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भारत की पहली रोहिंग्या महिला ग्रेजुएट बनीं दुनियाभर के रिफ़्यूजी लोगों के संघर्ष के लिए एक मिसाल

तसमिदा जौहर भारत की पहली रोहिंग्या महिला ग्रेजुएट हैं। उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सटी से बीए पास कर लिया है और अब आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका या फिर कनाडा जाने की राह देख रही हैं।
Tasmida

2023 के ऑस्कर पुरस्कारों का ऐलान हुआ तो बहुत से यादगार लम्हे इतिहास में दर्ज हो गए और इन्हीं में से एक थी Ke Huy Quan की स्पीच, क्वान को Everything Everywhere All At Once के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का ऑस्कर अवॉर्ड मिला। जैसे ही उनके नाम का ऐलान हुआ आंखों में आंसू लिए उन्होंने कहा कि-

''मेरी मां 84 साल की हैं, वे घर से ऑस्कर्स देख रही हैं, मां, मैंने ऑस्कर जीत लिया। मेरा सफ़र एक कश्ती पर शुरू हुआ, एक साल रिफ़्यूजी कैम्प में रहा। किसी तरह मैं यहां तक पहुंच गया, हॉलीवुड के सबसे बड़े स्टेज पर, कहा जाता है कि ऐसी कहानियां सिर्फ़ फ़िल्मों में होती है, मुझे यक़ीन नहीं हो रहा कि ये मेरे साथ हो रहा है। ये अमेरिकन ड्रीम है..''

क्वान (Quan) की बातें सुनकर लग रहा था कि एक पल में ही उन्हीं अपनी जिन्दगी के वे तमाम संघर्ष याद आ गए जो उन्होंने यहां तक पहुंचने के लिए तय किए थे। क्वान (Quan) कभी वियतनाम से अमेरिका पहुंचे थे।Tasmida

ऑस्कर अवॉर्ड थामे हुए उन्होंने कहा कि-

''मैं आप सभी से ये कहना चाहूंगा कि अपने सपनों को ज़िदा रखिए''

क्वान के लिए भले ही ये ख़ुशी का मौका था लेकिन उनकी बातें बता रही थी कि क्या होता है एक रिफ्यूजी होना, अपने घर से बेघर लोग कैसे अपनी ज़िन्दगी के लिए जद्दोजहद करते हैं। ख़ुद को ज़िन्दा रखने के लिए पराए देश में ज़िन्दगी का बुनियादी सामान जोड़ते-जोड़ते कितना मुश्किल होता है सपनों के लिए जगह बनाए रखना।

क्वान ( Quan ) आज की तारीख़ में बहुत बड़ा नाम है लेकिन उनकी स्पीच में कही बात कि ''मेरा सफ़र एक कश्ती पर शुरू हुआ, एक साल रिफ़्यूजी कैम्प में रहा'' बिल्कुल वैसी ही लग रही थी जैसी भारत में रह रही रोहिंग्या रिफ़्यूजी तसमिदा जौहर की।

द इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक़ तसमिदा जौहर ( Tasmida Johar) भारत की पहली रोहिंग्या महिला ग्रेजुएट बन गई हैं। तसमिदा ने दिल्ली यूनिवर्सिटी से बीए पूरा कर लिया है। जिस वक़्त उन्हें दिल्ली यूनिवर्सिटी में एडमिशन मिला था उस वक़्त भी उनकी कहानी पूरी दुनिया तक पहुंची थी।

तसमिदा दिल्ली में ही रहती हैं हमने उनके यहां तक पहुंचने के सफ़र और आगे के सपनों के बारे में बातचीत की।

सवाल- आपके नाम का क्या मतलब है?

तसमिदा- इंग्लिश में इसका मतलब होता है always ready for help.

सवाल- आपको कब और कैसे पता चला कि आप भारत की पहली रोहिंग्या महिला ग्रेजुएट बन गई हैं?

तसमिदा- जब मैंने दसवीं में एडमिशन लिया था तभी से मुझे पता था कि कोई और रोहिंग्या लड़की पढ़ नहीं रही है और उस वक़्त भी मीडिया ने मेरे इंटरव्यू लिए थे। और जब ग्रेजुएशन पूरी हो गई तो फिर से बहुत सारे मीडिया हाउस मेरे घर आए थे।

सवाल- यहां तक पहुंचने का सफ़र कैसा रहा?

इस सवाल के जवाब में तसमिदा ने बहुत कुछ बताया वे बताती हैं कि बर्मा ( म्यांमार ) में बहुत बुरा हाल था, वहां रोहिंग्या और दूसरे बच्चों के साथ बहुत भेदभाव किया जाता था। वहां स्कूल में रोहिंग्या बच्चों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था, उन्हें क्लास में अलग बैठाया जाता था। वे कहती हैं कि'' वहां रोहिंग्या नाम के साथ पढ़ाई नहीं की जा सकती इसलिए मुझे अपना नाम बदलना पड़ा था, जो नाम अम्मी ने रखा था वे पढ़ाई के लिए बदलना पड़ा और फिर वही नाम रह गया, आज मेरे हर पेपर और डाक्यूमेंट पर वही नाम है''

तसमिदा जब पैदा हुई थी तो उन्हें एक पहचान और नाम मिला था लेकिन माहौल कुछ ऐसे बने कि तसमिदा को अपने उस नाम को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने के लिए नया नाम रखना पड़ा। देश बदले और स्कूल बदले लेकिन एक चीज़ जो बिल्कुल नहीं बदली वे थी पढ़ाई को लेकर लगाव। तसमिदा बताती है कि जब उन्होंने बर्मा ( म्यांमार) छोड़ा था तो सात-आठ साल की थीं वे कहती हैं कि '' उस वक़्त मैं बहुत छोटी थी लेकिन आज भी मुझे अपना घर साफ़-साफ़ याद है, हर वो जगह याद है जहां बचपन में खेला करती थी। मेरी बेस्ट फ्रेंड भी इंडिया आई थी शुरू-शुरू में उससे मुलाक़ात भी हुई थी लेकिन आज वे मेरे सम्पर्क में नहीं है शायद उसकी शादी हो गई होगी''

तसमिदा के लिए पढ़ाई को थामे रखना बिल्कुल आसान नहीं था वे बताती हैं कि ''बर्मा ( म्यांमार ) छोड़कर जब बांग्लादेश ( दुनिया के सबसे बड़े शरणार्थी शिविर में से एक ) पहुंचे तो मुझे वहां की ज़बान नहीं आती थी, पढ़ाई एक बार फिर से पहली क्लास से शुरू करनी पड़ी, वहां एक साल तक तो हम घर से बाहर निकलने में डरते थे, फिर धीरे-धीरे वहां की भाषा सीखी और पढ़ाई शुरू की, लेकिन वहां भी बार-बार घर बदलने पड़े स्कूल बदलने पड़े।"

तसमिदा 2012 में भारत आई थीं

मुश्किलों का सफ़र तय करते हुए तसमिदा का परिवार किसी तरह 2012 में भारत पहुंचा लेकिन यहां भी जिन्दगी आसान नहीं थी। तसमिदा ने एक बार फिर से पढ़ाई शुरू की और धीरे-धीरे दसवीं और बारहवीं के बाद दिल्ली यूनिवर्सटी में भी एडमिशन मिल गया, तसमिदा बताती हैं कि अब उन्हें एक स्कॉलशिप मिली है जिसका वे इंतज़ार कर रही हैं अगर सबकुछ ठीक रहा तो वे आगे की पढ़ाई के लिए कनाडा या फिर अमेरिका चली जाएंगी। ( तसमिदा की बढ़ाई या फिर रिफ़्यूजी लोगों की पढ़ाई में कुछ प्लेटफॉर्म मदद करते हैं जो वॉर कंट्री के बच्चों की पढ़ाई के लिए काम करते हैं )

डॉक्टर बनने का सपना था

हालांकि तसमिदा बताती हैं कि वे बचपन से ही डॉक्टर बनना चाहती थीं उन्होंने रिफ़्यूजी कैम्प में महिलाओं को पुरुष डॉक्टर के पास जाने में झिझक महसूस करते हुए देखा था वे बताती हैं कि '' मैं गायनाकोलॉजिस्ट ( Gynecologist) बनना चाहती थी, दसवीं तक यही था कि किसी भी हालत में डॉक्टर बनना है, लेकिन हो नहीं पाया जब मैं इंडिया आई तो मैंने बहुत सारे सरकारी स्कूलों में कोशिश की लेकिन हो नहीं पाया, फिर मेरे पास कोई चॉइस नहीं थी, मैं उस वक़्त बहुत उदास थी लेकिन फिर मुझे भारत में ही बहुत से लोगों ने समझाया कि आप डॉक्टर बनकर ही नहीं बल्कि एक वकील बनकर भी अपने लोगों की मदद कर सकती हो, उन्होंने मुझे समझाया कि अगर आपको कोई मौक़ा मिल रहा है तो उसका ठीक से इस्तेमाल करो, पर मैं आज भी जब किसी महिला डॉक्टर को देखती हूं तो मेरे दिल को बहुत सुकून मिलता है मैं उनकी बहुत इज़्ज़त करती हूं''

तसमिदा के बहुत से सपने है वे बहुत कुछ करना चाहती हैं लेकिन जब हमने उनके पूछा कि एक रिफ्यूजी होने का क्या मतलब होता है? तो बहुत ही उदास होकर उन्होंने जवाब दिया। कि ''बाकी जो रिफ़्यूजी है जैसे अफगान से, सोमालिया से या फिर किसी और देश से उन्हें देखने का नज़रिया और एक रोहिंग्या रिफ़्यूजी को देखने के नज़रिए में अतंर दिखता है। रोहिंग्या लोगों को बहुत कुछ कहा जाता है जो बहुत ही दुख पहुंचाता है''

वे आगे कहती हैं कि '' जम्मू और दिल्ली के डीटेंशन सेंटर में बहुत से रोहिंग्या हैं, हम हमेशा एक डर के साथ जीते हैं, हमे बार-बार बोला जाता है कि वापस जाना पड़ेगा, बर्मा में हालात ठीक नहीं हैं अगर हमें वापस भेज दिया गया तो हम क्या करेंगे? ये डर हमेशा ही रहता है कि पता नहीं कब हमें वापस भेज दिया जाए या फिर कब हमें डीटेंशन में डाल दिया जाए बस ज़िन्दगी यूं ही डर-डर कर जीते हैं''

''रोहिंग्या लड़कियों को ज़रूर पढ़ना चाहिए''

तसमिदा बहुत सुलझी हुई दिखती हैं, वे बहुत ही संभल कर और नपे-तुले लफ़्ज़ इस्तेमाल करती हैं। उन्हें इस बात का भी एहसास है कि अगर वे आगे बढ़ेंगी तो भारत में रह रही रोहिंग्या लड़कियों के लिए भी एक रहा बनेगी वे कहती हैं कि '' मैं ख़ासकर लड़कियों को कहना चाहती हूं कि लड़कियों का पढ़ना बहुत ज़रूरी है, हमारे पास न घर है न पैसा, हमारा क्या होगा कुछ पता नहीं, सिर्फ़ पढ़ाई-लिखाई ही हमारी और हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए मददगार साबित होगी। अगर हमें अच्छी जिन्दगी चाहिए तो हमें पढ़ना होगा, बहुत से लोग हैं जो हमारे लिए काम कर रहे हैं भारत में भी और भारत के बाहर भी लेकिन जिस तरह से हम अपनी कम्युनिटी को समझते हैं अपनी परेशानी को समझते हैं, दुनिया के सामने रख सकते हैं वैसा कोई और नहीं क्योंकि हमने ये सब ख़ुद सहा है। जब हम पढ़ लिखकर बोलेंगे तो हमारी सरकार को ( म्यांमार ) को सुनना पड़ेगा वे कल सुनेंगे, कल नहीं तो परसो सुनेंगे लेकिन उन्हें सुनना पड़ेगा''

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वे आगे कहती हैं कि

''रोहिंग्या दर-बदर भटक रहे हैं उनका पढ़ाई की तरफ़ ध्यान चाह कर भी नहीं जा पा रहा क्योंकि उनके लिए जान बचाना ही सबसे बड़ी बात है ऐसे में स्कूल बहुत दूर हो जाते हैं, मैं अपनी बात करूं तो मुझे सात-आठ स्कूल बदलने पड़े कभी इधर तो कभी उधर, बांग्लादेश में भी रहे तो वहां भी हम एक जगह पर नहीं रह पाए पापा को काम के लिए घर बदलना पड़ा तो हमारा भी स्कूल छूटता चला गया, रिफ़्यूज लोगों को बार-बार घर बदलते पड़ते हैं। और फिर लगने लगता है कि रिफ़्यूज़ी पढ़कर भी क्या कर लेंगे? हमारी ज़िन्दगी यही है कि दर-बदर भटकना है, पर फिर भी हमें पढ़ना होगा''

मां की वजह से तसमिदा आगे बढ़ पाईं

तसमिदा बताती है कि इधर से उधर भटकने और रहने की जगह न होने पर रोहिंग्या जल्दी से अपने बेटियों की शादी कर देते हैं लेकिन मेरी मम्मी ने कहा कि ''नहीं, किसी को तो आगे आना होगा इसलिए तसमिदा की शादी पढ़ाई पूरी होने पर ही होगी, वे जितना पढ़ना चाहती है पढ़ सकती है'' तसमिदा का परिवार म्यांमार के रखाइन प्रांत में रहता था, उनकी आर्थिक हालत भी ठीक थी लेकिन जब उन्हें जान बचाकर कश्ती पर सवार होकर वहां से निकलना पड़ा तो सबकुछ पीछे छूट गया उस वक़्त बच्चे छोटे थे तो पिता को मजदूरी और मां को घरों में काम करना पड़ा, देश बदले हालात बदले पर एक चीज जो बिल्कुल नहीं बदली वे थी पढ़ाई को लेकर जुनून तसमिदा का परिवार और ख़ासकर उनकी मां चाहती थीं कि बच्चे पढ़ाई करें।

तसमिदा से जब पूछा कि क्या वे अपने देश लौटना चाहती हैं? तो खिलखिलाते हुए वे कहती हैं कि ''मुझसे नहीं ये आप किसी भी रोहिंग्या से पूछेंगी तो जवाब होगा हां, हम बर्मा जाना चाहते हैं, हम वहीं अपने घरों में रहना चाहते हैं हमें हमारे देश के कोई शिकायत नहीं है शिकायत है तो सरकार से''

UNHCR ( United Nations High Commissioner for Refugees ) की वेबसाइट पर नज़र डालें तो पता चलता है कि 2021 के आख़िर तक पूरी दुनिया में अलग-अलग वजहों से बेघर होने वालों की संख्या 89.3 मिलियन है। जिनमें 27.1 मिलियन लोग रिफ़्यूजी हैं।

दुनिया भर में बढ़ती रिफ़्यूज़ी लोगों की संख्या बेशक एक चिंता का सबब है, इनकी बढ़ती संख्या का राजनीतिक पहलू तो है ही साथ ही एक सामाजिक और मानवीय पक्ष भी है. दुनिया भर में रिफ़्यूजी लोगों की समस्या पर तमाम किताब लिखी जाती हैं, फ़िल्में बनती हैं लेकिन फिर भी क्या दुनिया रिफ़्यूजी लोगों को लेकर वैसी संवेदना और समझ रखती है जैसी होनी चाहिए? ऑस्कर के स्टेज पर खड़े होकर क्वान ( Quan ) के लिए सपनों को जिन्दा रखने की बात कहना कितना भारी रहा होगा क्या इसका एहसास दुनिया को है? खालिद हुसैनी( Khaled Hosseini ) की किताब 'द काइट रनर' ( The Kite Runner ) पर बेस्ड फ़िल्म में अफगानिस्तान के आमिर और हसन की कहानी हो या फिर 'द स्विमर' ( The Swimmers ) में ओलंपिक में हिस्सा लेने के जुनून में सीरिया से समंदर पार कर निकली दो रिफ्यूजी की कहानी। आख़िर सपनों के पीछे भागते ये रिफ़्यूजी क्यों अपने वतन वापस नहीं जा सकते? अगर बढ़ते रिफ़्यूजी देशों के लिए ख़तरा होते हैं तो क्यों ऐसे हालात बनते हैं कि लोग अपना घर छोड़कर रिफ्यूजी बनने पर मजबूर हों? और ऐसे में बस मौजूदा हाल पर एक ही सवाल कि क्या रूस-यूक्रेन को युद्ध में झोंकने वाले फैसलों को टाला जा सकता था?

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