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भारत में चुनाव का प्रहरी और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष  मतदान का संघर्ष

चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की प्रक्रिया में जो बदलाव प्रस्तावित किए गए हैं वे चुनावी अखंडता को ख़तरे में डालते हैं इसलिए जनता को ही इसकी रक्षा करने के लिए आगे आना होगा।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI

"हर चुनाव महत्वपूर्ण है" का नारा समय के साथ कुंद होता जा रहा है, लेकिन लोकतंत्र के इस महत्वपूर्ण पल में, हमें इसकी धार को फिर से तेज़ करना होगा। मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्त (नियुक्ति, सेवा की शर्तें और कार्यालय की अवधि) विधेयक, 2023 पर गौर करें तो खतरे की घंटी बजती नज़र आती है। विधेयक को राज्यसभा में पेश किया गया है और उम्मीद है कि चल रहे विशेष सत्र के दौरान इसे लोकसभा के समक्ष पेश किया जाए।  

शुरुआत से ही इस विधेयक की कड़ी आलोचना हो रही है, क्योंकि इस विधेयक के माध्यम से भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ को मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) और अन्य चुनाव आयुक्तों (ईसी) की चयन समिति से बाहर कर दिया गया है।

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने अनूप बरनवाल बनाम भारत संघ मामले में अंतरिम उपाय के रूप में निर्देश दिया था कि मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष के नेता को समिति के सदस्य होंगे। इससे पहले, राष्ट्रपति को कैबिनेट की सिफारिश पर सीईसी और ईसी की नियुक्ति करने का अधिकार था।

यदि नया विधेयक कानून बन जाता है, तो प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली एक समिति होगी जिसमें प्रधानमंत्री खुद एक कैबिनेट मंत्री को मनोनीत करेंगे और लोकसभा में विपक्ष के नेता इसके सदस्य होंगे जो सीईसी और ईसी का चयन करेंगे। चयन की रूपरेखा कैबिनेट सचिव और दो सचिवों वाली एक खोज समिति द्वारा तैयार की जाएगी जो पांच सदस्यीय पैनल तक ही सीमित होगी, जो चयन प्रक्रिया की एक गंभीर तस्वीर पेश करती है।

इस किस्म का प्रावधान निर्णय लेने वालों को बिना किसी रोक-टोक के एक ऐसा परिदृश्य बनाने में मदद करता है जिसमें विपक्षी नेता को आसानी से मूक दर्शक बनाया जा सकता है यानि जिसके मत का कोई मतलब नहीं होगा। गौरतलब बात यह है कि आयोग में अगली वैकेंसी फरवरी में निकलेगी। आम चुनाव नजदीक आते ही सरकार ने कानून प्रक्रिया को टॉप गियर में डाल दिया है।

चिंताजनक बात यह है कि प्रस्तावित कानून में अनूप बरनवाल के फैसले की अनदेखी की गई है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला संसद पर बाध्यकारी नहीं है, क्योंकि न्यायिक समीक्षा के ज़रिए संसदीय संप्रभुता को हड़पा नहीं जा सकता है, बल्कि यह सुनिश्चित करने का साधन है ताकि  "नियंत्रण और संतुलन की प्रणाली" बनी रहे कि संवैधानिक कार्य उसकी सीमा से अधिक न हों, जैसा कि केशवानंद भारती में कहा गया था।

सवाल यह है कि क्या विधेयक चुनाव पैनल की चयन प्रक्रिया से संबंधित संवैधानिक प्रावधान के साथ जुड़ा है क्योंकि अनूप बरनवाल मामले में प्रावधान की जड़ की प्रभावी ढंग से व्याख्या की गई है और इसे सरकार के सामने प्रस्तुत किया, यहां तक ​​कि अनुरोध या अपील के रूप में भी कानून बनाते समय इस पर विचार किया जाना चाहिए। 

संवैधानिक लोकाचार की धज्जियां उड़ाना

संविधान के अनुच्छेद 324(2) में कहा गया है कि सीईसी और ईसी की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी, जो संसद द्वारा बनाए गए कानूनों के आधार पर होगी। हालाँकि, ऐसा कोई भी कानून न बना और न ही कभी लागू नहीं हुआ है, जिसकी कि संविधान निर्माताओं ने भविष्यवाणी की थी।

अनूप बरनवाल मामला कई रिट याचिकाओं की विस्तृत सुनवाई के जवाब में आया था, जिसमें अनुच्छेद 324(2) के उद्देश्यों की व्याख्या करके चुनाव आयोग की नियुक्ति और कामकाज में अधिक पारदर्शिता की मांग की गई थी। चयन प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और न्यायपूर्ण बनाने के लिए, याचिकाकर्ताओं ने आधिकारिक रिपोर्टों पर भरोसा करते हुए आग्रह किया कि सुप्रीम कोर्ट के समान नियम बनाने की शक्तियों के साथ एक कॉलेजियम प्रणाली/चयन समिति और एक इसका एक अलग सचिवालय होना चाहिए।

एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की याचिका में मांगी गई राहत एक घोषणा थी कि सीईसी और ईसी का चयन करने का अधिकार अकेले कार्यपालिका को दिए जाने की वर्तमान प्रक्रिया अनुच्छेद 14 और 324 का उल्लंघन करती है।

संविधान पीठ सर्वसम्मति से इस निर्णय पर पहुंची कि प्रावधान की जो अनूठी प्रकृति है वह यह है कि नियुक्तियों को केवल कार्यपालिका के हाथों में रहने देने से इसके विनाशकारी प्रभाव पद सकते हैं और जो एक चिंता का विषय है और इसलिए अदालत सामने अब मानदंड तय करने का समय आ गया है।

यह माना गया कि संविधान द्वारा अनिवार्य अन्य नियुक्तियों के विपरीत, यहां इरादा यह था कि विशेष रूप से कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति एक अस्थायी या स्टॉप-गैप व्यवस्था होगी, और इस व्यावस्था को संसद द्वारा बनाए गए कानून से बदल दिया जाएगा, जो कार्यपालिका की विशेष शक्ति की व्यवस्था को खत्म कर देगा।

अदालत ने यह स्पष्ट कर दिया कि उसका निष्कर्ष स्पष्ट और अपरिहार्य है, और सात दशकों के बाद भी कानून की अनुपस्थिति एक शून्यता की ओर इशारा करती है। संविधान पीठ ने दृढ़तापूर्वक कहा कि वे चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति को कार्यपालिका के विशेष हाथों में जाने से चिंतित हैं, जिसकी रुचि खुद को सत्ता में बनाए रखने में है।

यह भी माना गया कि जबकि अदालत को न तो आमंत्रित किया गया है और न ही यदि आमंत्रित किया जाता, तो क्या वह संसद को कानून बनाने के लिए एक परमादेश जारी करेगी, जैसा कि अनुच्छेद 324(2) में विचार किया गया है, कि विचाराधीन प्रावधान के संदर्भ में यह अदालत के कर्तव्य का अंत नहीं हो सकता है, क्योंकि बेंच ने पहले ही यह पाया है कि लोकतंत्र और कानून के शासन सहित संविधान के मूल मूल्यों को कमजोर किया जा रहा है।

शक्ति संतुलन बनाए रखने में सक्षम एक अंतरिम व्यवस्था निर्धारित करते हुए, अदालत ने सरकार ने अपील की थी कि या तो केंद्र या संसद चुनाव आयोग की पूर्ण स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए भारत की संचित निधि द्वारा वित्त पोषित आयोग के लिए एक अलग सचिवालय पर विचार कर सकती है।

यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित व्यवस्था एक अंतरिम व्यवस्था थी, यह 'नियंत्रण और संतुलन' के संवैधानिक सिद्धांत के अनुरूप थी, जो कहता है कि शक्ति को कभी भी हुकूमत की किसी भी शाखा पर में इतना केंद्रित नहीं किया जाना चाहिए और एक शाखा को दूसरे के विरुद्ध सुधारात्मक शक्ति के रूप में काम करना चाहिए।

फैसले में कहा गया है कि लगभग अनंत शक्तियों से संपन्न मुख्य चुनाव आयुक्त सहित चुनाव आयुक्तों को विशेष रूप से बिना किसी वस्तुनिष्ठ मानदंड के कार्यपालिका द्वारा नहीं चुना जाना चाहिए।

बेंच के तर्क और आशंकाएं फैसले में स्पष्ट हैं: “यह भी उतना ही स्पष्ट है कि अनुच्छेद 324 की एक अनूठी पृष्ठभूमि है। संस्थापकों ने संसद द्वारा एक कानून बनाने पर विचार किया और चुनाव आयोग में नियुक्तियों के मामले में कार्यपालिका को विशेष रूप से निर्णय लेने का इरादा नहीं था। अलग-अलग रंग की राजनीतिक व्यवस्थाओं के चलते सात दशक बीत चुके हैं, जिनका सत्ता पर कब्ज़ा था, उन्होंने अस्वाभाविक रूप से कोई कानून पेश नहीं किया है। कोई भी कानून ऐसा नहीं हो सकता जो पहले से चल रही गलत परंपराओं को कायम रखे, अर्थात् कार्यपालिका के पूर्ण और एकमात्र विवेक पर नियुक्ति की जाए। 

स्वाभाविक रूप से अदालत को उम्मीद थी कि कानून बनाते समय यह फैसला केंद्र सरकार के लिए एक मार्गदर्शन का काम करेगा, क्योंकि उसने यह स्पष्ट किया था कि: “हम यह भी संकेत दे सकते हैं कि यह फैसला एक ऐसी स्थिति बनाता है जहां इस अदालत ने संवैधानिक रूप से भी मानदंड निर्धारित किए हैं"। यदि ऐसा किया गया होता तो यह संवैधानिक लोकाचार को कायम रखने वाला कानून होता। लेकिन केंद्र ने एक ऐसा तंत्र विकसित किया जहां भारी बहुमत वाली सत्तारूढ़ सरकार ने अदालत के सिद्धांतों और अपीलों को हवा में उड़ा दिया है।

टीएन शेषन: चुनाव आयोग को मजबूत बनाना

चुनाव आयोग और लोकतंत्र के संरक्षण की आयोग की भूमिका को टीएन शेषन ने सीईसी रहते हुए अपने कार्यकाल के दौरान इस मजबूती से पेश किया था। थोड़े ही समय में, उन्होंने सौ से अधिक सामान्य चुनाव कदाचारों की पहचान की, जैसे गलत मतदाता सूची, मतदान केंद्रों की स्थापना में गलतियाँ, जबरन चुनाव प्रचार, कानूनी सीमा से अधिक खर्च करना, मतदान केंद्रों में मतों को लूटने वाले गुंडों का इस्तेमाल करना, अधिकार का सामान्य दुरुपयोग और इसके विरुद्ध निवारक उपाय की शुरुआत की थी। 

जब उन्होंने घोषणा की कि मतदाताओं को पहचान पत्र जारी किए बिना जनवरी 1995 के बाद कोई चुनाव नहीं होगा तो सरकार गंभीर दबाव में आ गई और गतिरोध को हल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा। शेषन ने चुनाव पर्यवेक्षकों को नियुक्त करने की प्रथा शुरू की।

उनके कार्यकाल के दौरान चुनाव खर्चों पर नज़र रखना सख्त बना दिया गया था, और रिपोर्टों में कहा गया है कि 1993 के आम चुनाव में अपने खाते जमा नहीं करने के कारण कई उम्मीदवारों को तीन साल के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया था। अपने कार्यकाल के बाद उन्होंने कहा था कि उन्होने कभी भी व्यवस्था में सुधार नहीं किया बल्कि सिर्फ कानूनों को लागू किया था। 

मोदी-लिंगदोह गतिरोध

जेएम लिंग्दोह ने शेषन के रास्ते पर चलते हुए चुनाव आयोग का नेतृत्व किया, लेकिन बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य में उन्हें बड़ी बाधाओं का सामना करना पड़ा। शेषन की तरह, धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की नींव को मजबूत करने में उनके योगदान के लिए उन्हें मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।

चुनाव आयोग के संवैधानिक दायित्व को स्वतंत्र रखने और उसके चुनावों को जुनूनी बनाने के लिए पुरस्कार बोर्ड ने उनकी सराहना की थी। बोर्ड ने 2002 में अशांत जम्मू, कश्मीर और गुजरात में विधानसभा चुनाव कराने में उनके योगदान की प्रशंसा की थी।

जम्मू-कश्मीर में लिंगदोह ने अपना मिशन तब शुरू किया जब पाकिस्तान के साथ संघर्ष और अलगाववादी हिंसा चरम पर थी और लगभग सभी ने एकमत फैसला दिया कि उन परिस्थितियों में चुनाव असंभव है। इससे प्रभावित हुए बिना, लिंग्दोह ने सेना को हटने के लिए कहा और कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी पुलिस और अर्धसैनिक बलों को सौंप दी थी।

लगभग सौ नए मतदान केंद्र बनाए गए और लोगों से निडर होकर मतदान करने का आग्रह किया गया। मतदाताओं ने आहवान को समझा और 47 प्रतिशत मतदान हुआ। जब लोगों ने गोलियों के बजाय मतपत्र को चुना, तो इससे बड़ी तस्वीर सामने आई कि घाटी में शांति संभव है।

गुजरात में, लिंगदोह को तब और भी कठिन हालात का सामना करना पड़ा, जब 2002 के दंगों के बाद सरकार को बर्खास्त कर दिया गया और लिंगदोह ने तत्काल चुनाव कराने के राजनीतिक दबाव के आगे झुकने से इनकार कर दिया था। उन्होंने निर्णय लिया कि जब हज़ारों लोग खौफ़ भरे माहौल में राहत शिविरों में रह रहे हों तो चुनाव कराना अनुचित है। जवाबी कार्रवाई में, भाजपा खेमे ने सार्वजनिक मंचों पर उनके खिलाफ व्यक्तिगत हमले किए।

लिंग्दोह ने हिंसा में संलिप्त पाए गए सिविल सेवकों और पुलिस अधिकारियों को स्थानांतरित करके, सांप्रदायिक प्रचार पर रोक लगाकर और राहत शिविरों में विशेष मतदान केंद्र स्थापित करके गुजरात में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की जमीन तैयार की। कड़ी पुलिस व्यवस्था वाले चुनाव में 61 प्रतिशत मतदान हुआ और यहां तक ​​कि लिंगदोह के आलोचक भी सहमत थे कि वे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव थे। मैग्सेसे पुरस्कार बोर्ड ने लिंग्दोह की "स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों कराने ठोस योजना और संघर्षग्रस्त भारत में धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की नींव की सर्वोत्तम आशा पैदा करने को मान्यता दी थी"।

जैसे-जैसे 2024 का आम चुनाव नजदीक आ रहा है, देश के कई हिस्सों में सांप्रदायिक संघर्ष के कई घाव देखने को मिल रहे हैं। सत्तारूढ़ सरकार, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों को धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की नींव को मजबूत करने का एक और लिंगदोह का जोखिम नहीं उठा सकती है। शायद यही कारण है कि इसने पोल पैनल को अपने समर्थकों/अधीनस्थों से भरकर चुनाव आयोग को एक तमाशा बनाने का प्रयास किया है।

सीईसी और ईसी की सेवा शर्तों को कैबिनेट सचिव के बराबर रखने का प्रस्ताव, न कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के बराबर, भी एक स्पष्ट संकेत है। सुप्रीम कोर्ट ने अनूप बरनवाल के मामले में भविष्यसूचक टिप्पणी की है कि मुख्य चुनाव आयुक्त को पद से हटाने के मामलों में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जैसी सुरक्षा हासिल होनी चाहिए ताकि आयोग की बाहरी खींचतान और दबाव से स्वतंत्रता सुनिश्चित की जा सके। इसने यहां तक ​​कहा कि यही सुरक्षा चुनाव आयुक्तों को भी दी जानी चाहिए।

किसान विरोधी कानून, मजदूर विरोधी श्रम संहिता

इस युद्धघोष से कि प्रत्येक चुनाव महत्वपूर्ण है, हम एक ऐसी स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं जहां हमें स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के लिए लड़ना होगा। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा कि यदि सीईसी और ईसी की नियुक्ति की ताक़त कार्यपालिका के विशेष क्षेत्र तक ही सीमित है तो यह लोकतंत्र के सर्वोत्तम हित में नहीं होगा।

अदालत, किसी विशेष पार्टी या गठबंधन का नहीं, बल्कि सत्ता में मौजूद व्यक्ति का जिक्र कर रही थी। तो, कल्पना करें कि हमारे लोकतंत्र का क्या होगा जब सत्ता की अधिकता के आरोपी मौजूदा शासन के लिए ऐसी व्यापक शक्तियां छोड़ दी जाएंगी। इससे चुनाव आयोग की स्वतंत्रता को नुकसान पहुंचने की आशंकाएं स्पष्ट होती हैं।

भारत के भव्य लोकतांत्रिक प्रयोग की सफलता स्वतंत्रता संग्राम की वेदी पर जन्मे संविधान के कारण है। आज, प्रगतिशील जनवादी ताकतों के पास इसकी रक्षा करने का ऐतिहासिक जिम्मा है। इसके लिए संसद के अंदर और बाहर लड़ाई शुरू करनी होगी। लोगों को पता होना चाहिए कि खुद के भाग्य का स्वामी बनने की उनकी शक्ति उनसे छीनी जा रही है।

लोगों की संगठित ताकत ने कई बार साबित किया है कि शासक वर्ग का क्रूर बहुमत जनविरोधी नीतियों को लागू नहीं कर सकता है। किसान विरोधी कानूनों और मजदूर विरोधी श्रम संहिताओं को हराने वाली जनता की लड़ाई की भावना को स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव और लोकतंत्र की रक्षा के लिए किया जाना चाहिए।

लेखक, केरल उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस कर रहे वकील हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।

मूल अंग्रेजी में प्रकाशित रिपोर्ट को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

India’s Election Watchdog and the Struggle for Free and Fair Polls

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