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साझी संस्कृति का प्रतीक है गोरखपुर का इमामबाड़ा और मोहर्रम मेला

वास्तव में लम्बे समय से गोरखनाथपीठ और इमामबाड़ा के बीच गहरा सम्बन्ध रहा है। गोरखनाथ मंदिर में भी अखंड धूनी जलती है और इमामबाड़े में भी तथा दोनों जगह मेले भी लगते हैं।
(Alias: /Gorakhpur-Imambara-and-Moharram-fair

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले का नाम आते ही हमें गोरखनाथ मंदिर और मठ एवं वहाँ के चर्चित महंत योगी आदित्यनाथ की याद आती है, जो वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं और अपने साम्प्रदायिक तेवरों के कारण आजकल हमेशा विवादों में रहते हैं। परन्तु गोरखपुर की पहचान या अस्तित्व केवल इतना ही नहीं है, यहीं गोरखपुर के निकट ही कुशीनगर में गौतम बुद्ध का परिनिर्वाण हुआ था तथा मगहर में कबीर की निर्वाण स्थली है और इसी के पास ही नेपाल में गौतम बुद्ध का जन्मस्थान लुम्बनी है।

सांस्कृतिक और धार्मिक दृष्टि से यह इलाक़ा बहुत ही समृद्ध था, जिसके कारण यहाँ कुछ ऐसी गंगा-जमुनी तहज़ीब पैदा हुई, जो सम्पूर्ण देश में बिलकुल निराली है। चाहे वह गोरखपुर में मकर संक्रांति में लगने वाला खिचड़ी का मेला हो, जिसमें गोरखनाथपंथ के मुस्लिम अनुयायी भी लम्बे समय से भाग लेते रहे हैं या फिर यहाँ के ऐतिहासिक इमामबाड़े में मोहर्रम के महीने में लगने वाला दस दिन का मेला हो, जिसमें भारी पैमाने पर हिन्दू भी भाग लेते हैं, इस तहज़ीब को वर्तमान समय में इस इलाक़े में फैली साम्प्रदायिकता की लहर भी नहीं मिटा सकी है, हालाँकि अभी भी कोशिशें ज़ारी हैं।

मोहर्रम मोहम्मद साहब के नवासे हसन हुसैन की याद में मनाया जाता है, लेकिन यह मूलतः शिया सम्प्रदाय का माना जाता है, जिसमें शिया इमामबाड़ों में हसन हुसैन की कर्बला में हुई शहादत की याद में मातम मनाया जाता है और मर्सिया पढ़ा जाता है, मज़लिसों का आयोजन होता है।

वास्तव में मोहर्रम के अवसर पर ताज़िया निकालने की परम्परा पाकिस्तान सहित दुनिया के किसी भी इस्लामी देश में नहीं होती है, इसकी शुरुआत भारत में मुग़ल शासन के आस-पास हुई थी। मूल इस्लाम में इस तरह की परम्परा नहीं है, क्योंकि इसे बुतपरस्ती माना जाता है, किन्तु भारत में मिली-जुली संस्कृति होने के कारण एक-दूसरे की परम्पराओं का दोनों धर्मों पर गहरा असर पड़ा है, इसका नायाब उदाहरण गोरखपुर के इमामबाड़ा तथा उसमें होने वाले मोहर्रम के मेले में दिखता है।

इमामबाड़ा बनाने की प्रथा शिया सम्प्रदाय में है, परन्तु यहां दुनिया का शायद एकमात्र ऐसा इमामबाड़ा है, जो सुन्नी सम्प्रदाय का है, लेकिन यहाँ शिया परम्पराओं का भी पालन होता है। इसकी अनेक परम्परा ऐसी हैं, जो सम्भवत: एशिया में कहीं देखने को नहीं मिलती।

गोरखपुर की घनी आबादी वाले मियाँ बाज़ार (माया बाज़ार) में स्थित इस इमामबाड़े को मियाँ साहब का इमामबाड़ा कहते हैं। इमामबाड़े में सोने-चाँदी के दो आदमकद ताज़िए हैं, जो विश्व के किसी भी इमामबाड़े में नहीं हैं। इसके अलावा यहाँ पर हज़रत रोशन अली शाह द्वारा बनवाया गया एक लकड़ी का ताज़िया और उनका चिमटा-खड़ाऊँ भी रखा हुआ है।

(सोने और चांदी के ताज़िए)

इमामबाड़ा सामाजिक एकता और शिक्षा का बड़ा केंद्र है और एशिया में सुन्नी सम्प्रदाय के सबसे बड़े इमामबाड़े के रूप में विख्यात है। यहाँ पर सूफ़ी संत सैयद रोशन अली शाह का मक़बरा है,जहाँ पर इबादत के लिए हर मज़हब को मानने वाले आते हैं और मान्यता है कि मनचाही मुरादें पाते हैं।

यह इमामबाड़ा मुग़ल वास्तुकला का बेजोड़ नमूना है। गोरखपुर के इमामबाड़ा स्टेट के संस्थापक हज़रत सैयद रोशन अली शाह थे, उन्होंने वर्ष 1717 में इसे बनवाया था तथा इमामबाड़ा स्टेट की मस्ज़िद और ईदगाह का निर्माण 1780 में हुआ था, इसके बारे में यह कहा जाता है कि इस पूरे इलाक़े में पहले घने जंगल थे। रोशन अली शाह; जो एक सूफ़ी संत थे, वे बुख़ारा से आकर यहीं पर धूनी रमाकर इबादत करते थे। ऐसी किंवदंती है, कि एक बार यहाँ पर अवध के नवाब आसफ़ुद्दौला (आसफ़-उद्-दौला) शिकार करते हुए पहुँचे और इन सूफ़ी के कुछ चमत्कारों से प्रभावित हुए और उनके मुरीद बन गए। उन्होंने रोशन अली शाह को इस इमामबाड़े को बनाने के लिए यह ज़मीन दे दी और दस हज़ार अशर्फियाँ भी दीं, इसके निर्माण के बाद आसफ़ुद्दौला की बेगम ने सोने-चाँदी का ताज़िया यहाँ रखने के लिए भेजा था। करीब एक-एक कुंतल के ये ताज़िए आज भी लोगों के आकर्षण का केन्द्र हैं। ये ताज़िए हर वर्ष केवल दस दिनों के लिए मोहर्रम के समय लोगों के दर्शन के लिए खोले जाते हैं, लोग इसके सामने ज़ियारत करते हैं तथा मन्नतें पूरी करने की दुआ माँगते हैं। यहाँ पर रोशन अली शाह द्वारा जलाई गई एक अखंड धूनी भी है, जिसकी भस्म लोग मन्नत पूरी करने के लिए लगाते हैं, इसके अलावा हिन्दू अपनी मन्नतों को पूरा करने के लिए दीपक भी जलाते हैं। आज के दौर में भी सैकड़ों साल पहले शुरू हुई ये परम्पराएँ पूरी शान से कायम हैं।

आज जिन्हें मियाँ साहब कहते हैं, उनका असली नाम अदनान फ़ार्रूख़ अली शाह है, जो सैयद रोशन अली शाह के ही वंशज हैं, इन्हीं के नेतृत्व में यहाँ पर दस दिनों तक इमामबाड़े से मोहर्रम के कई बड़े जुलूस निकलते हैं, लेकिन मोहर्रम के नवीं और दसवीं तारीख़ को विशाल जुलूस निकलता है, जो करीब नौ से दस किलोमीटर तक चलता है, यह जुलूस सम्प्रदायिक सद्भाव की एक अनूठी मिसाल है, क्योंकि इसकी अगुवाई हिन्दू समाज के लोग करते हैं।

वास्तव में लम्बे समय से गोरखनाथपीठ और इमामबाड़ा के बीच गहरा सम्बन्ध रहा है। गोरखनाथ मंदिर में भी अखंड धूनी जलती है और इमामबाड़े में भी तथा दोनों जगह मेले भी लगते हैं।

गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के प्रोफेसर बी एन पाठक ने अपनी पुस्तक में लिखा था कि "इस समूचे इलाक़े में गोरखपंथ का जबरदस्त प्रभाव रहा है, यही कारण है कि इस इलाक़े में जितनी भी सूफ़ी संत परम्परा रही हो, उस पर गोरखपंथ का प्रभाव दिखलाई पड़ता है।"

आज यह इमामबाड़ा स्टेट इस पूरे क्षेत्र में सामाजिक कार्यों के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, इसके अन्तर्गत प्राइमरी से पोस्ट ग्रेजुएट तक के शिक्षण संस्थान हैं, इसके अलावा निराश्रित लोगों और विधवाओं के लिए पेंशन व्यवस्था तथा निर्धन छात्रों के लिए नि:शुल्क शिक्षा व्यवस्था जैसी अनेक कल्याणकारी योजनाएँ यहाँ पर चलाई जा रही हैं, जिसमें धर्म और जाति का कोई भेदभाव नहीं है। आज के साम्प्रदायिक माहौल में इसके जैसी संस्थाएँ, पर्व और मेले यह संदेश देते हैं,कि हमारी साझी संस्कृति अभी जीवित है और हमेशा विकसित होती रहेगी।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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