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परिचर्चा: फ़िलीस्‍तीन के संदर्भ में क्‍यों बदल रही है भारत की विदेश नीति?

"हमारी विदेश नीति समाजवादी मुल्कों का साथ देती थी। बीसवीं शताब्दी के आखिरी दो दशकों तक दुनिया में तीसरी दुनिया कहे जाने वाले मुल्कों में फ़िलीस्‍तीन का समर्थन करने के प्रवृत्ति थी।''
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पटना: "फ़िलीस्‍तीन में आज हालात बेहद ख़राब हैं। भारत की विदेश नीति अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में हमारी घरेलू नीति का ही विस्तार है। पहले हम गुटनिरपेक्ष देशों के नेता हुआ करते थे लेकिन हमने वह भूमिका त्याग कर खुद को साम्रज्यावाद के खूंटे से बांध दिया है। जब संयुक्त राष्ट्र में युद्ध रोकने का प्रस्ताव लाया गया तब हम उसमें शामिल ही नहीं हुए।" यह बात अरूण मिश्र ने 'भारत की बदलती विदेश नीति: संदर्भ फ़िलीस्‍तीन और इज़रायल' विषय पर बोलते हुए कही।

बता दें कि अखिल भारतीय शांति व एकजुटता संगठन (AIPSO) की ओर से पटना पुस्तक मेला के 'मीरा कुमार मंच' पर 'भारत की बदलती विदेश नीति : संदर्भ फ़िलीस्‍तीन और इज़रायल' विषय पर परिचर्चा का आयोजन किया गया। इस मौके पर पटना के बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता, संस्कृतिकर्मी तथा विभिन्न जनसंगठनों के नेता शामिल हुए।

इस मौके पर वक्ताओं ने पश्चिम एशिया के संबंध में भारत की लगातार बदलती जा रही विदेश नीति को रेखांकित किया तथा इसे भारत के स्वाधीनता संग्राम के दौरान बनी सर्वसम्मत समझ से दूर जाता हुआ बताया।

ए.आई.पीएस.ओ(AIPSO) के राष्ट्रीय अध्यक्ष मंडल के सदस्य रामबाबू कुमार ने बताया "हमारी विदेश नीति समाजवादी मुल्कों का साथ देती थी। बीसवीं शताब्दी के आखिरी दो दशकों तक दुनिया के तीसरी दुनिया के मुल्कों में फ़िलीस्‍तीन का समर्थन करने के प्रवृत्ति थी। आठवें दशक से वाशिंगटन कांसेसेस के तहत समेकित विश्व बाजार की कल्पना की गई। पहले जो शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का दौर चल रहा था वह सोवियत संघ के पतन के साथ पूरी तरह बदल गया। दुनिया को बाजार और इंसान को बिकने वाला सामान समझकर नीतियां बदलने लगी। फैंडामेंटलिस्ट तत्वों का बोलबाला शुरू होने लगा। अभी यूक्रेन और गाजापट्टी में दो जगह युद्ध चल रहा है। यह सरकार जिस तेजी से अमेरिकापरस्ती के ओर बढ़ रही है वह खतरनाक है।"

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस (TISS) के चेयरपर्सन रहे पुष्पेंद्र ने अपने संबोधन में कहा "कोई भी विदेश नीति सत्य और न्याय के आधार पर होनी चाहिए। अभी दुनिया में दो जगहों पर जो युद्ध चल रहा है उसमें भारत कहीं भी शांति के लिए प्रयास करता नहीं दिख रहा है। जबकि अतीत में हमलोग यह काम किया करते थे। साम्रज्यावादविरोध हमारी विदेश नीति का मुख्य तत्व हुआ करता था। 1981 में भारत ने एक डाक टिकट जारी किया था जिसमें भारत और फ़िलीस्‍तीन का दोनों का झंडा लगा हुआ था। गैर-अरब देशों में भारत इकलौता मुल्क था जिसने फ़िलीस्‍तीन को खुलकर समर्थन किया था। लेकिन नरसिम्हा राव के बाद परिस्थिति बदल गई और 1992 में इज़रायल को राजनयिक मान्यता प्रदान कर दी गई। आज भारत इज़रायल से सबसे अधिक हथियार मंगाने वाला देश बन गया है।"

परिचर्चा को ISCUF के राज्य महासचिव रवींद्रनाथ राय ने आगे बढ़ते हुए कहा " विदेश नीति में बदलाव हथियारों के कारोबारियों द्वारा किया गया है। आज भारत के पूंजीपति वर्ग के हित में विदेश नीति बनाई जाती है।"

जनवादी लेखक संघ के राज्य सचिव विनिताभ, शिक्षाविद अनिल कुमार राय, पटना विश्विद्यालय में लोक प्रशासन के प्रोफेसर सुधीर कुमार, तंजीम-ए-इंसाफ के राज्य सचिव इरफान अहमद फातमी ने भी संबोधित किया।

परिचर्चा का संचालन ऐप्सो के राज्य कार्यकारिणी सदस्य कुलभूषण गोपाल ने किया।

इस परिचर्चा में शामिल प्रमुख लोगों में थे आलोकधन्वा, मुकेश प्रत्युष, रमेश सिंह, सुधीर, अनिल राय, इरफान अहमद फातमी, अनीश अंकुर, सुधाकर, गौतम गुलाल, जयप्रकाश, गजेंद्र शर्मा, जयप्रकाश, आनंद, सुबोध, मनोज, सिकंदर आजम, प्रवीण परिमल, अनिल अंशुमन, जफर इकबाल, बांके बिहारी आदि प्रमुख थे।

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