यूपी: महामारी ने बुनकरों किया तबाह, छिने रोज़गार, सरकार से नहीं मिली कोई मदद!

पूर्वी उत्तर प्रदेश के 89 फीसदी बुनकर कोविड-19 के दौरान खाद्य राशन, मौद्रिक सहायता, बढ़े हुए बिजली बिल, सीवेज से संबंधित और अन्य नागरिक समस्याओं से निबटने के लिए दिए जा रहे विभिन्न राहत उपायों को पाने के लिए स्थानीय और राज्य सरकार के प्रति विश्वास की कमी के कारण संपर्क नहीं कर सके थे या उनका संपर्क नहीं हुआ था।
यह खुलासा सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) द्वारा सोमवार, 31 जनवरी को जारी की गई एक रिपोर्ट में किया गया है। बाकी बचे 11 फीसदी बुनकर जिन्होंने मदद के लिए राज्य सरकार से संपर्क किया था, वे इस बारे में सरकारी प्रतिक्रिया से अंसतुष्ट थे।
यह अध्ययन रिपोर्ट 2020 से लेकर 2021 के दौरान कई महीनों तक चलने वाले एक सतत सहयोगी अध्ययन के आधार पर तैयार की गई है। यह अध्ययन वाराणसी स्थित विद्वान और सामाजिक विज्ञान में योग्य शोधकर्ता डॉ. मुनिज़ा खान के नेतृत्व में अच्छी तरह से प्रशिक्षित ऑन-ग्राउंड शोधकर्ताओं की एक समर्पित टीम द्वारा किया गया है। इस तथ्यान्वेषी जांच दल ने वाराणसी, गोरखपुर (रसूलपुर, पुराना गोरखनाथ), आजमगढ़ (मुबारकपुर, इब्राहिमपुर, शाहपुर) और मऊ (घोसी, मधुबन) में 204 बुनकरों के विस्तृत साक्षात्कार रिकॉर्ड किए। शोधकर्ताओं ने बुनाई-कताई के विभिन्न पहलुओं और विभिन्न चरणों में लगे लोगों एवं भारत के कुछ सबसे उत्तम वस्त्रों को बनानेवालों से एक साथ बात की।
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि बुनकरों की केंद्र सरकार की योजनाओं तक पहुंच नहीं है। बहुप्रचारित प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना (पीएमयूवाई) भी उन तक नहीं पहुंची है। इस सर्वें में शामिल महिलाओं में से केवल 10 फीसदी महिलाएं ही इस योजना के तहत उज्ज्वला गैस प्राप्त करने के लिए पंजीकृत थीं; बाकी को आवेदन करने के कई प्रयासों के बावजूद यह सुविधा नहीं दी गई थी। बुनकरों ने पाया कि प्रधानमंत्री जन धन योजना (पीएमजेडीवाई) तक भी उनकी पहुंच मुश्किल है। एक चौंका देने वाला तथ्य यह सामने आया कि 52 फीसदी उत्तरदाताओं के पास खाते तक नहीं थे। केवल 58 फीसदी ने ही एक से अधिक बार नकद हस्तांतरण प्राप्त किया था।
बुनकर जो मजदूरी करते हैं या जिनके पास कुछ ही करघे हैं, वे मुस्लिम अंसारी, दलित, ओबीसी जैसे समुदायों से संबंधित हैं और उनमें कुछ ऐसे बुनकर हैं, जो अधिक विशेषाधिकार प्राप्त मुस्लिम जातियों से हैं।" आज, इस कारीगर उद्योग का एक बड़ा वर्ग पूरी तरह से गरीब है और सरकारी नजरों से अदृश्य है। इसलिए न केवल राजनीतिक असर डालने के लिए बल्कि आर्थिक नीति और निर्णय लेने की प्रक्रिया को प्रभावित करने के लिए भी जानकार और तर्कसंगत सार्वजनिक संवाद की आवश्यकता है," रिपोर्ट में कहा गया है।
शोधकर्ताओं के अनुसार, यूरोप और ब्रिटेन में कोविड-19 के कारण पूर्वांचल के हस्तशिल्प और हथकरघा व्यवसायों को 3,000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। यूरोपीय देश भारत से रेशम की पोशाक सामग्री, साड़ी, स्कार्फ, दुपट्टे, चादरें और कुशन कवर का काफी अधिक मात्रा में आयात करते हैं।
बनारसी वस्त्र उद्योग संघ के महासचिव राजन बहल ने शोधकर्ताओं को बताया कि यूरोपीय देशों में कोरोनावायरस की दूसरी लहर को देखते हुए व्यापारी चिंतित हो गए हैं। जो ऑर्डर मिले थे, उन्हें भी कैंसिल किया जा रहा है। कई व्यापारियों ने अपना उत्पादन कम कर दिया है तो कई ने काम बंद कर दिए हैं।
इसका खामियाजा बुनकरों को भुगतना पड़ा है। जब करघा उद्योग की बात आती है तो बुनाई प्रमुख कार्य है। लॉकडाउन से पहले, सर्वेक्षण में शामिल 120 पुरुष उत्तरदाता यानी 77 फीसदी लोग बुनाई के काम में शामिल थे। लॉकडाउन के बाद इस संख्या में भारी गिरावट आई है। इसके बाद तो केवल 40 फीसदी यानी 40 पुरुषों के पास ही यह काम रह गया था।
"इसलिए, एक गतिविधि के रूप में बुनाई इस बुरी हद तक प्रभावित हुई कि यह एक तरह से समाप्त हो गई। इस वजह से घर-परिवार के पुरुषों ने यह सोच कर जो भी काम मिला उसे करने लगे कि वे पुरुष हैं और अपने परिवार के लिए आखिर उन्हें ही रोटी जुटानी है,” रिपोर्ट में कहा गया है। लॉकडाउन के पहले केवल तीन (2 फीसदी) पुरुष ही मजदूरी कर रहे थे लेकिन लॉकडाउन के बाद यह संख्या बढ़ कर 19 हो गई है यानी 12 फीसदी लोग दिहाड़ी मजदूरी करने लगे हैं। करघा उद्योग में पुरुषों के अन्य कार्यों में बंधन, परिष्करण, रंगाई, पट्टा (ड्राफ्ट डिजाइन) और कढ़ाई बनाना शामिल है। इन सभी बुनाई संबंधी गतिविधियों में लॉकडाउन से पहले शामिल पुरुषों की संख्या 19 यानी (12 फीसदी) थी, और लॉकडाउन के बाद, इसमें 6 फीसदी की गिरावट आई यानी कुल 10 लोग ही पुश्तैनी धंधे में लगे रहे।
जरी/जरदोजी का काम बुनाई से अलग है; यह मुख्य रूप से हाथ की कढ़ाई का काम है। सर्वेक्षण के अनुसार, 19 लोग (यानी 12 फीसदी) पुरुष ज़री और आरी के काम में शामिल थे, और लॉकडाउन के बाद, उनकी तादाद में गिरावट आई और मात्र 13 लोग (8 फीसदी) ही इस काम में रह गए। लॉकडाउन से पहले, 4 (2.5फीसदी) पुरुषों की अपनी दुकानें थीं, और लॉकडाउन के बाद, केवल 2 (1 फीसदी) पुरुषों की अपनी दुकानें रह गईं थीं। लॉकडाउन के पहले 20 (13 फीसदी) पुरुष अन्य कामों में संलग्न थे जबकि तालाबंदी के बाद 23 (15 फीसदी) लोग अन्य कामों को करने लगे हैं। इन पुरुषों के व्यवसायों में किसी और की दुकान पर काम करना, दिहाड़ी मजदूर, ऑटो-रिक्शा चलाना, बढ़ईगीरी, चाय की दुकान चलाना आदि शामिल हैं। इनमें 6 लोग यानी 4 फीसदी बुनकर हैं जिन्हें तालाबंदी के बाद कोई काम नहीं है।
महिला श्रमिकों को तो और भी अधिक परेशानी का सामना करना पड़ा है। सर्वेक्षण में शामिल 8 महिलाएं यानी 16 फीसदी लॉकडाउन से पहले बुनाई में शामिल थीं, लेकिन इसके बाद करघे पर काम करने वाली एक भी महिला नहीं है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस उद्योग में काम करने वाली महिलाएं इस महामारी से सबसे ज्यादा पीड़ित हैं। शोधकर्ताओं द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों से पता चला है कि लॉकडाउन के बाद 25 (51 फीसदी) महिलाओं के पास कोई काम नहीं था, जबकि लॉकडाउन से पहले सिर्फ 33 (6 फीसदी) महिलाओं के पास कोई काम नहीं था।
कुल 204 साक्षात्कार देने वाले बुनकरों में से 165 (81%) परिवारों के पास राशन कार्ड हैं। इनमें से 145 (88 फीसदी) परिवारों के पास सफेद राशन कार्ड है। सफेद राशन कार्डधारकों को प्रति यूनिट प्रति माह 5 किलो खाद्यान्न (2.5 किलो चावल और 2.5 किलो गेहूं) मिलता है। उन्हें 2 रुपये प्रति किलो गेहूं और 3 रुपये किलो चावल मिलता है। 8 (5 फीसदी) परिवारों के पास लाल राशन कार्ड है। ये अंत्योदय अन्न योजना के अंतर्गत आने वाले सबसे गरीब वर्ग हैं, और इन्हें हर महीने प्रति यूनिट 5 किलो अनाज मुफ्त दिया जाता है। 12 (7 फीसदी) परिवारों के पास पीला राशन कार्ड है। ये राशन कार्डधारक गरीबी रेखा से ऊपर हैं, और इसलिए वे पीडीएस के हकदार नहीं हैं।
अप्रैल 2020 में लॉकडाउन के दौरान सरकार ने एक योजना की घोषणा की थी, जहां लोगों को महीने में दो बार राशन दिए जाने की बात थी। इसके तहत, पहली बार उन्हें मुफ्त में गेहूं, चावल और 1 किलो चना दिया जाना था और दूसरी बार इन खाद्यान्नों को सामान्य दरों पर खरीदना था। यह योजना आठ महीने तक लागू रहने वाली थी।
सर्वे में शामिल जिन 165 परिवारों के पास राशन कार्ड हैं, उनमें केवल 111 (67 फीसदी) परिवारों को लॉकडाउन के दौरान दो बार राशन मिला; पहली बार, यह मुफ्त में दिया गया था, और दूसरी बार उन्हें खरीदना पड़ा। इस योजना के कार्यान्वयन में भी कथित खामियां थीं। लोगों को 5-6 महीने में यह केवल पहली बार मिला है, जबकि योजना के अनुसार, उन्हें यह लाभ नवम्बर 2020 तक मिलना था ।
रिपोर्ट में कहा गया है कि खाद्यान्न का वितरण भी जगह-जगह अलग-अलग था। "कई जगहों पर लोगों को 1 या 2 किलो से भी कम राशन मिला" और कहीं-कहीं लोगों को 51 किलो तक राशन मिला था ! इसलिए, पीडीएस में एकरूपता नहीं थी, और भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। लोगों ने यह भी शिकायत की कि दुकानदार कभी-कभी नियमित कीमतों पर बिक्री के अंतर को ध्यान में रखते हुए प्रति सदस्य निर्धारित यूनिट नहीं देते हैं। नतीजतन, लॉकडाउन के दौरान जरूरतमंद लोगों को राशन की दुकान से कम राशन मिला।
रिपोर्ट में कहा गया है, "बुनाई उद्योग के जटिल, बहु-स्तरीय और अन्योन्याश्रित ढांचे पर प्रभाव एक स्तर पर है, जिसे समझना काफी आसान है। करघे रहित बुनकरों की सबसे निचली परत, यानी मजदूरी करने वाले (हथकरघा और बिजली करघा दोनों), लॉकडाउन के दौरान सबसे बुरी तरह प्रभावित हैं। लेकिन महामारी और लॉकडाउन के प्रभाव का पूरे उद्योग पर भारी प्रभाव पड़ा है। इससे समूचा उद्योग ठप हो गया है, और सरकार की तरफ से इन लोगों के लिए किए गए विभिन्न राहत उपाय संभवतः उन तक नहीं पहुंचे, जो सबसे ज्यादा जरूरतमंद थे।"
अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
Weavers of Eastern UP Lost Work During Pandemic, Received No Help From Govt, Says Study
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