Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

“हिंदुत्व समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व के लिए ख़तरा है”

संविधान दिवस पर विशेष: वर्तमान परिप्रेक्ष्य में संविधान और लोकतंत्र के समक्ष चुनौतियां
Hum Bharat Ke Log

संविधान महज एक कानून की किताब नहीं है बल्कि यह देश के सभी लोगों को बराबरी का हक़ देने का दस्तावेज है। यह मानसिक गुलामी से मुक्ति का माध्यम है। लेकिन आज इस संविधान को ही सबसे ज्यादा खतरा है। फासीवादी ताकतें इसे ख़त्म करने की साज़िश रच रही हैं। ऐसे में अपने हक-अधिकारों को पाने के लिए संविधान और लोकतंत्र को बचाने के लिए वंचितों, हाशिये को लोगों और लोकतंत्र तथा संविधान में विश्वास रखने वालों का एकजुट होना जरूरी है।

इसे भी पढ़ें: संविधान दिवस के नाम पर मनु के विचार की जयकार

संविधान वंचितों-दलितों को भी उन्हें उनकी मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार देता है। उदाहरण के लिए संविधान के कुछ अनुच्छेदों पर नजर डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि ये हमारे लिए कितना महत्वपूर्ण है।

संविधान का अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समता की बात कहता है –‘राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी नागरिक  को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।

अनुच्छेद 15 कहता है राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान किसी भी आधार पर कोई भेद नहीं करेगा।

इसी प्रकार अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता या छूआछूत को निषेध करता है और इसे दंडनीय अपराध मानता है। 

संविधान का अनुच्छेद 21 व्यक्ति को गरिमापूर्ण जीवन और जीने की स्वतंत्रा प्रदान करता है।

संविधान का अनुच्छेद 39 कहता है कि देश की सभी भौतिक संपदा का देश के सभी नागरिकों में बराबर बंटवारा होना चाहिए।

बाबा साहेब ने संविधान सभा में 25 नवंबर 1949 को जो स्पीच दी थी वह काबिले-गौर है। उन्होंने कहा था—“26 जनवरी 1950 से हम अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमारे पास समानता होगी और सामाजिक आर्थिक जीवन में असमानता। राजनीति में हम एक व्यक्ति एक मत के सिद्धांत और एक वोट के मूल्य को मान्यता देंगे। लेकिन हमारे सामाजिक आर्थिक ढाँचे के कारण हम एक व्यक्ति के एक मूल्य से इनकार करते रहेंगे। इस सामाजिक-आर्थिक गैर बराबरी को कब तक हम जारी रखेंगे। यदि ऐसा लम्बे समय तक करते हैं तो हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को भी खतरे में डाल देंगे। ...भारत का संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो अगर उसे लागू करने  वाले लोग ख़राब निकले तो संविधान निश्चित रूप से अच्छा साबित नहीं होगा।”

गौरतलब है कि 26 नवम्बर को संविधान को अडॉप्ट करते समय अनेक बहस हुईं थीं। अनेक आशंकाएं व्यक्त की गईं थीं। उदाहरण के लिए सविधान सभा के सदस्य सेठ दामोदर स्वरूप ने कहा था –“मैं कुछ साफ़ और खरी बात कहने के लिए क्षमा मांगता हूँ। इस विधान के बन जाने और लागू हो जाने के बाद भी यहां की जनता को ज़रा भी संतोष नहीं होगा। जरा भी ख़ुशी नहीं होगी, क्योंकि इस विधान में गरीबों के लिए भला क्या है?”

वहीं डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा था –“केवल राजनीतिक लोकतंत्र से ही हमें संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। अपने राजनीतिक लोकतंत्र को हमें सामाजिक लोकतंत्र का रूप भी देना चाहिए। सामाजिक लोकतंत्र यानी न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतो के रूप में स्वीकार करना।”

भारत सरकार द्वारा छापे गए बाबा साहेब के वॉल्यूम  15 के पृष्ठ 365 में वे चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं –“ अगर वास्तव में इस देश में हिन्दूराज बन जाता है तो इस देश के लिए बहुत खतरा उत्पन्न हो जाएगा। हिन्दू कुछ भी कहें पर उनका हिंदुत्व समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व के लिए खतरा है। इसलिए यह प्रजातंत्र के लिए अनुपयुक्त है।”

बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर दूरदर्शी थे। उन्होंने उस समय जिन चुनौतियों को राष्ट्र निर्माण में बाधक करार दिया था वे आज भी मौजूद हैं। उदाहरण के लिए उन्होंने सामाजिक-आर्थिक गैर बराबरी पर चिंता व्यक्त की थी। ये समस्याएं आज भी अपने विकराल रूप में मौजूद हैं।  हम 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में मनाते हैं। यह सन 2015 से शुरू हुआ। इससे पहले हम इसे कानून दिवस के रूप में मनाते थे। संविधान को तैयार करने में 2 वर्ष 11 महीने और 18 दिन का समय लगा था।

संविधान की प्रस्तवना हमें न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुता जैसे मानवीय मूल्य प्रदान करती है। पर संविधान को लागू करवाने वाले लोग इन पर ध्यान नहीं देते। इसी का परिणाम है कि हमें समाज में अनेक विसंगतियां दिखाई देती हैं।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर डॉ. विवेक कुमार कहते हैं कि –“संविधान सिर्फ एक कानून की किताब नहीं है बल्कि सामाजिक ताने-बाने का दस्तावेज है। इसलिए सामाजिक मूल्यों और मूल भावना का अक्षरश: पालन होना चाहिए। देश की सम्पदा का बराबर बंटवारा हो। आज देश की पूंजी कुछ हाथों में सिमट गई है। इसका सही बंटवारा बहुत बड़ी चुनौती है।”

जन आंदोलन का राष्ट्रीय समन्वय की संयोजक मीरा संघमित्रा संगठन  की “आंदोलन” पत्रिका में लिखती  हैं –“हम भारत के लोगों को समानता, स्वतंत्रता, न्याय, सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक अधिकार सुनिश्चित करने वाले संविधान ने सशक्त किया है। पर हम आज बहुत सी चुनैतियों और समस्याओं से घिरे हुए हैं।... वर्तमान फासीवादी सरकार ने इन्हें और भयावह कर दिया है। अर्थ व्यवस्था गिर रही है, प्राकृतिक संसाधनो को पूंजीपति लूट रहे हैं। रोजगारों को समापन किया जा रहा है। स्वास्थ्य, शिक्षा, पानी, परिवहन जैसी बुनियादी सुविधाओं का निजीकरण किया जा रहा है। सामाजिक सुरक्षा की उपेक्षा की जा रही है। जमीन, श्रम, जंगल, पर्यावरण आदि से जुड़े कानूनों को कमजोर किया जा रहा है। यूजीसी, आरबीआई, सीबीआई की स्वायत्ता पर हमला किया जा रहा है।...”

वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह अपने एक साक्षात्कार में कहती हैं कि – “आज संविधान और लोकतंत्र खतरे में है। लोकतंत्र और संविधान को कैसे बचाया जाए, इसके बारे में मुझे लगता है कि जो लोग देश को प्यार करते हैं, सच्चे देशभक्त हैं, जो बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर, भगत सिंह की राह पर चलते हैं, उनकी राह पर चलकर ही लोकतंत्र और संविधान को बचाया जा सकता है। पर ये आसान प्रक्रिया भी नहीं है। क्योंकि मनुवादी सोच सारे संस्थानों पर हावी है। लोकतंत्र के चार खम्भे कहे जाते हैं। उसने चारों खम्भों पर कब्ज़ा कर रखा है। न्यायपालिका इनकी, संसद इनकी, ब्यूरोक्रसी इनकी, मीडिया इनकी। इन्होंने आरक्षण को ख़त्म कर दिया। सब जगह लेटरल एंट्री दे दी। आज की तारीख में आरक्षण एक नेगेटिव टर्म हो गया है। ये सब जो चल रहा है और जिस तरह से चल रहा है। ऐसे में बहुत जरूरी है कि देश के लोकतंत्र में जो विश्वास रखते हैं वे एक जुट हों। और जो लोग मनुवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ना चाहते हैं वो लोग एक जुट हों। ये लोग बहुजन हैं। ये लोग ज्यादा हैं। धर्म की अफीम दलितों, ओबीसी, आदिवासियों और महिलाओं सब को चटाई जा रही है। इससे दिक्कत ये हो  रही है कि हम मारने वाले के साथ खड़े होते जा रहे हैं।

डॉ. आंबेडकर ने उस समय रास्ता दिखाया था और मनुस्मृति जलाई थी। आज की तारीख में जलाते तो देशद्रोह के केस में जेल में होते। लेकिन उन्होंने उस समय जो साहस दिखाया था वैसा ही साहस वैसा ही जोखिम आज की तारीख में लेने की जरूरत है। अगर ये जोखिम नहीं लेंगे तो लोकतंत्र नहीं बचेगा। और फिर जिस मध्य्गुगीन बर्बरता में हमारा भारतीय समाज जाएगा, उसमे न हमारा आपका भविष्य है और न हमारे आपके बच्चों का।”

अभी गुजरात में चुनाव होने वाले हैं। वहां संविधान की मूलभावना के खिलाफ यूनिफार्म सिविल कोड लागू करने की बात की जा रही है। हमारा संविधान सबको अपने धर्म को मानने की आजादी देता है। लेकिन एक के बाद एक हमारी धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला किया जा रहा है। एंटी-कन्वर्जन बिल लाए जा रहे हैं। अपनी पसंद का धर्म अपनाना अपराध होता जा रहा है। इसकी सीधी  मार दलितों पर पड़ रही है। क्योंकि वे जाति के गंदे बोझ से बाहर आने के लिए हिन्दू धर्म को छोड़कर दूसरे धर्मों की और रुख करते हैं।  

आम आदमी पार्टी के राजेंद्र पाल गौतम के उदाहरण से हिंदुत्ववादी सोच को स्पष्ट समझा जा सकता है। आम आदमी पार्टी में समाज कल्याण विभाग में मंत्री रहे राजेंद्र पाल को इसलिए अपने पद से इस्तीफ़ा देने के लिए बाध्य किया गया कि उन्होंने आंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं को दोहराया था।

सच्चाई यही है कि हिन्दुत्ववादी ताकतें न बाबा साहेब के विचारों को पसंद करती हैं और न संविधान को।

संविधान दलितों, आदिवासियों और अन्य हाशिये के लोगों पर अन्याय और असमानता को ख़त्म करने की बात करता है। पर वास्तविकता अलग है। वंचितों खासकर दलितों पर अत्याचार दिनोदिन बढ़ते ही जा रहे हैं। खैरलांजी, गोहाना, मिर्चीपुर, ऊना जैसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। दबंग जाति के लोगों के लिए दलितों पर हिंसा बहुत मामूली बात होती है। उत्तर प्रदेश में दलित लड़का अगर अमरुद चुरा लेता है तो सजा के तौर पर उसकी हत्या कर दी जाती है। अच्छी जीवन शैली अपनाने पर यहां तक कि मूंछ रखने पर भी उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता है।

ऐसे में स्वतंत्रता, समता, समानता और बंधुत्व जैसे संवैधानिक मूल्य बेमानी हो जाते हैं।

आज की तारीख में संविधान और लोकतंत्र को बचाने के लिए फासीवादी ताकतों से लड़ना जरूरी है। लड़ाई जीतने के लिए एकजुटता और वैचारिक हथियारों की जरूरत है। फासीवादी ताकतों के जो खिलाफ हैं उनको एक साथ आने और आंबेडकर के विचारों को हथियार के रूप में अपनाने की जरूरत है।

वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश सही सलाह देते हैं कि दलितों को ‘डॉ. बी.आर. आंबेडकर स्टडी सर्किल’ बना कर आंबेडकर के विचारों को पढ़ा और समझा जाना चाहिए साथ ही समूह में उन पर चर्चा की जानी चाहिए। इससे वैचारिक एकजुटता बढ़ेगी। अम्बेडकरवादी विचारधारा के लोगों की संख्या बढ़ेगी। जितनी सामूहिकता होगी उतनी ही ताकत बढ़ेगी। फासीवादी ताकतों का मुकाबला एकजुट होकर मिलकर ही किया जा सकता है। कवि और आंदोलनकर्मी प्रेम धवन जी अपनी कविता में ठीक कहते हैं – ये वक्त की आवाज है मिल के चलो।

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest