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ग्राउंड रिपोर्टः ''बनारस में ग़रीबों के सपनों की मौत'' कूड़े के ढेर की तरह फेंके जा रहे दलित-मुसलमान, आशियाने बन रहे श्मशान

''बनारस शहर के लोगों ने बदमिजाज़ और बेलगाम राजनीतिक ताक़तों के आगे आत्मसर्पण कर दिया है। इस वजह से समूची काशी की पुरानी पहचान तहस-नहस होती जा रही है। उद्योग-धंधे और कारोबार उजड़ते जा रहे हैं। सालों पुरानी परंपराएं टूटती जा रही हैं।''
banaras

31 मई की वह सुबह थी जब 11 वर्षीय नुरैन स्कूल के लिए निकला। उसके बैग में कुछ किताबें और चिप्स का एक छोटा पैकेट था जो उसकी मां ने पिछली शाम को खरीदा था। हमेशा की तरह उसकी मां गुड़िया, अपने बेटे को लेकर बालवाड़ी स्कूल पहुंची। किला कोहना बस्ती के समीप है बालवाड़ी, जिसे सर्व सेवा संघ संचालित करता है। दसवीं पास गुड़िया यहीं शोषित समाज के बच्चों को पढ़ाती है। जब मां और बेटा-हाथ में हाथ डाले बालवाड़ी के लिए निकले तो उन्हें उम्मीद नहीं थी कि अचानक पुलिस और अफसरों की भारी फौज बुलडोजरों का रेला लेकर पहुंचेगी और कुछ ही पल में उनके आशियाने ढेर हो जाएंगे। इसी के साथ उनकी जिंदगी हमेशा के लिए बदहाल हो जाएगी।

किला कोहना में पहरुओं की भारी भीड़ और बुलडोजरों का शोर सुनकर नुरैन अपने घर की ओर दौड़ा। पीछे-पीछे उसकी मां भी भागी। नुरैन ने सड़क के किनारे खड़े कुछ बुलडोज़रों को मुश्किल से पार किया। उसके पिता राजू मजूरी करने निकल चुके थे। जाने से पहले उन्होंने पिछली रात के खाने से बची कुछ सूखी रोटियों का नाश्ता किया था। नुरैन और गुड़िया ने सुबह के समय पारले-जी बिस्कुट के साथ सिर्फ चाय पी थी। उस दिन उनके पास केवल यही भोजन था।

गुड़िया

किला कोहना बस्ती में पहुंचने से पहले ही बुलडोज़रों ने गुड़िया का घर जमींदोज कर दिया था। ढहाए गए मकानों का मलबा देख मां-बेटे दहाड़ मारकर रोने लगे। गुड़िया ने ‘न्यूजक्लिक’ से कहा, ''हमारे पहुंचने से पहले ही घर टूट गया। कुछ भी नहीं बचा था। सारा सामान उसी में दब गया। यह सब देखकर मलबे के ढेर पर बैठकर मेरा बेटा भी रोने लगा। बेटे की तमाम किताबें, गृहस्थी का सामान सब कुछ मलबे में दब गया। बेटे के लिए दोबारा किताबें खरीदने के लिए हमारे पास फूटी कौड़ी तक नहीं है।''

बनारस जिला मुख्यालय से करीब सात-आठ किमी दूर है चर्चित नमो घाट। इसी के ठीक सामने थी किला कोहना दलित बस्ती। दरअसल, गंगा के तट पर निर्मित नमो घाट के सामने खड़ी किला कोहना बस्ती एक दाग सरीखी दिखती थी। इस घाट के निर्माण के समय ही उत्तर रेलवे ने बस्ती पर अपना दावा ठोंका था। करीब सात सौ मीटर में फैली बस्ती ढाई-तीन सौ मकानों में रहने वाले लोगों को यह पता नहीं था कि सचमुच उनके आशियाने जमींदोज कर दिए जाएंगे। ये वो लोग थे जिनके मकान यहां चालीस-पचास साल से भी ज्यादा पुराने थे। बस्ती में रहने वाले ज्यादातर लोग तीन-चार पीढ़ी पहले यहां आकर बसे थे। ढहाने के लिए प्रशासन और रेल महकमे के अफसरों ने दर्जन भर बुलडोजरों का इस्तेमाल किया और देखते-देखते समूची दलित बस्ती को मलबे के ढेर में बदल दिया।

ध्वस्तीकरण के दौरान, बाहरी लोग प्रतिरोध न कर सकें, इसके लिए मुख्य रोड़ से होकर पहुंचने वाला रास्ता बंद कर दिया गया था। अब समूची बस्ती एक श्मशान की तरह दिख रही है। बस्ती के लोग अपने घरों के मलबे पर बैठकर उसमे दबे हुए समानों की निगरानी कर रहे हैं। वहां का मंजर देखकर एहसास होता है कि वह युद्ध का मैदान रहा होगा। मकानों के मलबे पहाड़ सरीखे नजर आते हैं। औरतें और बूढ़े बच्चें जहां-तहां सड़क के किनारे पड़े हैं। ध्वस्तीकरण की कार्रवाई से वहां रहने वाले दलितों और मुसलमानों की जिंदगी पूरी तरह बदल गई है। उनके पास अब रहने के लिए कोई जगह नहीं है।

दर्द न जाने कोय

65 वर्षीया राजकुमारी और वंशराजी चौतरफा फैले मलबे के बीच कछुआ सेंच्युरी के लिए बनवाए गए एक भवन के बरामदे में दुबकी थीं। इनके परिवार के लोग झोपड़ी खड़ा करने के लिए किसी "सुरक्षित" ठौर की तलाश में निकले थे। ध्वस्तीकरण की कार्रवाई का दर्द बयां करते दोनों महिलाएं रो पड़ीं। अपने आसूं पोछते हुए राजकुमारी ने न्यूजक्लिक से कहा, ''पीएम नरेंद्र मोदी ने बनारस को गरीबों के सपनों के मौत का शहर बना दिया है। सरकार की विध्वंसक कार्रवाई से हमने अपनी आजीविका, अपना पैसा, अपना भोजन, अपना आधार कार्ड-सब कुछ खो दिया। हमारे पास आधार कार्ड थे, बिजली-पानी का पैसा देते थे, फिर भी उन्होंने हमारे घरों को तोड़ दिया। हमारा अपराध क्या था?'' पास बैठी वंशराजी ने सवाल किया, ''शहर भर में बेलगाम निर्माण हो रहा है। बड़े-बड़े भू-माफिया अवैध इमारतें तानते जा रहे हैं, उन पर कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है? उनकी इमारत को अवैध साबित करने में सरकार और प्रशासन के पसीने छूट जाते हैं और उन्हें गिराने में वर्षों लग सकते हैं। जब गरीबों की बात आती है, तो सिर्फ एक नोटिस चस्पा की जाती है और कुछ ही घंटों में विध्वंस हो जाता है। प्रशासनिक कार्रवाई से सिर्फ हमारा छत ही नहीं, बहुत कुछ ढहा है। हमारे अरमान और हमारे सपने सब कुछ इस अनैतिक कार्रवाई की भेंट चढ़ गए। अगर हम अवैध रूप से रह रहे थे तो 50-55 साल पहले ही हमें क्यों नहीं यहां से चले जाने के लिए कहा गया? इस आघात के लिए हमें क्षतिपूर्ति कौन देगा?"

55 वर्षीय पप्पू यादव का मकान भी मलबे के ढेर में बदल गया था। इनके पास खाने के लिए कुछ भी नहीं था। इनकी बछिया और कुत्ते भी उदास बैठे थे। पप्पू के चेहरे पर दर्द और उदासी की गहरी रेखाएं थीं। वो हताश बैठे थे और उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा था कि बेजुबान जानवरों को खिलाने के लिए कैसे इंतजाम करें। उनके पास शब्द आसानी से नहीं आते। फिर भी वह अपनी बस्ती को उजड़े जाने के बाद महसूस किए गए दर्द और दिल की धड़कन को व्यक्त करने की कोशिश करते हैं। वह कहते हैं, ''जब किसी का घर टूटता है, दिल पे क्या बीतता है आपको पता होगा। वे अचानक आए और हमारे घरों पर बुलडोजर चला दिया। रेलवे ने हमारे घरों पर नोटिस चस्पा तो किया, लेकिन हमें अपनी बात कहने का मौका नहीं दिया। सुबह ही हमारे घरों को तोड़ना शुरू कर दिया। घरों के मलबे में हमारे दस्तावेज़, खाद्यान्न, बर्तन, सामान, फर्नीचर और बहुत सी अन्य चीज़ें हैं। विध्वंस के बाद खड़ा होने में हमारी कई पीढ़ियां खप जाएंगी। डबल इंजन की सरकार का बर्ताव मुग़ल शासक औरंगज़ेब और ब्रितानी हुकूमत से भी ज़्यादा बदतर है।''

पप्पू यादव

मकानों के मलबे के ढेर में दबे सामनों को निकालने की जुगत में लगे दीपू कहते है, ''सरकार ने हमें कीड़े-मकोड़ों की तरह मसल दिया। आखिर हम कहां सिर छिपाएं? तपती दोपहरी और लू में हम जल रहे हैं। सिर ढंकने के लिए कोई ठांव नहीं है।'' तभी पास खड़ी रोशनी का दर्द छलक आया। उन्होंने कहा, ''मेरा घर ही नहीं, हमारे सारे अरमान टूट गए हैं। जब से ध्वंस की कार्रवाई हुई है तब से यहीं पड़े हैं। सारा सामान दब गया है। हमारे पास राशन खरीदने तक के लिए पैसे नहीं हैं। किराया देने के लिए पैसे नहीं हैं। हमारी बस्ती में दो-तीन सौ लाचार लोगों के मकान तोड़े गए हैं। हर कोई पाई-पाई के लिए मोहताज है।'' इसके आगे की बात जोड़ते हुए मुस्ताक ने कहा, ''जब से होश संभाला यहीं रह रहे हैं। जब तक आवास अथवा पैसा नहीं मिलेगा, हम कहीं नहीं जाएंगे। चाहे सरकार हमारी जान ले ले।''

मलबे के ढेर के पास उदास बैठीं पार्वती, समाजसेवा का दम भरने वाले उन लोगों को कोसती नजर आई, जिन्होंने उनकी घरों को बचाने के लिए कई मर्तबा पैसे की वसूली की थी। वह कहती हैं, ''एक बुर्कानशीं महिला और उसका एक साथी बस्ती के लोगों को तभी से बरगला रहे थे, जब हमारे घरों पर रेलवे ने नोटिसें चस्पा कराई थी। पहले हाईकोर्ट में मुकदमा और पैरवी करने के नाम पर धन वसूला और बाद में दिल्ली-लखनऊ दौड़ने के लिए। हमारे घरों पर बुलडोज़रों ने गरजना शुरू कि तो हमने उन्हें फोन किया, लेकिन वो आए ही नहीं। हमारा पैसा लूटने वालों ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। हमें उजड़ने से बचाने का ठेका लेने वालों ने हमें जीवन भर आंसू बहाने के लिए छोड़ दिया है। न वो दिख रहे हैं और न ही उनके वकील।''

बुजुर्ग महिला मुन्नी पिछले तीन दिनों से अपने मकान के मलबे में दबा वो बक्शा निकालने की कोशिश कर रही हैं जिसमें उनके कुछ जेवर, पैसे और कीमती सामान थे। वह कहती हैं, ''हमारे पास एक पैसा नहीं है। खाने-पीने का सामान ईंट-पत्थरों में दबा हुआ है। आसपास के लोग हमें रूखी-सूखी रोटियां दे जाते हैं, जिसे खाकर हम जिंदा है। आखिर इस तरह से हमारी जिंदगी कब तक चलेगी। बीजेपी सरकार ने हमें भिखारियों से भी बदतर हाल में पहुंचा दिया है। जिंदा रहने के लिए हमें लोगों के सामने हाथ फैलाने पड़ रहे है।''एक पेड़ के नीचे बैठी रेखा ने न्यूजक्लिक से कहा, ''हमारी किस्मत जहां ले जाएगी, हम चले जाएंगे। पहले रोज मेहनत करती थी, तब दो वक्त का राशन जुटा पाती थी। जब से घर ढहा है तब से चूल्हा नहीं जला है। पास में फूटी कौड़ी नहीं है।''

रसीदा का दर्द अजीब था। वह कहती हैं, ''हमने दूसरे से घर खरीदा था। रेलवे कह रहा है कि वो हमारा है। हमने सारा पैसा लगा दिया। जब मकान बना रहे थे तब किसी ने नहीं रोका। छत मयस्सर हुई तो मोदी सरकार ने छीन लिया। अब तो किस्मत जहां ले जाएगी, वहीं चले जाएंगे। चाहे नदी के किनारे या श्यमशान घाट।'' 23 सालों से किला कोहना बस्ती में रह रहे शेरू ने कहा, ''डबल इंजन की सरकार हमारी कुछ मदद कर देती तो हम जिंदा रह जाते। पता नहीं अब क्या हाल होगा हमारा। समझ में नहीं आ रहा है कि बाल-बच्चे जिंदा रह पाएंगे अथवा नहीं? हमें हटाने की अनुमति देना अन्याय है। बुलडोज़र चलाने से पहले हमें सुरक्षित और स्थायी आवास देना चाहिए।"

श्यमशान बन गई बस्ती

बनारस, उत्तर प्रदेश के प्रमुख शहरों में से एक, धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व का ऐसा स्थान है जहां सदियों से बस्तियों का विकास हुआ है। ध्वस्तीकरण की कार्रवाई ने एक गहरे समाजिक मुद्दे को उजागर किया है। समूची बस्ती श्मशान सरीखी हो गई है। लोगों के पास अब रहने के लिए कोई स्थान नहीं है और वे गरीबी छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। परचून की दुकान चलाने वाली 32 वर्षीया कोमल कहती हैं,"हमारी उम्मीद और हमारे सपने तो तभी टूटकर बिखर गए थे जब हमारी झोपड़ी को बुलडोजर रौंदता चला गया। बस्ती के दर्जनों बच्चे भूखे हैं। औरतें, बूढ़े सभी बिलबिला रहे हैं। बस्ती की औरतें अपने हाथ में ब्रश लेकर कपड़ों पर पुली (रेशा) लगाने का काम करती थीं और उनके पति मजूरी। एक बड़े से बाड़े की शक्ल में यह बस्ती नगर निगम के वार्ड नंबर-पांच में आती थी। उत्तर रेलवे ने यहां 9 अप्रैल 2023 को गुपचुप तरीके से बेदखली की नोटिस चस्पा कराई थी। सरकार ने विकास के नाम पर हमें उजाड़ दिया, जिससे हमारी जैसी तमाम औरतों और बच्चों के सपने चकनाचूर हो गए। सरकार की दबंगई के चलते जब बच्चों की पढाई छूट जाएगी तो वो कहां जाएंगे। अब हम किसके पास जाएं दुहाई देने और भला हमारी सुनेगा कौन? हमारी तीसरी पीढ़ी यहां रह रही थी। हमने अपनी दुकान बचाने के लिए हर संभव कोशिश की, लेकिन हमारी गुहार किसी ने नहीं सुनी।''

पास खड़े गोपाल गुप्ता कहते हैं, "सरकार को हम हर तरह का टैक्स दे रहे थे तो यह जोर-जुल्म हमारे ऊपर ही क्यों बरपाया गया?" अपने आंसुओं को छुपाने की कोशिश करतीं दीपिका ने कहा, "हम बीजेपी को वोट देते आ रहे थे, लेकिन इनके नेताओं ने झूठा सपना दिखाया। जब बस्ती में बुलोडजर गरजने लगे तो कोई दिखा ही नहीं। चार-पांच दशक पहले यह इलाका उजाड़खंड हुआ करता था, तब हमारे परिवार वालों ने यहां झोपड़ी डाली थी। पैसे जोड़कर किसी तरह घर बनवाया और सरकार ने एक झटके में उन पर बुलोडजर चला दिया।''बनार की सरकार ने कुसुम, राजदेई, सिमरन, पूजा समेत न जाने कितनी औरतों की जिंदगी को खुर्द-बुर्द करके रख दिया।

कैसा है ये विकास का माडल?

वरिष्ठ पत्रकार पवन मौर्य कहते हैं, '' बनारस अब गुजरात मॉडल से बहुत आगे निकल गया है। यहां गुंडों, माफियाओं और अपराधियों की भरपूर सुनवाई हो रही है, लेकिन हासिये पर रहने वाले लोगों की कोई पूछ नहीं है। पीएम नरेंद्र मोदी बनारस के सांसद हैं और उनका नौ साल का रिपोर्ट कार्ड देख लीजिए कि इनके शासन में किन लोगों ने मुनाफा कूटा है? टेंट सिटी वालों ने, स्मार्ट सिटी के ठेकेदारों ने और गंगा में क्रूज चलाने वालों ने। सरकार को जिन्हें फायदा पहुंचाना चाहिए थी, उन्हें जलालत और मुश्कलें झेलनी पड़ रही हैं। इनके निशाने पर माफिया नहीं, सिर्फ गरीब हैं। गरीब इनके आसान शिकार हैं। बनारस में सियासत करने वालों और आला अफसरों को किला कोहना बस्ती तभी से किरकिरी की तरह चुभने लगी थी जब नमो घाट बनने लगा था।''

पवन यह भी कहते हैं, ''सरकार ने जब सबका साथ-सबका विकास का नारा बुलंद किया तो बनारस के लोगों को गुजरात मॉडल का सपना दिखाया गया लोगों ने उन्हें झोली भरके वोट दिया। विकास हुआ, लेकिन पूंजीपतियों और सत्ता के नुमाइंदों का। बाकी सब हासिए पर चले गए। बनारस के सांसद इनकी खबर लेते भी नहीं। नौ साल के बड़े बजट में गरीबों को कोई रोजगार नहीं मिला। स्मार्ट सिटी में मिली तो सिर्फ बदनसीबी। गरीब कूड़े-कचरे की तरह हो गए। वंचित तबके पर एकतरफा कार्रवाई हो रही है। चाहे जी-20 के लिए सजाना हो अथवा वीवीआईपी का दौरा। ठीकरा गरीबों के सिर पर फोड़ा जाता है। जिसे फुर्सत का शहर कहा जाता था वो अब बदनसीबी के फर्राटे भर रहा है। वो खांटी बनारसी भी न जाने कहां गुम हो गए जो पहले चाय-पान की दुकानों में शहर की दुश्वारियों का इजहार किया करते थे और अपनी पीड़ा को सत्ता के गलियारों में पहुंचाया करते थे।''

गायब होते दलित-अल्पसंख्यक

पीएम बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के बनारस में विकास की ऐसी परिभाषा गढ़ी है, जिससे दलित, आदिवासी और गरीब सिरे से गायब होते जा हैं। किला कोहना बस्ती को उजाड़े जाने से पहले पास के खिड़किया घाट बस्ती को उजड़ा गया था। मोदी सरकार के एक फैसले के चलते करीब 250 लोगों को अक्टूबर से दिसंबर 2020 के बीच विस्थापित होना पड़ा था। इनमें ज्यादातर मल्लाह थे या फिर नाविक। विस्थापन का दर्द झेल रहे इन गरीबों के पास बारिश के दिनों में सिर छिपाने के लिए जगह नहीं है। कोई पुल-पुलिया के नीचे जीवन-यापन कर रहा है तो कोई खुले आसमान के नीचे। खिड़किया घाट पुनर्विकास परियोजना से जुड़े प्रचार अभियान और शोर-शराबे के बीच उन 250 से अधिक बेहद गरीब लोगों के घरों पर बुलडोज़र चलाने के बाद योगी सरकार उनकी सुधि लेना ही भूल गई। ये वो लोग थे जिनके पास जमीन के अभिलेख भले ही नहीं थे, लेकिन पिछले 60 सालों से ज्यादा समय से खिड़किया घाट के पास झोपड़पट्टी बनाकर रह रहे थे। इसी झोपड़पट्टी को उन्होंने अपना मुहल्ला और घर मान लिया था। यहां रहने वालों के राशन कार्ड भी बने थे और आधार कार्ड भी। विधवा महिलाएं और विकलांग लोग पेंशन भी पा रहे थे।

खिड़किया घाट पर रहने वाले हर बाशिंदे को बनारस की सरकार ने छत मुहैया कराने का वादा किया था, लेकिन पिछले तीन-चार सालों में नौकरशाही ने उनकी खोज-खबर नहीं ली। नतीजा, जबरिया उजाड़े जाने के बाद कुछ पास के किला कोहना बस्ती में आकर रहने लगे तो कुछ परिवार काशी रेलवे स्टेशन के नजदीक रेलवे पुल के नीचे जाकर विकास के लिए रखे गए पाइपों अथवा जहां-तहां पॉलीथीन डालकर बुरे हालात में जीने लगे। खिड़किया घाट की झोपड़पट्टी उजाड़े जाने के बाद 36 वर्षीय लल्लन चौरसिया को अब खुले आसमान के नीचे जीवन गुजारना पड़ रहा है। वह कहते हैं, "हमारे सीने में दर्द तो बहुत है, लेकिन गरीबों का दर्द सिर्फ दर्द नहीं होता। हमारी उम्मीद और सपने तो तभी टूटकर बिखर गए थे जब हमारी झोपड़ी को बुलडोज़र रौंदता चला गया था। अब हम किसके पास जाएं दुहाई देने और भला हमारी सुनेगा कौन? "

खिड़किया घाट से उजाड़े गए लोगों में 35 वर्षीय विधवा पारो भी हैं जो कोनिया इलाके में चौका-बर्तन करके अपनी दो बेटियों को पाल रही हैं। बजरडीहा के झोपड़पट्टी इलाके में एक कमरे का कच्चा मकान बारह सौ रुपये में किराये पर लेकर रह रही हैं। वह कहती हैं, "खिड़किया घाट से उजाड़े जाने के बाद हमारी विधवा पेंशन भी बंद कर दी गई। शायद सरकार ने मान लिया होगा कि कोरोना में हम भी मर-खप गए होंगे। पिछले कुछ सालों से कमाई का कोई साधन न होने या नाममात्र की कमाई होने के कारण मकान का किराया देना असंभव हो गया है।"

52 वर्षीय शारदा साहनी कहती हैं, "हम सात दशक से खिड़किया घाट पर रह रहे थे। हमारे मां-बाप भी वहीं रहते थे। गंगा में नाव चलाने से लेकर मछली पकड़ने का काम करते थे। पहले ज्यादा दिक्कत नहीं होती थी। बगैर सोचे-समझे सरकार ने हमें खिड़किया घाट से जबरन उजाड़ दिया। जब हमारी झोपड़ी पर बुलडोज़र चलाया जा रहा था, उस वक्त हम होश खो बैठे थे। हमारा सारा सामान झोपड़ी के साथ ही खत्म हो गया। हमें इतना समय भी नहीं दिया गया कि अपना जरूरी सामान निकाल सकें। बुलडोज़र चलना शुरू हुआ तो हमारे घरों को रौंदता चला गया।"

रिफ्यूजियों की दुकानें उखाड़ फेंकी

बनारस के दशाश्मेध घाट से सटे ऐतिहासिक चितरंजन पार्क के किनारे रखी उन गुमटियों को वीडीए और नगर निगम ने उखाड़ फेंका जो पाकिस्तान से आए सिंधी समुदाय के रिफ्यूजी परिवारों को आवंटित की गई थीं। पुलिसिया जुल्म-ज्यादती और अफसरों की दबंगई की कहानी सुनाते हुए रमेश बधवानी की आंखों से आंसू छलकने लगे। मैं रमेश को सुन ही रहा था तभी उनके एक परिजन अपने बैग से विधानसभा चुनाव में मिली रिटर्निंग अधिकारी की मुहर लगा अपना वोटर आईडी कार्ड ले आते हैं। वोटर आईडी दिखाते हुए वह सवाल करते हैं, ''क्या हम पाकिस्तानी हैं? क्या हम बनारस के नागरिक नहीं है? हमारे परिवार का पेट भरने वाली गुमटियों को आखिर इस तरह से क्यों रौंदा गया, जैसे हम कोई उग्रवादी हों। बनारस के मुंसिफ कोर्ट ने 24 जुलाई 1980 को हमारे पक्ष में हमारी गुमटियों को न हटाने का फैसला सुनाया था।''

रमेश कहते हैं, ''बनारस की सरकार ने कोर्ट के फैसले का सम्मान नहीं किया। नौकरशाही ने कुछ ही देर में करीब 500 लोगों की आजीविका पर बुलोडजर चला दिया। हमारा सारा सामान बर्बाद हो गया। दो वक्त की रोटी का इंतजाम करने के लिए हमें सड़क के किनारे पटरी पर एक टेबल लगाकर हमें अचार-पापड़ बेचना पड़ रहा है। प्रशासन ने जी-20 के बहाने कुछ ही घंटों में हमें बर्बाद कर दिया। हमारी गुमटियों के साथ रेडिस मार्केट में सब्जी बेचने वालों को भी उजाड़ दिया गया। करीब एक पखवारे से हम सभी का कारोबार ठप है। दशाश्वमेध टूरिस्ट प्लाजा में गुमटीनुमा दुकान आवंटित करने के लिए हमसे 17 से 20 लाख रुपये की डिमांड की जा रही है। आखिर हम इतने रुपये कहां से लाएंगे?''

आजादी के बाद पाकिस्तान के सिंध और सियालकोट इलाके से करीब चार-पांच सौ रिफ्यूजी परिवार बनारस आए थे। आजीविका चलाने के लिए इन्हें चितरंजन पार्क के अलावा बेनियाबाग, कंपनी बाग (मैदागिन), गोलघर, संजय मार्केट-गोदौलिया, पांडेयपुर आदि स्थानों पर गुमटियां आवंटित की गईं थीं। चितरंजन पार्क से उजाड़े गए दुकानदार दिलीप तुलस्यानी की आखों के कोर गीले हो जाते हैं। आंसू भरी आंखों से अपनी-अपनी व्यथा सुनाते हुए वह कहते हैं, ''हमारे पूर्वजों ने पाक से विस्थापित होते हुए बहुत दर्दनाक मंजर देखे हैं। बंटवारे के वक्त वो मंजर भी देखा है, जब हिंदुस्तान के एक हिस्से से हमें निकालकर यहां भेजा गया, जिसे याद कर हमारे बुजुर्गवार आज भी सिहर जाते हैं। वो हमें बताते हैं कि पाकिस्तान से आने वाली रेलगाड़ियां खून से लथपथ होकर हिंदुस्तान के इस हिस्से में पहुंचती थी तो उसमें 70 से 80 फीसदी लोग विभाजन के इस दंश की मार झेल चुके होते थे। जो बचे हुए यहां पहुंचे, वह अपना बसा-बसाया घर और परिवार छोड़कर बनारस पहुंचे। हमने यहां खूब मेहनत की। अपने स्वाभिमान को बचाए रखने के लिए किसी के आगे हाथ तक नहीं फैलाया। हम रिफ्यूजी बनकर आए थे और मोदी सरकार ने हमें दोबारा रिफ्यूजी बना दिया। आखिर गरीबों को बेहतर और स्वस्थ रहन-सहन का वातावरण देने की जिम्मेदारी किसकी है? ''

कारिडोर के लिए दलित बस्ती उजाड़ी

डबल इंजन सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना विश्वनाथ कॉरिडोर के लिए सिर्फ मणिकर्णिका घाट के पास दलितों की बस्ती ही नहीं उजाड़ी गई, बल्कि करीब तीन सौ मकानों को भी नेस्तनाबूत कर दिया, जिसमें सैकड़ों परिवार रहा करते थे। सरकार ने कॉरिडोर की सीमा में आने वाले उन भवनों को ढहवा दिया, जो सौ साल से भी ज्यादा पुराने थे। इन भवनों में रह-रहे लोग पांच अथवा छह पीढ़ी पहले यहां आकर बसे थे। विश्वनाथ कॉरिडोर योजना की नींव साल 2009 में रखी गई थी। इलाकाई लोगों के कड़े विरोध के चलते इस परियोजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था, लेकिन साल 2018 के शुरू होते-होते मौजूदा प्रदेश सरकार ने इस परियोजना को फिर से ज़िंदा कर दिया। पहले 166 भवनों का अधिग्रहण होना था, लेकिन बाद में यह संख्या 300 के आसपास पहुंच गई। विश्वनाथ कॉरिडोर के चलते दलितों की एक बस्ती भी उजाड़ दी गई जो मणिकर्णिका घाट के पास बसी थी।

उधर, बनारस के वरुणापार इलाके में भी दलित बस्तियों पर बुलडोज़र चलाए गए हैं। सारनाथ के सुहेलदेव तिराहे के पास सफाई कर्मियों की एक बस्ती थी, जिसका अब नामो-निशान नहीं है। यहां से उजाड़े गए विक्की, राजकुमार, गौरव शर्मा, रवि, पूनम, ऊषा, किरण देवी, मुन्ना, रीमा, राकेश, विक्की, महेंद्र, ऊषा समेत तमाम लोगों के पास कोई ठौर-ठिकाना नहीं है। चौकाघाट पुल से लेकर कोनिया तक सड़क के किनारे रहने वाले तमाम दलितों के अस्थायी आवास गायब हैं। बनारस की सरकार ने कुछ महीने पहले सूजाबाद इलाके में भी ध्वस्तीकरण अभियान चलाया था। प्रशासन का बुलडोज़र बजरडीहा और छित्तूपुर में भी चलाए गए थे। गरीबों के आशियानों पर बुलडोज़र चलाने का सिलसिला जारी है।

मोदी के विकास में गरीब नहीं

बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक प्रदीप कुमार कहते हैं, ''बनारस शहर के लोगों ने बदमिजाज और बेलगाम राजनीतिक ताकतों के आगे आत्मसर्पण कर दिया है। इस वजह से समूची काशी की पुरानी पहचान तहस-नहस होती जा रही है। उद्योग-धंधे और कारोबार उजड़ते जा रहे हैं। सालों पुरानी परंपराएं टूटती जा रही हैं। कला, साहित्य और धर्म की नगरी का वजूद तुगलकी मिजाज का शिकार होता जा रहा है। यही हाल रहा तो शहर बनारस विकास के अजायबघर में तब्दील होकर रह जाएगा। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में अब लोक की कोई हैसियत नहीं रह गई है और तंत्र की मनमानी जारी है। दलित बस्तियों का इतिहास खंगाला जाए तो ज्यादातर ब्रिटिश काल की रही हैं। उस समय भी उन्हें नहीं उजाड़ा गया। आज कहने को अपनी सरकार है, तो सबसे ज्यादा जुल्म और नाइंसाफी दबे कुचले वंचित तबकों पर ही हो रही हैं। कोरा सच यह है कि शासन व्यवस्था सामंती सोच से बाहर नहीं निकल पाया है। यह समझ से परे गरीबों को उजाड़ कर विकास की कौन सी इबादत लिखी जा रही है? अगर विकास की योजनाएं बनानी है तो नई काशी का विकास करना चाहिए, जिसपर कोई काम नहीं हो रहा है। बनारस हजारों साल पुराना शहर है। इसके इको सिस्टम को क्यों डिस्टर्ब किया जा रहा है। विकास वहां होना चाहिए, जहां उसे कोई चीज तोड़नी न पड़े, सिर्फ बनानी पड़े। ये हर पुरानी बस्ती को उजाड़ने और बनारस जैसे पुरातन शहर को तहस-नहस करने पर उतारू है।''

''मोदी के विकास में गरीब शामिल नहीं है। यहां एक बड़े तबके को ध्यान में रखकर विकास का ताना-बाना बुना जाता है और शिकार होते हैं गरीब तबके के लोग। शुरू से देखिए। इनके एजेंडे में पूंजीपति और साधन संपन्न लोग रहे हैं। सरकार मान कर चल रही है कि गरीबों की हैसियत पांच किलो राशन से ज्यादा की नहीं है। विकास का हकदार सिर्फ साधन-संपन्न तबका है। इनके लिए ऐशो-आराम का साधन विकसित करना सरकार का बड़ा एजेंडा है। डबल इंजन की सरकार जनकल्याणकारी होती तो वह उनकी बस्तियों पर बुलडोज़र नहीं चलवा रही होती। उनसे छत और जीने के बुनियादी आयाम नहीं छीनती। स्वास्थ्य और शिक्षा से वंचित नहीं करती। सम्मानजनक जीवन जीने का अवसर पैदा करती। पहले गरीबों को आवास देती, उनके बच्चों के लिए शिक्षा का इंतजाम करती और बाद में बुलडोज़र चलाती। प्राकृतिक न्याय की बात यह है कि किसी को आप उजाड़ेंगे तो उसे बसाने का उपाय पहले सोचेंगे।''

पत्रकार प्रदीप यह भी कहते हैं, ''बनारस का इतिहास यह रहा है कि उसने अपनी संस्कृति और परंपराओं पर किसी को हाथ रखने नहीं दिया है। वो चाहे मुगलिया शासन रहा हो अथवा अंग्रेजी हुकूमत। उन शासकों ने हमेशा यह ध्यान रखा कि बनारस की रवायतों पर कोई असर न पड़े। डबल इंजन की सरकार तो हद पार करते हुए उनसे बहुत आगे निकल गई। बनारस और इस शहर की तमाम परंपराएं खोखली होती जा रही हैं। किसी गैर-भाजपाई शासन में अगर विश्नाथ मंदिर के आसपास मंदिरों पर बुलडोज़र चले होते तो न जाने कितना खून-खराबा हुआ होता। इनकी मनमानी पर यहां किसी ने न एक शब्द बोला, न इनके मनमानेपन का कोई विरोध किया। लगता है कि काशी ने मोदी को अपना शंकराचार्य बना दिया है। वह जो कह रहे हैं, यह शहर उसे ब्रह्म वाक्य मान ले रहा है। मोदी की छवि जितनी बड़ी होती जा रही है, बनारस ही नहीं, समूचा भारत उतना ही छोटा दिखने लगा है।''

सरकार को सिर्फ अमीरों की चिंता

विश्वनाथ मंदिर के पूर्व महंत पंडित राजेंद्र तिवारी कहते हैं, ''सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड के हल्द्वानी में हजारों परिवारों को उजड़ने से रोक दिया है, जिनमें ज्यादातर मुस्लिम हैं। वहां भी रेलवे की जमीनों पर लोग रह रहे थे और वह उन्हें हटाने पर अड़ी थी। मौजूदा समय में जिन्हें 'अतिक्रमण' कहा जाता है, वे अक्सर अपने नागरिकों को आश्रय और आजीविका के बुनियादी अधिकार प्रदान करने में राज्य की विफलता से उत्पन्न होते हैं। भोजन के अधिकार और शिक्षा के अधिकार की तरह, हमारे पास आवास का अधिकार भी होना चाहिए। एचएलआरएन की एक सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2022 के पहले छह महीनों में, केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर सरकारी अधिकारियों ने 25,800 से अधिक घरों को ध्वस्त कर दिया, जिससे 1.24 लाख से अधिक लोग प्रभावित हुए। 2021 में, अधिकारियों ने शहरी और ग्रामीण भारत में 2.07 लाख से अधिक लोगों को उनके घरों से बेदखल करते हुए 36,480 घरों को ध्वस्त कर दिया। 2021 में जबरन बेदखली की कम से कम 158 घटनाएं दर्ज की गईं। 15 मिलियन लोग अभी भी अपने निवास स्थान से बेदखली के खतरे में रह रहे हैं, यह एक सपने की तरह लगता है।''

तिवारी कहते हैं, ''अमीरों और अभिजात्य वर्ग के कब्जे वाली अनधिकृत कॉलोनियों के खिलाफ विध्वंस अभियान के बारे में शायद ही कोई सुनता है। लंबे समय से चले आ रहे वर्ग पूर्वाग्रह के अलावा, हाल के वर्षों में उल्लेखनीय रूप से अलग बात यह है कि विध्वंस का उपयोग अब एक समुदाय को सबक सिखाने के लिए भी किया जा रहा है। बनारस के पक्का महाल की संरचना कई सौ सालों से नहीं बदली, लेकिन मौजूदा सरकार ने कॉरिडोर परियोजना के लिए उसकी ‘गलियों और मंदिरों का शहर’ वाली पहचान छीनती जा रही है। गरीबी एक न्याय की मांग है, एक विश्वास है, और एक समाज की पुनर्निर्माण की आवाज है। हमें एक ऐसे समाज की स्थापना करनी चाहिए जहां गरीबी का अस्तित्व न हो, और हर व्यक्ति को अपने जीवन की गरिमा और सम्मान मिले। यह मात्र एक सपना नहीं होना चाहिए, बल्कि हमारी संघर्ष और समर्पण की निशानी होनी चाहिए।''

एक्टिविस्ट सौरभ सिंह अब खुलेआम सवाल उठा रहे हैं कि आखिर गरीबों की बस्तियों पर ही बुलडोजर क्यों चलाया जा रहा है? सरकारी फरमान आता है तो गरीबों का उत्पीड़न करने में सरकारी एजेंसियां सबसे आगे रहती हैं, जबकि उनका संवैधानिक दायित्व उसे संरक्षण देने का है। वह कहते हैं, ''यह केवल संयोग नहीं हो सकता कि जब भी बनारस में अतिक्रमण हटाने के नाम पर गरीबों की झुग्गी-झोंपड़ियों को हटाया जाता है, जिस समय कड़ाके की ठंड पड़ रही होती है या फिर भीषण गर्मी। सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट निर्देश हैं कि ऐसी कोई भी कार्रवाई करने से पहले झुग्गी-झोंपड़ी में रहने वालों के लिए रहने की वैकल्पिक व्यवस्था की जाए और उनके पुनर्वास की पक्की योजना बनाने के बाद ही उन्हें हटाया जाए। झुग्गी-झोंपड़ियों को गिराने वाली एजेंसी चाहे वीडीए, रेलवे हो अथवा नगर निगम, सभी ऐसी निर्ममता और संवेदनहीनता के साथ काम करते हैं कि देखने वालों के दिल दहल उठते हैं।''

''बुनियादी सवाल यह है कि क्या जमीन का स्वामित्व किसी भी व्यक्ति, संस्था अथवा संगठन को यह अधिकार देता है कि वह जब चाहे उस पर रहने वाले को बेदखल कर दे? क्या संपत्ति का अधिकार जीवन के अधिकार से बड़ा है? क्या खाली कराई गई जमीन के विकास के नाम पर लोगों से उनके जीवनयापन का अधिकार छीना जा सकता है? क्या सरकार का काम गरीबों को रिहाइशी सुविधाएं मुहैया कराना है या जो थोड़ी-बहुत उन्हें उपलब्ध हैं, उन्हें भी छीन लेना है? औद्योगिक विकास के नाम पर गरीब-गांव वालों से उनकी जमीन छीनकर उन्हें सड़क पर लाकर फेंक देना आम बात हो गई है। अगर गरीबों का भरोसा इस व्यवस्था से उठ गया, तो इसका चलना बहुत कठिन हो जाएगा।''

सभी फोटोग्राफः विजय विनीत

(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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