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फैंसी टैग नहीं, गिग वर्कर्स को चाहिए कानूनी अधिकार और सुरक्षा

श्रमिक को कैसे परिभाषित किया जाए, इस पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले भारत के श्रम क़ानूनों में गिग श्रमिकों के अधिकारों और हितों की रक्षा करने वाली क़ानूनी नीतियां बनाने में अग्रणी भूमिका निभा सकती हैं।
gig workers
प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI

सर्वोच्च अदालत के फैसले पहले ही कर्मचारियों या श्रमिकों को उन तरीकों से परिभाषित कर चुके हैं जो गिग या प्लेटफ़ॉर्म श्रमिकों के लिए उसी तरह की कानूनी मान्यता हासिल करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं जो मान्यता अन्य श्रमिकों के मामलों में सही है।

कानूनी परिभाषाएं कानूनी व्यक्ति या इसमें शामिल व्यक्तियों के अधिकारों और देनदारियों को तय करने में महत्वपूर्ण होती हैं। इसका मतलब यह है कि, कानूनी ढांचे के तहत, कोई व्यक्ति कुछ अधिकारों का हकदार है या कुछ कर्तव्यों का पालन करने के लिए उत्तरदायी होता है, यह इस बात से निर्धारित होगा कि वह व्यक्ति संबंधित कानूनी परिभाषा की सीमा के भीतर आता है या नहीं। उदाहरण के लिए, किसी कानून में किसी नागरिक को दिए गए अधिकार की कल्पना करें। यदि कोई व्यक्ति ऐसे अधिकार का दावा करता है तो सबसे बड़ा सवाल यह होगा कि क्या वह नागरिक की परिभाषा में आता है। यदि वह व्यक्ति नागरिक की परिभाषा में आता है तभी उससे जुड़े सवाल प्रासंगिक होंगे।

भारतीय श्रम कानूनों की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि वह हितधारकों के अधिकारों और देनदारियों की रक्षा और उन्हें लागू करने की परिभाषाओं की एक भूमिका है। अधिकांश हालातों में, कानूनी परिभाषा अधिकारों और देनदारियों के अंतिम निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

विश्व स्तर पर और भारत में, गिग या प्लेटफ़ॉर्म श्रमिकों (प्लेटफ़ॉर्म श्रमिक अपने ग्राहकों से जुड़ने के लिए किसी ऐप या वेबसाइट का उपयोग करते हैं) से संबंधित लंबे समय से चला आ रहा न्यायिक प्रश्न उनके कार्यस्थल से संबंधित स्थिति के बारे में है। सरल शब्दों में कहें तो क्या वे उस प्लेटफॉर्म के कर्मचारी या कर्मचारी कहलाने के हकदार होंगे जहां वे काम करते हैं? क्या वे श्रम कानून ढांचे में कर्मचारियों या श्रमिकों के अधिकारों और लाभों के हकदार हैं? ये दो बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल हैं।

आम तौर पर, दुनिया भर में, गिग या प्लेटफ़ॉर्म से जुड़े काम का बिजनेस मॉडल इन सवालों की उपेक्षा करता नज़र आता है। उनके बिजनेस मॉडल में, प्लेटफॉर्म पर काम करने वाले लोग, जैसे डिलीवरी एजेंट, फ्रीलांसर, कैब ड्राइवर आदि को स्वतंत्र ठेकेदार या भागीदार माना जाता है, इसलिए कानूनी अर्थ में उन्हें श्रमिक नहीं माना जाता है। प्लेटफ़ॉर्म और उन पर काम करने वाले व्यक्तियों के बीच अनुबंध में इस बात का उल्लेख किया जाता है। इसके अलावा, यह तथ्य ग्राहकों को उनके एप्लिकेशन में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा प्लेटफॉर्मों में भी स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। यह बेहद दुर्लभ है कि किसी ग्राहक को ऐप से कोई संदेश मिले जिसमें कहा जाए कि, 'हमारा कर्मचारी रास्ते में है' लेकिन ऐसा नहीं होता है बल्कि ऐसे ऐप्स हमेशा ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं: 'हमारा डिलीवरी पार्टनर या कैप्टन रास्ते में है।' ऊपर उल्लिखित अनुबंध या एप्लिकेशन में वे जिस भाषा का इस्तेमाल करते हैं वह कोई संयोग नहीं है बल्कि एक सोची-समझी साजिश है, जो उनके बिजनेस मॉडल का हिस्सा है।

सोच-समझकर श्रमिक का दर्जा न देना व्यावसायिक हितों की रक्षा करना है। आम तौर पर न्यायालयों की नज़रों में खासतौर पर भारत में, कानूनी परिभाषा की सीमा के भीतर किसी श्रमिक या कर्मचारी का होना, किसी भी व्यक्ति को विभिन्न कानूनी अधिकारों की सुरक्षा मिलती है। ये अधिकार, कई श्रम कानूनों में मिलते हैं, लेकिन वेतन, मुआवजा, सामाजिक सुरक्षा, यूनियन बनाने या उसमें शामिल होने, सामूहिक सौदेबाजी आदि जैसे कई प्रकार की सुरक्षा को कवर करते हैं। यह उन्हें किसी भी कानून के भीतर सभी प्रक्रियाओं का इस्तेमाल करने में कानूनी व्यक्ति के रूप में भी सक्षम बनाता है। यह श्रम न्यायालयों जैसे न्यायलयों में उनके अधिकारों को सुनिश्चित करना है।

प्लेटफ़ॉर्म पर काम करने वाले लोगों को श्रमिक या कर्मचारी का दर्जा न देकर, यह व्यवसाय मॉडल किसी व्यक्ति को श्रमिकों के लिए उपलब्ध विभिन्न प्रकार के अधिकारों का फायदा उठाने से रोक सकता है और उन्हें श्रम न्यायालयों जैसे मंचों का इस्तेमाल करने के लिए कानूनी प्रक्रियाओं का इस्तेमाल करने से रोक सकता है।

भारतीय श्रम कानून में श्रमिक या कर्मचारी की सबसे महत्वपूर्ण परिभाषा 1947 के औद्योगिक विवाद (आईडी) अधिनियम में है। यहां परिभाषा आईडी अधिनियम की धारा 2(एस) के तहत "कर्मचारी" की है। नए श्रम कोड सहित श्रम कानूनों में अन्य परिभाषाएं, जैसे "कर्मचारी" और "श्रमिक", इस परिभाषा के समान हैं। यह इस क्षेत्र की सबसे पुरानी परिभाषाओं में से एक है, और इसकी व्याख्या पर सुप्रीम कोर्ट के दशकों के न्यायशास्त्र मौजूद हैं। इसलिए, यह परिभाषा भारत में श्रमिक या कर्मचारी की कानूनी अवधारणा के आसपास हुई कानूनी चर्चाओं को शामिल करती है।

कर्मचारी की परिभाषा का विकास और उत्पत्ति

सुप्रीम कोर्ट ने आईडी अधिनियम के तहत परिभाषित कर्मचारी-मालिकों के बीच संबंधों को समझने के लिए कुछ क्रांतिकारी कानूनी व्याख्याएं की हैं। परंपरागत रूप से, यह रिश्ता नियंत्रण और पर्यवेक्षण नामक कानूनी जांच से निर्धारित होता था। इसका मतलब यह है कि क्या मालिक/नियोक्ता कर्मचारी को सीधे नियंत्रित और पर्यवेक्षण करता है –जो मालिक-नौकर संबंध के समान – इस किस्म के रिश्ते की पहचान करने के लिए यह परीक्षण था।

सर्वोच्च न्यायालय ने पारंपरिक दृष्टिकोण से हटकर, न्यायिक हस्तक्षेप हुसैनबाई अलथ बनाम फैक्ट्री थोझिलाली यूनियन, 1975 के मामले में किया था। इस फैसले में, न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने श्रमिक वर्ग के विभिन्न वर्गों को शामिल करने के लिए एक उदार दृष्टिकोण अपनाया था। यह मामला मध्यस्थ ठेकेदारों के तहत काम करने वाले श्रमिकों से संबंधित था कि वे कर्मचारी हैं या नहीं।

अदालत ने फैसला सुनाया कि यदि श्रमिकों का एक समूह वस्तुओं या सेवाओं का उत्पादन करने के मामले में खुद का श्रम लगाते हैं, लेकिन इन वस्तुओं या सेवाओं का एंड यूजर्स एक अलग व्यावसायिक इकाई है, तो मध्यवर्ती ठेकेदारों की उपस्थिति के बावजूद, मुख्य मुद्दा इन मजदूरों के सच्चे मालिक का निर्धारण करना है। मालिक को अलग करने वाला मुख्य कारक श्रमिकों के रोजगार पर उनके आर्थिक नियंत्रण की सीमा है। इस नियंत्रण में उनकी आजीविका, कौशल विकास और निरंतर नौकरी सुरक्षा सहित कई पहलू शामिल हैं। संक्षेप में, जो इकाई इन महत्वपूर्ण कारकों पर ऐसा अधिकार रखती है, वास्तव में वही असली मालिक है।

इसके अलावा, बीच के ठेकेदारों के साथ कर्मचारी का संबंध, हालांकि तत्काल और प्रत्यक्ष है, लेकिन सच्चे मालिक का निर्धारण करने में निर्णायक महत्व नहीं रखता है। भले ही श्रमिक ठेकेदारी व्यवस्था के कारण दैनिक आधार पर इन ठेकेदारों के साथ काम करते हैं, यह पहलू अकेले उन्हें श्रमिकों की रोजगार स्थितियों के लिए जिम्मेदार पार्टी के रूप में स्थापित करने के लिए अपर्याप्त है।

अदालत कहती है कि वास्तविक मालिक का पता लगाने के लिए, औपचारिक संविदात्मक व्यवस्था का पर्दा उठाना और रोजगार संरचना की व्यापक तस्वीर का विश्लेषण करना आवश्यक है। सतही दिखावे से परे देखना और श्रमिकों के रोजगार को नियंत्रित करने वाली वास्तविक गतिशीलता में गहराई से जाना आवश्यक है। यदि अंतिम व्यावसायिक इकाई का श्रमिकों के निर्वाह, कौशल विकास और काम के अवसरों पर महत्वपूर्ण नियंत्रण और प्रभाव है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि यह इकाई, बीच के ठेकेदार के नहीं, असली मालिक की है।

संक्षेप में, अदालत के निर्णय के अनुसार, मामले की जड़ यह है कि प्रबंधन या व्यावसायिक इकाई जो श्रमिकों पर पर्याप्त आर्थिक नियंत्रण रखती है और सीधे उनके रोजगार की स्थिति को प्रभावित करती है, उसे वास्तविक नियोक्ता के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए, भले ही उसमें ठेकेदारों की उपस्थिति हो।

राम सिंह बनाम केंद्र शासित प्रदेश, चंडीगढ़ 2004 में, अदालत ने फैसला सुनाया था कि कर्मचारी-नियोक्ता संबंध को समझने के लिए नियंत्रण और पर्यवेक्षण ही एकमात्र परीक्षण नहीं है, हालांकि यह महत्वपूर्ण है। न्यायालय ने एक एकीकृत दृष्टिकोण पर विचार किया।

यह माना गया कि नियोक्ता और कर्मचारी का सामान्य संबंध एक नियोक्ता और एक ठेकेदार, साथ ही एक स्वतंत्र ठेकेदार के नौकरों के बीच मौजूद नहीं है। हालांकि, यदि नियोक्ता उन साधनों और तरीकों पर नियंत्रण रखता है या उन्हें ग्रहण करता है जिनके द्वारा ठेकेदार का काम किया जाता है, तो यह ठेकेदार के नौकरों के साथ नियोक्ता और कर्मचारी जैसा संबंध बना सकता है। ऐसे परिदृश्य में, एक स्वतंत्र ठेकेदार के साथ औपचारिक रोजगार समझौते का अस्तित्व नियोक्ता को दायित्व से नहीं बचाएगा यदि नौकर को कर्मचारी माना जाता है।

ऐसे मामलों में, अदालत स्वतंत्र ठेकेदारी व्यवस्था को एक छल के रूप में मान सकती है, और कर्मचारी को मुख्य नियोक्ता का नौकर माना जाएगा। यह निर्धारित करना कि नियोक्ता और कर्मचारी के बीच कोई विशेष संबंध वास्तविक है या किसी ठेकेदार के माध्यम से छिपा हुआ है, तथ्य की बात है। अदालत अपने निर्णय को विभिन्न कारकों पर आधारित करेगी, जिसमें रिश्ते की विशेषताएं, रोजगार की लिखित शर्तें (यदि कोई हो), और रोजगार की वास्तविक प्रकृति शामिल है।

गिग या प्लेटफ़ॉर्म श्रमिक और कर्मचारी की स्थिति

औपचारिक अनुबंधों के बिना ऑन-डिमांड काम की विशेषता वाली गिग अर्थव्यवस्था ने उबर, स्विगी, ज़ोमैटो और कई अन्य जैसी प्लेटफ़ॉर्म-आधारित कंपनियों की सफलता के साथ गति पकड़ी है। 200 मिलियन से अधिक लोग वैश्विक गिग कार्यबल का हिस्सा हैं, जिनमें विकासशील देशों की भागीदारी अधिक है। भारत की गिग अर्थव्यवस्था संभावित रूप से 9 करोड़ या 90 मिलियन नौकरियां पैदा कर सकती है और देश की जीडीपी में लगभग 1.25 प्रतिशत का योगदान कर सकती है।

भारत में बड़े गिग कार्यबल को अपने कार्यस्थल से संबंधित बहु-आयामी मुद्दों का सामना करना पड़ता है, जिसमें कम आय, लंबे समय तक काम करने के घंटे, सामाजिक सुरक्षा की कमी आदि शामिल हैं। लेकिन कार्यबल में उनके अस्तित्व का केंद्रीय प्रश्न कर्मचारियों या श्रमिकों के रूप में उनकी स्थिति के आसपास घूमता रहता है।

इस संबंध में एक बड़ा प्रयास सामाजिक सुरक्षा 2020 पर प्रस्तावित कोड में किया गया है, जो एक 'गिग वर्कर' को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित करता है जो "काम करता है या कार्य व्यवस्था में भाग लेता है और [ए] पारंपरिक नियोक्ता-कर्मचारी संबंध” के बाहर ऐसी गतिविधियों से कमाता है।"

'प्लेटफ़ॉर्म काम' को "पारंपरिक नियोक्ता-कर्मचारी संबंध के बाहर एक कार्य व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया गया है जिसमें संगठन या व्यक्ति विशिष्ट समस्याओं को हल करने या विशिष्ट सेवाएं या ऐसी अन्य गतिविधियां प्रदान करने के लिए अन्य संगठनों या व्यक्तियों तक पहुंचने के लिए एक ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल करते हैं जिसमें भुगतान के बदले में केंद्र सरकार उसे अधिसूचित करेगी।''

जबकि यह कोड या संहिता प्लेटफ़ॉर्म श्रमिकों सहित गिग श्रमिकों के अस्तित्व को स्वीकार करती है, यह कर्मचारियों और गिग श्रमिकों के बीच एक स्पष्ट अंतर स्थापित भी करती है। कर्मचारियों के लिए, संहिता ग्रेच्युटी, मुआवजा, बीमा, भविष्य निधि और मातृत्व लाभ जैसे विभिन्न लाभों को अनिवार्य करती है। हालांकि, गिग श्रमिकों के मामले में, कोड केंद्र और राज्य सरकारों को उचित सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को डिजाइन करने की जिम्मेदारी सौंपता है। इन योजनाओं का उद्देश्य जीवन और विकलांगता कवरेज, दुर्घटना बीमा, स्वास्थ्य और मातृत्व लाभ और वृद्धावस्था सुरक्षा से संबंधित मामलों को संबोधित करना है।

कोड कर्मचारी या श्रमिक की स्थिति के मूल प्रश्न का उत्तर देने में विफल रहता है और इसके बजाय प्लेटफॉर्मों पर श्रमिकों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए एक और अलग श्रेणी बनाता है। गिग और प्लेटफ़ॉर्म श्रमिकों के बीच काम करने वाली ट्रेड यूनियनें मांग कर रही हैं कि उन्हें श्रमिक या कर्मचारी के रूप में दर्जा दिया जाए। श्रमिक/कर्मचारी श्रेणी के बाहर एक अलग कानूनी इकाई का निर्माण इस मांग के बिल्कुल विपरीत है।

एक बार जब हम साझेदारी, एजेंसी, कप्तान आदि जैसे प्लेटफॉर्मों द्वारा दिए गए फैंसी टैग का पर्दा उठाते हैं, तो जो सामने आता है वह यह कि प्लेटफॉर्मों में श्रमिकों की अपने नियोक्ता पर आर्थिक निर्भरता रहती है। ऐसी वास्तविकता में, मौजूदा न्यायशास्त्र के तहत, श्रम कानून ढांचे के तहत गिग श्रमिकों को श्रमिक का दर्जा देना गलत नहीं माना जाएगा। सरकार और अन्य विभिन्न अध्ययनों ने पहले ही गिग और प्लेटफ़ॉर्म श्रमिकों की ख़राब कामकाजी परिस्थितियों को स्थापित कर दिया है। एक श्रमिक को कैसे परिभाषित किया जाए, इस पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले भारत के श्रम कानूनों में गिग श्रमिकों के अधिकारों और हितों की रक्षा करने वाली कानूनी नीतियां बनाने में अग्रणी भूमिका निभा सकती हैं।

(सुदीप सुधाकरन सेंट जोसेफ कॉलेज ऑफ लॉ, बैंगलोर में कानून के सहायक प्रोफेसर हैं, और तन्वी मालपाणी सेंट जोसेफ कॉलेज ऑफ लॉ, बैंगलोर में अंतिम वर्ष की कानून की छात्रा हैं। विचार निजी हैं।) 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Not Fancy Tags, Gig Workers Need Legal Rights and Protections

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