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कोविड-19 और भारत-चीन टकराव के मायने

मामले की जड़ यह है कि मसले को इतना बढ़ा-चढ़ा कर पेश नहीं करना चाहिए ख़ासकर जब चीन आर्थिक स्थिति के माध्यम से अपने रणनीतिक लक्ष्यों को हासिल कर रहा है।
 भारत-चीन टकराव के मायने

बुधवार को यूरोपीय संघ के नेताओं के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आभासी शिखर वार्ता ने उन्हें एहसास करा दिया होगा कि यूरोप अमेरिकी की ‘चीन’ को रोकने की कोरी बयानबाजी को लेकर काफी  उदासीन है। चीन के खिलाफ निर्देशित अमेरिका की क्षेत्रीय रणनीति में एक भी कोड वर्ड भारत-यूरोपीय संघ शिखर सम्मेलन के दो प्रमुख दस्तावेजों में नज़र नहीं आए – ये दस्तावेज़ संयुक्त वक्तव्य या भारत-यूरोपीय संघ सामरिक भागीदारी: 2025 का रोडमैप है।

दोनों दस्तावेजों में एक बार भी उस रूपक का जिक्र नहीं किया गया है जो अमेरिका और भारतीय पंडितों ने चीन के खिलाफ उसकी नाक काटने के बारे में कहे गए थे - "इंडो-पैसिफिक"। इसके बजाय, भारत और यूरोपीय संघ ने "भारत और यूरोपीय संघ के बीच आम प्राथमिकताओं पर एशिया-यूरोप मीटिंग (ASEM) और एसोसिएशन ऑफ साउथईस्ट एशियन नेशंस (ASEAN) क्षेत्रीय फोरम के संदर्भ में आपसी आदान-प्रदान बढ़ाने का वादा किया है।" चीन एएसईएम (ASEM) और एआरएफ (ARF) दोनों में शामिल है, ये दो प्रमुख क्षेत्रीय प्लेटफॉर्म हैं जो सर्वसम्मति से निर्णय लेने और खुले संवाद पर आधारित हैं।

इस समय यूरोपीय संघ की एक ही प्राथमिकता है कि महामारी के बाद वह आर्थिक नुकसान को कैसे  पूरा करे। प्रधानमंत्री मोदी के शुरुआती बयान से स्पष्ट रूप से इसका अनुमान लगाया जा सकता है। यूरोपीय देश अच्छी तरह से इस बात को जानते हैं कि यूएस-भारत के इंडो-पैसिफिक’ सिद्धांत को एशिया-प्रशांत में कोई गंभीरता से लेने वाला नहीं हैं। यूरोपीय शक्तियों ने सही बहुत महसूस किया है कि क्षेत्रीय देशों ने आर्थिक सुधार और विकास को प्राथमिकता दी है, और वे चीन को रोकने के अमरिका और उसके अर्ध-सहयोगियों की रणनीति में शामिल नहीं हैं। मोदी ने इस जद्दोजहद पर समय बर्बाद नहीं किया।

इस मामले की क्रूरता यह है कि टकराव के फायदे को इतना बढ़ा-चढ़ाकर पेश नहीं करना चाहिए क्योंकि चीन अपनी आर्थिक मजबूती के माध्यम से अपने रणनीतिक लक्ष्यों को हासिल कर रहा है, और जहां दक्षिण पूर्व एशियाई नेताओं के फैसले को आकार देने में आर्थिक कारक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं जिन पर वाशिंगटन और बीजिंग का टकराव है, जिसमें 5 जी प्रौद्योगिकियों भी शामिल है। इसके अलावा, यूरोपीय संघ मानव अधिकारों और बाजार की पहुंच से संबंधित कुछ मुद्दों पर दोनों पक्षों के बीच के मतभेदों के बावजूद चीन के साथ एक रचनात्मक सहयोग की उम्मीद कर रहा है।

कल के हाई-प्रोफाइल वर्चुअल इवेंट के बाद मोदी ने इस घरेलू सच को समझा होगा। पीएम ने अपनी शुरुआती टिप्पणी में इस लहजे को अपनाया कि "एक एक्शन-ओरिएंटेड एजेंडा बनाया जाना चाहिए, जिसे एक निर्धारित समय सीमा के भीतर लागू किया जा सके।"

हालांकि, "टकराव" की मानसिकता, जो भूराजनीति से लबालब है, वह भारतीय विश्लेषकों में बढ़ रही है; जो चीन के बारे में वर्तमान की घटनाओं को खुद के फोबिया के कारण गलत ढंग से जानबूझकर गलत व्याख्या करते हैं। हमारे मीडिया में अधिकतर ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि अमेरिकी विश्लेषकों इन गलत संस्करणों को मीडिया में प्लांट करते है। भारत के एक सबसे बड़े दैनिक अखबार में एक ओप-एड में लिखा जाता है कि चीन की कोविड़ आक्रामकता एशिया को नया रूप दे रही है।

यहां मुख्य तर्क यह है कि: टकराव "मजबूत हो रहा है और यहां तक कि बढ़ रहा है"; कोविड़-19 "इंडो-पैसिफिक की भूराजनीति को दोबारा से आकार दिया जा रहा है" और आसियान देशों के भीतर “चीनी आधिपत्य की ओर धीमी गति से बढ़ते उसके जोखिमों के बारे में नई गंभीरता” को पैदा कर रहा है; और, यह सब चीन के खिलाफ अपनी रणनीति को आगे बढ़ाने का "ट्रम्प प्रशासन का लंबे समय से चलने वाला खेल" है।

अब, इस अमेरिकी प्रचार का बड़ा भार भोली और बेख़बर भारतीय राय पर पड़ता है। दिमाग से इसकी तफ़सील को हटाने के लिए कुछ व्याख्या करने की जरूरत है। बेशक, आसियान देशों पर कोविड़-19 का प्रभाव एक जटिल कहानी है, लेकिन यह यूएस-चीन बाइनरी की कहानी का हिस्सा बनाने की इजाजत नहीं देता है। चीन पर आभासी आर्थिक गतिरोध ने व्यापार, यात्रा और आपूर्ति श्रृंखलाओं को बाधित करके आसियान क्षेत्र में खलल डाल दी है। उदाहरण के लिए, सिंगापुर की अर्थव्यवस्था में एक साल पहले के मुक़ाबले 2020 की पहली तिमाही में 2.2 प्रतिशत की दर का घर्षण आया या कमी आई है, जबकि मलेशिया की अर्थव्यवस्था 2020 में 2.9 प्रतिशत की कमी आने की उम्मीद है, जिससे कुछ 2.4 मिलियन नौकरियों का नुकसान हुआ हैं।

कहा जा रहा है कि, एक तरफ बीजिंग और दूसरी तरफ आसियान देशों की राजधानियों के बीच एक उत्सुक राजनयिक और राजनीतिक निकटता भी कोविड़-19 की के चलते दिखाई दे रही है। संक्षेप में, यह चीन की प्रथाओं तथा मानकों के साथ इस क्षेत्र में एक प्रमुखता का रूप ले रहा है। इसमें एक आकर्षक बात यह है कि इस प्रक्रिया में, आसियान देशों ने यह भी पता लगाया है कि चीन के उदय को कैसे संभालना है। यह चीन की सक्रिय कूटनीति के लिए अच्छी खबर है, क्योंकि इस मामले में कम से कम आसियान देशों पर विशेषज्ञयों के बाहरी दबाव की कोई आवश्यकता नहीं है।

पेरिस के फ्रेंच इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल रिलेशंस के एक स्कॉलर ने हाल ही में बताया है कि, "खेल अभी खत्म नहीं हुआ है, लेकिन कोरोनोवायरस संकट ने जो असर डाला है वह यह है कि दक्षिण पूर्व एशिया के देश छोटी, असंभव बल्लेबाज़ी के माध्यम से चीनी प्रणाली के करीब पहुंच रहे है।" हालांकि, अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ दक्षिण चीन सागर में चीनी समुद्री दावों की वाशिंगटन की अस्वीकृति को हाल ही में मजबूती से दोहरा रहे हैं, इस क्षेत्र में अविश्वास काफी मजबूत है।

फिलीपीन के राष्ट्रपति रोड्रिगो दुतेर्ते के प्रवक्ता हैरी रोके ने मंगलवार को एक प्रेस ब्रीफिंग में कहा, "यहां फैंसला अपने राष्ट्रीय हित को आगे बढ़ाने का है।" यहां तक कि इंडोनेशिया भी इसे रोकना नहीं चाहेगा क्योंकि चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना से उसे काफी लाभ मिलेगा और वह नातून के आसपास तनाव का प्रबंधन करने में सक्षम रहा है।

स्टिमसन सेंटर के वरिष्ठ स्कॉलर यूं सन को उद्धृत करते हुए कि, "आसियान की स्थिति किसी एक का पक्ष लेने की नहीं है। मुझे नहीं लगता कि यह अब बदलाव का इच्छुक है।" आसियान क्षेत्र का चीन के साथ गहरा आर्थिक संबंध और चीनी और दक्षिण-पूर्व एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के साथ-साथ उनकी भौगोलिक निकटता की पूरकता “व्यापार को सीमित करने के लिए दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के लिए बहुत मुश्किल है। आखिरकार, उनका (आसियान देशों का) चीनी उत्पादों से नाता तोड़ना संभव नहीं है क्योंकि वे यूरोप और उत्तरी अमेरिका की तरह विकसित नहीं हैं।

आसियान ब्लॉक इस वर्ष चीन का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार बन गया है। 2020 के पहले पांच महीनों में, आसियान ब्लॉक और बड़े पैमाने पर चीनी बाजार के बीच व्यापार 2019 की समान अवधि में 4.2 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया था। वियतनाम से चीनी आयात 2020 की पहली तिमाही में 24 प्रतिशत बढ़ गया था, उसी अवधि की तुलना में 2019 में; तेजी से एकीकृत आपूर्ति श्रृंखलाओं के कारण इंडोनेशिया से माल का मूल्य वर्ष-दर-वर्ष 13 प्रतिशत बढ़ गया। चीन का व्यापार दुनिया के व्यापर में लगभग 15 प्रतिशत के बराबर है। चीन और आसियान के बीच एक प्रकार की ‘अंतर्निर्भरता’ विकसित हो रही है।

चीन-आसियान व्यापार और आर्थिक सहयोग के मामाले में 2010 का प्रभावी शून्य-टैरिफ व्यापार सौदा एक मजबूत आधार हैं। इस वर्ष की प्रस्तावित क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी आसियान और चीन द्वारा हस्ताक्षर किए जाने के बाद व्यापार को और सुचारू बनाएगी। यह कहना सही होगा कि महामारी क्षेत्रीय काम के तरीकों के बुनियादी रूप को कोई नया आकर नहीं दे पाएजीआई या उनमें कोई खास बदलाव नहीं आएगा, लेकिन यह चीन की स्थिति को पहले से कहीं अधिक मज़बूत कर सकती है और समय बीतने के साथ पारस्परिक जुड़ाव को स्थिर और उम्मीद के मुताबिक बना सकती है। 

यहां, आर्थिक सुधार की खास धारा भी महत्वपूर्ण हो जाती है। यदि चीन तेजी से माहामारी पर पार पा लेता है, जो लगता है कि वह पा लेगा, तो इसकी संभावना बढ़ जाती है कि क्षेत्र में उसकी पहले से ही मज़बूत आर्थिक स्थिति ओर सुदृढ़ हो जाएगी। सिंगापुर में आईईएएस-यूसोफ़ इशाक संस्थान (ISEAS-Yusof Ishak Institute) के आसियान स्टडीज सेंटर के एक जून के सर्वेक्षण के अनुसार कोविड़-19 के हमले से पहले, दक्षिण पूर्व एशियाई नीतियों पर काम करने वाले कुलीन वर्ग के 79.2 प्रतिशत लोगों ने चीन को इस क्षेत्र की सबसे प्रभावशाली आर्थिक शक्ति के रूप में पाया है, जबकि केवल 7.9 प्रतिशत ने अमेरिका और 3.9 प्रतिशत ने जापान को प्रभावी माना है। (भारत के लिए यह सापेक्ष रेटिंग मात्र 0.1 प्रतिशत है।)

कुल मिलाकर, एशिया में क्षेत्रीय राजनीति पर महामारी का लंबे समय तक चलने वाला प्रभाव यह हुआ है या होगा कि इसने अमेरिकी की आभा को फिलहाल रोक दिया है और टकराव को बिना पतवार के छोड़ दिया है।

Courtesy: INDIAN PUNCHLINE

इस आलेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Covid-19 Renders the ‘Quad’ Rudderless

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