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अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े पर भारत के ‘ग़ैर-बुद्धिजीवी’ मुस्लिम का रुख

यह ढोंग लगता है जब भारत का मुस्लिम बुद्धिजीवी तबक़ा अफ़ग़ानिस्तान में बहुलवाद, न्याय, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र का पक्ष नहीं लेता है। क्योंकि भारत में तो वे यही चाहते हैं।

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फ़ोटो साभार: एपी

अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद से भारतीय मुस्लिम बुद्धिजीवियों के एक वर्ग के भीतर एक परेशान करने वाली प्रवृत्ति देखी जा रही है। उनमें से कई ऐसे हैं जो तालिबान के सत्ता में आने के बाद के भयंकर परिणामों को कम आंक कर चल रहे हैं, जबकि घबराए हुए अफ़ग़ान लोगों की संकटग्रस्त देश से भागने के प्रयास के विडियो सोशल मीडिया पर आम हैं। देखा गया है कि ऐसे एक तबके में तालिबान के प्रति सहानुभूति की भावना भी है, जो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर मिली कई पोस्ट और टिप्पणियों से स्पष्ट है। भारतीय मुस्लिम बुद्धिजीवियों के एक वर्ग का तालिबान के प्रति नरम रुख, गैर-कुलीन मुस्लिम समुदायों पर अत्याचार करने और उनके हितों की उपेक्षा करने की प्रवृत्ति को दर्शाता है। उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष मुस्लिम बुद्धिजीवी इस मुद्दे पर अब तक खामोश हैं। उन्हें मुसलमानों के बीच रूढ़िवादियों को जवाब देना चाहिए और  और मीडिया को उदार मुसलमानों को बहस में जगह देनी चाहिए।

मुस्लिम समाज के कमजोर तबकों की प्रगति न्यायसंगत और लोकतांत्रिक व्यवस्था में अधिक है। यही कारण है कि भारत में हिंदुत्ववादी ताकतों का विरोध करने वाले लोगों को पितृसत्तात्मकता और "सहिष्णुता" को अलग रखना चाहिए, जो अक्सर मुसलमानों के बीच नासमझ और प्रगतिशील विरोधी लोगों को जनमत को प्रभावित करने का मौका देते हैं। समाज में प्राभाव रखने वाले कुछ मुस्लिम ज़रूरत से ज़्यादा चालाक बनने की कोशिश करते हैं, जो जाहिरा तौर पर आधुनिक, यहां तक ​​कि साम्राज्यवाद-विरोधी तर्कों में अपनी सहानुभूति व्यक्त करते हैं। विश्वसनीयता हासिल करने के लिए बहुसंख्यकवाद के खिलाफ प्रतिरोध करने वाले तर्क के इस ब्रांड पर सवाल उठाए जाने चाहिए।

इस सबका एक साफ लक्षण यह है कि कुछ राय बनाने वाले मुस्लिम तालिबान की निंदा करते वक़्त लड़खड़ा जाते हैं, उनका दावा है कि 2021 का तालिबान एक "अच्छा तालिबान" है। उनकी यह धारणा तालिबान के प्रति सरकार का रुख़ क्या होना चाहिए क्या नहीं के आधार पर बनता है। प्रचारकों और संतों की तरह तक़रीर करने वाले ये लोग भूल जाते हैं कि तालिबान की विचारधारा रूढ़िवादी हैं। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड से जुड़े देवबंद-समर्थक मौलाना सज्जाद नोमानी ने एक विस्तृत वीडियो संदेश में तालिबान का "स्वागत" किया है। बुजुर्ग सांसद शफीकुर रहमान बुर्क ने भी तालिबान की विश्वदृष्टि और भयानक प्रथाओं की निंदा करने से परहेज किया है।

वे अपने बचाव में यह तर्क भी दे सकते हैं कि यह हिंदू दक्षिणपंथ है, जो मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए तालिबान का इस्तेमाल कर रहा है। फिर भी, इस तरह के तर्क के जवाब में प्रतिक्रियावादी ताकतों का समर्थन करना अस्वीकार्य है। अभिजात्य मुसलमानों के सामने निश्चित रूप से चुप रहने का विकल्प मौजूद है अगर वे स्पष्ट रूप से तालिबान की निंदा नहीं कर सकते हैं। इसके अलावा, भारतीय मुसलमान होने के नाते, उनकी प्रतिबद्धता एक बहुलवादी और समावेशी शासन मॉडल से कम की नहीं होनी चाहिए।

एक ऐसे शासन का स्वागत करना जो एक धार्मिक शासन तंत्र का हिमायती है और इस्लाम की किसी अन्य किसी व्याख्या को नहीं मानता है, उनका सबसे अच्छा पाखंड है - जैसे कि हिंदुत्व के समर्थक पाखंडी हैं, जो तालिबान का तिरस्कार करते हैं और उसे भय से देखते हैं, बावजूद इसके वे खुद मुस्लिम विरोधी और दलित विरोधी दंगों और लिंचिंग में खुद की भूमिका की सराहना करते हैं। इन अपराधों के अपराधी बिना किसी भय अक्सर आज़ाद घूमते हैं क्योंकि सबूतों के अभाव में उन्हें न्यायिक जांच में छोड़ दिया जाता है। बहरहाल, इस बात की परवाह किए बिना कि भारत अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति से कैसे निपटता है, भारतीय नागरिक समाज को एक समावेशी बहुलवादी राज्य का समर्थन करना चाहिए; ऐसा न करके वह भारतीय धर्मनिरपेक्षता में अपनी नैतिक हिस्सेदारी खोने का जोखिम उठा रहे हैं।

निस्संदेह, भारतीय मुसलमान बहुसंख्यकवाद के हमले का सामना कर रहे हैं। फिर भी, वे इसका मुक़ाबला करने के लिए भारत और दुनिया के सामने भारतीय धर्मनिरपेक्षता और संविधान का सहारा लेते हैं। यदि वे तालिबान के विपरीत बोलते हैं, तो वे ऐसा अपने जोख़िम पर कर रहे होंगे। यूक्ति-पूर्वक तरीके से भी, यह एक आत्म-पराजय की स्थिति है, क्योंकि तालिबान के इतिहास को नकारने से उन सभी लोगों फिर चाहे मुस्लिम हो या हिंदू- को आहत करता है जो बहुसंख्यकवाद का विरोध करते हैं।

मुस्लिम राजनीतिक नेताओं को यह समझने के लिए ऐतिहासिक भूलों को याद करने की ज़रूरत  है कि अगर यह प्रवृत्ति अनियंत्रित रही तो भविष्य में क्या हो सकता है। सहस्राब्दी मुस्लिम रूढ़िवादी हैं जो खुद को “अल्पसंख्यक" के रूप में चिन्हित करते हैं, और जो प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं, उन्हें विशेष रूप से तीन पिछली गलतियों को याद रखना चाहिए। 1920 के दशक में, खिलाफ़त आंदोलन से भड़की हिंदू-मुस्लिम एकता ने औपनिवेशिक शासन को चिंता में डाल दिया था। इस बात को शायद ही कभी स्वीकार किया जाता है कि इसने हिंदुओं के एक वर्ग को भी असहज कर दिया था। लाला लाजपत राय ने सीआर दास और मदन मोहन मालवीय से कहा था कि हिंदू भारत के मुसलमानों से भयभीत नहीं हैं, लेकिन यह बदल सकता है अगर वे अफ़ग़ानिस्तान, इराक, तुर्की और अन्य जगहों पर अपने सह-धर्मवादियों के साथ राजनीतिक रूप से गठबंधन करते हैं।

प्रसिद्ध कथाकार और यात्रा का वृत्तांत लिखने वाले लेखक और अनुवादक इंतेज़ार हुसैन ने अपनी पुस्तक "अजमल-ए-आज़म" (2003) में इस बढ़ती भावना के निहितार्थ की व्याख्या की है। वे लिखते हैं कि भारत में खिलाफ़त आंदोलन के मुस्लिम नेताओं ने तुर्की के आंतरिक मामलों को पूरी तरह से नहीं समझा, जो उस वक़्त इस्लामिक खलीफा की तत्कालीन सीट थी। न ही उन्हें यह समझ में आया कि खिलाफ़त की संस्था ने तुर्की के युवाओं को भी कैसे पतित और विमुख कर दिया था। ऑक्सफोर्ड-शिक्षित अलीगढ़ के पूर्व छात्र मोहम्मद अली जौहर (1878-1931) सहित भारतीय मुस्लिम नेताओं ने खिलाफ़त के बारे में अप्रिय तथ्यों की अनदेखी की है। वास्तविकता से उनके इनकार ने मुस्लिम जनता को अंधेरे में रखा और उन्हें धार्मिक मुद्दों पर आंदोलन करने के लिए छोड़ दिया। शीला रेड्डी की 2018 की किताब "मिस्टर एंड मिसेज जिन्ना" में उस अनुचित तरीके को उज़ागर करती है कि कैसे अली बंधुओं ने जागरूकता फैलाने के बजाय धार्मिक भावनाओं को भड़काने का काम किया था। 

दूसरा, खिलाफ़त के बाद के युग में, अंग्रेजों ने हिंदू-मुस्लिम एकता की हर संभावना को समाप्त कर दिया था। साथ ही, हिंदुओं का एक वर्ग मुस्लमानों की समग्र इस्लामी चिंताओं और भावनाओं को लेकर आशंकित रहा है। भ्रामक और आधी-अधूरी रणनीतियाँ अब विभाजन की चक्की में समा चुकी थीं। उन्होंने हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच बढ़ती दूरी को और बढ़ाया, जिसने अंततः विभाजन का रास्ता तैयार किया। 

बिसवे और तीसवे दशक के दौरान, हिंदू कट्टरपंथी ताकतों ने हिंदू आशंकाओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने का काम किया, जो अंतत 1980 के दशक के बहुसंख्यकवाद के अभियान में फली-फूली। मुस्लिम बुद्धिजीवी शायद ही कभी इस बात पर विचार करें कि 1986 में अयोध्या विवाद अचानक अखिल भारतीय मुस्लिम मुद्दे में क्यों तब्दील हो गया। ये तबका सुप्रीम कोर्ट के 1985 के शाह बानो के फैसले के बाद हुई घटनाओं पर चुप रहना पसंद करता है।

वर्ष 1988 के अपने संस्मरण में, कारवां-ए-जिंदगी में, मौलाना अबुल हसन अली मियां नदवी ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी को उस प्रस्ताव को अस्वीकार करने के लिए राजी किया जिसमें कई इस्लामी देशों ने लैंगिक समानता के लिए अपने व्यक्तिगत कानूनों में सुधार किया था, उन्होने अपनी इस सफलता को विजय माना है। नतीजतन, उन्होंने महिलाओं के पक्ष में मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार के लिए भारत के पहले अवसर को प्रभावी ढंग से रोक दिया था। फिर वे  कबूल करते है कि: "1986 में शरीयत की रक्षा में हुई लामबंदी ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे को जटिल बना दिया था और माहौल को बड़े पैमाने पर खराब कर दिया था।"

निकोलस नुगेंट की 1990 की किताब, राजीव गांधी: सन ऑफ ए डायनेस्टी, में इस बात की पुष्टि मिलती है। नुगेंट लिखते हैं, "अयोध्या को एक पैकेज डील माना गया था ... मुस्लिम महिलाओं के बिल प्रति एक आदान-प्रदान ... राजीव ने इस पैकेज डील में हिंदू पक्ष को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जैसे कि हिंदुओं द्वारा पूजा करते वक़्त उनकी तस्वीरों को टेलीविजन पर दिखाया जाना आदि। 

फैजाबाद जिला अदालत द्वारा 1 फरवरी 1986 को ताला खोलने की अनुमति देने के फैसले के एक घंटे के भीतर ताला खोल दिया गया था। जनवरी 1986 तक, राजीव गांधी ने मुस्लिम मौलाना और मोमिन सम्मेलन के जियाउर रहमान अंसारी से पहले ही एक समझौता कर लिया था। रहमान अंसारी के बेटे फसीहुर ने 2018 में प्रकाशित अपनी जीवनी, विंग्स ऑफ डेस्टिनी में इसका उल्लेख किया है।

इस ज्वलंत प्रश्न का जवाब देने के लिए – कि जब चुनाव चार साल दूर थे, तो फिर प्रशासन ने जल्दबाजी में ताले क्यों खोले, और जबकि ताला खोलने से राजीव शासन को तत्काल कोई लाभ नहीं हुआ – इस बारे में फ्रांसीसी इतिहासकार लारेंस गौटियर के 2019 के निबंध पर विचार करें। गौटियर ने 1965 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में "आंतरिक" आरक्षण पर एक बहस के बारे में विस्तार से बताया है, जो मुस्लिम अभिजात वर्ग और उसके बाद के प्रभावों के बीच सत्ता के खेल का पर्दा उठाता है। अभिजात वर्ग के एक वर्ग ने सभी मुसलमानों से संबंधित अखिल भारतीय मुद्दे में आरक्षण के सवाल को जोड़ दिया था। इसका परिणाम एक आंदोलन था - और इसके सहभागियों में उलटफेर हुआ - जो लगभग 16 वर्षों तक चला।

तीसरा उदाहरण हाल ही का है जो जमात-ए-इस्लामी-ए-हिंद (JIH) से ताल्लुक रखता है, जिसमें भारतीय मुसलमानों से रामपुर में समाजवादी पार्टी के नेता आज़म खान के निजी विश्वविद्यालय की रक्षा करने की अपील की गई है। जेआईएच ने इसे कौमी असासा या सभी भारतीय मुसलमानों की संपत्ति कहा है। दुर्भाग्य से, कानूनी जानकारियों में दांव लगाने वाले प्रमुख राय निर्माताओं ने खान के जौहर विश्वविद्यालय के संदिग्ध विधायी इतिहास को उजागर करने से परहेज किया है। यह विश्वविद्यालय कोई सामुदायिक संपत्ति नहीं बल्कि ध्रुवीकरण बयानों के लिए बदनाम एक राजनेता की जागीर है। विश्वविद्यालय प्रशासन ने देर से और अनिच्छा से अल्पसंख्यक का दर्जा मांगा, तब-जब आज़म खान परिसर का विस्तार करने के लिए मुस्लिम और दलित किसानों की भूमि हथियाने से संबंधित मुकदमों में फंस गए थे।

इन घटनाओं के संदर्भ में, शायद ही किसी स्पष्टीकरण की जरूरत है कि सभी धर्मों के बहुसंख्यकवाद के खिलाफ़ बोलने की जरूरत है और "अल्पसंख्यक" जो चयनात्मक भूलने की बीमारी से पीड़ित हैं। इस बदलाव के लिए सबसे बड़ी जिम्मेदारी मुस्लिम बुद्धिजीवियों पर है, क्योंकि वे गैर-कुलीन मुस्लिम समुदायों की कीमत पर अपने वर्ग के हितों की रक्षा और बढ़ावा देने वाली तस्वीर को गढ़ते हैं।

समकालीन भारत के नए मुस्लिम बुद्धिजीवियों को पिछली गलतियों से सीखना और भी बड़ा कर्तव्य है। हालाँकि, एक ऐसा रास्ता अपनाने के बजाय जो इज़राइल या पाकिस्तान से अलग हो, हम पाते हैं कि वे प्रतिक्रियावादी प्रवृत्तियों को बढ़ाने करने के लिए बहाने बना रहे हैं। उदाहरण के लिए, वे तालिबान को केवल एक साम्राज्यवाद विरोधी ताकत के रूप में देखने पर जोर देते हैं जिसने अमेरिकी कब्जे का विरोध किया था। इसके जावाब में वे कहते हैं कि औपनिवेशिक भारत ने भी ब्रिटिश कब्जे का विरोध किया था। फिर भी, इसने अपने सामाजिक, भाषाई और जातीय समूहों के लिए एक समावेशी दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया था। इसने साम्राज्यवादी शक्तियों के विरोध में और पूर्व उपनिवेशों के पक्ष में भारत का दृष्टिकोण बनाय था। कांग्रेस पार्टी के 1931 के कराची अधिवेशन और 1936 के फैजपुर कृषि कार्यक्रम के अलावा अन्य सत्रों में ठोस कार्यक्रम और आश्वासन दिए गए थे।

भले ही भारत का उपनिवेशवाद-विरोधी जन आंदोलन दुनिया में सबसे बड़ा था, फिर भी यह रोज़ाना बहुसंख्यकवाद का सामना करता था। अब इस पर विचार करें कि अफ़ग़ानों के लिए तालिबान का क्या अर्थ हो सकता है। यह सामाजिक या जातीय न्याय के लिए बुदबुदाता भी नहीं है, और इसके बढ़ते क़दम का मुकाबला करने के लिए कोई जन आंदोलन भी नहीं है। प्रतिक्रियावादी तालिबान मिलिशिया में मुख्य रूप से पश्तून शामिल हैं जो कई अन्य अफ़ग़ान जातियों की कीमत पर लड़ते हैं और शासन करते हैं। 

इसलिए जिन मुसलमानों की आवाज सुनी जाती है, उन्हें इस बात पर जोर देना चाहिए कि भारतीय संविधान में और हिंदुत्व के खिलाफ उनका दांव एक समावेशी, धर्मनिरपेक्ष, न्यायपूर्ण सरकार के लिए आम अफ़ग़ानों के संघर्ष की तरह होना चाहिए। भारत में धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के मजबूत होने से पहले हमें मुस्लिम बुद्धिजीवियों की भूमिका को फिर से परिभाषित करना होगा। और यह मुख्य रूप से वह मजबूत तबका है जो अपनी भूमिका को फिर से परिभाषित कर सकता है, न कि मुसलमानों के कमजोर तबके को ऐसा करना है, जिन पर वे अत्याचार करते हैं।

लेखक, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आधुनिक और समकालीन भारतीय इतिहास के प्रोफ़ेसर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

 

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

https://www.newsclick.in/day-after-taliban-takeover-protest-breaks-eastern-afghanistan

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