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अफ़ग़ानिस्तान की घटनाओं पर विचार

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की अध्यक्षता में 10 नवम्बर 2021 को अफगानिस्तान पर आयोजित क्षेत्रीय सुरक्षा संवाद के बाद दिल्ली घोषणा पर तालिबान की प्रतिक्रिया बिल्कुल सही समय पर आई है। तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने भारतीय मीडिया को बताया है कि उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बातचीत को सकारात्मक विकास के रूप में लिया है और उन्होंने उम्मीद जताई कि यह संवाद अफगानिस्तान की "शांति और स्थिरता में योगदान" देगा। 
Afghanistan
अफगानिस्तान के कार्यवाहक विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी पाकिस्तान के दौरे के क्रम में 18 दिसम्बर 2021 को इस्लामाबाद हवाई अड्डे पहुंचे। 

भारतीय कब लौट रहे हैं?

अफगानिस्तान के विदेश मंत्रियों की उपस्थिति के साथ अफगानिस्तान के संबंध में आज इस्लामाबाद में एक बड़ा अंतरराष्ट्रीय जलसा किया जाना है। इनमें 57 इस्लामिक देशों के ऑर्गनाइजेशन ऑफ कॉन्फ्रेंस (OIC) के विदेश मंत्री भाग ले रहे हैं। इनके अलावा, संयुक्त राष्ट्र संस्था, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के प्रतिभागियों के साथ-साथ अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, चीन, रूस के साथ-साथ यूरोपीय संघ सहित कुछ चुनिंदा गैर-सदस्य देशों को भी विशेष आमंत्रित सदस्यों में शामिल किया गया है। आश्चर्यजनक रूप से भारत को इस सम्मेलन से बाहर रखा गया है। 

गौरतलब है कि इस कार्यक्रम में तालिबान सरकार का प्रतिनिधित्व किया जाएगा। इस जलसे का आयोजन करने के पीछे पाकिस्तान का एक मुख्य मकसद तालिबान को अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ अपने नेटवर्किंग का विस्तार करने में मदद करना है। 

हालांकि यह सम्मेलन तालिबानी सरकार की तुरंत राजनयिक मान्यता दिलाने के रूप में तो रूपांतरित नहीं हो सकता है, लेकिन यह थोड़े व्यावहारिक मूल्य का एक विवादास्पद मुद्दा बन रहा है। 

यकीनन, अफगानिस्तान अभी भी राज्य के मूल तत्वों को बरकरार रखे हुए है, जैसा कि 1933 के मोंटेवीडियो कन्वेंशन में राज्यों के अधिकारों और कर्त्तव्यों के बारे में कहा गया है, और "यदि एक घटक की कमी भी रह जाती है, तो भी राज्य विघटित नहीं होता है; बल्कि वह बना रहता है"-जैसा कि हाल ही में, एक पाकिस्तानी विश्लेषक ने बेहद चतुराई से कहा है-जो बदले में, "राज्य की मान्यता" को एक राजनीतिक कार्य के रूप में सहज ठहराता है।

इसमें विरोधाभास यह है कि किसी देश को मान्यता प्रदान करना एक कानूनी अधिनियम की बजाय एक निर्णयात्मक कार्य है-और, किसी भी मामले में, अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली किसी भी सामूहिक निकाय को राज्यों को एकमुश्त मान्यता देने के अधिकार से लैस नहीं करती। 

सीधे शब्दों में कहें तो कुछ देश तालिबान सरकार को मान्यता दे सकते हैं और कुछ अन्य देश नहीं दे सकते हैं, जबकि एक देश के रूप में अफगानिस्तान को मान्यता प्रदान करने से उसे एक कानूनी इकाई के रूप में अधिमानित करना संभव हो जाता है। वास्तव में, यह स्थिति संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों, आइएमएफ, विश्व बैंक, आदि तथा कई देशों, विशेष रूप से, भारत सहित क्षेत्रीय देशों की तरफ से पहले से ही बहुत अधिक प्रचलन में है। 

तालिबान सरकार को राजनयिक मान्यता मिलने में समय लग सकता है, इस बीच, पाकिस्तान तालिबान को एक लंबे रास्ते से ले जाने में मदद कर रहा है ताकि वह राजकाज चलाने में सक्षम हो सके। तालिबानी विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी पर भरोसा किया जा सकता है कि वे आज होने वाली अंतरराष्ट्रीय समुदाय की इतनी बड़ी सभा का अधिकतम लाभ उठा पाएंगे। 

अनिवार्य रूप से, इस तरह की नेटवर्किंग अफगानिस्तान के लिए अंतरराष्ट्रीय सहायता बढ़ाने में तब्दील होगी। विशेष रूप से, मुस्लिम दुनिया के समृद्ध पेट्रोडॉलर राज्यों का अफगान लोगों के साथ धार्मिक सद्भावपूर्ण संबंध है। मुत्ताकी निश्चित रूप से अपनी मांगों के चार्टर – में "समावेशी सरकार" पर जोर देंगे, जिसके तहत लड़कियों की शिक्षा आदि पर ध्यान दिया जाना है। 

वास्तव में, इस बात की घोर रजामंदी है कि 1990 की तालिबानी हुकूमत और आज के इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान में बहुत कम समानता है। इस सप्ताह एसोसिएटेड प्रेस को दिए गए मुत्ताकी के विशेष इंटरव्यू में इसकी बानगी मिलती है। 

इसमें मुत्ताकी ने यकीन जताया है कि अमेरिका अफगानिस्तान के प्रति अपनी नीति को धीरे-धीरे बदल लेगा" क्योंकि वह देखता है कि तालिबान शासित देश का अपने दम पर खड़ा होना अमेरिका के लिए लाभप्रद है। मुत्ताकी ने आगे कहा, 

"मुझे अमेरिका से, अमेरिकी राष्ट्र से एक आखिरी बात कहनी है: आप एक महान और बड़े राष्ट्र हैं, और इसलिए ही आपके पास पर्याप्त धैर्य होना चाहिए,और बड़ा दिल रखते हुए अंतरराष्ट्रीय नियमों और नियमनों के आधार पर अफगानिस्तान के बारे में नीतियां बनानी चाहिए, और मनमुटावों को खत्म करने का जिगरा दिखाना चाहिए। हमारे दरम्यान बनी दूरी को कम करना चाहिए,और फिर अफगानिस्तान के साथ अच्छे ताल्लुकात का चुनाव करना चाहिए।" 

पहले की बनी यह धारणा कि तालिबान ने काबुल में सत्ता पर कब्जा कर लिया है, लगातार खारिज होती जा रही है। पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई ने शीर्ष अमेरिकी अधिकारियों-विशेष रूप से, अफगानिस्तान मामलों में उसके पूर्व विशेष प्रतिनिधि ज़ाल्मय खलीलज़ाद द्वारा इस अनुमान-अवधारणा को बनाने में काफी परिश्रम किया है-कि एक समावेशी सरकार के रूप में एक व्यवस्थित परिवर्तन संभव है लेकिन अशरफ गनी और उनका गुट इसके घटित होने के पहले पीछे हट गए और बाद में तो वे अफगानिस्तान से ही भाग खड़े हुए। 

तालिबानी अंतरिम सरकार के "वैधता पहलू" के कुतर्क को हामिद करजई ने अपने चौंकाने वाले खुलासे से ध्वस्त कर दिया था। उन्होंने तीन दिन पहले एपी के अफगान मामलों के जानकार कैथी गैनन को एक विशेष साक्षात्कार दिया था, जिसमें उन्होंने खुलासा किया था कि अफगानिस्तान की गनी सरकार के कायरों की तरह भाग खड़े होने के बाद अराजकता फैलने से रोकने के लिए उन्होंने ही व्यक्तिगत रूप तालिबान को काबुल पर दखल का न्योता दिया था। 

इस्लामाबाद में ओआइसी सम्मेलन होने के साथ कई देश काबुल में अपने दूतावासों को फिर से खोलने का फैसला करेंगे। उन देशों में भारत भी एक देश होना चाहिए।1990 के दशक के विपरीत, तालिबान को भारत से बातचीत करने के लिए किसी सहारे की कोई आवश्यकता नहीं है। तालिबान ने भारत से संपर्क किया है और उसके साथ बातचीत करने में अपनी दिलचस्पी साफ-साफ जाहिर की है। 

10 नवम्बर 2021 को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की अध्यक्षता में क्षेत्रीय सुरक्षा वार्ता के बाद अफगानिस्तान पर दिल्ली घोषणा पर तालिबान की प्रतिक्रिया सही समय पर आई है। तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने भारतीय मीडिया को बताया है कि उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बातचीत को सकारात्मक विकास के रूप में देखा है और उम्मीद जताई कि यह संवाद अफगानिस्तान की "शांति और स्थिरता में योगदान" देगा। 

शाहीन के शब्दों में, "अगर उन्होंने (एनएसए डोवाल) कहा है कि वे अफगानिस्तान के लोगों के लिए देश के पुनर्निर्माण, शांति और स्थिरता के लिए काम करेंगे...जो कि हमारा भी मकसद है। अफगानिस्तान के लोग शांति और स्थिरता चाहते हैं,क्योंकि उन्होंने पिछले कुछ वर्षों में बहुत कुछ सहा है। हम भी अब यही चाहते हैं कि देश में जारी आर्थिक परियोजनाएं पूरी हों और नई परियोजनाएं शुरू हों। हम अपने लोगों के लिए रोजगार के अवसर भी चाहते हैं। इसलिए जो कुछ भी कहा गया है (भारत की तरफ से) उससे हम रजामंद हैं। कोई भी कदम जो देश की शांति और स्थिरता में योगदान देता है, लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान करता है, और ऐसे समय में जबकि यहां के 80 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं, देश में गरीबी उन्मूलन में मदद करता है-तो हम उस कदम का समर्थन करते हैं।" 

जब उनका ध्यान दिल्ली घोषणा के इस आह्वान की ओर खींचा गया कि अफगान क्षेत्र का उपयोग "आतंकवादी गतिविधियों को आश्रय, प्रशिक्षण, योजना या वित्तपोषण" के लिए नहीं किया जाना चाहिए, तो इस पर शाहीन ने कहा: "हां, यह हमारी प्रतिबद्धता है। हम दोहा समझौते में सहमत थे कि हम किसी व्यक्ति, संस्था या समूह को किसी अन्य देश के खिलाफ अफगानिस्तान की धरती का उपयोग करने की अनुमति नहीं देंगे। अमेरिकियों ने अपने सैनिकों को वापस लेने पर सहमति व्यक्त की। यह सब हमारे समझौते का हिस्सा है। कल मैंने हमारे गृह मंत्री सिराजुद्दीन हक्कानी से मुलाकात की और उन्होंने बैठक के दौरान उस प्रतिबद्धता की पुष्टि की। हमारे सभी वरिष्ठ नेतृत्व उस प्रतिबद्धता से बंधे हुए हैं।”

डोभाल के निमंत्रण को पाकिस्तान द्वारा ठुकराए जाने के बारे में शाहीन ने कहा, “यह उस देश पर निर्भर है कि वह अपनी स्थिति तय करे। आप उनसे पूछ सकते हैं। जहां तक अफगानिस्तान के लोगों और सरकार का संबंध है, तो हम शांति और स्थिरता चाहते हैं और आर्थिक गतिविधियों को फिर से शुरू करना चाहते हैं।”

अब तालिबान बाहरी लोगों से फरमान नहीं लेता। बेशक, यह बात भी अब वास्तविकता से परे है कि आज काबुल में पाकिस्तान का बहुत असर है। अलबत्ता, इसका मायने है कि तालिबान के संबंध में वे पुरानी धारणाएं अब मान्य नहीं हैं। पेंडुलम दिलचस्प रूप से डोल रहा है और इसकी दिशा काबुल में भारतीय परिसर की तरफ है, यह बेहतर तरीके से दिख रहा है। लिहाजा, अफगानिस्तान में भारतीय दूतावास को फिर से जल्द ही खोला जाना चाहिए। 

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Reflections on Events in Afghanistan-37

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