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वित्त वर्ष 2022-23 की चौथी तिमाही के जीडीपी के अनुमान और सरकार का प्रोपगैंडा

अब सवाल यह है कि एक ऐसे दौर में बेरोज़गारी की दर और ऊपर क्यों चढ़ रही है, जीडीपी निश्चित रूप से इतनी दर से तो बढ़ ही रहा है, जो आबादी में वृद्धि की दर से ज्यादा है।
GDP
प्रतीकात्मक तस्वीर। फ़ोटो साभार : The Hindu

गुजरे वित्त वर्ष की चौथी तिमाही के लिए, भारत की जीडीपी वृद्धि दर के अनुमान के आंकड़े 31 मई को जारी किए गए। ये आंकड़े इससे पहले वाले वर्ष की चौथी तिमाही के मुकाबले 6.1 फीसद वृद्धि  को दिखाते हैं। ये आंकड़े इससे पहले की, अक्टूबर-दिसंबर की तिमाही में दर्ज हुई, उससे पिछले साल की उसी तिमाही की 4.4 फीसद वृद्धि दर के मुकाबले भी बढ़ोतरी को दिखाते हैं। 2022-23 के पूरे वित्त वर्ष को देखें तो, इससे पहले वाले वित्त वर्ष के मुकाबले वृद्धि दर 7.2 फीसद बैठती है, जो कि इससे पहले अंतर्राष्‍ट्रीय मुद्रा कोष तथा भारतीय रिजर्व बैंक, दोनों द्वारा लगाए गए 6.8 फीसद वृद्धि दर के अनुमान से ज्यादा है।

आर्थिक गतिरोध तो अपनी जगह है

बहरहाल, जीडीपी का आंकड़ा पहले जो उम्मीद की जा रही थी, उसके मुकाबले जरा सा बेहतर निकलने से, भारतीय अर्थव्यवस्था के आज के सूरते हाल के हमारे आकलन में रत्तीभर फर्क नहीं पड़ता है (देखें, लोकलहर, 23 अप्रैल, 2023)। अब भी यह तथ्य अपनी जगह है कि अगर हम 2020-21 में लॉकडाउन के चलते जीडीपी में आयी भारी गिरावट को अनदेखा ही कर दें तब भी, 2019-20 और 2022-23 के बीच जीडीपी की सालाना चक्रवृ‍द्धि दर सिर्फ 2.85 फीसद ही बैठती है। इसमें इतना ही फर्क आया है कि पहले चौथी तिमाही के लिए वृद्धि दर का जो अनुमान लगाया गया था, उसके हिसाब यही दर 2.7 फीसद बैठती थी। और लगभग सभी आर्थिक प्रेक्षकों के अनुसार, अब भी स्थिति यही है कि 2022-23 की वृद्धि दर को भी, 2023-24 में बनाए नहीं रखा जा सकेगा क्योंकि सकल मांग के विभिन्न घटकों की रफ्तार धीमी पड़ती जा रही है। इस तरह, यह पूरी तरह से संदेह से परे है कि भारतीय अर्थव्यवस्था, जड़ता या गतिरोध की जकड़ में आ रही है।

लेकिन वर्तमान सरकार ने, जैसाकि उसका स्वभाव ही है, जीडीपी के ताजातरीन आंकड़ों के आधार पर, प्रचार की बाढ़ ही ला दी है। उसका दावा है कि भारत अब, दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था है और यह वर्तमान सरकार के अर्थव्यवस्था को बड़ी कुशलता से संचालित करने का ही सबूत है। लेकिन, इस सारे प्रचार में इसका जिक्र तक नहीं किया जाता है कि दुनिया की सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में, भारत में ही 2020-21 में महामारी के चलते हुए लॉकडाउन के चलते, जीडीपी में सबसे भारी गिरावट आयी थी। भारत का ही लॉकडाउन उनमें से सबसे ज्यादा सख्त रहा था। इसलिए, जीडीपी जिस गहरे गड्ढे में खिसक गया था, उसमें से बाहर निकलकर महामारी से पहले के जीडीपी के स्तर तक पहुंचने के लिए भी, असाधारण रूप से ऊंची वृद्धि दर की जरूरत थी। लेकिन तथ्य यह है कि जैसा कि हमने पीछे जिक्र किया, अगर हम महामारी के साल तथा उसके फौरन बाद के आर्थिक बहाली के साल को अनदेखा भी कर दें और महामारी से पहले के 2019-20 के वित्त वर्ष और महामारी के बाद के 2022-23 के सामान्य वर्ष के बीच तुलना करें तब भी, हम यही देखते हैं कि सालाना वृद्धि दर सिर्फ 2.85 फीसद रही है। और यह आर्थिक वृद्धि के नहीं गतिरोध के ही दौर का सूचक है, फिर प्रभावशाली वृद्धि के दौर की तो बात ही क्या करना।

बेरोजगारी की दर कैसे बढ़ गयी?

बहरहाल, जीडीपी के ताजातरीन आंकड़े और भी प्रखरता के साथ एक चिंताजनक परिघटना को रेखांकित करते हैं, जिसे बहुत से प्रेक्षकों ने दर्ज किया है। 2022-23 में वास्तविक मूल्य के हिसाब से जीडीपी तो, 2018-19 के मुकाबले 13.37 फीसद बढ़ोतरी दिखाता है, लेकिन सेंटर फॉर मॉनीटरिंग ऑफ इंडियन इकॉनमी (सीएमआइई) के आंकड़ों के अनुसार, बेरोजगारी की दर जो 2018-19 में 6.3 फीसद थी, 2023 के मार्च तक बढक़र 7.9 फीसद पर पहुंच चुकी थी। अब सवाल यह है कि एक ऐसे दौर में बेरोजगारी की दर और ऊपर क्यों चढ़ती रही है, जब जीडीपी चाहे किसी तरह से प्रभावशाली तरीके से न सही, जो कि हम पीछे देख चुके हैं, पर निश्चित रूप से इतनी दर से तो बढ़ता ही रहा है, जो आबादी में वृद्धि की दर से ज्यादा है। आखिरकार, बेरोजगारी की दर का संबंध इन दोनों ही कारकों के रिश्ते से ही होता है। वास्तव में विचाराधीन संक्षिप्त सी अवधि में, श्रम शक्ति में साझीदारी की दर यानी काम करने लायक आबादी के हिस्से के तौर पर श्रम शक्ति के अनुपात में तो, कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। तब बेरोजगारी की दर इतनी तेजी से बढऩे की क्या वजह हो सकती है?

वाकई इस तथ्य की भी पुष्टि सीएमआइई द्वारा ही मुहैया कराए गए एक और साक्ष्य से हो जाती है कि बेरोजगारी की दर में यह बढ़ोतरी, कोई श्रम की आपूर्ति में अचानक बढ़ोतरी हो जाने से नहीं हुई है बल्कि श्रम की मांग गिरावट की वजह से ही हुई है। सीएमआइई के आंकड़े दिखाते हैं कि इस अवधि में रोजगार में लगे लोगों की कुल संख्या में शुद्ध गिरावट आयी है और यह संख्या 2019-20 में 40 करोड़ 89 लाख थी, जो 2023 के मार्च में घटकर, 40 करोड़ 76 लाख ही रह गयी। रोजगारशुदा लोगों की कुल संख्या में यह शुद्ध गिरावट, तीन सचाइयों को दिखाती है। पहली यह कि 2020-21 में जिस आर्थिक रसातल में भारत जा लगा था, उससे उबरने के क्रम में ज्यादा आर्थिक बहाली उन्हीं क्षेत्रों में आयी है, जिनकी गतिविधियां अपेक्षाकृत कम श्रम सघन हैं, जबकि यह बहाली अपेक्षाकृत ज्यादा श्रम सघन गतिविधियों कहीं कम ही आयी है। असंगठित क्षेत्र जैसे श्रम-सघन गतिविधियों के क्षेत्र अब भी लॉकडाउन से लगे धक्के से भी नहीं उभर पाए हैं, फिर इससे भी पहले नोटबंदी तथा जीएसटी से इन गतिविधियों को लगे धक्कों की तो बात ही क्या करना! दूसरे, अर्थव्यवस्था में श्रम की उत्पादकता में लगातार बढ़ोतरी हो रही है और डिजिटलीकरण बढ़ते पैमाने पर इंसानों द्वारा किए जाने वाले काम की जगह ले रहा है। चूंकि रोजगार की वृद्धि की दर, तो श्रम की उत्पादकता में बढ़ोतरी से ऊपर, उत्पाद में होने वाली वृद्धि की दर को ही दिखाती है, यह तो तथ्यत: रोजगार की वृद्धि दर के धीमी होने को ही दिखाता है। तीसरे, अनेक क्षेत्रों में कामगारों को घर बैठाए जाने के प्रकरण सामने आए हैं। यह या तो श्रम की मांग में कमी होने के चलते किया जा रहा है या फिर कटौतियां थोपने के उपाय के तौर पर किया जा रहा है। इसी से हम रोजगारशुदा लोगों की संख्या में अचानक हुई गिरावटों को समझ सकते हैं। मिसाल के तौर पर 2023 के फरवरी के महीने में यह संख्या 40 करोड़ 99 लाख थी, जो मार्च में घटकर 40 करोड़ 76 लाख ही रह गयी।

जीडीपी का आकलन अतिरंजित

बहरहाल, बेरोजगारी की दर में बढ़ोतरी के कारणों को स्पष्ट करने वाले इन्हीं कारकों में से कुछ इसका भी इशारा करते हैं कि क्यों 2022-23 की चौथी तिमाही की और इसलिए, पूरे वित्त वर्ष 2022-23 की ही जीडीपी की वृद्धि दर, खुद ही अतिरंजित है। जीडीपी की वृद्धि दर के आकलन की नयी पद्धति से, वृद्धि के प्रारंभिक अनुमान, जिस तरह का अनुमान 2022-23 की चौथी तिमाही के लिए हमारे पास है, यह मानकर चलने के आधार पर लगाए जाते हैं कि संगठित क्षेत्र की गतिविधियों में जितनी वृद्धि दर देखने में आ रही है, उतनी ही वृद्धि दर गैर-कृषि असंगठित क्षेत्र के मामले में भी हुई होगी। चूंकि असंगठित क्षेत्र में वृद्धि के आंकड़े आने में ज्यादा समय लगता है, जब प्राथमिक अनुमान लगाए जा रहे होते हैं, इस क्षेत्र के लिए बहुत ही कम वास्तविक आंकड़े उपलब्ध होते हैं। इसीलिए, यह मान लिया जाता है कि संगठित क्षेत्र के आंकड़े, इस क्षेत्र के लिए भी उतने ही सच होंगे। लेकिन, चूंकि असंगठित क्षेत्र को तगड़ा झटका लगा है और महामारी के दौरान तो खासतौर पर भारी झटका लगा है, जिस झटके से यह क्षेत्र उबर ही नहीं पाया है, उक्त पद्धति से आकलन किया जाना, जिसमें संगठित क्षेत्र के मामले में दर्ज हुई वृद्धि दर को, असंगठित क्षेत्र की भी वृद्धि दर मान लिया जाता है, अर्थव्यवस्था की समग्र वृद्धि दर को ही अतिरंजित करने का काम करता है।

इतना ही नहीं, संगठित क्षेत्र में भी, निजी कारपोरेट क्षेत्र के दायरे में, लिस्टेड कंपनियों के वित्तीय प्रदर्शन के ही आंकड़े, तिमाही आधार पर उपलब्ध होते हैं और इन आंकड़ों को ही समग्रता में इस क्षेत्र की वृद्धि दर के आकलन में प्रचंड रूप से ज्यादा वजन दिया जाता है। और यह वृद्धि दर के जीडीपी के आंकड़े को अतिरिक्त रूप से ऊपर उठा देता है। बेशक, अगर केंद्रीय सांख्यिकी संगठन की अपनी चलने दी जाती है और वह ईमानदारी बरतता है, तो वह बाद में वृद्धि दर के इन आंकड़ों को नीचे खिसकाकर वास्तविकता के स्तर पर ले भी आएगा, लेकिन फौरी तौर पर तो वृद्धि दर का यह अतिरंजित आंकड़ा, मोदी सरकार की प्रचार की जरूरतें पूरी कर ही चुका होगा।

विनिर्माण क्षेत्र में गतिरोध की स्थिति

बहरहाल, अगर इन आंकड़ों को सच ही मान लिया जाए तब भी, यह बहुत ही चोंकाने वाला है कि विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि दर (सकल मूल्य संवर्धन) समूचे वित्त वर्ष के लिए भी, इससे पहले वाले वर्ष की तुलना में सिर्फ 1.3 फीसद बैठती है। कुल मिलाकर वृद्धि दर एक तो कृषि क्षेत्र (4 फीसद) से संचालित रही है, जिसके उत्पाद में भारी चढ़ाव-उतार होते रहते हैं और कुल मिलाकर वृद्धि दर सेवाओं के क्षेत्र (14 फीसद) से संचालित रही है, जिसमें ‘व्यापार, होटल, परिवहन, संचार तथा प्रसारण से जुड़ी सेवाओं’ में ही सबसे ज्यादा बढ़ोतरी दर्ज हुई है।

यह महत्वपूर्ण है। सेवाओं का क्षेत्र आम तौर पर, भौतिक माल उत्पादक क्षेत्रों में उत्पन्न हो रहे अतिरिक्त मूल्य के आधार पर फलता-फूलता है। इसीलिए, एडम स्मिथ ने सेवाओं के क्षेत्र में लगे मजदूरों को ‘अनुत्पादक मजदूर’ की श्रेणी में रखा था। और इसीलिए तो सोवियत संघ तथा अन्य पूर्वी-योरपीय समाजवादी देशों में, सेवाओं के क्षेत्र के उत्पाद को जीडीपी की गणना में जोड़ा ही नहीं जाता था। इसके अलावा, सेवाओं के क्षेत्र की वृद्धि अक्सर ऐसी अनेक आर्थिक गतिविधियों के माल में तब्दील किए जाने भर को दिखाती है, जो पहले घरेलू दायरे में हुआ करती थीं और इसलिए, यह आर्थिक गतिविधियों के स्तर में किसी वैध बढ़ोतरी को प्रतिबिंबित नहीं करता है। इसके अलावा, सेवाओं के क्षेत्र के और उसमें भी खासतौर पर असंगठित क्षेत्र में, सेवाओं के उत्पाद के आकलन में बहुत कठिनाइयां होती हैं। इन तमाम कारणों से सेवाओं के क्षेत्र में ऊंची वृद्धि दर होना, खासतौर पर तब जबकि इसके साथ ही विनिर्माण के क्षेत्र में गतिरोध बना हुआ हो, जरूरी नहीं है कि खुश होने की बात हो।

मेहनतकशों का उपभोग दबा हुआ है

इसके अलावा हमारी यह दलील कि असंगठित क्षेत्र की वृद्धि दर, संगठित क्षेत्र की वृद्धि दर के बराबर मानकर चलना, वृद्धि को वास्तव में बढ़ाकर ही दिखाने का काम करता है, सेवाओं के क्षेत्र पर तो और भी जोरों से लागू होता है। मेहनतकश आम तौर पर अपनी आय, खाने-पीने की जरूरतों के अलावा विनिर्मित मालों पर और असंगठित सेवा क्षेत्र के उत्पादों पर खर्च करते हैं। यह तथ्य कि विनिर्माण का उत्पाद इस दौरान करीब-करीब जहां का तहां खड़ा रहा है, जबकि सेवाओं के असंगठित क्षेत्र के उत्पाद का भी प्रदर्शन इससे बेहतर रहे होने की कोई संभावना नहीं है, इसी का इशारा करता है कि मेहनतकश जनता का उपभोग बहुत ही दबा हुआ बना रहा है। इसमें इस तथ्य को और जोड़ लीजिए कि सरकार के खर्चों में बढ़ोतरी, वास्तविक मूल्य के पैमाने से शब्दश: जहां की तहां रुकी रही है। बेशक, अचल पूंजी निर्माण में इस दौरान बढ़ोतरी हुई है, लेकिन अगर देश में उपभोग तथा बाहर शुद्ध निर्यात, दोनों ही पिछड़ रहे हों तो, इस तरह के निवेश का टिके रहना शायद ही संभव होगा।

जीडीपी के आंकड़े जिस सबसे चिंताजनक लक्षण को सामने लाते हैं, वह है मेहनतकशों के उपभोग का दबा हुआ रहना। और यह ऐसी सचाई है जिसे, भारत के ‘दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था’ होने का चाहे कितना ही ढोल पीटा जाए, छुपाया नहीं जा सकता है।

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्‍त्री हैं।)

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

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