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17वीं लोकसभा की दो सालों की उपलब्धियां: एक भ्रामक दस्तावेज़

हमें यह भी महसूस होता है कि संसदीय लोकतंत्र के चुनिंदा आंकड़ों के बेहतर होने के बावजूद समग्रता में लोकतंत्र कमजोर हो सकता है। यह हमें संसदीय या निर्वाचन पर आधारित लोकतंत्र और सांवैधानिक लोकतंत्र के बीच मौजूद गहरी खाई के बारे में बताता है।
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फ़ोटो- संसद टीवी से साभार

भारत की संसद के एक सदन लोकसभा ने 17वीं लोकसभा के दो साल पूरे होने के अवसर पर दो सालों की उपलब्धियों को केंद्र में रखकर 41 पेज लंबा एक दस्तावेज़ तैयार किया है। जिसे लोकसभा की वेबसाइट पर देखा जा सकता है। यह दस्तावेज़ निश्चित तौर पर बहुत अच्छी तरह तैयार किया गया है जो तमाम तरीकों से यह बताने की कोशिश करता है कि 17वीं लोकसभा के बीते दो सालों में सदन की कार्यवाही किस तरह से अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन कहा जा सकता है। हालांकि इस दस्तावेज़ को 14वीं, 15वीं और 16वीं लोकसभा के प्रदर्शनों के मद्देनजर तुलनात्मक रूप से पेश किया गया है।

आपको मालूम है कि 14वीं और 15वीं लोकसभा के दौरान कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए का शासन था और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे। जबकि 16वीं और 17वीं लोकसभा के दौरान भाजपा के नेतृत्व में एनडीए का शासन है। और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं।

इस दस्तावेज़ में लोकसभा की कार्यवाही के तमाम पहलुओं मसलन, कुल कितने घंटे लोकसभा चली,उत्पादकता क्या रही, कितने घंटों का वक़्त व्यवधानों में जाया हुआ, कितने कानून पारित हुए, कितने कानून पेश किए गए, सांसदों की उपस्थिति और भागीदारी कैसी रही वगैरह वगैरह पर काफी विस्तार से लिखा गया है। ज़ाहिर है इन मापदण्डों पर सत्रहवीं लोकसभा में भाजपा नीत सरकार का प्रदर्शन पिछली तीन लोकसभाओं की तुलना में न केवल बेहतर रहा बल्कि उल्लेखनीय भी रहा और शायद यही वजह है कि लोकसभा सचिवालय ने अपनी तरह की पहली रिपोर्ट तैयार भी की है।

एक नज़र इन मापदण्डों में से कुछ मापदण्डों पर लोकसभा के प्रदर्शन पर डालें तो यह स्पष्ट होता है कि लोकसभा सचिवालय ने ज़रूर इसे उल्लेखनीय प्रदर्शन के लिहाज से तैयार किया है लेकिन इस तारीफ में ही कई विरोधाभास और विसंगतियाँ दिखलाई पड़ती हैं।

यह दस्तावेज़ दावा करता है कि सत्रहवीं लोकसभा में सबसे ज़्यादा घंटे काम हुआ, सबसे कम व्यवधान पैदा हुआ, सबसे ज़्यादा कानून पेश हुए और सबसे ज़्यादा कानून पारित हुए, सांसदों की उपस्थिति और भागीदारी भी पिछली तीन लोकसभा कार्यवाहियों की तुलना में सबसे ज़्यादा रही। यह रिपोर्ट बताती है कि सत्रहवीं लोकसभा में कुल 712.93 घंटे कार्यवाही चली। 107कानून पारित हुए। कुल उत्पादकता 122 प्रतिशत रही। पाँच लोकसभा सत्रों में कुल 73 घंटे और 44 मिनिट ही विपक्ष द्वारा उत्पन्न किए गए व्यवधानों में जाया हुए जो चौदहवीं लोकसभा में महज़ 5 सत्रों में ही 112 घंटे और 29 मिनिट थे। वहीं 15वीं लोकसभा के दौरान 170 घंटे और 25 मिनिट यूं ही बर्बाद हो गए थे।

सत्रहवीं लोकसभा की कार्यवाहियों और उसके कुशल संचालन के लिए लोकसभा अध्यक्ष श्री ओम बिरला बधाई के पात्र हैं लेकिन यह दस्तावेज़ इस कुशल संचालन की तारीफ करते हुए यह भी स्थापित कर रहा है कि 14वीं और 15वीं लोकसभा में जब भारतीय जनता पार्टी विपक्ष की भूमिका में थी तब सबसे ज़्यादा व्यवधान पैदा किए गए। कम कानून पारित हो सके। 14वीं लोकसभा के पाँच सत्रों में कुल जमा 68 बिल लोकसभा में पेश किए जा सके जिनमें 60 बिल पारित हो सके। 15वीं लोकसभा में पेश किए गए बिलों की संख्या 82थी जिनमें 68 ही पारित हो सके थे। 16वीं लोकसभा में 71 पेश हुए जिनमें से 61 पारित किए जा सके। सत्रहवीं लोकसभा में दिलचस्प ढंग से पेश किए गए बिलों की संख्या 102 ही दिखलाई गयी है जबकि पारित हुए बिलों की संख्या 107 बतलाई गयी है। यानी पूर्णांक से भी ज़्यादा प्राप्तांक का प्रदर्शन इसे कहा जा सकता है।

महत्वपूर्ण सवाल सांसदों की बहस में भागीदारी को लेकर इस दस्तावेज़ से उठता है जिसे सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन बतलाया जा रहा है। अगर 712 घंटे चली लोकसभा में 107 बिल पारित हुए हैं तो एक बिल पर बहस के लिए औसतन 6मिनिट ही खर्च किए जा सके। इसमें लोकसभा की उन औपचारिक कार्यवाहियों का समय भी शामिल है जिसमें अधिनियमों, बिलों या क़ानूनों के संबंध में कोई बात नहीं होती मसलन राष्ट्रपति के अभिभाषण पर अभिमत/चर्चा, बजट भाषण, शून्य काल आदि। अगर इस दस्तावेज़ में इन औपचारिक कार्यवाहियों के समय को भी स्पष्ट रूप से इंगित किया गया होता तो संभव है कि एक कानून को पारित करने के लिए महज़ आधा मिनिट ही मिला होगा। इस आधे मिनिट में सांसदों की भागीदारी का सही पक्ष सामने आ सकता था।

यह दस्तावेज़ बतलाता है कि सत्रहवीं लोकसभा के अभी तक सम्पन्न हुए कुल पाँच सत्रों में सांसदों ने विधायी मामलों में करीब 1711 बार भागीदारी की। इसका अर्थ ये हुआ सांसदों ने इतनी दफा हस्तक्षेप किया है जिसे इतिहास में इतने कम कार्यकाल में सबसे उच्च माना गया। विधायी मामलों में लोकसभा के अंदर 14वीं, 15वीं व 16वीं लोकसभा में क्रमश: 496, 709 और 825 बार भागीदारी दर्ज़ की गयी थी। इस लिहाज से देखें तो सत्रहवीं लोकसभा में सांसदों ने बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी करते हुए सक्रिय भूमिका का निर्वहन किया।

इसकी तस्दीक एक और प्रभावशाली आंकड़ा करता है जो सांसदों द्वारा पूछे गए प्रश्नों और शून्य काल में उठाए गए मुद्दों को लेकर है। यह दस्तावेज़ बतलाता है कि हर सत्र के दौरान प्रत्येक बैठक में औसतन करीब 5.32मौखिक प्रश्न पूछे गए। इसी तरह लोकसभा के अंदर सांसदों के जो सवाल शामिल किए गए उनकी संख्या भी प्रभावशाली ढंग से बढ़ी है। जहां 14वीं, 15वीं और 16वीं लोकसभा के दौरान ये संख्या क्रमश: 321.25, 333.75 और 373.25 थी वो सत्रहवीं लोकसभा में 394. 25 तक पहुँच गयी।

इन पूछे गए सवालों के जवाब देने की संख्या में भी गुणात्मक वृद्धि देखी गयी है। सांसदों द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब देने का प्रतिशत संसदीय इतिहास में अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन माना गया।

इसके अलावा ऐसा बहुत कुछ इस दस्तावेज़ में है जो यह बतलाना चाहता है कि संसद की सेहत एकदम दुरुस्त है बल्कि इतिहास के किसी भी दौर में इतनी अच्छी सेहत कभी नहीं रही है। बावजूद इसके यह दस्तावेज़ क्यों स्पंदनहीन लगता है। यह क्यों भरोसा नहीं दिला पाता कि इसमें जो बतलाया गया है और जो अंक छापे हैं वह न केवल संसदीय लोकतंत्र बल्कि समग्र रूप से भारत के 75 साल के लोकतंत्र की असल तस्वीर नहीं है। सभी मापदण्डों पर बेहतर प्रदर्शन के बावजूद आखिर क्या है जो इन आंकड़ों को औचित्यहीन बना रहा है?

जब इस सवाल की तह में जाकर जवाब तलाशते हैं तो हम पाते हैं यहाँ अंकों, आंकड़ों या सांख्यकी को निष्ठुरता के साथ पेश किया गया है। हमें यह भी महसूस होता है कि संसदीय लोकतंत्र के चुनिंदा आंकड़ों के बेहतर होने के बावजूद समग्रता में लोकतंत्र कमजोर हो सकता है। यह हमें संसदीय या निर्वाचन पर आधारित लोकतंत्र और सांवैधानिक लोकतंत्र के बीच मौजूद गहरी खाई के बारे में बताता है।

हाल ही में आशुतोष वार्ष्णेय ने इंडियन एक्सप्रेस में चुनावी लोकतंत्र बनाम सांवैधानिक लोकतंत्रशीर्षक से एक लेख लिखा था जिसका मूल तर्क और स्थापना यही है कि बावजूद निर्वाचन और इस पर आधारित लोकतंत्र के पैमानों पर खरा उतरने के भी एक ऐसा लोकतंत्र भी है जिसकी गारंटी देश का संविधान देता है और कई दफा चुनावी लोकतंत्र इस सांवैधानिक लोकतंत्र के लिए खतरे पैदा कर सकता है। अगर इस देश में लोकतंत्र का मतलब केवल चुनाव हैं और चुनाव के जरिये किसी का सत्ता तक पहुँच जाना है तब निस्संदेह भारत जैसे विशाल देश में एक जीवंत लोकतंत्र मौजूद तो है लेकिन यह सविधान प्रदत्त लोकतंत्र और उसकी व्यापकता का एहसास नहीं नागरिकों को नहीं होने देता।

दुनिया में कई देशों में चुनाव के जरिये लोकतंत्र का मुलम्मा ओढ़े तानाशाहों का लंबा इतिहास रहा है और ये भी एक वजह है कि लोकसभा के बेहतरीन प्रदर्शन का मुजाहिरा करते इन आंकड़ों पर सहज भरोसा नहीं होता।

दिलचस्प है कि जिन 2 सालों की कार्यवाहियों का यह दस्तावेज़ है उसी दौर में देश के संसदीय इतिहास में बिना कैबिनेट और विपक्ष में भरोसे में लिए ऐसे ऐतिहासिक निर्णय लिए गए जिनका भरपूर विरोध देश भर में हुआ। इनमें से कुछ निर्णयों का ज़िक्र किया जाए तो 5 अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर पुनर्गठन कानून संसद में विपक्ष के भारी विरोध के बाद भी पारित हुआ, 9 दिसंबर 2019को नागरिकता संशोधन कानून, 17 सितंबर 2020 को कृषि से जुड़े तीन कानून पारित हुए। इन तीनों ही क़ानूनों ने देश में भयानक असंतोष पैदा किया। ज़ाहिर है न तो विपक्ष को इन क़ानूनों को पारित समय भरोसे में लिया गया और न ही लोकसभा के अंदर उनकी असहमतियों को सुना गया।

ये सही है कि लोकसभा में भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टियों का बहुमत है। और ये बहुमत इतना प्रचंड है कि कमजोर विपक्ष की आवाज़ सुनी ही नहीं जाती लेकिन यहीं आकार सदन की असल ज़िम्मेदारी और लोकतंत्र की सर्वमान्य परिभाषा असहमतियों को जगह देनेकी कठिन परीक्षा होती है जिसमें ये सत्रहवीं लोकसभा पूरी तरह से न केवल असफल ही रही बल्कि लोकतंत्र के न्यूनतम तकाजे का भी पालन नहीं कर सकी। इन विफलताओं पर यह दस्तावेज़ पूरी तरह मौन है।

इस दस्तावेज़ में भी कहीं उन बातों का ज़िक्र नहीं है कि इस देश में निर्णय लेने की प्रक्रिया किस तरह एकाधिकारवादी हो चुकी है। इसी लोकसभा में पारित हुए क़ानूनों को सदन का नेता एक अनौपचारिक संदेश के जरिये पलट सकता है? क्या लोकसभा के प्रदर्शन और उसकी स्तुति में तैयार किए गए इस दस्तावेज़ में यह भी नहीं दर्ज़ किया जाना चाहिए कि संसद में कानून पारित कराने को लेकर जिस तरह से अराजक माहौल में ध्वनि मत का इस्तेमाल किया जा रहा है या कितने ही संसद सदस्यों को बिना किसी ठोस कारण के पूरे-पूरे सत्र के लिए निष्काषित किया जा रहा है और उनके तमाम लोकतांत्रिक प्रतिरोध के भी उन्हें सदन में बैठने नहीं दिया जा रहा है? अगर लोकसभा के प्रदर्शन के पैमाने में अनुशासन बनाए रखना भी एक पैमाना है तो ज़रूर इसे भी इस दस्तावेज में महत्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए। यह भी बताया जाना चाहिए कि कैसे लोकसभा अध्यक्ष अनुशासन प्रिय हैं और बिना किसी दबाव या पक्षपात के वो निर्णय लेते हैं और संयोग से ऐसे निर्णय हर बार केवल और केवल विपक्षी सांसदों के अधिकारों को कम करने से ताल्लुक रखते हैं।

दिलचस्प है कि इस दस्तावेज़ को पढ़ने के बाद देश के नागरिक को यह समझ में आयेगा कि कैसे 14वीं और 15वीं लोकसभा जिनमें गठबंधन की सरकार थी,बहुमत का न तो अहंकार था और न ही विपक्ष सत्रहवीं लोकसभा के मानिंद इतना कमजोर और संख्याबल में इतना असहाय ही था बावजूद इसके इन दोनों लोकसभाओं का प्रदर्शन कितना लचर रहा। निस्संदेह भारतीय संसद के एक सदन लोकसभा की दो सालों की उपलबधियों का यह दस्तावेज़ तमाम असहमतियों को आंकड़ों के जरिये चुप कराने के लिए सत्ता के पास एक कारगर हथियार है लेकिन दिनों दिन बीमार होते हमारे संवैधानिक लोकतंत्र की सेहत के लिए ये उपलब्धियां एक बीमार को दवा का भ्रम पैदा करने जैसी ही हैं।

(लेखक पिछले 15 सालों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़कर काम कर रहे हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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