सरकार, जनविरोध और चिरपरिचित लेबलबाज़ी!
भाजपा, जनविरोध और लेबलबाज़ी का ये रिश्ता बेहद घनिष्ठ है। इस त्रिकोणमिति को समझना भी बेहद सरल है। भाजपा सरकार के विरोध की कल्पना मात्र से ही आप पर राष्ट्रविरोधी होने का ठप्पा लग जाता है। इसके अलावा भी भाजपाई पोटली में कई लेबल हैं जो विरोध में उठती हर बुलंद आवाज़ पर चिपकाया जाता है। इस नयी राजनीतिक फिज़ा में अगर आप सरकार के शब्दों का अक्षरश: पालन करते हैं तो आपको स्वतः ही एक देशभक्त नागरिक की प्रमाणिकता प्राप्त हो जाएगी परंतु मजाल है जो आपने विरोध के स्वर को प्रदर्शन का अधिकार दिया! विरोध में उठती हर आवाज़ को किसी-न-किसी लेबल से नवाज़ने वाली भाजपा और उनकी ट्रोल आर्मी किसानों पर अछूता कैसे रहती।
अपनी इमेज और ब्रैंडिंग को सर्वोच्च प्राथमिकता देने वाली भाजपा सरकार के लिए हज़ारों-लाखों किसानों का यूं मजबूती से सत्ता से सवाल करना यकीनन अहसहनीय है क्योंकि जिस तरह से हर दमन, कुचक्र और षड्यंत्र के बावजूद किसान सड़कों पर अपनी मांग के लिए संघर्षरत हैं और उनकी बुलंद आवाज़ की गूंज देश-विदेश तक सुनाई दी है उससे यकीनन भाजपा सरकार की छवि धूमिल हुई है।
आंदोलन की शुरुआत से ही इसे खत्म करने के हर हथकंडे अपनाये गये। चाहे किसान नेताओं की गिरफ्तारी हो या दमन की इंतेहा, 'आज़ाद' किसान के लिए सरहदें तैयार करना हो या आईटी सेल का प्रोपेगेंडा! इनके सबके बावजूद किसानों की आवाज़ को देशभर से चौतरफा समर्थन प्राप्त है। किसान को सड़क पर संघर्ष करते आज 19 दिनों से भी अधिक हो चुके हैं पर सरकार और सत्ता समर्थक मीडिया द्वारा 'लेबलबाज़ी' अबतक जारी है।
शुरुआत से ही किसानों के इस आंदोलन को विपक्ष की सियासी साज़िश साबित करने में सरकार और मेन स्ट्रीम मीडिया के एक सेक्शन ने कोई कसर नही छोड़ी है। सवाल ये है कि सरकार का ये प्रलाप कबतक जारी रहेगा? बजाय किसानों में व्याप्त असुरक्षा की भावना को समाप्त करने के, बजाय किसानों की वेदना, भय और आशंकाओं का समाधान करने के सरकार और मीडिया किसान-आंदोलन को देश के आम जनमानस की दृष्टि में बदनाम करने पर आमादा है।
टीवी मीडिया की भूमिका से किसानों में नाराज़गी!
टीवी मीडिया की पहुँच घर-घर तक है। आज के दौर में टीवी पर होने वाली 'चर्चाएं' और कार्यक्रम देश के आमजन के दिलो-दिमाग पर व्यापक प्रभाव छोड़ती हैं। किसान आंदोलन को जिस तरह से पेश किया गया है उससे किसान बेहद नाराज़ है। किसानों का साफतौर पर कहना है कि वे मानसिक रूप से इतने परिपक्व हैं कि कोई राजनीतिक दल उन्हें गुमराह नहीं कर सकता और वे अपना हित-अहित भली-भांति समझते हैं। आंदोलन में विपक्ष की साज़िश, खालिस्तानी एंगल या एंटी नेशनल एलिमेंट्स खोजने की बजाय इस मीडिया को सत्ता से सवाल करना चाहिए कि किस अहंकारवश सरकार इसे ईगो की लड़ाई बना चुका है? मीडिया को वाकई लोकतंत्र के चौथे स्तंभ होने का प्रमाण देना चाहिए शायद इससे उनकी खत्म होती विश्वसनीयता में आंशिक सुधार हो जाए।
किसानों के विरोध को विपक्ष की साज़िश बताना हो या किसानों को गुमराह करार देना हो, इन सबसे सरकार खुद को अक्षम सिद्ध कर रही है। वो विपक्ष जो खुद सरकार के मुताबिक खत्म हो चुका है और राजनीतिक दृष्टिकोण से सबसे बुरे दौर से गुज़र रहा है, आज वही विपक्ष इतना मजबूत और सामर्थ्यवान हो गया कि लाखों किसानों को गुमराह कर सके? और ऐसे वक्तव्यों से क्या सरकार खुद की अक्षमता साबित नही करती? क्या भाजपा सरकार खुद को विपक्ष से भी कमज़ोर स्थिति में आँकती है जो देश के अन्नदाता को भरोसे में लेने में नाकाम है?
हकीकत ये है कि ये कोई गुमराह की गयी भीड़ नहीं बल्कि जनतंत्र की वो बुलंद आवाज़ है जो सत्ता से सवाल करना जानती है, संसद में ध्वनिमत के आधार पर पारित कानूनों को सड़क पर चुनौती देना जानती है, सरकारी हथकंडो से जूझना जानती है।
विपक्ष की भूमिका तय करते-करते खुद अपनी भूमिका भूलते सरकारी नुमांइदे!
विपक्ष को विपक्ष होने का अर्थ बतलाने वाले लोग क्या सरकार होने के मायने जानते हैं? रेल मंत्री पीयूष गोयल के अनुसार किसानों को वामपंथियों ने भड़काया है। केंद्रीय मंत्री राव साहब दानवे कहते हैं कि किसान आंदोलन के पीछे चीन-पाकिस्तान का हाथ है। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर आंदोलन में मोदी-विरोधी तत्व खोजते हैं। सरकार तो पहले ही किसान को 'भोला' और 'गुमराह' बता चुकी है। क्या जनविरोध को इस प्रकार से हैंडल किया जाता है?
सरकार की नज़र में हर वो शख्स जो सरकार की नीतियों के विरोध में खड़ा होता है वो भ्रमित है, गुमराह है। ठीक इसी तर्ज पर किसान को भी मिसगाइडेड घोषित कर दिया गया। उन किसानों की समझ और विवेक पर प्रश्नचिह्न लगाना बंद कीजिए सरकार जिनकी पीढ़ियां खप गयीं इस माटी में अनाज उगाते। किसान हर लिहाज़ से परिपक्व है, विवेकशील है, जागरूक है और वो अपने हित-अहित से बिल्कुल भी अनभिज्ञ नहीं है।
लेबलबाज़ी के कार्यक्रम के क्रियान्वयन में अग्रणी भूमिका में खड़े आईटी सेल और ट्रोल आर्मी के क्या ही कहने! किसानों को पिज़्ज़ा खाते देख खुद इनका पाचन तंत्र गड़बड़ा सा गया है। किसानों का पिज़्ज़ा खाना, फुट मसाज लेना इनसे डाइजेस्ट नही हो पा रहा। ध्यान रहे ये वही लोग हैं जो किसानों को "न सर पे है पगड़ी, न तन पे है जामा" वाली छवि से आगे देख ही नही पाए या देखना ही नही चाहते। इन लोगों की नज़र किसान के तन पर फटेहाल वस्त्र, किसान की थाली में प्याज़-रोटी और आँखों में बेबसी ही देखना चाहती है। इन लोगों के मन-मस्तिष्क में अंकित किसान की इस बदहाल छवि से इतर इन्हें कुछ बर्दाश्त नही। इस छवि और दायरे को क्रॉस करते किसान को ये लोग किसान मानने से इंकार करते हैं।
खैर 'टू मच' डेमोक्रेसी वाले इस मुल्क में किसानों को राष्ट्रीय राजधानी में आने से रोकने के सरकारी प्रयास तो जगजाहिर है। दक्षिणपंथी ट्रोल आर्मी के द्वारा इस आंदोलन को बदनाम करने के हर संभव प्रयास किये गये हैं जो आज भी निरंतर जारी है। गुमराह, विपक्ष द्वारा भड़काए हुए किसान, वामपंथी साज़िश, एंटी नेशनल एलिमेंट्स, चीन, पाकिस्तान, खालिस्तान और न जाने क्या-क्या! किसान आंदोलन को इन सभी विशेषणों और लेबल से नवाज़ने वाले सभी सरकारी और गैर सरकारी ज्ञानचंदों के बीच कर्मचंद किसान बेहद मजबूती से खड़ा हैं।
(अभिषेक पाठक स्वतंत्र लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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