ज़्यादा रोज़गार और राजस्व पैदा करने की आड़ में इस फ़ैसले को आगे बढ़ाया गया है। ट्रेड यूनियन के नेताओं के मुताबिक़, व्यावसायिक कोयला खनन से कोल इंडिया लिमिटेड और सिकुड़ जाएगी। यह महारत्न कंपनी लाखों कामग़ारों को रोज़गार देती है।

सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन (CITU) के जनरल सेक्रेटरी तपन सेन कहते हैं, ''अगर निजी क्षेत्र के लोगों को बड़ी संख्या में कोयला ब्लॉक का आवंटन किया गया, तो कोल इंडिया लिमिटेड धीरे-धीरे मुनाफ़ा कमाना कम कर देगी और इसके क्रियान्वयन की क्षमता पर भी असर पड़ेगा। यह नीलामी जो 'मेक इन इंडिया' की आड़ में हो रहा है, उससे कोल इंडिया लिमिटेड का देशव्यापी ढांचा ढह जाएगा। मुनाफ़े में आने वाली कमी या ऑपरेशनल नेटवर्क के ढहने से नौकरियां खत्म होंगी। तो आप एक हाथ से जो दे रहे हैं, दूसरे हाथ से उसे ले भी रहे हैं।''

दूसरी तरफ यह भी माना जाता है कि अगर निजी क्षेत्र के लोगों के बजाए CIL को यह कोयला ब्लॉक दे दिए जाते, तो ज़्यादा रोज़गार पैदा हो सकते थे। 

पूंजीवाद के समर्थक और बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार का तर्क है कि ''घरेलू कोयले के निर्यात'' में बढ़ोतरी से ''कोयला क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI)'' में इज़ाफा होगा और इससे अप्रत्यक्ष नौकरियां बढ़ेंगी। लेकिन निकट भविष्य में कोयले के निर्यात में बढ़ोतरी होना मुश्किल है, क्योंकि ताप विद्युत गृहों के चलते घरेलू मांग बहुत ज़्यादा है। यह ताप विद्युत गृह फिलहाल अपनी पूरी क्षमता से काम नहीं कर रहे हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक़, निजी क्षेत्र की नज़र 120 मिलियन टन आयातित कोयले की जगह घरेलू कोयले के उपयोग पर है। इसके अलावा भारतीय कोयले को इसमें राख की मात्रा ज़्यादा होने के चलते अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में बहुत प्राथमिकता नहीं दी जाती।

CIL के पूर्व चेयरमैन पार्थ सारथी भट्टाचार्य ने न्यूज़क्लिक से कहा, ''विदेशी निवेशकों को बैंकर्स और इंवेस्टमेंट बैंकर्स से पैसा इकट्ठा करने में बहुत परेशानी होगी। क्योंकि यह लोग कोयला क्षेत्र में पैसा लगाना नहीं चाहते। इसकी वजह मौसम परिवर्तन, पर्यावरणीय क्षरण और ग्लोबल वार्मिंग से कोयला खनन का संबंध है। वैश्विक खनन कंपनियों के शेयरधारक तापीय कोयला खनन के पर्यावरण पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव के चलते इससे बाहर आने का दबाव बना रहे हैं। यह प्रक्रिया पिछले चार-पांच साल में तेज हुई है। यहां तक कि भारत में काम करने वाले विदेशी बैंक भी कोयला खनन की गतिविधियों में पैसा लगाने में मुश्किलों का सामना कर रहे हैं, क्योंकि ऐसा करने की स्थिति में उन्हें वैश्विक स्तर पर मौजूद अपने अग्रणियों से प्रतिबंधों के साथ कदमताल करने के दबाव को झेलना होगा। इस स्थिति में हमें कोयला क्षेत्र में 100 फ़ीसदी FDI से कोई खास उम्मीद नहीं लगानी चाहिए।''

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

मूल आलेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Why Modi Government’s Claim of 2.8 Lakh Jobs from Commercial Coal Mining is a Myth

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