जातिवादियों द्वारा दिल्ली विश्वविद्यालय में अंबेडकर के विचारों को दफ़न करने की साजिश
8 मई 2023 को दिल्ली विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग की स्थाई समिति में दक्षिणपंथ की विचारधारा से संबंधित शिक्षकों द्वारा प्रस्ताव लाया गया कि स्नातक स्तर के पाठ्यक्रम से अंबेडकर को हटा दिया जाए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अनुसार स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर के पाठ्यक्रम में संशोधन या बदलाव के उद्देश्य से स्थाई समिति की इस बैठक में ‘डॉ अंबेडकर का दर्शन’ नामक विषय को पाठ्यक्रम से हटाने का प्रस्ताव लाया गया था। अंबेडकर के कार्यों पर ध्यान केंद्रित करने वाले इस विषय को दर्शनशास्त्र विभाग के पाठ्यक्रम से हटाए जाने के खिलाफ अकादमिक जगत ने कड़ी प्रतिक्रिया भी दी। उपकुलपति को लिखे अपने पत्र के माध्यम से दर्शनशास्त्र विभाग के अध्यक्ष पी. केशव कुमार ने लिखा कि “डॉ बी आर अंबेडकर एक मौलिक व्यक्ति और स्वदेशी विचारक हैं जो देश के अधिकांश लोगों की सामाजिक आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह पाठ्यक्रम एक लोकप्रिय पाठ्यक्रम है और बाद में शोध के लिए बहुत मददगार है क्योंकि यह डॉ बी आर अंबेडकर पर शोध के लिए सही आधार प्रदान करेगा। इसके अलावा, यह एक अनिवार्य विषय नहीं है। यह वैकल्पिक विषयों में से एक है। इसके अलावा, यह पाठ्यक्रम 2015 से दिल्ली विश्वविद्यालय (एलओसीएफ/सीबीसीएस दोनों प्रारूपों में) में पढ़ाया जा रहा है। पाठ्यक्रम 2015 में शुरू किया गया था और 2019 में बरकरार रखा गया था।” इस प्रकार उन्होंने विभाग की तरफ से इस विषय को पाठ्यक्रम में बनाए रखने की मांग की।
पाठ्यक्रम संबंधी अंतिम निर्णय लेने वाली दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद की बैठक 26 मई को हुई। बैठक में मौजूद दिल्ली विश्वविद्यालय के अधिकारीयों द्वारा पाठ्यक्रम से अंबेडकर को हटाने के फैसले का विरोध प्रगतिशील अकादमिक समिति के सदस्यों ने किया। फैसला लिया गया कि कुछ बदलावों के साथ दर्शनशास्त्र विभाग में डॉ बी आर अंबेडकर को पाठ्यक्रम में बरकरार रखा जाएगा। अंबेडकर के ‘द राइज एंड फॉल ऑफ हिंदू वीमेन’ शीर्षक वाले लेख को बदलकर ‘द राइज एंड फॉल ऑफ इंडियन वीमेन’ कर दिए जाने का प्रस्ताव दक्षिणपंथी विचारधारा के सदस्यों द्वारा समिति के समक्ष रखा। अर्थात अंबेडकर से संबंधित पाठ्यक्रम के कुछ हिस्सों में ‘हिंदू’ शब्द को ‘भारतीय’ में बदलना जैसे कुछ संशोधन अधिकारीयों द्वारा सुझाए गए। अंबेडकर के मौलिक लेखन के साथ इस प्रकार की छेड़छाड़ कहाँ तक उचित है? शोधार्थी, शिक्षक, विद्वान अंबेडकर के लेखन से सहमति या असहमति रख सकते है, उनके लेखन का समीक्षा या विश्लेषण कर सकते है, उनकी समालोचना कर सकते है, लेकिन उनके वास्तविक मौलिक लेखन में दिल्ली विश्वविद्यालय तो क्या विश्व में कोई भी इस प्रकार का फेर बदल कैसे कर सकता है? वास्तव में यह सत्ता में आसीन दक्षिणपंथी विचारधारा के तानाशाह अधिकारीयों द्वारा दर्शनशास्त्र विभाग पर जबरन थोपने की कोशिश थी। दिल्ली विश्वविद्यालय इस प्रकार के कृत्यों द्वारा अंबेडकर के विचारों को दफ़न करने की साजिश कर रहा है। दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में उटपटांग बदलावों द्वारा दक्षिणपंथी व ब्राह्मणवादी विचारधारा को पोषित करना चाहते है। जो न केवल छात्रों एवं शोधार्थियों को भ्रामक जानकारी देगा बल्कि छात्रों की अगली पीढ़ी में अंबेडकर की एक अलग छवि को प्रस्तुत करेगा। यह भ्रष्ट अधिकारियों का अकादमिक भ्रष्टाचार है और यह सरासर निंदनीय है।
वहीं इतिहास के पाठ्यक्रम के अंतर्गत स्नातक स्तर पर पढ़ाया जाने वाला सामान्य वैकल्पिक विषय ‘असमानता और अंतर’ को हटा दिया गया। यह वैकल्पिक पाठ्यक्रम भारतीय इतिहास के प्रमुख मुद्दों जैसे वर्ण, जाति, वर्ग, लिंग, भेदभाव, ब्रह्मणवाद, दलित, आदिवासी, पिछड़ा समुदाय के प्रति समझ विकसित करता था। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के लागूकरण की आड़ में यह शिक्षा का ब्राह्मणीकरण एवं भगवाकरण नहीं तो और क्या है? भारत देश में जहां जाति व्यवस्था इतनी प्रबल है, अगर इस तरह के पाठ्यक्रमों को निरस्त कर दिया जाएगा तो फिर पढ़ाएंगे क्या? ये सारी कोशिशें बीजेपी सरकार के एजेंडे को लागू करने के लिए की जा रही हैं। केंद्र में विराजमान भाजपा सरकार एक तरफ तो अंबेडकर का नाम जपति रहती है वहीं दूसरी तरफ अंबेडकर और उनसे संबंधित साहित्य को विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम से हटा रही है। जहाँ एक तरफ भाजपा अपने आपको दलित व आदिवासी हितैषी होने का ढिंढोरा पीटती है वहीं इन वर्गों के साथ साथ महिलाओं, दबे कुचले समुदाय व सबके लिए एक आशा की किरण एवं एक आदर्श को पाठ्यक्रम से हटा कर उनके विचारों की हत्या की साजिश रचती है। यही भाजपा का दोहरा चरित्र है।
दिल्ली विश्वविद्यालय में यह पहली बार नहीं हुआ जब सामाजिक भेदभाव असामनता शोषण के खिलाफ संघर्ष करने वाले विचारकों को पाठ्यक्रम में स्थान देने से दक्षिणपंथियों और जातिवादियों ने आपत्ति न जताई हो और साजिशन पाठ्यक्रम से उन्हें हटाने का प्रयास न किया गया हो। हमने गत वर्षों में भी यही सब देखा है। 2017, 2018, 2019 में भी अंग्रेजी, इतिहास, राजनीति विज्ञान, समाजशास्त्र के स्नातक स्तरीय पाठ्यक्रम में बदलाव कर अधीनस्थ समाज से संबंधित लेख, पुस्तकों, साहित्य को हटाने का प्रयास किया गया था। उस समय भी जाति, लिंग, वर्ग, असमानता से संबंधित साहित्य के साथ-साथ अंबेडकर से संबधित साहित्य को भी पाठ्यक्रम से बहार करने की साजिश की गई और जब कांचा इलैया की पुस्तकों को भी राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम से हटाने का प्रयास किया तब इस प्रकार के पाठ्यक्रम में बदलाव को लेकर विरोध प्रदर्शन हुए और पुस्तकों को पुनः पाठ्यक्रम में रख लिया गया।
जाति पर सैद्धांतिक, वैचारिक, दार्शनिक काम के साथ साथ जमीनी स्तर पर सर्वाधिक कार्य करने वालों में अंबेडकर का स्थान शीर्ष पर है। बार बार उन्हें पाठ्यक्रम से बाहर करने के प्रस्तावों से हम समझ सकते है कि विश्वविद्यालयों में शीर्ष पर बैठे अधिकारी एवं शिक्षक जातीय भेदभाव, असामनता, शोषण के प्रति छात्रों में सकारात्मक अभिवृति का विकास नहीं होने देना चाहते। विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों में अधिकतर शिक्षक उच्च जातियों से संबद्ध है और वे अपनी तथाकथति जातीय श्रेष्ठता को बनाए रखना चाहते है। शैक्षिक संस्थानों में नीतिगत पदों पर आसीन उच्च जाति के अधिकारी एवं शिक्षक नहीं चाहते कि अधीनस्थ, दलित, पिछड़े समुदाय से संघर्ष कर विश्वविद्यालयों में प्रवेश करें। अगर वे शिक्षक बन भी गए और कुछेक उच्च पदों पर पहुँच गए तो विभिन्न बैठकों, समितियों, मंचों व अन्य निर्णय लेने वाले निकायों के अंतर्गत उनकी आवाजों को दबाने की भरसक कोशिशें की जाती है। सहायक शिक्षकों के लिए होने वाले साक्षात्कारों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग के उम्मीदवारों को अयोग्य घोषित कर दिया जाता है और ‘कोई भी उपयुक्त नहीं पाया गया’ की टिपण्णी अंकित कर दी जाती है। सैंकड़ों में से एक भी उम्मीदवार योग्य न हो, ऐसा होना अपने आप में शोषण की पराकाष्टा को दर्शाता है। वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय की भर्ती प्रक्रियाओं में 17 आरक्षित पदों पर इन वर्गों के सभी उम्मीदवारों को अयोग्य घोषित किया गया है। इसके अलावा वर्षों से आरक्षित वर्ग के रिक्त पदों पर भर्तीयां नहीं की गई। स्पष्ट है कि जब इन वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले ही शीर्ष पदों पर नहीं होंगे तो उनकी आवाज जातिवादी अधिकारी एवं शिक्षक उठाएंगे, यह मानना या समझना बेमानी है। जब तक उचित प्रतिनिधित्व नहीं होगा तब तक अंबेडकर, दलित विमर्श, जाति, समानता, लिंग, वर्ग आदि विषयों को पाठ्यक्रमों में उचित स्थान नहीं दिया जाएगा।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में शोधार्थी हैं। विचार निजी हैं।)
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