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कोरकू आदिवासी बहुल मेलघाट की पहाड़ियों पर कोरोना से ज्यादा कोरोना के टीके से दहशत!

आदिवासी लोगों में मान्यता है कि टीबी और किडनी से लेकर मलेरिया तक कई गंभीर बीमारियों का उपचार भगत ही कर सकता है। इसलिए वे इस महामारी में भी कोरोना तक के इलाज के लिए सरकार की वैक्सीन और दवाइयों को नकार कर भगत की देसी जड़ी-बूटियां खा रहे हैं। 
मेलघाट में चिखलदरा तहसील के जामली में पिछले दिनों कोरोना-रोधी टीकाकरण शिविर आयोजित किया गया। (दोनों फोटो : ज्ञानदेव येवले) 
मेलघाट में चिखलदरा तहसील के जामली में पिछले दिनों कोरोना-रोधी टीकाकरण शिविर आयोजित किया गया। (दोनों फोटो : ज्ञानदेव येवले) 

अमरावती (महाराष्ट्र): "यहां यदि आप कोरोना के बारे में बातचीत करेंगे तो पता चलेगा कि लोग सरकारी अस्पताल जाने को तैयार नहीं हैं। कारण यह है कि लोगों को लगता है कि उन्होंने कोरोना का इलाज यदि सरकारी अस्पताल में कराया तो डॉक्टर उन्हें जिला अस्पताल अमरावती भेज देंगे, जहां उनका कोई इलाज नहीं होगा और वहां उन्हें बीमार रखे-रखे मार दिया जाएगा। फिर मौत के बाद उनकी लाश तक घर वालों के हाथ नहीं लगेगी क्योंकि अफसर अपने हिसाब से उनकी लाश ठिकाने लगा देंगे और उनके परिजन उनके अंतिम संस्कार से जुड़े क्रिया-कर्म भी न कर सकेंगे।"- यह कहना है मेलघाट पहाड़ी में चिखलदरा कस्बे के नजदीक एक गांव टीटंडा के रहवासी गुलाब भिलावेकर का।

महाराष्ट्र में अमरावती जिले के अंतर्गत सतपुड़ा की पहाड़ियों पर स्थित मेलघाट बाघ संरक्षण के लिए आरक्षित क्षेत्र के रुप में पर्यटकों को आकर्षित करता रहा है। इस पर्वतमाला पर चिखलदरा और धारणी नाम की दो तहसीलों में साठ से ज्यादा गांव हैं और यहां 80% तक कोरकू जनजाति के लोग रहते हैं। यह आबादी अपनी रोजीरोटी के लिए मुख्यत: लघु वनोपज, मजदूरी और बरसात आधारित खेती पर निर्भर है।

कोरोना महामारी की दूसरी लहर में मेलघाट के 16 गांव 'कोरोना हॉटस्पॉट' के तौर पर पहचाने जाने लगे। मेलघाट की यह पहाड़ियां कोविड-19 के प्रकोप की चपेट में हैं। लेकिन, कोरोना संक्रमण के खिलाफ स्वास्थ्य व्यवस्था के प्रति लोगों का अविश्वास यहां प्रशासन के लिए चुनौती बना हुआ है। यही वजह है कि मेलघाट के कोरकू आदिवासी बहुल गांवों में कोरोना से ज्यादा अब लोगों में कोरोना-रोधी वैक्सीन की दहशत है। लिहाजा, यहां टीकाकरण का पूरा अभियान बाधित हो रहा है।

इस तरह, शहरों में जहां लोग टीकाकरण के लिए लंबी-लंबी लाइनों में लगने के लिए उमड़ रहे हैं, वहीं इससे उलट देश में मेलघाट जैसे ग्रामीण क्षेत्र हैं जहां लोग कोरोना संक्रमण से बचने के लिए ईजाद किए गए टीके से डर कर भाग रहे हैं।

उदाहरण के लिए, मई के पहले सप्ताह में चिखलदरा के नजदीक गिरगिटी गांव में जब टीकाकरण के लिए कैंप लगाया गया तो वहां मुश्किल से दो व्यक्तियों को ही टीके लगाया जा सका, जबकि इस गांव की आबादी लगभग डेढ़ हजार है। यही स्थिति इसके आसपास स्थित वरुद, अंजनगांव, परतवाडा और अचलपुर जैसे कई गांवों में बनी हुई है।

यहां टीके क्यों नहीं लगवाना चाहते लोग?

इस बारे में तहसील चिकित्सा अधिकारी सतीश प्रधान बताते हैं कि यहां लोगों की मानसिकता है कि यदि उन्हें टीका लगा दिया तो वे भयंकर रूप से बीमार होकर मर जाएंगे। इसलिए गांव-गांव में स्वास्थ्य-विभाग द्वारा लगाए जाने वाले कैंपों में टीका लगवाने से बच रहे हैं। हालांकि, वह मानते हैं, "हम धीरे-धीरे लोगों को टीकों का फायदा समझाने और उनका डर दूर करने में सफल हो रहे हैं।"

दूसरी तरफ, स्थानीय पत्रकार ज्ञानदेव येवले बताते हैं कि मेलघाट में आदिवासी लोगों की शुरू से ही यह मान्यता रही है कि टीबी और किडनी से लेकर मलेरिया तक कई गंभीर बीमारियों का उपचार भगत (आदिवासी चिकित्सक) ही कर सकता है। इसलिए वे कोरोना की इस महामारी में भी कोरोना तक के इलाज के लिए सरकार की वैक्सीन और दवाइयों को नकार रहे हैं और गंभीर बीमारी में भी भगत की देसी जड़ी-बूटियां खा रहे हैं। यही वजह है कि जब प्रशासन किसी गांव में टीकाकरण के लिए कैंप लगाता है तो उस दिन पूरा गांव काम का बहाना बनाकर सुबह से शाम तक खेतों और जंगलों में छिपा रहता है। लिहाजा, चिखलदरा तहसील के गुरगुटी के अलावा धारणी तहसील के दूरस्थ क्षेत्र चौराकुंड के छह-सात अति पिछड़े गांवों में लोगों को टीके लगवाने के लिए तैयार कराना मुश्किल हो रहा है।

ज्ञानदेव येवले बताते हैं, "कई लोगों की यह मानसिकता है कि वे मेहनती हैं और उनका खान-पान भी अच्छा है, इसलिए ताकतवर शरीर होने के कारण उन्हें कोरोना नहीं होगा।"

मर जाएंगे, पर टीका नहीं लगवाएंगे

सरकारी रिकार्ड के मुताबिक अमरावती जिले में कोरोना से अब तक 90 हजार से ज्यादा लोग संक्रमित हो चुके हैं, जिनमें करीब डेढ़ हजार मरीजों की मौत हो चुकी हैं। इस बारे में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, टेमरूसोडा में पदस्थ डॉक्टर चंदन पिंपलकर बताते हैं कि कोरोना की पहली लहर के मुकाबले दूसरी लहर में मेलघाट के गांवों में बीस से पच्चीस गुना तक संक्रमण से जुड़े प्रकरण बढ़े। कई गांवों में तो इस बार 70 प्रतिशत तक आबादी कोरोना वायरस की चपेट में आ गई। कोरोना से होने वाली मौत के आंकड़े भी इसी गति से बढ़े। इन सबके बावजूद लोग टीके लगवाने को लेकर हतोत्साहित बने हुए हैं।

स्वास्थ्य व्यवस्था के प्रति लोगों के अविश्वास की पुष्टि के लिए चिखलदरा के पास सेमाडोह गांव का मामला लिया जा सकता है, जहां अप्रैल में कोरोना से एक महिला गंभीर रुप से बीमार हो गई तो स्वास्थ्यकर्मी उसे अस्पताल में दाखिला दिलाने के लिए उसके घर पहुंचे, लेकिन उसने स्वास्थ्यकर्मियों के साथ जाने से मना कर दिया और भगत से उपचार कराते हुए दम तोड़ दिया। आखिरी में प्रशासन के कर्मचारी कोरोना प्रोटोकॉल के तहत उसका अंतिम संस्कार कराने उसके घर पहुंचे तो परिजनों ने महिला का शव कर्मचारियों को देने से मना कर दिया और पूरी रात शव को अपने घर पर रखने के बाद अगली सुबह आदिवासी रीति-रिवाज से उस महिला का अंतिम संस्कार किया।

मेलघाट क्षेत्र के सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता संजय इंग्ले मानते हैं कि स्वास्थ्य व्यवस्था के प्रति अविश्वास फैलाने में सोशल मीडिया भी बड़ी भूमिका निभा रहा है। वह कहते हैं, "संचार कंपनियों के टॉवर लगने के बाद गांव-गांव में युवा स्मार्टफोन के जरिए इंटरनेट से कनेक्ट हो गए हैं। ऐसे में यदि टीकाकरण के बाद कोरोना से होने वाली मौतें बढ़ रही हैं तो वे इसके लिए टीके को कारण बताते हुए वाट्सऐप पर सूचनाएं साझा कर रहे हैं। इसलिए टीके को लेकर गांव वालों में भय बैठ गया है और ग्रामीण कह रहे हैं कि मर जाएंगे, पर टीके न लगवाएंगे।"

जन-जागरण अभियान इतना सुस्त क्यों?

स्थानीय पत्रकार ज्ञानदेव इंग्ले के मुताबिक इस आपदा में सरकार के लिए लोगों की धारणाएं तुरंत तोड़ना मुश्किल हो रहा है। कई लोगों का यहां तक सोचना है कि सरकार आबादी कम करना चाहती है, इसलिए नसबंदी के तहत यह पूरा अभियान चलाया जा रहा है।

इसके अलावा, रोजगार की समस्या के कारण भी लोग टीके लगवाने को लेकर उत्साहित नहीं दिख रहे हैं। इस बारे में चिखलदरा के रहवासी लखी राठौर बताते हैं, "टीका लगने के बाद कई बार बुखार आता है और आदमी कुछ काम करने की हालत में नहीं होता है। मेलघाट में ज्यादातर परिवार मजदूरी करके पेट पालते हैं। इसलिए लोगों को लगता है कि टीका लगने के बाद यदि वे बीमार हो गए तो पैसा कहां से आएगा और उनके परिवार के बच्चे खाएंगे क्या!"

हालांकि, कोरोना-रोधी टीकाकरण को लेकर लोगों की इस मानसिकता को तोड़ने के लिए प्रशासनिक स्तर पर कुछ प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन कोरोना के कारण लगाई गई सख्त पाबंदियों के कारण यातायात व्यवस्था भी बाधित हुई है। इसलिए आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, आशा स्वयंसेविकाएं, स्वास्थ्यकर्मी और राजस्व कार्यकर्ता दुपहिया वाहनों से किसी तरह दूरदराज के गांवों तक पहुंचते भी हैं तो लोग खेत, जंगल और पहाड़ियों की तरफ भाग जाते हैं। फिर उनके लिए रोजीरोटी ज्यादा जरूरी है।

सरकारी चिकित्सक डॉक्टर चंदन पिंपलकर बताते हैं, "स्वास्थ्य-कर्मियों के दल रात में जाकर सभाएं लगा रहे हैं और लोगों की धारणाओं को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। इसके अलावा प्रशासनिक स्तर पर कोरकू बोली में टीके के लाभ बताने वाले वीडियो भी सोशल मीडिया के जरिए लोगों तक भेजे जा रहे हैं।"

वहीं, सामाजिक कार्यकर्ता संजय इंग्ले के मुताबिक मेलघाट के कई गांवों में मनरेगा का काम बंद हो गया है। बहुत सारे आदिवासी युवा बेरोजगार बैठे हैं। वे कहते हैं, "यदि सरकार को लोगों का विश्वास जीतना है और समुदाय की भागीदारी से कोरोना के खिलाफ लड़ाई लड़नी है तो महामारी के समय उपजी रोजगार जैसी समस्याओं के समाधान में आगे आना पड़ेगा और उनके लिए रोजगार प्रदान करने के उपाय सुझाने पड़ेंगे। स्वास्थ्य के मोर्चे पर सफलता पाने के लिए उसे रोजगार के मोर्चे पर काम करते हुए टीकाकरण के पक्ष में अभियान चलाना पड़ेगा।"

(शिरीष खरे पुणे स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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