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घरेलू श्रम के मूल्य पर फिर छिड़ी बहस

महिलाओं के अदृष्य श्रम को कैसे जीडीपी में दिखाया जाय, इसपर बहस समाप्त नहीं हो सकती, पर विश्व भर में इस बात पर आम सहमति बन रही है कि महिलाओं द्वारा किये जा रहे घरेलू काम को मान्यता दी जाए और उसका लेखांकन भी हो।
घरेलू श्रम के मूल्य पर फिर छिड़ी बहस
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : गूगल

महिलाओं द्वारा किये जा रहे घरेलू काम पर बहस सर्वोच्च न्यायालय के हाल के फैसले के माध्यम से एक बार फिर चालू हो गई है। आखिर हर महिला, वह नौकरीपेशा हो या घरेलू, ऐसे सैकड़ों काम सम्हालती है जिसकी गिनती अर्थव्यवस्था के विकास में कहीं नहीं होती; यानी उसका मूल्य देश की जीडीपी में नहीं जुड़ता। कई बार महिला आंदोलन की ओर से मांग हुई है कि घरेलू काम का मूल्य तय किया जाए और उसके एवज में महिलाओं को किसी प्रकार का ‘वेतन’ दिया जाए। पर इसका कोई नतीजा नहीं निकला है।

क्या कहा सर्वोच्च न्यायालय ने?

25 वर्ष पूर्व एक सड़क दुर्घटना में जयवन्तीबेन की मृत्यु हो गई थी। वह एक घरेलू महिला थीं। मोटर व्हीकल ऐक्ट के तहत मृतक के परिवार को कम्पेंसेशन देना होता है। पर बीमा कम्पनी ने मृतक के परिजनों को इस आधार पर कम मुआवजा देने की बात की कि जयवन्तीबेन एक घरेलू महिला थीं और वैसे भी वह अधिक कमाने के काबिल नहीं थी। गुजरात राज्य के मोटर व्हीकल ऐक्सिडेन्ट ट्राइबुनल ने मुआवजे की रकम 2.24 लाख तय की थी, पर बीमा कम्पनी के तर्क के आधार पर उच्च न्यायालय ने इसे घटाकर 2.09 लाख कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने एक लैंडमार्क फैसले में इस रकम को यह कहते हुए बढ़ाकर 6.47 लाख कर दिया कि ‘‘न्यायालयों ने स्वीकार किया है कि पत्नी द्वारा घर में किये गए योगदान का मूल्य पैसे से नहीं तय किया जा सकता है। यदि यह मान भी लिया जाए कि जयवन्तीबेन स्वनियोजित नहीं थी, फिर भी यह सत्य है कि वह एक गृहस्वामिनी और गृहणी भी हैं।’’

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ‘‘किसी घर की मां के घरेलू काम का मुद्रीकरण करना मुश्किल है।’’यह आदेश न्यायमूर्ति वी गोपाल गौड़ा और आर बानुमथी की पीठ ने दिया और पहली बार घरेलू काम को उच्च दर्जा प्रदान किया, जो स्वागतयोग्य है।

पहले भी न्यायालयों ने घरेलू काम का आंकलन किया है। पर उसकी मात्रा लगभग नहीं के बराबर या सांकेतिक ही कही जाएगी। उदाहरण के लिए दिल्ली के एक सड़क दुर्घटना के केस में घरेलू काम का मूल्य मात्र 150 रुपये प्रतिमाह तय किया गया था।

एक अन्य केस में घरेलू महिलाओं के काम के मूल्य को तय करने के मामले में काफी बहस हुई थी। यह टाटा आयरन ऐण्ड स्टील कम्पनी द्वारा जमशेदपुर (जो उस समय बिहार राज्य में आता था) में मार्च 1989 में जमशेदजी टाटा की 150वीं जयंती के अवसर पर आयोजित एक जलसे से सम्बंधित है। इस जलसे में पटाखों की वजह से आग लग गई थी और कई पुरुष महिलाएं और बच्चे कुल मिलाकर करीब 60 लोग जलकर मर गए थे और काफी लोग (113) बुरी तरह झुलस गए थे। इस दुर्घटना में करीब 25 महिलाओं की मृत्यु हुई थी, जिनमें अनेक तो कम्पनी के कर्मचारियों की पत्नियां थीं। लता वाधवा बनाम बिहार सरकार केस में कहा गया था कि यद्यपि महिलाओं के घरेलू कामकाज संबंधी डाटा उपलब्ध नहीं था, फिर भी कम्पनी द्वारा तय किया गया मुआवजा, जो 10,000 प्रति वर्ष से लेकर 12,000 प्रति वर्ष तय किया गया बहुत कम था। तो इसे दोबारा आंकलन कर बढ़ाया जाना चाहिये। कोर्ट ने प्रार्थना के आधार पर 34 वर्ष से 59 आयु की महिलाओं के लिए घरेलू कार्य का मूल्य 36,000 प्रति वर्ष और उससे अधिक उम्र की महिलाओं के लिए 20,000 रुपये प्रति वर्ष तय किया था। यह देखते हुए कि सर्वोच्च न्यायालय ने केस पर आदेश 2001 में किया, यह रकम सर्वथा अपर्याप्त मानी जाएगी, फिर, नकारात्मक अर्थों में भी इस केस का हवाला कई अन्य मामलों में भी दिया जाता रहा।

पर जो कुछ भी हो, एक साधारण आंकलन करने पर भी समझ में आता है कि एक घरेलू महिला के काम का मूल्य कई बार अपने नौकरीपेशा पति की पगार से कहीं ज्यादा होगा। क्योंकि हमारे देश में श्रम सस्ता है, यहां जब हम आंकलन करते हैं, हम हर काम का वही मूल्य जोड़ते हैं जो कोई श्रमिक या घरेलू कामगारिन को दिया जाता। घर की सफाई, बर्तन धोना, खाना पकाना, कपड़े धोना, घर की देखरेख और चौकीदारी, बच्चों को स्कूल बस के स्टैंड तक ले जाना, बाज़ार करना, घर में छोटे-मोटे मरम्मत करना, बूढ़ों व बीमारों की तीमारदारी करना, बच्चों की देखभाल करना, घर का प्रबंधन करना, फोन रिसीव करना, पशुआ की देखरेख, पानी ढोकर लाना या भरना आदि ओईसीडी यानी आर्थिक सहयोग और विकास संगठन के अनुसार घर के कामों में आते हैं। पर वर्तमान समय में बढ़ती प्रतियोगिता को देखते हुए, बहुत सारी माताओं को अपने बच्चों को पढ़ाना या अलग-अलग विधाएं भी सिखाना पड़ता है, जिसके मायने हैं कि वे उन्हें वे भविष्य के उत्पादक बनाती हैं।

कई पत्नियां, जिनके पति अधिक व्यस्त रहते हैं, अपने पतियों के जीवन में सैकड़ों छोटे-बड़े प्रबंधन करके उनके कामकाज में अप्रत्यक्ष मदद करती हैं, और इस तरह उनके योगदान की हिस्सेदार होती हैं। इन सारे कामों का मूल्य कैसे तय किया जाएगा?

लगभग हर मां एक मनोवैज्ञानिक भी होती है, जो घर के अधिकतर सदस्यों को मानसिक रूप से मजबूत बनाती है। एक ¬¬मनोवैज्ञानिक अपने मरीज के साथ एक घंटे की सिटिंग करता है तो 2000 रुपये ले लेता है। इस हिसाब से देखा जाए तो एक गृहिणी का योगदान अनमोल है।

फिर, आज तक कोई ऐसा कानून क्यों नहीं बना जो उस घरेलू श्रम के मूल्य का आंकलन करे जो सुबह से लेकर शाम तक एक गृहिणी या नौकरीपेशा महिला घर में करती है? क्या हम यही तर्क देते रहेंगे कि घरेलू काम का कोई बाज़ार मूल्य नहीं है, या घरेलू काम उत्पादन में नहीं गिना जा सकता?

हम यह जानते हैं कि देश के आर्थिक विकास में इस श्रम का योगदान है। और यह भी सच है कि महिला के इस श्रम की वजह से परिवारों का जीवन स्तर उन्नत होता है।

आप कल्पना करें कि सारी महिलाएं यदि इस घरेलू कामकाज से एक दिन का अवकाश ले लें या हड़ताल पर चली जाएं तो घर में मौजूद पढ़ने वालों और कमाने वालों की क्या हालत होगी? यहां तक कि कई राज्यों में घरेलू कामगारिनों को साप्ताहिक छुट्टी मिलती है, पर गृहिणी को पति के साप्ताहिक छुट्टी के दिन और अधिक काम करना पड़ता है। आइये हम विश्व भर में घरेलू काम में औरतों की स्थिति देखें।

यूएन विमेन के अनुसार विश्व भर में लोग अवैतनिक घरेलू कामकाज में 16 अरब घंटे खर्च करते हैं, जिसका अधिकांश बोझ महिलाओं के मत्थे पड़ता है। अवैतनिक काम का 3/4 हिस्सा महिलाएं करती हैं। संकट के समय महिलाओं के अवैतनिक काम के घंटे बढ़ जाते हैं। यह हमने कोविड महामारी के दौर में बहुत बेहतर ढंग से अनुभव किया। मसलन नौकरीपेशा और घरेलू महिलाओं का काम दूना हो गया, क्योंकि घरेलू कामगारिनों का आना बंद हो गया और बच्चों की स्कूली पढ़ाई भी घर में करवानी पड़ी। इसके अलावा पतियों के ‘वर्क फ्रॉम होम’ के बढ़े हुए समय की वजह से उन्हें लगातार घर के प्रबंधन में लगना पड़ा। इस तालिका को देखें:

हम ऊपर दी गई तालिका से देख सकते हैं कि भारत, टर्की, चीन, जापान और कोरिया की स्थिति सबसे बदतर है और सबसे बेहतर स्थिति नॉर्डिक देशों की है। पर हर देश में महिलाओं को अवैतनिक काम में अधिक समय गुज़ारना पड़ता है। अब हम कुछ देशों में महिलाओें और पुरुषों को दिन भर में फुर्सत का कितना समय मिलता है, नीचे दी गई तालिका में प्रदर्शित कर रहे हैं-

 

यहां हम देख रहे हैं कि नॉर्डिक देश फिर आगे हैं और भारत व पुर्तगाल की स्थिति अच्छी नहीं है।

ज्यादातर देश एक खास किस्म के सर्वे के द्वारा आंकलन करते हैं कि महिलाएं और पुरुष किस प्रकार के काम में कितना वक्त खर्च करते हैं। इस सर्वे को टाइम यूज़ सर्वे या टीयूएस कहा जाता है। हमारे देश में काफी देर से इस प्रकार के सर्वे को सरकारी तौर पर कराया गया।

भारत सरकार ने पहला पायलट सर्वे 1998-99 में कराया था। पर कई अन्य देशों ने बहुत पहले से ही ऐसे सर्वे कराना शुरू कर दिया था। इसका मकसद था कि महिलाओं और पुरुषों के समय उपयोग के आधार पर महिला-पक्षधर नीतियों का निर्माण किया जा सके।

ये सर्वे अधिकतर 24 घंटे के समय-प्रयोग के आधार पर किये जाते हैं, पर इन्हें साप्ताहिक आधार पर भी किया जाता है। एकमात्र ये ही ऐसे सर्वे हैं जिनसे किसी भी व्यक्ति के दिन भर के समय-उपयोग का पता लगाया जा सकता है। कनाडा और ब्रिटेन ने 60 के दशक में, नॉर्वे, फिनलैंड, हंगरी, बुल्गारिया, ऑस्ट्रिया और कुछ अन्य देशों में 70-80 के दशक में, यूएस ने 2003 में और भारत ने 2019 में यह सर्वे शुरू किया।

भारत के सांख्यियकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के अधीन काम कर रहे नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस यानी एनएसओ ने जनवरी से दिसम्बर 2019 में किये गए टीयूएस में 1.39 लाख परिवारों के 4.47 लाख लोगों को सर्वे किया और 2140 पेज की रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसके अनुसार वैतनिक काम में पुरुषों की भागीदारी का दर 57.3 प्रतिशत है और महिलाओं का केवल 18.4 प्रतिशत। इसमें भी पुरुष दिन भर में औसतन 7 घंटे 39 मिनट और महिलाएं 5 घंटे 33 मिनट समय वैतनिक काम में दे पाते हैं। यह भी पाया गया कि 81.2 प्रतिशत महिलाएं घरेलू कामकाज में हिस्सेदारी करती हैं जबकि केवल 26.1 प्रतिशत पुरुष घरेलू कामकाज में हिस्सा लेते हैं। सर्वे के अनुसार दिन भर में महिलाएं सामाजिक कार्यवाहियों में पुरुषों की अपेक्षा 2 घंटे 19 मिनट कम दे पाती हैं।

क्या घरेलू काम को उत्पादक कार्य माना जाना चाहिये?

महिला आंदोलन का शुरू ये यह मत रहा है कि महिलाएं जो घरेलू काम करती हैं, उसे उत्पादक कार्य माना जाना चाहिये। 1988 में श्रमशक्ति की रिपार्ट में कहा गया था- ‘‘सभी महिलाएं श्रमिक हैं क्योंकि वे उत्पादक और प्रजननकर्ता हैं। जब वे रोजगार में नहीं भी होतीं, वे सामाजिक रूप से उत्पादक और प्रजनन कार्य में संलग्न होती हैं, जो समाज के अस्तित्व के लिए निहायत आवश्यक है। गृहिणियों के रूप में महिलाओं के काम को सामाजिक/आर्थिक उत्पादन माना जाना चाहिये’’। पर समस्या यह है कि महिलाओं के घरेलू काम को मान्यता देना और उसके मूल्य को जीडीपी में शामिल करना दो अलग बातें हैं। कोई भी देश राष्ट्रीय मानदंडों के आधार पर ही जीडीपी की गणना करता है। अब यूएन का सिस्टम ऑफ नेशनल अकाएंट्स, जो जीडीपी पर डाटा एकत्र करने के अंतर्राष्ट्रीय दिशा-निर्देश देता है, ने अनुशांसा की है कि महिलाओं के सामाजिक प्रजनन और अवैतनिक देखभाल के कार्य की गणना की जानी चाहिये और उसका लेखांकन भी होना चाहिये। पर उसे राष्ट्रीय लेखा के अनुचर लेखा यानी देश के नेशनल अकाउंट्स के सैटेलाइट अकाउंट्स में शामिल किया जाना चाहिये। इसके पीछे तर्क दिया जा रहा है कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में इसे जोड़ने से देश में आ रहे आय के आंकड़े विकृत हो जाएंगे।

बहस जारी हैः क्या घरेलू श्रम के लिए वेतन दिया जाए?

महिलाओं के अदृष्य श्रम को कैसे जीडीपी में दिखाया जाय, इसपर बहस समाप्त नहीं हो सकती, पर विश्व भर में इस बात पर आम सहमति बन रही है कि महिलाओं द्वारा किये जा रहे घरेलू काम को मान्यता दी जाए और उसका लेखांकन भी हो। भारत के सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी, ‘‘घर में महिला के काम के मूल्य को उसके ऑफिस जाने वाले पति के काम के बराबर मूल्य का माना जाना चाहिये।’’ ऐक्टर राजनेता कमल हासन ने कहा कि राज्य को महिलाओं के काम को मान्यता देनी चाहिये और उसके लिए वेतन भी देना चाहिये। एमएनएम के अध्यक्ष हासन इसे अपने 2021 चुनाव घोषणापत्र में जोड़ने वाले हैं। कांग्रेस के शशि थरूर ने उनके प्रस्ताव का समर्थन किया और कहा कि इस कदम से ‘‘महिलाओं की सेवाओं को मान्यता मिलेगी और उसका मुद्रीकरण होगा, उनकी शक्ति और स्वायतता बढ़ेगी और लगभग-सार्वभौमिक बुनियादी आय लागू होगी।’’ पलटवार करते हुए कंगना रनावत ने ट्वीट किया कि ‘‘हमें यह सम्मान और वेतन नहीं चाहिये’’...इस कदम से ‘‘घर की मालकिन एक कर्मचारी में तब्दील हो जाएगी।’’ पर निश्चित तौर पर कमल हासन के प्रस्ताव का दबाव तमिलनाडु के सभी दलों पर पड़ने वाला है। सूत्रों से पता चला है कि डीएमके भी महिलाओं को घरेलू काम के लिए 2000 रुपये प्रतिमाह मानदेय का वायदा अपने घोषणापत्र में शामिल करने पर विचार कर रही है। भले ही इसे घरेलू काम का मूल्य नहीं कहा जाएगा, बल्कि मानदेय ही समझा जाएगा, महिला वोटरों को आकर्षित करने में इसकी भूमिका होगी। लेकिन यह देखना-समझना बाकी है कि इसे लागू कर भी दें तो महिलाओं को बराबरी का दर्जा और सामाजिक सम्मान देने के मामले में हम किस हद तक आगे बढ़ पाते हैं। सरकारों और समाज को समझना होगा कि महिलाएं यदि घरेलू काम के बोझ तले नहीं दबी होतीं तो वे तमाम ऐसे कामों में लग सकती थीं जिन्हें उत्पादक कहा जाता है और जीडीपी में अपने कार्य का मूल्य जुड़वा सकती थीं। दूसरे, उनका स्वास्थ्य और उनकी मानसिक स्थिति भी बेहतर रहती और वे अपने को अधिक सशक्त महसूस करतीं। क्या हम इस बात से इंकार कर सकते हैं?

(लेखिका एक महिला एक्टिविस्ट हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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