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हम भारत के लोग
भारत
राजनीति
हिंदुत्व की राजनीति से देश के बहुवचन बनने का ख़तरा
हम भारत के लोग अभिशप्त हैं करीब एक शताब्दी तक चले अपने स्वाधीनता संग्राम के गौरवशाली इतिहास को विकृत करने के प्रयासों को देखने के लिए। हम भारत के लोग अभिशप्त हैं भारतीय संविधान और देश की विविधता पर सांप्रदायिक नफ़रत से भरी विचारधारा के हमलों को देखने के लिए।
अनिल जैन
06 Aug 2022
hum bharat ke log

भारतीय गणतंत्र के 73वें वर्ष में देश की आजादी के 75 वर्ष पूरे करते हुए 'हम भारत के लोग’ अभिशप्त हैं उन मूल्यों की हत्या होते हुए देखने के लिए, जो हमारे स्वाधीनता संग्राम की थाती हैं। हम भारत के लोग अभिशप्त हैं करीब एक शताब्दी तक चले अपने स्वाधीनता संग्राम के गौरवशाली इतिहास को विकृत करने के प्रयासों को देखने के लिए। हम भारत के लोग अभिशप्त हैं भारतीय संविधान और देश की विविधता पर सांप्रदायिक नफ़रत से भरी विचारधारा के हमलों को देखने के लिए। हम भारत के लोग अभिशप्त हैं देश के स्वाधीनता संग्राम से जुड़ी ऐतिहासिक स्मृतियों को नष्ट या विरूपित होता देखने के लिए। हम भारत के लोग अभिशप्त हैं हमारे स्वाधीनता संग्राम के नायकों और आधुनिक भारत के निर्माताओं को लांछित और अपमानित होता देखने के लिए। हम भारत के लोग अभिशप्त हैं उन मनीषियों का तिरस्कार देखने के लिए, जिन्होंने जातिवाद, छुआछूत और स्त्री-पुरुष की गैरबराबरी के खिलाफ न सिर्फ आवाज उठाई बल्कि जमीनी प्रयास भी किए।

वैसे सावरकर-गोलवलकर प्रणित हिंदुत्व की विभाजनकारी और जहरीली विचारधारा को बढ़त तो 2014 में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद से ही मिलना शुरू हो गई थी, लेकिन उसके दूरगामी नतीजे 2019 में आना शुरू हुए और अब तो वे बहुत भयावह रूप में नजर आ रहे हैं। कोई ताज्जुब नहीं कि आने वाले समय में उन नतीजों का और ज्यादा विध्वंसकारी विस्तार देखने को मिले।

भाजपा के सत्ता में आने के बाद से देश में संगठित तौर पर जो कुछ चल रहा है, उसे सत्ता का सिर्फ समर्थन ही हासिल नहीं है बल्कि सत्ता का शीर्ष भी उसमें सक्रिय भागीदारी कर रहा है। पहले 2019 में सांप्रदायिक आधार पर नागरिकता संशोधन कानून बनाया गया और जम्मू-कश्मीर का विभाजन करते हुए उसका पूर्ण और विशेष राज्य का दर्जा खत्म कर दिया गया।

उसी साल अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट का अजीबोगरीब फैसला आया, जिसके आधार पर 2020 में प्रधानमंत्री ने राम मंदिर का भूमि पूजन और शिलान्यास किया। अपने इन फैसलों के जरिए नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने अपने भावी इरादों का संकेत दे दिया था और उसके बाद से उनके इरादें रोजाना अलग-अलग तरह से सामने आ रहे हैं। काशी और मथुरा की मस्जिदों को लेकर तो अभियान शुरू भी हो चुका है।

इस सिलसिले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वह घोषणा भी याद की जा सकती है जो उन्होंने पिछले साल देश की आजादी के 75वें वर्ष में प्रवेश करने के मौके पर की थी। उस दौरान ऑक्सीजन के अभाव में कोरोना पीड़ितों के मरने और गंगा में तैरती उनकी लाशों की विभीषिका को नजरअंदाज करते हुए प्रधानमंत्री ने ऐलान किया था कि अब से हर वर्ष 14 अगस्त को 'विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ के तौर पर मनाया जाएगा।

दुनिया में कोई भी देश या समाज कभी भी अपनी किसी पराजय का दिवस नहीं मनाता है बल्कि उस पराजय को भविष्य के लिए सबक के तौर पर अपनी स्मृतियों में रखता है। लेकिन भारत अब दुनिया का ऐसा पहला और एकमात्र देश हो गया है जो हर साल 14 अगस्त को अपनी पराजय का दिवस मनाएगा। गौरतलब है कि 14 अगस्त 1947 के दिन ही पाकिस्तान नामक देश अस्तित्व में आया था, जो कि भारत के दर्दनाक विभाजन का परिणाम था।

सांप्रदायिक नफरत और हिंसा के वातावरण में हुआ यह विभाजन महज एक देश के दो हिस्सों में बंटने वाली घटना ही नहीं थी बल्कि करीब एक दशक तक चले स्वाधीनता संग्राम के दौरान विकसित हुए उदात्त मूल्यों की, उस संग्राम में शहीद हुए क्रांतिकारी योद्धाओं के शानदार सपनों की और असंख्य स्वाधीनता सेनानियों के संघर्ष, त्याग और बलिदानों की ऐतिहासिक पराजय थी। उसी पराजय का परिणाम था- पाकिस्तान का उदय।

इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि भारत विभाजन की उस परिघटना में बड़े पैमाने पर लोग विस्थापित हुए थे। उस दौरान हजारों लोग कत्ल कर दिए गए थे और लाखों लोग अपनी जान बचाने के लिए अपना घर-संपत्ति छोड़ कर इधर से उधर यानी भारत से टूट कर बने पाकिस्तान में चले गए थे और लाखों लोग उधर से इधर आ गए थे।

ऐसी दर्दनाक विभीषिका का स्मृति दिवस मनाने का उत्सवप्रेमी प्रधानमंत्री का फैसला देश-दुनिया की नजरों में भले ही उनकी और उनकी सरकार के मानसिक और वैचारिक दिवालिएपन का प्रतीक और स्वाधीनता दिवस को दूषित करने या उसका महत्व कम करने वाला हो, मगर हकीकत यह है उन्होंने यह फैसला अपनी विभाजनकारी वैचारिक विरासत के अनुरूप ही लिया।

दरअसल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) या भाजपा के साथ सबसे बड़ी समस्या यह भी है कि उसके पास अपना कोई ऐसा नायक या इतिहास पुरुष नहीं है, जिसकी भारत के स्वाधीनता संग्राम में कोई भागीदारी रही हो या जिसकी उसके संगठन के बाहर कोई स्वीकार्यता या सम्मान हो। उसके अपने जो नायक हैं, उनका भी वह एक सीमा से ज्यादा इस्तेमाल नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसा करने पर स्वाधीनता संग्राम के दौरान किए गए उनके राष्ट्रीय पापों का पिटारा खुलने लगता है। इसीलिए उसने पिछले कुछ दशकों से अपनी सुविधानुसार देश के महापुरुषों और राष्ट्रनायकों का 'अपहरण’ कर उन्हें अपनी विचार परंपरा का वाहक बताने का शरारत भरा अभियान चला रखा है।

स्वामी विवेकानंद, शहीद भगत सिंह, डॉ. भीमराव आंबेडकर, लोकमान्य तिलक, सरदार वल्लभभाई पटेल, लालबहादुर शास्त्री आदि कई नाम हैं, जिनका आरएसएस या भाजपा की विचारधारा से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन वह इन नामों को अपनी सुविधा और जरूरत के मुताबिक समय-समय पर पूरी निर्लज्जता से इस्तेमाल करती रहती है। इन महापुरुषों को अपना वैचारिक पुरखा बताने के साथ ही उसने लंबे समय से महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू को तरह-तरह से अपमानित और लांछित करने का अभियान भी चला रखा है, जो सत्ता में आने के बाद पिछले सात-आठ वर्षों के दौरान तेज हुआ है।

यही नहीं, महात्मा गांधी के हत्यारों को महिमामंडित करने का जो अभियान पहले दबे-छुपे चलता था, वह खुलेआम चलने लगा है। नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे की मूर्तियां लगने लगी हैं और मंदिर बनने लगे हैं। उनको अपना आदर्श बताने वाले लोग संसद और विधानसभा में पहुंचने और मंत्री बनने लगे हैं। यही नहीं, 2014 से शुरू हुए इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए अब देश को 1947 में मिली आजादी को भीख में मिली आजादी बताया जाने लगा है। कहा जा रहा है कि देश को वास्तविक आजादी 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मिली है।

कुछ दिनों पहले उत्तराखंड के हरिद्वार, छत्तीसगढ़ के रायपुर और उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में 'धर्म संसद’ के नाम पर हुए कथित साधु-संतों के जमावड़ों में जो कुछ हुआ, उसे देश को गृह युद्ध में झोंकने और विभाजन की ओर धकेलने के प्रयास के तौर पर ही देखा जा सकता है। इन जमावड़ों में देश की मुस्लिम आबादी मिटाने का संकल्प लिया गया और हिंदुओं से अपील की गई कि वे किताब-कॉपी छोड़ कर हाथों में तलवार लें और ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करें। एक तथाकथित महंत ने कहा कि अगर दस साल पहले वह संसद में होता तो उस समय के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को गोलियों से उसी तरह छलनी कर देता जैसा नाथूराम गोडसे ने गांधी को किया था।

इलाहाबाद में हुई 'धर्म संसद’ में तो भारत को 'हिंदू राष्ट्र’ घोषित कर उसका संविधान तक पेश कर दिया गया। इन 'धर्म संसदों’ में साधु वेशधारी जिन लोगों ने अपने भाषणों में यह बातें कही, वे सभी अक्सर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद के मंचों पर भी अक्सर मौजूद रहते हैं और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित भाजपा और आरएसएस के शीर्ष नेताओं के साथ भी उनकी तस्वीरें देखी जा सकती हैं।

इन तमाम तथाकथित धर्म संसदों में दिए गए भाषणों को सुनने के बाद सवाल उठता है कि क्या दुनिया के किसी भी सभ्य देश में इस तरह की बातों की अनुमति दी जा सकती है? पुलिस प्रशासन की मौजूदगी में इस धर्म संसद में हुए भाषण इस बात का स्पष्ट संकेत है कि भारत का तालिबानीकरण अब एक सरकारी परियोजना की शक्ल लेता जा रहा है।

देश के विभिन्न इलाकों में मुसलमानों और ईसाइयों के उपासना स्थलों पर, पादरियों और ननों पर तथा दलितों-आदिवासियों पर हिंदुत्ववादी संगठनों के हमले कोई नई बात नहीं है। गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान आदि राज्यों में इस तरह की घटनाएं होती रही हैं। लेकिन हाल के दिनों में इस सिलसिले में तेजी से उभार आया है। मध्य प्रदेश, कर्नाटक और हरियाणा में इस तरह की घटनाएं खूब हुई हैं।

इस तरह की तमाम घटनाओं को केंद्र सरकार की भी मौन सहमति इसी बात से जाहिर होती है कि प्रधानमंत्री या गृह मंत्री ने न तो इन घटनाओं की निंदा की और न ही राज्य सरकारों को ऐसी घटनाओं पर रोक लगाने के लिए आवश्यक कदम उठाने के निर्देश दिए। कहा जा सकता है कि सरकार की शह पर हिंदुत्ववादी संगठनों का यह रवैया देश को गृहयुद्ध में झोंकने का प्रयास है।

दुनिया के लोकतांत्रिक समाजों में सरकारें कहीं की भी हो, वे मुश्किल से मुश्किल हालात में अपने लोगों से शांति की अपील और शांति के लिए जरूरी बंदोबस्त करती दिखती हैं। लेकिन भारत एक अपवाद है जहां सरकार के स्तर पर गृहयुद्ध के लिए आबादियों को ललकारा/उकसाया जा रहा है। पिछले दिनों 'द कश्मीर फाइल्स’ के नाम से आई फिल्म की प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह से तारीफ की और उसके बाद उनकी पार्टी ने तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर बनाई गई बदअमनी फैलाने वाली इस फिल्म के समर्थन में जो देशव्यापी शर्मनाक अभियान चलाया, उसे इसी रूप में देखा जा सकता है।

एक ओर यह सब सरकार समर्थक हिंदुत्ववादी संगठनों के तत्वावधान में हो रहा है तो सरकारी स्तर पर भी लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष भारत को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने के वीभत्स और डरावने प्रयास देखने को मिल रहे हैं। बीता साल खत्म होते-होते वाराणसी में सरकारी खजाने के 650 करोड़ रुपये से बने काशी विश्वनाथ धाम कॉरिडोर के लोकार्पण के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा रचा गया बेहद खर्चीला प्रहसन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

जिस गंगा नदी में इसी साल कोरोना महामारी के दौरान उचित इलाज और ऑक्सीजन के अभाव में मारे गए असंख्य लोगों की लाशें तैरती हुई देखी गई थीं, उसी गंगा में और उसके तट पर प्रधानमंत्री मोदी ने टीवी कैमरों की मौजूदगी में खूब 'धार्मिक क्रीड़ाएं’ कीं। पंथनिरपेक्ष संविधान की शपथ लेकर प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए नरेंद्र मोदी इस पूरे प्रहसन में विशुद्ध रूप से एक धर्म विशेष के नेता के रूप में नजर आए, ठीक उसी तरह जैसे अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़ कर बनाए जा रहे राम मंदिर के शिलान्यास के मौके पर पिछले साल नजर आए थे।

इसके अलावा भी हाल के वर्षों में सरकारी तामझाम के साथ प्रधानमंत्री ने कई धार्मिक स्थलों की यात्राएं की हैं और अपनी निजी धार्मिक आस्थाओं का नाटकीय और भौंडा प्रदर्शन किया है। भारत जैसे बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक देश के प्रधानमंत्री का इस तरह एक धर्म विशेष तक सीमित या संकुचित हो जाना संवैधानिक मूल्यों का संविधान की शपथ का मखौल उड़ाना है।

कुल मिला कर सत्ता में बैठे लोग और उनके समर्थक संगठन अपनी नफरतभरी और विभाजनकारी विचारधारा को अमली जामा पहनाने के लिए जिस रास्ते पर चल रहे हैं, वह देश की शर्तिया बर्बादी का रास्ता ही है, इसके सिवाय कुछ नहीं। देश को इस स्थिति से बचाने की जिम्मेदारी जिन संवैधानिक संस्थाओं पर है, वे सब की सब सरकार के हरम की बांदी बनी हुई हैं।

राजनीतिक स्तर पर इस स्थिति का मुकाबला करने की जिम्मेदारी जिन ताकतों पर हैं, वे बुरी तरह विभाजित, कमजोर और डरी हुई हैं। ऐसी स्थिति में हम भारत के लोग देश को बहुवचन बनाने के प्रयासों को देखने के लिए अभिशप्त हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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