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ज्ञानवापी मस्ज़‍ि‍द मामला :  'बादशाह अकबर के नए पंथ ‘दीन-ए-इलाही’ को पढ़ लीजिए, मिल जाएंगे त्रिशूल और स्वास्तिक के जवाब'

"बादशाह अकबर के साम्राज्य में दीवान-ए-अशरफ़ के पद पर कार्य करते हुए अकबर के निर्देश पर धार्मिक विभिन्नताओं और मतभेदों को दूर करने के लिए टोडरमल ने कई मंदिर और मस्ज़‍ि‍द बनवाए, जिसमें सभी धर्मों की अच्छी बातें शामिल की गईं।"
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उत्तर प्रदेश के वाराणसी स्थिति ज्ञानवापी मस्जिद पर मुख्यमंत्री योगी के बयान से सियासत गरमा गई है और सूबे के मुसलमान बेचैन हैं। योगी की पहचान एक फायरब्रांड नेता की रही है और उन्होंने यह सवाल खड़ा किया है कि 'ज्ञानवापी में त्रिशूल क्यों?' मुख्यमंत्री का यह बयान ऐसे समय में आया है जब ज्ञानवापी मस्जिद के ASIसर्वे के बाबत 03 अगस्त 2023 को इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आने वाला है। इस बीच सपा के कद्दावर नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने यह कहकर हलचल मचा दी है कि बद्रीनाथ मंदिर समेत कई पूजा स्थल बौद्ध मठों को तोड़कर बनाए गए हैं। अगर ज्ञानवापी का सर्वे कराया जाता है तो उनका भीASI सर्वे कराया जाए।
दुनिया में भारत की पहचान बुद्ध से है। पीएम नरेंद्र मोदी खुद बुद्ध की बात करते हैं। वह बौद्ध धर्म और हिंदूधर्म को एक बताते हैं तो बौद्ध मठ तोड़कर मंदिर क्यों बनाए गए?

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा है कि अगर ज्ञानवापी को मस्जिद कहा जाएगा तो दिक्कत होगी। न्यूज एजेंसी एएनआई को दिए गए इंटरव्यू में सवाल खड़ा करते हुए वह कहते हैं, "अगर हम इसे मस्जिद कहते हैं, तो यह एक मुद्दा होगा... वहां मस्जिद में त्रिशूल क्या कर रहा है? इसे हमने नहीं रखा। ज्ञानवापी में ज्योर्तिलिंग है, देव प्रतिमाएं हैं। सारी दीवारें चिल्ला-चिल्लाकर क्या कह रही हैं? मुझे लगता है कि ऐतिहासिक भूल को ठीक करने के लिए मुस्लिम पक्ष की ओर से एक प्रस्ताव आना चाहिए। हम इस गलती का समाधान चाहते हैं।"

कोर्ट में एक जैसी कई याचिकाएं

सुप्रीम कोर्ट, इलाहाबाद हाईकोर्ट और वाराणसी कोर्ट में एक जैसी कई याचिकाएं दायर की गई हैं, जिनमें आरोप लगाए गए हैं कि 16वीं सदी में काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़कर मुगल बादशाह औरंगजेब ने मस्जिद का निर्माण कराया था। सबसे पहले बनारस के एक अधिवक्ता विजय शंकर रस्तोगी ने ज्ञानवापी मस्जिद की वैधता पर सवाल खड़ा करते हुए इसे हिन्दुओं को सौंपने के लिए निचली अदालत में एक याचिका दायर की थी और मस्जिद के पुरातात्विक सर्वे की मांग उठाई थी। बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दिसंबर 2019 में यह याचिका दायर की गई। बाद में हिंदूपक्ष की पांच महिलाओं ने श्रृंगार गौरी में नियमित पूजा की मांग करते हुए बनारस के सिविल कोर्ट के अपर जिला जज (सीनियर डिविजन) रवि कुमार दिवाकर की अदालत में एक नई याचिका दायर की तो कोर्ट ने अप्रैल 2022 में एएसआई सर्वे करने का निर्देश दिया। बाद में यह मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंचा और सभी पक्षों की सुनवाई के बाद उसने एएसआई को सर्वे करने के निर्देश पर अंतरिम रोक लगाने का आदेश दिया।

हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि पूजा स्थल अधिनियम,1991 के अनुसार, मौजूद कानून किसी भी पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र में किसी भी बदलाव पर रोक लगाता है। हालांकि ज्ञानवापी मस्जिद से जुड़े मामलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट, इलाहाबाद हाईकोर्ट के अलावा वाराणसी की जिला अदालत में याचिकाएं लंबित हैं।ज्ञानवापी मस्जिद के ASIसर्वे का मामला अदालतों में कई पेंचदार मोड़ से गुजरते हुए बनारस के जिला जज डा. अजय कृष्ण विश्वेश की अदालत में पहुंचा और उन्होंने 21 जुलाई 2023 को बिना तोड़फोड़ किएASIसर्वे कराने पर फैसला सुना दिया। मामला फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और फिर इलाहाबाद हाईकोर्ट में जिरह और बहस हुई। ASIसर्वे के मुद्दे पर तीन अगस्त को फैसला आना है, लेकिन इससे पहले ही ज्ञानवापी मामले को लेकर सियासी जंग शुरू हो गई है। इस जंग में सीएम योगी आदित्यनाथ ही नहीं, बीजेपी के तमाम नेता कूद पड़े हैं। वाराणसी के पत्रकार राजीव मौर्य कहते हैं, "सावनी सोमवार 24 जुलाई 2023 को जब एएसआई की टीम बगैर सर्वे फीस जमा किए गैता, कुदाल, फावड़ा और हथौड़ा लेकर ज्ञानवापी मस्जिद में घुसी तब भी बनारस के मुसलमानों ने अमन व भाईचारे का परिचय दिया। अब सीएम योगी के तल्ख बयान से मुस्लिम समुदाय काफी चिंतित नजर आ रहा है।"

योगी से बयान से मुसलमान विचलित

मुख्यमंत्री के बयान से मुस्लिम समुदाय काफी विचलित है। ज्ञानवापी मस्जिद में मौजूद कब्र पर उर्स कराने के लिए बनारस की एक अदालत में मुकदमा दायर करने वाले मुख्तार अहमद अंसारी कहते हैं, "मुख्यमंत्री से पहले योगीजी धर्मगुरु हैं। इस नाते उन्होंने यह बयान दिया है। हालांकि उन्हें यह बात नहीं कहना चाहिए, बल्कि दोनों पक्ष को बुलाकर बात कर लेनी चाहिए थी। देखने की बात यह है कि इस मामले में प्रधानमंत्री क्या बोलते हैं, क्योंकि बनारस उनका संसदीय क्षेत्र है। कोर्ट में मामला चल रहा है तो विवादित बात कहना गैर-मुनासिब है। साल 1991 से मुकदमा चल रहा है और आज तक आपने कोई साक्ष्य पेश नहीं किया। वो कहते हैं कि नंदीजी शिवजी का इंतजार कर रहे हैं। जमीन का खसरा मौके की प्रामाणिक किताब होती है। ज्ञानवापी मस्जिद का खसरा-खतौनी और अन्य अभिलेखीय साक्ष्य आखिर क्यों नहीं देखे जा रहे हैं? 1291 फसली के खसरे में सब कुछ दर्ज है जिसमें नंदी का कोई जिक्र नहीं है। अगर शिव मंदिर तोड़कर ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई होती नंदी का वजूद भी नहीं होता। जिस नंदी को आधार बनाकर बितंडा खड़ा किया जा रहा है उन्हें तो 70 साल पहले स्थापित किया गया था। गौर करने की बात यह है कि मुगल बादशाह अकबर मुस्लिम था तो उसने मंदिर क्यों बनवाया?"

"आमतौर पर ज्यादातर भट्ठों में स्वास्तिक चिह्न वाली ईंटें बनती हैं। उन ईंटों से कहीं मस्जिद बना दी जाए तो क्या वो हिन्दुओं का मंदिर हो जाएगा?  उन ईंटों से किसी मुस्लिम का घर बन जाए तो क्या वह उनसे छीन लिया जाएगा? सारनाथ के बौद्ध स्तूपों की खुदाई से निकली ईंटों से बनारस के जगतगंज मुहल्ले की तमाम ईमारतें बनवाई गईं तो क्या वहां रहने वाले हिंदूसमुदाय के लोग अपने घर छोड़ देंगे? हम तो योगीजी को बुला रहे हैं कि वो आएं और ज्ञानवापी मस्जिद को देखें, फिर कोई बयान दें। मस्जिद के ठीक पश्चिम में दो कब्रें हैं जिन पर सालाना उर्स होता था। उनके मुताबिक साल 1937 में कोर्ट के फ़ैसले में भी उर्स करने की इजाज़त दी गई। ये कब्रें अब भी महफ़ूज़ हैं, लेकिन वहां उर्स नहीं होता है। इस परंपरा को फिर शुरू कराने के लिए हमने कोर्ट में याचिका डाली है।"

सर्वे का मुद्दे पर मुख्तार अहमद कहते हैं, "ASI सर्वे के विरोधी नहीं बल्कि इसकी आड़ में हो रही साजिश का विरोध कर रहे हैं। हम साक्ष्य के साथ खड़े हैं। आपके पास कोई सुबूत नहीं है तभी तो केंद्र सरकार के अधीन काम करने वाली एजेंसी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से ASI सर्वे कराकर अपने पक्ष में नया साक्ष्य गढ़ना चाहते हैं? यह तो ठीक वैसा ही खेल हो रहा है जैसे कमीशन की कार्रवाई में फव्वारे को शिवलिंग बताकर हमारे वजुखाने आपने सीज करा दिया। उपासना कानून तो उसी दिन तार-तार हो गया था जब बनारस के सिविल कोर्ट ने वकील कमीशन का आदेश दिया और जांच रिपोर्ट कोर्ट में पहुंचने से पहले मीडिया में बांट दी गई। कितनी अजीब बात है कि आपको सिर्फ मस्जिदों में ही भगवान दिखते हैं। आपको पूजा करने की आजादी चाहिए और हम नमाज पढ़ रहे हैं तो गुनाह है। आखिर यह कैसा इंसाफ है? "

ज्ञानवापी में जिस त्रिशूल और स्वास्तिक चिह्न को हिंदूपक्ष साक्ष्य के तौर पर पेश कर रहा है, उस बाबत ‘न्यूजक्लिक’ ने मस्जिद की देख-रेख करने वाली संस्था अंजुमन इंतेजामिया मसाजिद कमेटी के संयुक्त सचिव एमएम यासीन से बात की। वह कहते हैं, "आमतौर पर लोग तो यही मानते हैं कि मुगल सम्राट अकबर ने साल 1585 के आस-पास नए ज्ञानवापी मस्जिद जो पहले से चली आ रही थी उसे 'दीन-ए-इलाही' के केंद्र तौर निर्माण कराया था। प्रायः सभी इतिहासकार मानते हैं कि काशी विश्वनाथ मंदिर बनवाने के लिए अकबर ने अपने नवरत्नों में से एक टोडरमल को बनारस भेजा था। उत्तर प्रदेश के एक क्षत्रिय कुल में पैदा होने वाले टोडरमल ने अपने जीवन की शुरूआत शेरशाह सूरी के यहां नौकरी करके की थी। साल 1562 में अकबर की सेवा में आने के बाद साल 1572 में उसे गुजरात का दीवान बनाया गया। बाद में साल 1582 वह प्रधानमंत्री बन गया। बादशाह अकबर के साम्राज्य में दीवान-ए-अशरफ़ के पद पर कार्य करते हुए उनके नवरत्न टोडरमल ने जमीन के संबंध में कई प्रशंसनीय सुधार किए। अकबर के निर्देश पर धार्मिक विभिन्नताओं और मतभेदों को दूर करने के लिए टोडरमल ने कई मंदिर और मस्जिद बनवाए, जिसमें सभी धर्मों की अच्छी बातें शामिल की गईं। दीन-ए-इलाही को पढ़ लीजिए, त्रिशूल और स्वास्तिक के सवालों का जवाब खुद ही मिल जाएगा।"

"किसी मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनी हो, ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है। अगर कुछ है तो सिर्फ किस्से-कहानियां। जिस कुआं और नंदी के संदर्भ में बातें कही जा रही हैं वो बिल्कुल गलत और मनगढ़ंत हैं। साल 2010 में हमने कुएं की सफ़ाई कराई थी, लेकिन उसमें कुछ भी नहीं निकला था। मस्जिद में त्रिशूल और स्वास्तिक के चिह्न अकबर के समय के हैं। संभवतः दीन-ए-इलाही को बढ़ावा देने के नजरिये से मस्जिद में वो चिह्न बनवाए गए होंगे। किसी चिह्न को आधार पर दूसरे संप्रदाय के धार्मिक स्थल को नहीं छीना जा सकता है। हम कानून की परिधि में रहकर साक्ष्य के आधार पर अदालतों में अपनी बात रख रहे हैं। किसी के बयान से हमें कोई लेना-देना नहीं है। हम देश और समाज में अमन व भाईचारा चाहते हैं।"

दीन-ए-इलाही या तौहीद-ए-इलाही?

बीएचयू में इतिहास विभाग में मुगल साम्राज्य के जानकार प्रोफेसर ताबिर कलाम से "न्यूजक्लिक" ने बात की तो उन्होंने दीन-ए-इलाही के बारे में कई नई जानकारी दी। प्रो.ताबिर कहते हैं, "आजकल जिस दीन-ए-इलाही का जिक्र किया जा रहा है उसका असल नाम था तौहीद-ए-इलाही था। यह धर्म नहीं था,पंथ था, जिसकी कोई शर्त नहीं थी। एक तरह का वह सोशल आर्डर था, जिसमें तमाम धर्मों की अच्छी चीजों को लेकर एक नया पंथ शुरू किया गया था।"

"नए पंथ को पेश करने के पीछे अकबर की दो मंशा थी। पहला यह कि सभी जातियों और धार्मिक संप्रदायों में सद्भाव पैदा करना था ताकि उसके साम्राज्य में स्थिरता आए। हर व्यक्ति राजा और धर्म के प्रति एक ही नजरिया रखे। अकबर की दूसरी मंशा यह थी कि वह खुद को सांप्रदायिक सद्भाव रखने वाले राष्ट्रीय सम्राट के रूप में प्रतिष्ठित कराना चाहता था। उसकी इच्छा थी कि प्रजा उसे अपना अच्छा प्रतिनिधि माने और कोई विद्रोही रवैया न अपनाए। तौहीद-ए-इलाही का तीसरा मकसद सभी धर्मों में समन्वय और एकता स्थापित करना था। अकबर चाहते थे कि समाज में कोई धार्मिक बितंडा खड़ा न हो ताकि अच्छ समाज का निर्माण हो सके। नए पंथ तौहीद-ए-इलाही को अपनाने के लिए बादशाह अकबर ने कभी किसी को मजबूर नहीं किया। यही वजह थी कि तौहीद-ए-इलाही को मानने वाले बहुत कम लोग थे।"

क्यों हुआ दीन-ए-इलाही का विरोध

शैक्षिक मिशन के तहत भारत की भाषाओं में निष्पक्ष और संपूर्ण ज्ञानकोश उपलब्ध कराने के लिए 'भारत डिस्कवरी' वेबसाइट (https://bharatdiscovery।org/india) में दीन-ए-इलाही के बारे में विस्तार से जानाकरी दी गई है। इस वेबसाइट पर मुगलकाल के तमाम प्रमाणिक दस्तावेज हैं,जिसमें दीन-ए-इलाही के बारे में विस्तार से उल्लेख किया गया है। एक आलेख में कहा गया है, "दीन-ए-इलाही की शुरूआत साल 1582 में बादशाह अकबर ने किया था। इस धर्म में हिंदू हिंदू , मुस्लिम, बौद्ध, जैन, पारसी तथा ईसाई धर्म की मुख्य-मुख्य बातों का समावेश किया गया था। इसका मूल आधार एकेश्वरवाद था, लेकिन उसमें बहुदेववाद की झलक भी थी। तर्क पर आधारित यह धर्म धार्मिक भेदभाव से ऊपर उठकर सहिष्णुता की शिक्षा देता था। अकबर के शासन काल में इस धर्म के बहुत से अनुयायी हो गए थे। परंतु उसकी मृत्यु के बाद इसका लोप हो गया।"

"फ़तेहपुर सीकरी के इबादत खाने में विभिन्न धर्मों के आचार्य और संत−महात्माओं के साथ विचार−विमर्श करते रहने से अकबर के धार्मिक विचारों में बड़ी क्रांति हुई थी। उस समय इस्लाम से उसकी अरुचि थी और हिंदू धर्म स्वीकार करना उसके लिए संभव नहीं था, अत: सन् 1582 में उसने एक नये धार्मिक संप्रदाय को प्रचलित किया। उसने अपने दृष्टिकोण से इस्लाम, हिंदू, जैन, ईसाई सभी धर्मों की अच्छाइयों को लेकर एक नये संप्रदाय की स्थापना की और उसका नाम दीन इलाही (भगवान का धर्म) रखा था। इस संप्रदाय का संस्थापक होने से अकबर का स्थान स्वतः ही सर्वोच्च था। वह सम्राट के साथ ही पैगंबर भी बन गया और अबुलफज़ल उस नये संप्रदाय का खलीफ़ा हुआ। इस धर्म के अनुयायी मुसलमान और हिंदू दोनों ही थे, लेकिन उनकी संख्या उंगलियों पर गिनने लायक़ थी। अधिकांश मुसलमानों और हिंदुओं ने नए संप्रदाय की उपेक्षा की। हिंदुओं में केवल एक बीरबल ने ही दीन-ए-इलाही स्वीकार किया था। अकबर ने निकट संबंधी और प्रमुख दरबारी राजा भगवानदास और मानसिंह ने उसके प्रति कोई रुचि नहीं दिखलाई। अकबर के किसी रानी अथवा बेगम ने भी इस धर्म को स्वीकार नहीं किया था।"

दीन-ए-इलाही की पूजा पद्धति का जिक्र करते हुए 'भारत डिस्कवरी' में उपासना विधि का भी जिक्र किया गया है। दीन-ए-इलाही में सूर्य की उपासना को प्रधानता दी गई थी। अग्नि की पूजा और दीपक को नमस्कार करने का विधान था। प्रात: दोपहर, शाम और रात में सूर्य की पूजा की जाती थी। सूर्य सहस्रनाम का जप किया जाता था। प्रात: और मध्य रात्रि में प्रार्थना करने की सूचना नगाड़ा बजा कर दी जाती थी। साल में सौ से अधिक दिन मांसाहारी भोजन वर्जित था। यह हुक्म सारे राज्य पर लागू था। दीन−इलाही के अनुयायी के लिए दाढ़ी मुंडाना जरूरी था। उसके लिए गोमांस, लहसुन−प्याज खाना वर्जित था...। धार्मिक विधियों के अलावा इस संप्रदाय में कुछ सामाजिक सुधार की बातें भी थीं। इस्लाम में बहुविवाह मान्य है, लेकिन इस संप्रदाय में एक से अधिक विवाह करना वर्जित था। सती प्रथा बंद कर दी गई थी।"

अकबर के शासन में दीन-ए-इलाही की धार्मिक क्रिया और पूजा−पद्धति पर कई पुस्तकें लिखी गईं। साथ ही धर्मशास्त्र बनवाए गए थे, लेकिन अकबर की मृत्यु के साथ ही सब खत्म हो गई। जो लोग दीन इलाही के अनुयायी बने थे, वे सब अपने−अपने धर्मों में वापस लौट गए। अकबर के बाद दीन ए इलाही का नाम सिर्फ इतिहास में जिंदा रह पाया। हालांकि बादशाह अकबर को अपने जमाने में कई शानदार मिथक भी गढ़े। राजनीति और प्रशासन के साथ ही साथ उसने चित्रकला, संगीत आदि के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया, जिसे आज भी याद किया जाता है। इतिहासकारों के मुताबिक, मुगल बादशाह अकबर अपनी रानी जोधाबाई से काफी प्रभावित था। जोधा कछवाहा राजा भारमल की पुत्री थी। जनवरी, 1562 में अजमेर के मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह की तीर्थयात्रा से लौट रहे बादशाह अकबर की मुलाकात हुई और बाद में उन से ब्याह किया। जोधाबाई को अकबर ने न सिर्फ समुचित आदर दिया,बल्कि अपने साम्राज्य में हिंदू नीतियां भी शुरू कीं।

खेमें में बंटे इतिहासकार

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बयान के बाद इतिहासकारों में दो खेमे बन गए हैं। एक खेमा जहां योगी के दावे को सिरे से खारिज कर रहा है वहीं,दूसरा खेमा उनके पक्ष में खड़ा नजर आ रहा है। कुछ इतिहासकार तो विधिवत राजनीतिक बयान भी जारी कर रहे हैं। बीएचयू के इतिहासकार प्रो. पीबी राणा कहते हैं, "ज्ञानवापी सर्वे के दौरान जो वस्तुएं मिलीं, उनका जिक्र इतिहास में मिलता है। हम पौराणिक और ऐतिहासिक मान्यताओं को देखें तो दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में शिव के यहां आने के तथ्य मिलते हैं। जब शिव काशी में आए तो उनका रूप ईशानेश्वर के रूप में था। साल 1556 में अकबर के कार्यकाल में पूरा मंदिर बना, जिसे साल 1669 में ढहा दिया गया। साल 1669 में वहां मस्जिद बना दिया गया। साल 1936 में वह जगह बंद की गई और 1952 में एक्ट पास हुआ था। जहां श्रृंगार गौरी की बात होती है तो वहां पर कोई मूर्ति नहीं, बल्कि चिह्न था। वह अभी भी पीछे की दीवार पर पूरा का पूरा दिखाई देता है। इस परिसर का सर्वे 1822 में हुआ और 1832 में मैप तैयार हुआ। वह पहला मैप था जो पूरी डिजाइन की बात करता है। उसके आधार पर 1937 में मुकदमा दायर हुआ। इससे सिद्ध हो रहा है कि जिस जगह मस्जिद है वहां पहले मंदिर था।"

बीएचयू के एक अन्य इतिहासकार प्रो. राजीव श्रीवास्तव भी दावा करते हैं कि ज्ञानवापी में मस्जिद नहीं थी। वह विशाल भारत संस्थान के संस्थापक हैं, जो आरएसएस से जुड़े इंद्रेश कुमार के संरक्षण में संचालित होती है। वह कहते हैं, "साल 1710 में साकी मुस्तैद खां ने मआसिर-ए-आलमगीरी नामक किताब लिखी थी। किताब में इस बात का जिक्र है कि औरंगजेब ने एक चिट्ठी लिखी थी जिसमें कहा था कि तुरंत मंदिर को तोड़ दिया जाए। उसके दारोगा ने चिट्ठी लिखी कि हमने मंदिर तोड़ दी है। आदि विश्वेश्वर के मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण करा दिया गया। इसके बड़ा सबूत और क्या चाहिए? यह ऐतिहासिक भूल नहीं, बल्कि जानबूझकर किया गया पाप है। इनसे हर्जाना भी वसूला जाना चाहिए। आखिर वो इतने दिनों तक जबरदस्ती कब्जा करके क्यों बैठे हैं? जब पैगंबर मोहम्मद का उसूल है कि मुस्लिम समुदाय के लोग दूसरों के धर्मस्थल पर अपनी मस्जिद नहीं बना सकते वो जबरन कब्जा करके क्यों बैठे हैं। लाखों मुसलमान मुख्यमंत्री योगी के बयान के पक्ष में हैं।" इस बीच अखिल भारत हिंदू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष स्वामी चक्रपाणि समेत तमाम हिंदू वादी नेताओं ने योगी की टिप्पणियों का समर्थन किया है। साथ ही यह भी कहा है कि यह मुस्लिम याचिकाकर्ताओं के लिए भाईचारे और सद्भावना का संदेश देने का अच्छा अवसर है।

स्वामी का कड़ा जवाब

 समाजवादी पार्टी के महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्य ने सीएम योगी आदित्यनाथ को कड़ा जवाब दिया है। वह कहते हैं, "ज्ञानवापी मस्जिद नहीं होती तो यह मामला अदालतों की चौखट तक नहीं पहुंचता। वहां तो अभी भी पांचो पहर नमाज पढ़ी जा रही है। जब तक कोर्ट का फैसला नहीं आता तब तक वह ज्ञानवापी मस्जिद है। योगी हाईकोर्ट से बड़े नहीं हैं। उन्हें न्यायपालिका के सम्मान में इस तरह की बात नहीं करनी चाहिए। अगर ज्ञानवापी परASI सर्वे का फैसला आता है तो बद्रीनाथ, केदारनाथ समेत उन सभी मंदिरों का सर्वे होना चाहिए, जो पहले बौद्ध मठ हुआ करते थे। हिंदू और बौद्ध धर्म दोनों अलग-अलग हैं। अगर हिंदू और बौद्ध धर्म एक एक होते तो बौद्ध मठ-मंदिरों को तोड़कर मंदिर नहीं बनाए गए होते। इसी देश में राष्ट्रपति को मंदिर में प्रवेश के लिए नहीं रोका गया होता। अखिलेश यादव के 5 कालिदास मार्ग स्थित आवास छोड़ते समय उसकी गंगाजल और गोमुत्र से धुलाई नहीं कराई गई होती। बीजेपी वाले दलितों और पिछड़ों का अपमान करते हैं और नेशन फर्स्ट का जुमला उछालकर अपना सियासी हित साधने के लिए ऐसे विवादों को जन्म देते हैं।"

यूपी के मुख्यमंत्री के बयान पर एआईएमआईएम प्रमुख और सांसद असदुद्दीन ओवैसी भी खासे नाखुश हैं। योगी की नीयत पर सवाल खड़ा करते हुए वह कहते हैं, "क्या उन्होंने इतिहास नहीं पढ़ा? वह अच्छी तरह जानते है कि मुस्लिम पक्ष ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में एएसआई सर्वेक्षण का विरोध किया है और कुछ दिनों में फैसला सुनाया जाएगा, फिर भी उन्होंने ऐसा विवादास्पद बयान क्यों दिया। यह न्यायिक अतिक्रमण है। प्लेसेज और वर्शिप एक्ट 1991 है जिस में साफतौर पर कहा गया कि धार्मिक स्थल जिस रूप में था वैसा ही रहेगा। फिर फसाद क्यों खड़ा किया जा रहा है। देश में 1947 से पहले बौद्ध समुदाय के कई प्लेसेज ऑफ वर्शिप को बदल दिया गया? क्या सरकार क्या वहां भी सर्वे कराएगी? आप मुख्यमंत्री हैं, लेकिन कानून को फॉलो नहीं करना चाह रहे हैं। मुसलमानों पर दबाव डाल रहे हैं कि जिस जगह पर 400 साल से मस्जिद है,उस जगह को वो छोड़ दें।"

"मुसलमानों ने मथुरा में आज से 55 से 60 साल पहले हिंदू समाज के साथ एग्रीमेंट किया। उसको कोर्ट में भी सबमिट किया। इसके बावजूद एलिजिगेशन खोल दिया गया। यह सिर्फ कम्युनिकिल पॉलिटिक्स का हिस्सा है। ज्ञानवापी में सदियों से मस्जिद है और वहां नियमित नमाज हो रही है। उनका बस चले वो बुलडोजर भी चलावा देंगे। साप्रांदायिकता फैलाकर सियासी हित साधना इनकी एक चाल है। सवाल हिंदू और मुस्लिम का नहीं है। सवाल ये है कि क्या मुख्यमंत्री कानून को मानेंगे या नहीं? यूपी को आप 400 साल पीछे जाना चाहते हैं अथवा देश को 100 साल आगे ले जाना चाहते हैं। ये फैसला मुख्यमंत्री योगी को करना होगा। वो प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब भी देखते हैं और प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट को नकार रहे हैं।"

1937 में आया था फैसला

ज्ञानवापी विवाद के नेपथ्य में झांकने से पता चलता है कि मस्जिद का राजस्व दस्तावेज़ ही सबसे पुराना दस्तावेज़ है। इसी के आधार पर साल 1936 में दायर एक मुक़दमे पर अगले साल 1937 में उसका फ़ैसला भी आया था और इसे मस्जिद के तौर पर अदालत ने स्वीकार किया था। अदालत ने माना था कि यह नीचे से ऊपर तक मस्जिद है और वक़्फ़ प्रॉपर्टी है। बाद में हाईकोर्ट ने भी इस फ़ैसले को सही ठहराया। इस मस्जिद में 15 अगस्त 1947 से पहले से ही नहीं बल्कि 1669 में जब से यह बनी है तब से यहां नमाज़ पढ़ी जा रही है। कोरोना काल में भी यह सिलसिला नहीं टूटा।

भारतीय संविधान के मुताबिक, 15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्थान जिस स्वरूप में था, वह उसी स्वरूप में रहेगा। इस मामले में अयोध्या विवाद को छूट दी गई थी। ये क़ानून ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की शाही ईदगाह समेत देश के तमाम धार्मिक स्थलों पर लागू होता है। साल 1991 में नरसिंह  राव सरकार ने उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम पारित करवाया था। इस कानून का सेक्शन (3) कहता है कि कोई भी व्यक्ति किसी धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी अनुभाग (सेक्ट) के किसी उपासना स्थल का उसी धार्मिक संप्रदाय के भिन्न अनुभाग के या किसी भिन्न धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी अनुभाग के उपासना स्थल में परिवर्तन नहीं करेगा। इसी क़ानून के सेक्शन 4 में लिखा है- यह घोषित किया जाता है कि 15 अगस्त,1947 को विद्यमान उपासना स्थल का धार्मिक स्वरूप वैसा ही बना रहेगा, जैसा वैसा ही रहेगा। सेक्शन 4(2) में लिखा है-यदि इस अधिनियम के लागू होने पर,15 अगस्त,1947 को मौजूद किसी उपासना स्थल के धार्मिक स्वरूप के परिवर्तन के बारे में कोई वाद, अपील या अन्य कार्रवाई किसी न्यायालय, अधिकरण या प्राधिकारी के समक्ष लंबित है तो वह रद्द हो जाएगी। ऐसे किसी मामले में कोई वाद, अपील अथवा कार्यवाही किसी न्यायालय,अधिकरण या प्राधिकारी के समक्ष नहीं होगी।

उल्लेखनीय है कि ज्ञानवापी मस्जिद हिंदू और मुस्लिम आर्किटेक्चर का मिश्रण है। मस्जिद के गुंबद के नीचे मंदिर के स्ट्रक्चर जैसी दीवार नजर आती है। माना जाता है कि ये विश्वनाथ मंदिर का हिस्सा है,जिसे औरंगजेब ने तुड़वा दिया था। ज्ञानवापी मस्जिद का प्रवेश द्वार भी ताजमहल कीतरह ही बनाया गया है। मस्जिद में तीन गुंबद हैं, जो मुगलकालीन छाप छोड़ते हैं। मस्जिद का मुख्य आकर्षण गंगा नदी के ऊपर की ओर उठी 71 मीटर ऊंची मीनारें हैं। ज्ञानवापी मस्जिद का एक टावर 1948 में आई बाढ़ के कारण ढह गया था।

योगी उपलब्धियां क्यों नहीं गिनाते

लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं, "योगी लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार के मुखिया हैं। संबंधित प्रकरण विभिन्न स्तरों पर अदालतों में विचाराधीन है। सर्वे की बात से यह स्पष्ट होता है कि अभी यह तय होना बाकी है कि वहां कौन से धार्मिक प्रतीक मिले हैं। ऐसे लंबे न्यायिक प्रकरण पर सीएम की ओर से बयान आना उचित नहीं है। दूसरा महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि लोकसभा चुनाव के करीब आते ही देश भर में अलग-अलग स्थानों पर होने वाली घटनाओं पर महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोगों के बयान आ रहे हैं। ये बयान इस ओर इशारा करते हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक किए जाने की पूरी साजिश है। अच्छा तो यह होता कि डबल इंजन की सरकार दस सालों सालों की उपलब्धियां गिनाती। साथ ही यह भी बताती कि कितने उन्होंने कितनों को नौकरियां दी और देश की तरक्की के लिए कितने-कल कारखाने लगाए? "
पत्रकार कलहंस यह भी कहते हैं, "देखा यह गया है कि सरकार का अंग बनने के बाद इस तरह के उग्र बयान फलदायक साबित नहीं होते हैं। सच यह है कि ध्रुवीकरण ने इस पार्टी को सरकार में आने का मौका दिया, लेकिन जनता अब अपनी समस्याओं का समाधान चाहती है। वह सरकार से यह जवाब चाहती कि उसने जनता की तरक्की के लिए कौन से जरूरी कदम उठाए? मुख्यमंत्री के बयानों से यह साफ लगता है कि चार दशकों में यह पार्टी अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक की लड़ाई के आगे कुछ भी नहीं सोच पा रही है।"

(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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