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ओमिक्रॉन से नहीं, पूंजी के लालच से है दुनिया को ख़तरा

आज की त्रासदी, जिसे ओमिक्रॉन के गहराते संकट ने और भी रेखांकित कर दिया है, यही है कि इस सबसे पूरी तरह से बचा जा सकता था, बशर्ते अमीर देशों ने कोविड-19 के टीकों के बहुत बड़े पैमाने पर उत्पादन का रास्ता खोला होता।
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Image courtesy : The Economic Times

सार्स-कोव-2 वाइरस के नये स्ट्रेन या वैरिएंट ओमिक्रॉन को, जिसका पता सबसे पहले दक्षिण अफ्रीका के गाउटेंग प्रांत में लगा था, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ‘चिंताजनक  वेरिएंट’ करार दे दिया है। नये वेरिएंट के सामने आने के इस आरंभिक मुकाम पर, विश्व स्वास्थ्य संगठन उसे लेकर ज्यादा से ज्यादा इतनी ही चिंता का इजहार कर सकता था। दूसरे देशों से भी इस वेरिएंट के केसों की खबरें आ चुकी हैं और इससे यह साफ हो जाता है कि ओमिक्रॉन के किसी खास इलाके तक सीमित रखे जाने की संभावनाएं नहीं हैं।

अगर यह वेरिएंट, नये संक्रमण पैदा करने में डेल्टा वेरिएंट से आगे निकल जाता है, तो यह कोविड-19 के संक्रमण का मुख्य वेरिएंट बनकर डेल्टा की जगह ले लेगा। डेल्टा ने भी अपने से पहले के वेरिएंटों के साथ ऐसा ही किया था। अभी, जबकि एक सोची-समझी नीति के फलस्वरूप गरीब देशों में बड़ी संख्या में लोग टीके से महरूम हैं और विभिन्न देशों में धुर-दक्षिणपंथ भी टीकाकरण का विरोध करने में लगा हुआ है, दुनिया एक बार फिर बहाली की पटरी से खिसककर, नीचे लुढक़ने लग सकती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन पहले से इसकी चेतावनी देता आ रहा था कि इस महामारी पर अंकुश लगाने का एक ही रास्ता है-टीका समता। जब तक हमारी तैयारी पूरी नहीं होती है और हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता सार्व-कोव-2 वाइरस के संक्रमणों का मुकाबला करने के लिए खुद को तैयार नहीं कर लेती है, तब तक कोविड-19 की महामारी बनी रहेगी और बड़े संख्या में मौतों तथा आर्थिक तबाही का कारण बनी रहेगी।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन्फ्लुऐंजा की महामारी ने पहले विश्व युद्घ के बाद, 5 से 10 करोड़ तक जानें ली थीं और इनमें से करीब आधी जानें, भारत में ही गयी थीं। बेशक, प्रकृति ऐसे संक्रमणों का मुकाबला करने के लिए रोग प्रतिरोधकता मुहैया करा सकती है, जैसा कि उक्त वाइरस के मामले में कुछ साल बाद हुआ था। लेकिन, उस मुकाम तक पहुंचने के रास्ते में समाज को बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ जाएगी। इसीलिए, महामारी को रोकने के लिए सबके लिए टीका मुहैया कराना जरूरी है। लेकिन, ऐसा होने के बजाए हम देख रहे हैं कि धनी देश-ईयू तथा यूके, टीकों पर से पेटेंट की पाबंदियां हटाने तथा विनिर्माण संबंधी जानकारियों को साझा करने का सक्रिय रूप से विरोध कर रहे हैं, जबकि सिर्फ इसी रास्ते पर चलकर, गरीब देशों को इन जीवनरक्षक टीकों तक कम दाम पर पहुंच मुहैया हो सकती है। अमरीका ने भी, हालांकि वह दावा इस तरह के कदमों का समर्थन करने का करता है, फाइजर तथा मॉडर्ना के पीछे अपना जोर लगा रखा है, जबकि ये भीमकाय दवा कंपनियां, इस महामारी से भारी मुनाफे बटोर रही हैं।

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इस सब को समग्र परिप्रेक्ष्य में रखकर देखना जरूरी है। पीपुल्स वैक्सीन एलाइंस ने दर्शाया है कि फाइजर-बोयोएनटैक और मॉडर्ना इस साल 34 अरब डालर के कर-पूर्व मुनाफे बनाने जा रही हैं। इसकी आधी रकम से ही, कम आय वाले देशों की पूरी की पूरी आबादी का टीकाकरण किया जा सकता था! ये आंकड़े ताजातरीन कंपनी रिपोर्टों पर ही आधारित हैं, जो बड़ी दवा कंपनियों के सीईओ के स्तर से, सालाना एसटीएटी समिट के मौके पर जारी की गयी थीं। इस शिखर सम्मेलन को, बड़ा दवा कंपनियों का डावोस शिखर सम्मेलन कहा जा सकता है। यह सम्मेलन, इस साल 16 से 18 नवंबर तक हुआ था। पीपुल्स वैक्सीन एलांइस ने यह भी दिखाया है कि किसी भी कीमत पर टीके हासिल करने की जद्दोजेहद में लगे लोगों लूटने के बावजूद, फाइजर-बोयोएनटैक और मॉडर्ना के टीके का क्रमश: 1 फीसद से भी कम और 0.2 फीसद हिस्सा ही, कम आय वाले देशों को मिला है।

धनी देशों को लगता है कि वे कुछ न कुछ कर के अपनी आबादी को महामारी से सुरक्षित कर सकते हैं, फिर भले ही गरीब देशों में इस महामारी की आग धधकती रहे। उनकी यह धारणा, इस भरोसे पर टिकी हुई है कि फाइजर-बोयोएनटैक और मॉडर्ना के बनाए, कथित रूप से श्रेष्ठतर एमआरएनए टीके, उनकी आबादी को करीब-करीब पूर्ण प्रतिरोधकता मुहैया कराएंगे। लेकिन, ओमिक्रॉन वेरिएंट यह दिखाता है कि वाइरस का स्पाइक प्रोटीन, जिसके सहारे वाइरस हमारी नासिका तथा अपर श्वसन मार्ग की सतह की कोशिकाओं से चिपकता है, वक्त के साथ परिवर्तित हो सकता है और हुआ है। इस तरह के बदलाव संक्रमण को आसान बनाने का काम करते हैं क्योंकि वाइरस की एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक संक्रमण की क्षमता बढ़ जाती है और ऐन मुमकिन है कि टीके की सुरक्षा से बच निकलने की उसकी क्षमता भी बढ़ जाए क्योंकि ज्यादातर टीके तो स्पाइक प्रोटीन को ही निशाना बनाकर, संक्रमण से बचाव सुनिश्चित करते हैं। ओमिक्रॉन के स्पाइक प्रोटीन में इस तरह के 30 से ज्यादा म्यूटेशन या बदलाव दर्ज किए गए हैं। बदलावों की यह संख्या खासी बड़ी है क्योंकि आम तौर पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के बीच होने वाले म्यूटेशन, थोड़े से ठिकानों पर ही होते हैं। 

इसके बावजूद, एक नये वेरियंट में अचानक इतनी बड़ी संख्या में म्यूटेशन कैसे देखने को मिल रहे हैं, इसका कारण अभी स्पष्ट नहीं है। हो सकता है कि किसी प्रतिरोधकता-अवरुद्घ मरीज का कोविड बहुत लंबी अवधि तक चल गया हो और इसके चलते, एक ही शरीर में वाइरस की कई पीढिय़ों को एक के बाद एक विकसित होने का मौका मिल गया हो। या फिर हो सकता है कि वाइरस ही मनुष्यों से छलांग लगाकर, अपने किसी पशु रिजर्वायर में चला गया हो और वहां परिवर्तित होते रहने के बाद, वापस छलांग लगाकर इन परिवर्तनों के साथ मनुष्यों को संक्रमित करने लगा हो।

आज हमारे पास दो प्रकार के उपचारात्मक हस्तक्षेप उपलब्ध हैं, जो इस महामारी की शुरूआत के समय हमें उपलब्ध नहीं थे। इनमें पहला तो टीका ही है और जो टीके उपलब्ध हैं वे अगर नये वेरिएंट का मुकाबला करने के मामले में उतने कारगर नहीं भी हों, जितने उस पुराने वेरिएंट का मुकाबला करने के लिए होंगे, जिसके खिलाफ इन टीकों को विकसित किया गया था तथा जिन पर उसे उन्हें आजमाया गया था, फिर भी इन टीकों से एक हद तक सुरक्षा तो मिलती ही है। हमारी रोग प्रतिरोधक प्रणाली की अपनी स्मृति होती है, जो टीके से या पहले के संक्रमणों से बन सकती है और इसके आधार पर नये वेरिएंटों के खिलाफ भी प्रतिरोधक प्रणाली काम करेगी। दूसरा उपलब्ध उपचार दो नयी एंटी-वाइरल दवाओं के रूप में है, जो हाल ही में विकसित हुई हैं और हाल में हुए परीक्षणों में कारगर पायी गयी हैं। इनमें से पहली है मोलनूपिराविर। यह दवा मूल रूप से एमोरी विश्वविद्यालय द्वारा इन्फ्लुऐंजा के लिए विकसित की गयी थी। लेकिन, अब मेरेक तथा एक अपेक्षाकृत छोटी दवा कंपनी रिजबैक बायोथिरैप्यूटिक्स द्वारा इसे कोविड-19 के उपचार के लिए ढाला गया है। दूसरी है, फाइजर की पैक्सलोविड, जोकि पहले सार्स  के संक्रमण के दौरान विकसित एक दवा और एचआइवी के खिलाफ प्रयोग की जाती रही एक एंटीवाइरल दवा, रिटोनाविर के योग से बनी है। 

इन दोनों एंटीवाइरल दवाओं का फायदा यह है कि इन्हें खाने की दवाओं के रूप में दिया जा सकता है और इसलिए, इनका उपयोग कोविड-19 के संक्रमण के शुरूआती दिनों में हो सकता है, जब एंटीवाइरल दवाएं सबसे ज्यादा कारगर रहती हैं। पहले उपलब्ध एंटीवाइरल दवा, रेमडेसिविर महंगी थी तथा सिर्फ इंजैक्शन के रूप में ही उपलब्ध थी और इसलिए, उसका व्यापक रूप से उपयोग किए जाने की संभावना बहुत कम थी।

यहां मुद्दा यह नहीं है कि उपलब्ध टीके, कोविड-19 के किसी भी संक्रमण के खिलाफ पूर्ण सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं या नहीं। मुद्दा यह है कि क्या इसकी मदद से, गंभीर केसों को घटाया जा सकता है और अस्पताल में जाने की या मौत की नौबत आने की संभावनाओं को कम किया जा सकता है। एंटीवाइरल दवाओं के मामले में भी ऐसा ही होने की संभावना है। एंटीवाइरल दवाएं, हमारे शरीरों में वाइरस के अपनी संख्या बढ़ाने की गति को घटाती हैं और इस तरह वाइरस में होने वाले बदलावों से उनके प्रभाव पर खास फर्क नहीं पड़ता है। इस तरह, उपचारात्मक हस्तक्षेप के पहलू से, विज्ञान व प्रौद्योगिकी के पहलू से, हम महामारी की शुरूआत में जिस स्थिति में थे, उससे कहीं बेहतर स्थिति में हैं।

हमारे पास कमी है, महामारी से पैदा हुए स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों का सामना करने की राजनीतिक इच्छा की। इसकी जगह पर हमारा सामना हो रहा है टीका राष्ट्रवाद से, ऐसी राक्षसी कंपनियों से जो महामारी से अनाप-शनाप मुनाफे बटोरना चाहती हैं और ऐसे देशों से, जो जनता के स्वाथ्य की कीमत पर, मुनाफाखोरों का साथ देना ही बेहतर समझती हैं।

निजी कंपनियां दावा करती हैं कि अगर उन्हें ये बेहिसाब मुनाफे नहीं बनाने दिया जाएगा, तो भविष्य में दवाओं तथा टीकों के विकास के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं रह जाएगा। यह सफेद झूठ है।

उपचारात्मक हस्तक्षेप के मामले में हुआ करीब-करीब सारा का सारा विकास, चाहे टीकों के रूप में हो या दवाओं के रूप में, सार्वजनिक क्षेत्र के विज्ञान से ही आया है। एमआरएनए टीकों का पूरा का पूरा मैदान ही, सार्वजनिक धन से संचालित शोध ने ही खोला है। मॉडर्ना द्वारा अपने टीके का विकास जिस मूल शोध के आधार पर किया गया है, वह शोध अमेरिकी नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हैल्थ द्वारा ही किया गया था। वास्तव में मॉडर्ना द्वारा जिस कुंजीभूत पेटेंट के लिए दावा दायर किया गया है, उस पर मॉडर्ना तथा अमेरिकी नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हैल्थ के बीच एक बड़ा विवाद है। टीका विकसित करने के लिए मॉडर्ना को बड़े पैमाने पर सार्वजनिक खजाने से जो पैसा दिया गया था, वह इससे अलग है। इससे भी ज्यादा घनिष्ठ रूप से, बायोन्टेक ने, जोकि एक छोटी सी जर्मन कंपनी है, जिसकी बागडोर तुर्क मूल के पति-पत्नी के हाथों में है, जर्मन सरकार के अनुदान से ही अपने टीके का विकास किया था। यह इस कंपनी का पहला ही वाणिज्यिक उत्पाद था। बायोन्टेक के इस टीके की ही पीठ पर सवार होकर, फाइजर ने मार्केटिंग तथा विनिर्माण की अपनी लंबी-चौड़ी ताकत के बल पर, वैश्विक अधिकार हासिल कर, इस टीके पर अधिकार हासिल कर लिया है। इसे गलती से फाइजर का टीका कहा जा रहा है, जबकि टीके के विकास में तो उसकी कोई भूमिका थी ही नहीं!

एंटीवाइरल दवाओं के विकास का मामला भी इससे भिन्न नहीं है। मोलनूपिराविर के लिए मूल शोध, एमरी विश्वविद्यालय द्वारा किया गया था। इसी प्रकार, एचआइवी के खिलाफ प्रयोग की गयी ज्यादातर एंटीवाइरल दवाएं, जिनमें से कुछ को अब सार्स-कोव-2 पर उपयोग के लिए ढाल लिया गया है, सार्वजनिक क्षेत्र के विज्ञान से ही निकली हैं। सार्वजनिक क्षेत्र में शोध में सकारात्मक नतीजे आते ही, निजी कंपनियां इनके पेटेंट अधिकार सस्ते में खरीद लेती हैं और अपनी इजारेदाराना ताकत के बल पर, संबंधित दवाओं पर एकाधिकार हासिल कर लेती हैं।

टीकों और एंटी-वाइरल दवाओं, दोनों के मामले में असली मुद्दा उनकी कीमत और उपलब्धता का है। इसी पहलू से फाइजर ने, मार्केटिंग की अपनी जबर्दस्त ताकत और अमरीकी सरकार की मदद के सहारे, भारी कमाई की है। इस कंपनी ने अब भी दुनिया को एक तरह से बंधक बना रखा है और न सिर्फ अपने उत्पाद के लिए ऐसे बढ़े-चढ़े दाम मांग रही है, जो गरीब देश भर ही नहीं सकते हैं बल्कि इन देशों में किसी भी प्रकार की क्षतिपूर्ति के दावों से पूरी तरह से छूट दिए जाने की भी मांग कर रही है। यहां तक कि वह दूसरे देशों से इसकी भी मांग करती है कि ऐसे किन्हीं भी मुकद्दमों में क्षतिपूर्ति के किसी भी प्रकार के दावे की जमानत के तौर पर, अपने स्वर्ण तथा बंदरगाहों जैसी परिसंपत्तियां गिरवी रख दें। 

फाइनेंशियल टाइम्स ने, जिसे किसी भी तरह से समाजवादी विचारों का समर्थक नहीं कहा जा सकता है, ‘द इनसाइड स्टोरी ऑफ द फाइजर वैक्सीन: ‘अ वन्स इन एन इपॉक विन्डफॉल’’ शीर्षक से अपने एक लेख में, इसका विवरण दिया है कि किस तरफ फाइजर ने, टीके पर अपने इजारेदाराना अधिकार का इस्तेमाल कर, बल्कि दुरुपयोग कर के कहना ही ज्यादा सही होगा, देशों पर अपनी धोंस चलायी है और अमीर देशों से कहीं ऊंचे दाम मिलने का मौका दिखाई दिया है तो, गरीब देशों को वादा करने के बाद भी टीके की आपूर्ति करने से इंकार कर दिया है।

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आज की त्रासदी, जिसे ओमिक्रॉन के गहराते संकट ने और भी रेखांकित कर दिया है, यही है कि इस सबसे पूरी तरह से बचा जा सकता था। दुनिया इस सब से बच सकती थी, बशर्ते अमीर देशों ने जनता के हितों के खिलाफ और इसमें बाकी दुनिया की नहीं खुद उनकी अपनी जनता भी शामिल है, बड़ी दवा कंपनियों का समर्थन नहीं किया होता और कोविड-19 के टीकों के बहुत बड़े पैमाने पर उत्पादन का रास्ता खोला होता। जैसाकि संक्रामक रोग विशेषज्ञ, श्रीनिवास मूर्ति ने कहा है: ‘टीका युग में आने के तेरह महीने बाद अगर नये वेरिएंटों को उभरने तथा फैलने दिया जा रहा है, तो यह अमीरों की दुनिया का नीतिगत चुनाव है।’ इसकी कीमत लॉकडाउनों, आर्थिक गिरावट और अस्पतालों में बैड तथा गंभीर रोगी परिचर्या के लिए भारी भीड़ों के रूप में, हम सब को एक बार फिर चुकानी पड़ेगी।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Not Omicron but Greed of Capital Threatens the World

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