ग्राउंड रिपोर्टः गुलाबी मीनाकारी से जी-20 में सरकार ने खूब बटोरी सुर्ख़ियां, लेकिन फ़नकार बदहाल
उत्तर प्रदेश के बनारस में जी-20 की बैठकों में शिरकत करने आए मेहमानों को गुलाबी मीनाकारी से बनी कलाकृतियां भेंट कर सरकार ने खूब वाहवाही बटोरी, लेकिन उन फनकारों के हाथ कुछ भी नहीं आया जिनके हुनर के दम पर यह कला जिंदा है। गुलाबी मीनाकारी, बनारस की अनूठी कला है, जिसकी विशिष्टता और सुंदरता के लिए इसे भौगोलिक संकेत (जीआई टैग) दिया गया है। सोने और चांदी की आकृतियों में जान फूंकने वाली कला को बनारस में ‘गुलाबी मीनाकारी’ के नाम से जाना जाता है। बनारस में सैकड़ों साल पुरानी गुलाबी मीनाकारी भले ही बनारस की शान रही हैं, लेकिन अब नई पीढ़ी इस काम से दूर भाग रही है। गुलाबी मीनाकारी के धंधे से मुनाफा वही लोग कूट रहे हैं जिनकी सत्ता के गलियारों में तगड़ी पैठ है।
बनारस सिर्फ़ अक्खड़पन और फक्कड़पन के लिए ही मशहूर नहीं, यह ऐतिहासिक शहर सोने-चांदी की बेजान आकृतियों में जान फूंकने का महारथी भी रहा है। बनारस में गुलाबी मीनाकारी के कलाकार सदियों से सोने-चांदी पर ख़ूबसूरत डिज़ाइन उकेरते आ रहे हैं। बनारस की गुलाबी मीनाकारी शुरू से ही दिलकश रही है। सफेद इनेमल पर गुलाबी स्ट्रोक से अद्भुत डिजाइन और रंगों के संयोजन की इसकी विशेषता है। बनारस के कारीगर सफेद इनेमल में नाजुक ढंग से गुलाबी रंग मिलाते हैं और सजावट के लिए प्राकृतिक और सीसे रहित रंगों का उपयोग करते हैं, जबकि दिल्ली और जयपुर में लाल, हरा और नीला जोड़ा जाता है। अंबर के राजा मान सिंह लाहौर के मुगल महल से कुशल कारीगरों को जयपुर आमंत्रित करके इस कला को राजस्थान में लाए थे। उस समय राजाओं के मुकुटों और उनके सिंहासन भी गुलाबी मीनाकारी से अलंकृत किए जाते थे।
राजस्थान के कुछ व्यापारियों ने जब से एल्युमीनियम पर नकली मीनाकारी वाली सस्ती कलाकृतियां फुटपाथों पर बेचनी शुरू की हैं, तब से बनारस के फनकारों की कला दम तोड़ने लगी। मौजूदा समय में यहां गुलाबी मीनाकारी के कुछ ही फनकार बचे हैं, जो अपने अद्भुत कौशल से सोने-चांदी की आकृतियों पर कलाकृतियां उकेर रहे हैं।
न्यूज़क्लिक की पड़ताल से यह बात सामने आई कि बनारस में गुलाबी मीनाकारी करने वाले फनकारों के दुखों का कोई अंत नहीं है। बुनकरों की तरह इन्हें न तो सस्ती बिजली मिलती है, न ही आयुष्मान कार्ड और न ही दूसरी सुविधाएं। इसके बावजूद वो बनारस के गायघाट, लाल घाट और भैरोनाथ की तंग गलियों और दमघोंटू कमरों में बैठकर इस गुलाबी मीनाकारी की कला को जिंदा रखे हुए हैं और उम्मीद की आस बांधे हुए हैं। जिस कला को बनारस ने सैकड़ों साल से आगे बढ़ाया, उस काम को अब नई पीढ़ी नहीं करना चाहती है।
दफ़न हो रहा हुनर
बनारस के हस्तशिल्पियों का हुनर इतना निराला है कि दूर दराज़ के कद्रदानों ने इसे सराहा और इसकी बदौलत तमाम लोगों को रोज़गार मिला, लेकिन गुजरते समय के साथ स्थितियां बिगड़ती चली गईँ। इसका इतिहास देखें तो बनारस में यह हुनर क़रीब तीन-साढ़े तीन सौ साल से भी ज़्यादा पुराना है। शुरू से ही यह असंगठित क्षेत्र तक सीमित रहा और हमेशा शोषण की गुंजाइश बनी रही। फिर भी यह कला ख़त्म नहीं हुई। बनारस शहर की आबादी 38 लाख से ऊपर पहुंच गई है, लेकिन सोने-चांदी पर ख़ूबसूरत नक्काशी उकेरने का हुनर दफ़न होता जा रहा है। तमाम मुश्किलों के बावजूद बलराम दास, रमेश कुमार विश्वकर्मा, तरुण कुमार, रोहन विश्वकर्मा, वैभव विश्वकर्मा, श्रीनाथ, अमित सिंह, राजेंद्र सिंह, राजेश कुमार सरीखे फनकार गुलाबी मीनाकारी कर रहे हैं। इनकी ख्वाहिश है कि सरकार इस ऐतिहासिक धरोहर को बचाने के लिए आगे आए और इस शिल्प कला को फिर से खड़ा करने में मदद करे।
इन शिल्पकारों को 'मीनाकार' कहा जाता है और वे आम तौर पर चांदी और सोने की चादरों, पारंपरिक गहनों और सजावटी वस्तुओं, डाइनिंग सेट, फूलों, पक्षियों और जानवरों के रूपाकारों पर देवी-देवताओं की धार्मिक आकृतियों को उकेरते हैं।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के भारत कला भवन के संस्थापक-निदेशक राय कृष्णदास कहते हैं, "गुलाबी मीनाकारी की शुरुआत इस्लामी कला के दौरान हुई, जब मुग़ल सम्राट अकबर (1556-1605) के शासनकाल में बनारस के कलाकारों को अपनी विशेष कला का प्रदर्शन करने का अवसर मिला। इसके बाद से, गुलाबी मीनाकारी बनारस में विकसित हुई और मुग़ल साम्राज्य के नवाबों, शाही महलों और अमीरों के लिए आकर्षक आभूषणों का आकार बन गई। इस कला की महत्वपूर्ण मुद्राएं, रंगीन फूल-पत्तियां, पक्षी, मोर, और अन्य जानवरों को शामिल करती हैं। इन्हें रंगीन पत्तियों, ज़री, धागों और मोतियों से सजाया जाता है। 19वीं और 20वीं शताब्दी की शुरुआत में, गुलाबी मीनाकारी पूरे देश में प्रसिद्ध हो गई थी। उस समय राजा-रानी इस कला के कद्रदान थे।
बनारस में गंगा के किनारे रहने वाले बहुत से लोगों के लिए मीनाकारी का काम रोजी-रोटी का स्रोत रहा है। साल 2009 और 2014 के बीच यह शिल्प लगभग गायब हो गया था, क्योंकि इसके कारीगरों के लिए कोई सरकारी प्रोत्साहन योजना नहीं थी। साल 2015 में इसे जीआई टैग मिला तो यह विसरती कला को संजीवनी मिली और अब लगातार इसके कद्रदान बढ़ते जा रहे हैं।"
गुलाबी मीनाकारी के कलाकार कुंज बिहारी
दावे-प्रतिदावे
राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता कुंज बिहारी ने "न्यूज़क्लिक" को बताया," बनारस में बड़ी तादाद में कारीगर गुलाबी मीनाकारी का काम कर रहे हैं, जिनमें महिलाएं ज्यादा हैं। साल 2012-13 में धंधा बैठ गया था, तब हमने एक ऑटो खरीदने की योजना बनाई, लेकिन बाद में हमने अपना इरादा बदल दिया। अब केंद्र और राज्य सरकारें पारंपरिक कारीगरों को मंच दे रही हैं और इस शिल्प को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं। पिछले कुछ सालों में सरकार के सहयोग से हमने सउदी अरब, दुबई, रियाद, स्विटजरलैंड और जिनेवा सहित कई देशों की यात्राएं की है।"
कुंज बिहारी ने बी-कॉम पास शालिनी यादव से मिलवाया तो उन्होंने दावा किया, "गुलाबी मीनाकारी से मैं हर महीने दस-बारह हजार रुपये कमा लेती हूं। मेरी बहन तनु यादव और भूमि यादव भी पढ़ाई के साथ गुलाबी मीनाकारी करती हैं। गुलाबी मीनाकारी अब दोबारा फैशन और ट्रेंड में आ गई है। इसलिए कलाकारों को बेहतर करियर और रोजगार का मौका मिल रहा है।"
यूपी की एवार्डी कलाकार जया सिंह
बनारस में गुलाबी मीनाकारी करने वाले कलाकारों की तादाद तो सैकड़ों में गिनाई जाती है, लेकिन सही मायने में बेहतरीन कलाकार पांच-सात से ज्यादा नहीं है। ये फनकार सोने-चांदी की आकृतियों पर ऐसी कारीगरी करते हैं कि देखने वाले की नज़रें ठहर जाती हैं। इन्हीं फनकारों में एक हैं रमेश विश्वकर्मा। इन्हें राष्ट्रीय शिल्पी का अवार्ड मिल चुका है। वह न्यूज़क्लिक कहते हैं, "गुलाबी मीनकारी को दुनिया भर में पहुंचाने के बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं, लेकिन यह कला तो अब बनारस शहर में ही दम तोड़ती जा रही है। ट्रेड फेयर और प्रदर्शनियों में कुछ चुनिंदा और चापलूस लोगों को ही मौका मिलता है। गुलाबी मीनाकारी का सारा काम हैंडमेड होता है। हमारे घरों में ढेरों कलाकृतियां पड़ी हैं और सालों से हम ग्राहकों का इंतजार कर रहे हैं। कुछ मुनाफाखोर झूठे आंकड़े परोसते हैं और दावा करते हैं कि उन्होंने ट्रेनिंग देकर पांच सौ कलाकारों को खड़ा किया है। अगर उनकी बातें सच हैं तो वो फनकार हैं कहां? दरअसल, गुलाबी मीनाकारी के कलाकारों के दिन साल 2008-09 तक अच्छे थे। उस समय तक बनारस में 60 से 70 कलाकार थे, जिनमें तीन-चार विशेषज्ञ कलाकार थे। इसके बाद सोने और चांदी के दाम तेजी से बढ़ने लगे तो गुलाबी मीनाकारी का धंधा मंदा पड़ने लगा।"
रमेश कहते हैं, "मंदी की दूसरी बड़ी वजह बनी राजस्थान में एल्युमीनियम की आकृतियों पर बनने वाली मीनाकारी। चांदी पर गुलाबी मीनाकारी वाली हमारी जो कलाकृतियां आठ-दस हजार में बिकती थीं, उस जैसी एल्युमिनयम की कलाकृतियां हजार-बारह सौ में फुटपाथ पर बिकने लगीं। नतीजा, बड़े-बड़े शो-रूम वालों ने हमारा माल लेना बंद कर दिया और हमारा माल डंप होने लगा। धोखाधड़ी करने वाले आगे बढ़ गए और हम पिछड़ते चले गए। साल 2008-09 में चांदी सिर्फ 25 हजार रुपये किलो हुआ करती थी। साल 2011-12 में चांदी का दाम आसमान छूने लगा। जब चांदी 65 से 70 हजार के पास पहुंची तो हमारे पांच हजार वाले आइटम की कीमत दस से बारह हजार हो गई। हमारे आर्ट के खरीददार दूरी बनाने लगे और हमारा धंधा पिछड़ता चला गया। विदेशी कस्टमर्स के घटने की वजह से तमाम शो-रूम बंद हो गए हैं। साल 2013 में बनारस में गुलाबी मीनाकारी का काम दस फीसदी भी नहीं रहा। इस कला के महारथी दूसरे धंधे की ओर मुड़ गए, क्योंकि हमारे हाथी, मोर, तोता, चिड़िया सब बिकने बंद हो गए। लंबा गैप आया तो नई पीढ़ी गुलाबी मीनाकारी की ओर उन्मुख नहीं हुई।"
"हाल के दिनों में पीएम नरेंद्र मोदी ने गुलाबी मीनाकारी को प्रमोट किया है, जिससे हमारी कला की पूछ थोड़ी बढ़ी है। हालांकि हाल-फिलहाल नए और अच्छे कलाकार नहीं उभरे। नई पीढ़ी इसे अपनाने के लिए तैयार नहीं है। बच्चे पढ़ाई पर जोर देने लगे हैं। गुलाबी मीनाकारी डिवोशन और पेशेंश की डिमांड करती है। मोबाइल और सोशल मीडिया पर फिदा नई पीढ़ी के पास पेशेंश नहीं है। बनारस में सरकार पांच-छह साल से गुलाबी मीनाकारी का प्रशिक्षण कार्यक्रम चला रही है, लेकिन यह मुहिम भी बेअसर है। शिल्प कला को बढ़ावा देने वाले महकमों का हाल यह है कि आप झूठ बोलते रहेंगे, स्वार्थी तत्वों को कमीशन देते रहेंगे, तभी पूछ बढ़ेगी, अन्यथा ऊपर लोग काट देंगे।"
धंधे में घुस गई है कमीशनखोरी
बनारस में गुलाबी मीनाकारी जिस हुनर को देखकर लोग हैरान रह जाते हैं और जिसे बनाने में कारीगर बहुत मेहनत करते हैं, उनका कहना है कि उन्हें मेहनत के सिर्फ चंद रुपये ही मिलते हैं, जबकि बड़े कारोबारी इसी धंधे से करोड़ों रुपये में खेल रहे हैं। गुलाबी मीनाकारी के फनकार वैभव विश्वकर्मा का दर्द कुछ अलग है। वह कहते हैं, "हमारे पास पूंजी नहीं है। इस धंधे में कमीशनखोरी घुस गई है। माल उसी का बिकेगा जो अफसरों को कमीशन खिलाएगा। कलाकृति हम बनाते हैं और शोहरत दूसरे लूट लेते हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति जे बाइडेन को जो कलाकृति दी गई थी उसे हमने 16 दिनों में तैयार किया था, लेकिन कारोबारी कुंज बिहारी ने वाहवाही लूटी। हमने उनकी शिकायत पीएमओ तक से की, लेकिन वो जांच भी घपले की शिकार हो गई। कुंजबिहारी व्यापारी आदमी है और वो मोटा मुनाफा कमा रहे हैं। जी-20 में विदेशी मेहमानों को बांटने के लिए राष्ट्रीय पक्षी मोर सप्लाई करने का लाखों का एसाइनमेंट भी उन्हें ही मिला। वो मालामाल हो रहे हैं और हम घर का खर्च चला पाने की स्थिति में नहीं हैं। गुलाबी मीनाकार के कारोबार में हमारी छह पीढ़ियां खप चुकी हैं। फिर भी हम इस धंधे में अपना भविष्य देख रहे हैं।"
"बनारस में गुलाबी मीनाकारी के सिर्फ चार-पांच हुनरमंद कलाकार ही हैं। बाकी सभी हेल्पर हैं, जिन्हें ट्रेड फेयर, प्रदर्शनियों और नेताओं-अफसरों के सामने नामी कलाकार बताकर पेश किया जाता है। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि मेहनत हम करते हैं और वाहवाही दूसरे लूट लेते हैं। स्वार्थी अफसरों की साठगांठ के चलते हमारा हुनर चोरी हो रहा है। एक दौर वो भी था जब गुलाबी मीनाकारी का काम देखने वाले हमारे हुनर को देखते थे तो सीखने बैठ जाया करते थे। कल का यह शौक आज हमारी रोज़ी-रोटी है, मगर दस-बीस हजार रुपये महीना कमाने में हमारे छक्के छूट जाते हैं। पहले नक्काशी से जितनी मज़दूरी मिलती थी, उतने में अब समूचा माल बिकता है। ग़ौर कीजिए, ऐसे में ज़िंदगी आखिर कैसे कटेगी? कोरोना के बाद से ज़िंदगी बेकार हो गई है। पहले जितनी मजूरी मिलती थी, इस समय उससे कम पर हमारी कलाकृतियां बिक रही हैं। साल बीते और सरकारें बदली, लेकिन हमें मिलने वाले मेहनताने में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई। कोरोना के दौर के बाद हालात ऐसे हैं कि बहुत से कलाकार कम पैसे में भी काम करने पर राज़ी हो जाते हैं। अब तो हालात और भी ख़राब हो गए हैं। हर चीज़ की महंगाई बढ़ गई, लेकिन गुलाबी मीनाकारी के पैसे नहीं बढ़े।"
सोने-चांदी की आकृतियों पर ख़ूबसूरत नक्काशी उकेरने के महारथी बलराम दास सरकार से शिकायत करते हुए कहते हैं, " साल 2021 में दिल्ली में लगे ट्रेड फेयर में हमारी एक उम्दा और कीमती कलाकृति विदेश भेजी गई, जिसका आज तक हमें भुगतान नहीं मिला। हमारे बच्चों ने भले ही यह पारंपरिक हुनर सीख लिया है, लेकिन हम चाहते है कि वो कोई दूसरा काम करें। इस धंधे में लागत ज्यादा और मुनाफ नहीं के बराबर है। हमसे अच्छा तो दिहाड़ी मज़दूरी हैं। बुनकरों की तरह हमें भी सस्ती बिजली की दरकार है। सस्ती बिजली और मेहनताने का मुद्दा कई बार उठाया गया, फिर भी स्थिति नहीं सुधरी बल्कि सारा फ़ायदा बीच वाले ले जाते हैं।"
राष्ट्रीय एवार्डी कलाकार बलराम दास
सुविधाओं से महरूम हैं फ़नकार
फनकार बलराम दास को इस बात से शिकायत है कि एक्टिविस्ट रजनीकांत ने कुंज बिहारी के नाम जीआई कराई है, इसलिए वो उन्हें ज्यादा अहमियत देते हैं। वह कहते हैं, "रजनीकांत ही उनकी ब्रांडिंग करते हैं और वह दूसरे कलाकारों को मौका नहीं देते हैं। हमारी आलमारी कलाकृतियों से भरी है। कोई खरीदादर नहीं है। चांदी बहुत महंगी है। अपना कितना पैसा फंसाएं? परिवार चलाएं अथवा माल डंप करते रहें? गुलाबी मीनाकारी के कारीगरों को सुविधाएं देने की बातें तो हर मंच पर होती हैं, लेकिन ज़मीन पर कभी नहीं उतरतीं। हमें कई मर्तबा भरोसा दिलाया गया कि हमारा भी शिल्प कार्ड बनाया जाएगा जिससे कारीगर के तौर पर हमारी पहचान होगी और कई सरकारी योजनाओं का लाभ मिलेगा। मगर अफसोस, हमें आज तक किसी तरह का कोई लाभ नहीं मिला। सत्ता किसी की रही हो, सभी दलों के नेताओं से सिर्फ नाउम्मीदी ही मिली है। चुनाव जीतने के बाद वो हमारे जैसे फनकारों को भूल जाते हैं। चुनावी सीज़न में सभी दलों के नेता बड़े-बड़े दावे करते हैं, लेकिन सरकार में आने के बाद वही नेता कहते हैं कि अभी क़ानून बन रहा है, अभी आदेश होगा, लेकिन वो आदेश आते-आते दूसरा चुनाव आ जाता है। फिर दोबारा वही वादे। आज तक किसी सरकार ने गुलाबी मीनाकारी के कलाकारों के लिए ऐसी कोई योजना नहीं बनाई जिसके तहत कारीगरों का हेल्थ कार्ड बन जाए, उनका बीमा बन जाए, उनकी ख़त्म होती आंख की रौशनी के लिए स्वास्थ्य सुविधा मिले।"
गुलाबी मीनाकारी के कलाकार अमित सिंह को इस बात से रंज है कि कारीगरों के पास काम नहीं है। वह कहते हैं, "महंगाई इतनी आ गई है कि सिर्फ किसी तरह से दाल-रोटी चल रही है। बहुत से लोगों ने इस धंधे से तौबा कर लिया है। किसी को पुसा नहीं रहा है। कलाकार जहां के तहां हैं, लेकिन व्यापारी मोटा मुनाफा कूट रहे हैं। हमारे साथ दर्जन भर लोग काम करते हैं, लेकिन लाख कोशिश के बावजूद सिर्फ 15-20 हजार रुपये ही बच पाते हैं। इतनी कमाई भी तब होती है जब पूरा घर इस काम में सहयोग देता है।"
बनारस के भैरोनाथ निवासी राजेश सिंह कहते हैं, "जी-20 से कुछ ही लोगों को फायदा हुआ है। हम तो खाली बैठे हैं। मेरे पिता रमेश चंद्र को कोरोना काल में लकवा मार गया और उस समय इलाज न हो पाने के कारण उनकी मौत हो गई। इसके बाद हमारा बिजनेस करीब-करीब ठप हो गया है। हमारे पास पूंजी नहीं है कि दोबार उबर पाएं।"
महिलाओं के उत्थान के लिए काम करने वाली एक्टिविस्ट श्रुति नागवंशी कहती हैं, "गुलाबी मीनाकारी के कलाकारों की मुश्किल यह है कि जागरूकता की कमी की वजह से सरकारी स्कीमों से उन्हें लाभ नहीं मिल रहा है। असंगठित कलाकारों के हक़ की बात राजनीतिक गलियारों तक पहुंचने से पहले ही मौन हो जाती है। दरअसल, यह ऐसा कारोबार है जिसमें काम करने वाले लोग असंगठित है, जिनका न्यूनतम मेहनताना तय करना मुश्किल होता है। जहां तक कारीगरों की आंखों की रौशनी की समस्या का सवाल है, उन्हें आयुष्मान कार्ड बनवाना चाहिए, जिससे उन्हें मुफ़्त इलाज मिल सके। पीएम के लोकल फॉर वोकल के नारे का मकसद उन विशिष्ट शिल्प कलाओं और उत्पादों को प्रोत्साहित करना है जो देश में कहीं और उपलब्ध नहीं हैं, उन्हें बढ़ावा दिया जाए।"
(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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