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पूर्वांचल से MSP के साथ उठी नई मांग, किसानों को कृषि वैज्ञानिक घोषित करे भारत सरकार!

एमएसपी में किसानों का दैनिक श्रम सिर्फ 92 रुपये आंका गया है। सरकार इन्हें अकुशल श्रमिक मानती है, जबकि खेतों में काम करने वाले सामान्य अकुशल श्रमिकों का मानदेय 274 मानदेय तय है और बाजार में कुशल श्रमिकों की दैनिक मजदूरी 500 से 600 रुपए तक है।
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अन्नदाता को कृषि वैज्ञानिक का दर्जा देने के लिए मुहिम चलाने की रणनीति पर पंचायत करते बनारस के प्रबुद्धजन

पूर्वांचल के किसानों ने भारत सरकार के सामने एक नई डिमांड पेश की है। वो चाहते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी देने से पहले अन्नदाता को कृषि वैज्ञानिक घोषित किया जाए। तीनों विवादित कृषि कानूनों को वापस लेने के साथ किसानों ने फसलों पर एमएसपी की गारंटी मांगी है। पूर्वांचल के किसान चाहते हैं, पहले उन्हें कृषि वैज्ञानिक घोषित किया जाए और नए सिरे से एमएसपी तय की जाए। एमएसपी लागू करने के लिए कठोर कानून भी बनाया जाए, क्योंकि साल 2015 में एफसीआई के पुनर्गठन पर सुझाव देने के लिए बनाई गई शांता कुमार कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि एमएसपी का लाभ सिर्फ़ छह फ़ीसदी किसानों को मिल पाता है। ऐसे में सोचने वाली बात है कि जो व्यवस्था 94 फ़ीसदी के लिए लाभकारी नहीं है, वो भला देश के किसानों को स्थायी संकट से उबारने का ज़रिया कैसे हो सकती है?

डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के परिनिर्माण दिवस पर बनारस के सारनाथ स्थित विद्या आश्रम में आयोजित किसानों की पंचायत में लोक विद्या जनांदोलन की राष्ट्रीय संयोजक डॉक्टर चित्रा सहस्रबुद्धे ने किसानों के अधिकारों का सवाल उठाया और कहा, "कृषि बिल वापसी के बाद किसान नेता के रूप में उभरा है। इस दावे के साथ उभरा है कि वो भारत को दिशा दे सकता है। उसके पास जो ज्ञान है उससे वो अपने समूह नहीं, देश और उसके जरूरतों को समझता है। अन्नदाता सिर्फ कुशल श्रमिक ही नहीं,  वैज्ञानिक हैं। वह खेतों में लगतार रिसर्च करते हैं और नफा-नुकसान सहते हैं। इसके बावजूद उनके श्रम को साधारण श्रम माना जाता है। एमएसपी में किसानों का दैनिक श्रम सिर्फ 92 रुपये आंका गया है। सरकार इन्हें अकुशल श्रमिक मानती है, जबकि खेतों में काम करने वाले सामान्य अकुशल श्रमिकों का मानदेय 274 मानदेय तय है और बाजार में कुशल श्रमिकों की दैनिक मजदूरी 500 से 600 तक है।"  

किसानों के ज्ञान को मिले मान्यता

डॉ. चित्रा ने यह भी कहा, "कृषि बिल वापसी के बावजूद किसानों की मूल समस्या जस की तस है। अन्नदाता को अपनी फसल का अधिकार खुद के हाथ में चाहिए। किसान भारत की तर्क की परंपरा में आता है और न्याय के नाम से जो सिस्टम है उसकी दर्शन परंपरा में जाना जाता है। जहां न्याय नहीं, वहां तर्क नहीं माना जा सकता। सरकार पहले किसानों को वैज्ञानिक माने और उसके अनुरूप उनकी उपज का समर्थन मूल्य घोषित करे। अजीब बात है कि सरकार, किसानों को न एमएसपी देने के लिए तैयार है और न ही उनकी अहमियत को समझने के लिए तैयार है। जब तक किसानों के ज्ञान को मान्यता नहीं मिलेगी, तब तक देश तरक्की नहीं कर सकता है। मौजूदा दौर में किसानों की हैसियत को पहचाने की जरूरत है। उन्हें ज्ञानी के रूप में देखा जाना चाहिए।" 

विद्या आश्रम के अध्यक्ष सुनील सहस्रबुद्धे ने कहा, "ब्रिटिश हुकूमत द्वारा तैयार कराई गई गोयलकर रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख साफ-साफ किया गया है कि भारत के किसानों को किसी बाहरी ज्ञान की जरूरत नहीं है। वो प्रयोगवादी वैज्ञानिक हैं। इनके ज्ञान को मान्यता दी जाए तो विकसित देशों के किसान भारतीय अन्नदाता से खुद खेती-किसानी का गुर सीखने चले आएंगे। किसानों की मौलिक लड़ाई यही है कि वो वैज्ञानिक हैं। उनकी आमदनी भी वैज्ञानिकों की तरह ही होनी चाहिए, तभी उनके ज्ञान को मान्यता मिल पाएगी।" 

इन किसानों के लिए सपना है एमएसपी

सुनील ने सवाल उठाया, "आखिर वह कौन सी वजह है कि सरकार किसानों को एमएसपी न देने पर अड़ी हुई है। सरकार बताए कि उनकी क्या मजबूरी है? एमएसपी को कानूनी जामा पहनाने में हीलाहवाली क्यों की जा रही है? एमएसपी न देने का मतलब यह है कि सरकार किसानों का श्रम लूटकर कारपोरेटरों पर लुटाती रहेगी। नेता और नौकरशाह बेशर्म तरीके से यह कह देते हैं कि किसान टैक्स नहीं देते। आंकड़े देखिए। भारत में अनाज का उत्पादन 20 करोड़ टन है, जिसकी आधी पैदावार बाजार में आती है। कृषि उत्पादों को छोड़ दें तो सरकार हर वस्तु पर अधिकतम मूल्य वसूलने की आजादी देती है, लेकिन किसानों को उनकी उपज का दाम देने में कन्नी काटने लगती है। मेहनत का आकलन किया जाए तो किसान प्रत्येक कुंतल के पीछे एक हजार रुपये का घाटा सह रहा है। आखिर यह पैसा किसकी जेब में जा रहा है? किसानों को लूटकर दुनिया का काम हो रहा है। और कहा जाता है कि सरकार टैक्सपेयर के पैसे से चलती है। किसानों का कर विवर्तन दिखता ही नहीं। एमएसपी का मतलब किसान उत्पाद के दाम।" 

टेनी मार रही सरकार

किसान नेता चौधरी राजेंद्र  सिंह ने सरकार की नीयत पर सवाल उठाया। कहा, "सरकार खुलेआम किसानों की उपज पर टेनी मार रही है। टेनी मारने वाली ऐसी सरकार पूरी दुनिया में कहीं नहीं है। किसानों के साथ होने वाली लूट की कई परतें हैं। यह लूट तब बंद होगी जब बाजार किसान तय करेगा। किसान अभी सिर्फ एमएसपी की गारंटी मांग रहे हैं। अन्नदाता को वैज्ञानिक घोषित करने के साथ ही कुशल श्रमिक का दर्जा दिया जाए। ऐसा न होने पर बनारस से आंदोलन का बिगुल फूंका जाएगा। जरूरी होने पर आंदोलन भी छिड़ेगा। किसानों और खेतिहर मजदूरों का मजबूत रिश्ता सालों पुराना है। जब किसान कुशल श्रमिक घोषित होंगे तो खेतिहर मजदूरों को स्वतः कुशल श्रमिक का दर्जा मिल जाएगा।"    

किसान-मजदूर परिषद संयोजक मंडल के सदस्य चौधरी राजेंद्र ने यह भी कहा, "ग्लोबलाइजेशन ने को-रिलेशनशिप को (सहकारिता) को मार दिया। हर संबंध को बाजारू श्रेणियों के मार्फत तय किया जाने लगा। देश और दुनिया का जो संकट है उससे मानवता को उबारने की समझ और क्षमता दोनों किसानों में है। महामारी के दौर में किसानों ने साथ नहीं दिया होता तो देश की क्या दुर्गति होती, इसे समझा जा सकता है। खासतौर पर उस समय जब सरकार लापता हो गई थी।"

जय किसान आंदोलन एवं स्वराज अभियान की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य रामजन्म एमएसपी का सवाल उठाते हुए कहा, "जब इसको लेकर कोई क़ानून ही नहीं है तो फिर किस अदालत में जाकर हम अपना हक़ मांगेंगे। सरकार चाहे तो एमएसपी कभी भी रोक भी सकती है, क्योंकि ये सिर्फ एक नीति है कानून नहीं। और यही डर किसानों को है। इसीलिए हम एमएसपी और कुशल श्रम की डिमांड कर रहे हैं। कृषि मंत्रालय का एक विभाग कमीशन फॉर एग्रीकल्चरल कोस्ट्स एंड प्राइसेस गन्ने पर एमएसपी तय करता है। ये बस एक विभाग है जो सुझाव देता है। यह कोई ऐसी संस्था नहीं है जो कानूनी रूप से एमएसपी लागू कर सके।"

किसानों पर दोहरी मार

भारतीय किसान यूनियन के जिलाध्यक्ष लक्ष्मण प्रसाद मौर्य ने कहा, "अगस्त 2014 में बनी शांता कुमार कमेटी के मुताबिक़ छह फीसद किसानों को ही एमएसपी का लाभ मिल पाता है। बिहार में एमएसपी से खरीद नहीं की जाती। वहां राज्य सरकार ने प्राइमरी एग्रीकल्चर कॉपरेटिव सोसाइटीज़ यानी पैक्स के गठन किया था जो किसानों से अनाज खरीदती है। लेकिन किसानों की शिकायत है कि वहां पैक्स बहुत कम खरीद करती है, देर से करती है और ज़्यादातर उन्हें अपनी फसल कम कीमत पर बिचौलियों को बेचनी पड़ती है। मौजूदा समय में सिर्फ धान, गेहूं, बाजरा, मक्का, ज्वार, रागी, जौ के अलावा चना, अरहर, मूंग, उड़द, मसूर को न्यूनतम समर्थन मूल्य के दायरे में रखा गया है। आयल सीड में मूंग, सोयाबीन, सरसों, सूरजमुखी,  तिल, काला तिल और अन्य फसलों में गन्ना, कपास, जूट, नारियल एमएसपी के दायरे में हैं। इनमें से सिर्फ गन्ना ही है जिस पर कुछ हद तक कानूनी पाबंदी लागू होती है क्योंकि आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत एक आदेश के मुताबिक़ गन्ने पर उचित और लाभकारी मूल्य देना ज़रूरी है। सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर फसल ख़रीद को अपराध घोषित करे। सरकार ऐसी व्यवस्था करे जिससे किसानों को दोहरी मार न झेलनी पड़े।"

विद्यार्थी युवजन सभा संयोजक सुश्री प्रज्ञा सिंह ने कहा, "एमएसपी के दायरे में आने वाली 23 फसलें हैं, जो भारत के कृषि उत्पाद का सिर्फ एक तिहाई हिस्सा ही हैं। मछली पालन, पशु पालन, सब्जियां, फल वगैरह इनमें शामिल ही नहीं हैं। अगर इन 23 फसलों के आंकड़ें देखें जाएं तो साल 2019-20 में सभी को मिलाकर 10.78 लाख करोड़ रुपये के बराबर का उत्पादन हुआ। लेकिन ये सारी फसल बेचने के लिए नहीं होतीं, किसानों के अपने इस्तेमाल के लिए भी होती हैं। बाज़ार में बिकने के लिए इन सब फसलों का अनुपात भी अलग होता है। जैसे 50 फीसदी रागी का होगा, तो 90 फीसदी दालों का होगा। गेहूं 75 फीसदी होगा। तो अगर औसत 75 फीसदी भी मान लें तो ये आठ लाख करोड़ से कुछ ऊपर का उत्पादन होगा। अगर सरकार कुल उत्पादन का एक तिहाई या एक चौथाई भी खरीद ले तो बाज़ार में कीमत अपने आप ऊपर आ जाती है। किसानों को उनकी उपज का वाजिब दाम तब मिलेगा जब प्राइवेट कंपनियों पर इसके लिए दबाव बनाए कि गन्ने की तरह ही वो सभी फसलें सिर्फ एमएसपी पर ही खरीदें। अगर किसानों को घाटा हो तो उसकी भरवाई सरकार खुद करे।"  

"सरकार को कई कमेटियों ने सिफारिश दी है, कि गेहूं और धान की खरीद सरकार को कम करना चाहिए। सरकार इसी उद्देश्य के तहत काम भी कर रही है। यही डर किसानों को सता भी रहा है। भविष्य में सरकारें कम खरीदेंगी तो ज़ाहिर है किसान निजी कंपनियों को फसलें बेचेंगे। निजी कंपनियां चाहेंगी कि वो एमएसपी से कम पर खरीदें ताकि उनका मुनाफ़ा बढ़ सके। सरकार के पास फिलहाल कोई रास्ता नहीं है जिससे वो एमएसपी पर पूरी फसल ख़रीदने के लिए निजी कंपनियों को बाध्य कर सके।"

पूर्वांचल में 1100 में बिक रहा धान

किसानों की पंचायत में इस बात पर चिंता जताई गई कि पूर्वांचल के किसान सिर्फ 1100 रुपये क्विंटल पर धान बेचने को मजबूर हैं। किसानों को पहले अतिवृष्टि के रूप में प्रकृति ने मारा और अब उन्हें दाम की समस्या मार रही है। जबकि इस साल धान उत्पादन की लागत काफी बढ़ गई है। पूर्वाचल के कुछ जिलों में इस समय धान की कटाई जारी है। दूसरी ओर, रबी फसलों की बुवाई के लिए उन्हें पैसा चाहिए, इसलिए वो धान बेच रहे हैं। लेकिन उसका दाम नहीं मिल रहा है। चंदौली से लेकर गोरखपुर तक व्यापारी 1100-1200 रुपये प्रति क्विंटल की दर से धान खरीद रहे हैं। जबकि केंद्र सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य 1940 रुपये तय किया है। किसानों की मजबूरी का फायदा उठाकर व्यापारी और बिचौलिए जमकर लूट मचा रहे हैं और सरकार तमाशा देख रही है। 

चंदौली में खेत में पड़ी फसल

किसान मजदूर परिषद महासचिव अफलातून कहते हैं, "पूर्वांचल में अतिवृष्टि से अबकी धान का उत्पादन कम हआ। काफी फसल बेकार हो गई, लेकिन अब उन्हें दाम की समस्या मार रही है। किसी तरह जो उपज हुई है उसका सही दाम नहीं मिल रहा है, जबकि इस साल कंबाइन से धान की कटाई करवाने में पिछले साल से दोगुना पैसा देना पड़ रहा है। जो धान पानी में भीग गया है उसे सरकार नहीं खरीद रही है। इसका फायदा व्यापारी उठा रहे हैं। किसान तो इसलिए धान बेचने के लिए मजबूर हैं क्योंकि गेहूं, सरसों और सब्जियों की बुवाई के लिए उन्हें पैसे की जरूरत है।" 

किसानों को क्यों चाहिए एमएसपी? 

कृषि अर्थशास्त्रियों का कहना है कि किसान सिर्फ यह चाहता है कि उसे उसकी उपज का सही दाम मिले, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा। इसलिए वह एमएसपी की कानूनी गारंटी चाहता है, ताकि जो दाम न दे उस पर कानूनी कार्रवाई हो। अगर कुछ लोग सस्ता अनाज लेकर महंगा बेचेंगे तब ठीक है, लेकिन किसानों को उसका दाम मिलेगा तो गलत कैसे हो जाएगा?

कृषि अर्थशास्त्री देविंदर शर्मा कहते हैं, "एमएसपी की गारंटी देश को आर्थिक रूप से समृद्ध बनाएगी। जब तक किसानों को उनकी मेहनत का पूरा दाम नहीं मिलेगा तब तक उनकी समृद्धि नहीं होगी, न ही जीडीपी में बढ़ोतरी हो सकेगी। केंद्र सरकार ने पिछले दिनों दावा किया था कि सातवें वेतन आयोग के तहत खर्च होने वाली रकम इकोनॉमी के लिए बूस्टर डोज है, जबकि इससे लाभान्वित होने वाले सिर्फ चार फीसदी लोग हैं। सरकार को चाहिए की खेती में लगने वाली लागत को कम करें। अगर 14 करोड़ किसानों के घर में ज्यादा पैसा जाएगा तब देश की इकॉनमी पटरी पर आएगी।"

कब बना था एमएसपी कानून? 

1964 में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपने सचिव लक्ष्मी कांत झा (एलके झा) के नेतृत्व में खाद्य-अनाज मूल्य समिति का गठन किया था। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का कहना था कि किसानों को उनकी उपज के बदले कम से कम इतने पैसे मिलें कि नुकसान ना हो। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट 24 सितंबर को सरकार को सौंपी और अंतिम मुहर दिसंबर महीने में लगी। साल 1966 में पहली बार गेहूं और चावल के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय किए गए। एमएसपी तय करने के लिए कृषि मूल्य आयोग का गठन किया गया, जिसका नाम बदल कर कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) कर दिया गया।

साल 1966 में शुरू हुई ये परंपरा आज तक चली आ रही है। आज सीएसीपी के सुझाव पर हर साल 23 फसलों की एमएसपी तय की जाती है। किसान अपनी फसल, खेत से राज्यों की अनाज मंडियों में पहुंचाते हैं। इन फसलों में गेहूं और चावल को फूड कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया एमएसपी दर से ख़रीदती है। एफसीआई किसानों से ख़रीदे इन अनाजों को ग़रीबों के बीच सस्ती दर पर देती है। लेकिन एफसीआई के पास अनाज का स्टॉक इसके बाद भी बचा ही रहता है। ग़रीबों के बीच अनाज पीडीएस के तहत दिया जाता है।

पीडीएस, भारतीय खाद्य सुरक्षा प्रणाली है, जो दुनिया की सबसे मंहगी खाद्य सुरक्षा प्रणाली में से एक बताई जाती है। इस योजना के तहत भारत सरकार और राज्य सरकार साथ मिलकर ग़रीबों के लिए सब्सिडी वाले खाद्य और ग़ैर-खाद्य वस्तुओं को वितरित करती हैं।

(लेखक विजय विनीत बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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