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झुग्गीवासियों को दूसरी जगह बसाने के बजाय उन्हें सशक्त बनाया जाए

जब झुग्गियों की बात आती है तो हमें लोगों को प्राथमिकता देनी चाहिए। पुनर्वास और स्थानांतरण के बारे में सोचने के बजाय इन स्लम बस्तियों को रेट्रोफिटिंग, एक्यूपंक्चर आदि द्वारा डिज़ाइन करने के लिए प्रतियोगिता आयोजित की जानी चाहिए।
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'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: Citizen Matters

स्लम बस्तियों को समझने के लिए एक नए नजरिए की जरूरत है। स्लम बस्तियों को बदसूरत बस्तियों और शहर में एक कलंकित स्थान के रूप में देखने से ही एक तरह की अभिजात्य नजरिये की बू आती है। भारत की योजनाएं बनाने वाली दुनिया में यह नजरिया बहुत प्रचलित है।

स्लम बस्तियां शहरी भारत में नियोजन प्रक्रिया की विफलता का प्रतीक हैं। शहरी नियोजक शहरों के राजनीतिक-आर्थिक जीवन में प्रवास और बड़े पैमाने पर स्थान बदलने के मुद्दों को समझने में विफल रहे हैं।

औद्योगिक क्रांति शहरों में मेहनतकश लोगों के लिए एक सभ्य जीवन के लिए जगह बनाएगी और इसलिए उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान तक श्रमिकों की यात्रा सुनिश्चित करने के लिए उच्च गतिशीलता के लिए योजना बनाई जानी चाहिए जैसे विचारों ने काम नहीं किया। क्योंकि 80 के दशक के मध्य में वस्तुओं के औद्योगिक उत्पादन पर आधारित बड़े शहरों ने एक अलग अर्थव्यवस्था का मार्ग प्रशस्त करना शुरू कर दिया था। बड़ी सूती कपड़ा और जूट मिलें बंद होने लगीं और सेवाओं पर आधारित अनौपचारिक अर्थव्यवस्था विकसित होने लगी। कामकाजी बड़ी आबादी, ग़रीब लोग, प्रवासी और कामगार जिन्हें उत्पादन प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया था, उन्हें रहने के लिए जगह ढूंढनी पड़ी। उन्होंने शहरी क्षेत्रों में भूमि पर क़ब्ज़ा करके योजना अधिकारियों को जवाब दिया।

स्लम बस्तियों पर बाइबिल माने जाने वाले संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट "द चैलेंज ऑफ स्लम" का अनुमान है कि शहरी भारत में 55% लोग झुग्गी बस्तियों में रहते हैं। हालांकि, सरकार का अनुमान 15% है लेकिन स्लम बस्तियों का कुल भौगोलिक क्षेत्र शहर के उनके क़ब्ज़े वाले स्थानों का 0.5% भी नहीं है। यह इतना छोटा क्षेत्र है कि उस क्षेत्र में सबसे अधिक घनत्व है।

भूमि की बिकी

स्लम को हमेशा गंदी जगहों के रूप में देखा गया है, जहां अपराध और बीमारी पनपती है। इसलिए शुरूआती समय में उन्हें हटाने के प्रयास किए गए और बाद में 90 के दशक के मध्य में नव-उदारवाद को विकास के मार्गदर्शक ढांचे के रूप में अपनाया गया। झुग्गीवासियों के क़ब्ज़े वाली भूमि को उच्च मूल्य वाला माना जाता था और उनके स्थानान्तरण की बात बिल्कुल क़रीब होती थी।

विभिन्न नीतियों के तहत सार्वजनिक निजी भागीदारी (पीपीपी) के रूप में आसानी से स्वीकार करने वाले मॉडल के साथ स्लम बस्तियों का स्थानांतरण शुरू हुआ। इस मॉडल के तहत रियल एस्टेट बिल्डर जैसी निजी पूंजी ने झुग्गी-झोपड़ी में रहने वालों के लिए घर बनाया। इस तरह के घर एक या दो मंज़िला होने के बजाय ऊंची इमारतें थीं जो मुंबई के पुनर्वास मॉडल की तरह क़रीब 10-12 मंज़िला थीं। ख़ाली भूमि का इस्तेमाल डेवलपरों द्वारा फ़ायदा कमाने के लिए किया गया।

इसने बहुत ज़्यादा काम नहीं किया। अहमदाबाद स्थानांतरण एक बड़ी आपदा रही है जहां लगभग 2 लाख परिवारों का पुनर्वास किया जाना था। हालांकि, अहमदाबाद की नगर पालिका से विभिन्न रिपोर्टों और आरटीआई जवाब में मिली जानकारी के अनुसार केवल 6,000 का पुनर्वास किया गया था। इस मॉडल के काम न करने के कई कारण हैं।

सबसे पहले ये कि बनाए गए घर उनके कार्यस्थल से बहुत दूर थे। उन्हें यात्रा करने और इस तरह की यात्रा पर पैसा ख़र्च करने में बहुत समय लगता था। दूसरा ये कि निर्मित अपार्टमेंट टिकाऊ नहीं थे। हर महीने, रखरखाव और संचालन का ख़र्च उसमें रहने वाले लोगों को वहन करना पड़ता था। तीसरा ये कि निवास स्थान विस्थापित झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों के लिए आजीविका का वैकल्पिक साधन उपलब्ध नहीं करा सका।

इसके बाद "मूल स्थान पर" निर्माण-झुग्गी पुनर्विकास का मॉडल आया। इसका मतलब था कि झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों के लिए मकान उसी जगह पर बनाए जाएंगे जहां वे रह रहे थे। हालांकि, उनके क्षैतिज अर्थात आस पास स्थान को ले लिया जाएगा और ऊर्ध्वाधर अर्थात ऊपर की तरफ बढ़ने के विकास की अनुमति दी जाएगी। इस तरह बनाई गई जगह का इस्तेमाल बिल्डर द्वारा भूमि का पैसे के लिए किया जाएगा और झुग्गीवासियों को वैकल्पिक आवास दिए जाने के बाद ख़ाली की गई ऐसी भूमि पर बने अपार्टमेंट को बेचने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। इसे आंशिक सफलता मिली। इस पुनर्विकास के कुछ मॉडल बॉम्बे हवाई अड्डे के भूमि के टुकड़े के रूप में देखे जाते हैं। निजी डेवलपरों ने 400 परिवारों के लिए घरों का निर्माण किया और ख़ाली ज़मीन का इस्तेमाल पांच सितारा होटल के निर्माण के लिए किया गया। इससे भी इच्छा के मुताबिक़ सफलता नहीं मिली। मुख्य कारण पानी और बिजली की आपूर्ति के प्रबंधन में ऐसे अपार्टमेंट की अस्थिरता और उच्च वृद्धि से संबंधित है। अपार्टमेंट का आकार भी बहुत छोटा है। यह सिर्फ़ 25 वर्ग मीटर है। यह चार लोगों के परिवार के लिए नाकाफ़ी है।

भूमि अधिकार मुख्य मांग

यह बताना दिलचस्प है कि लगभग 95% झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले ऐसे घरों में रह रहे हैं जिनमें बहुत अधिक परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है। झुग्गीवासियों की मांग है कि उन्हें भूमि स्वामित्व अधिकार दिया जाए जिसको कई राज्यों पट्टा कहा जाता है। इन कॉलोनियों की अर्थव्यवस्था के विकास पर भूमि का अधिकार ही प्रभाव डालेगा। सरकार को यह सुनिश्चित करना शुरू करना चाहिए कि पानी, स्वच्छता, स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क आदि जैसी सामाजिक बुनियादी सुविधाएं दी गई हैं और स्लम बस्तियों के पुनर्विकास को रोक दिया गया है।

लेकिन चुनौती बहुत बड़ी है। पश्चिम बंगाल में बस्ती फेडरेशन के एक सम्मेलन में यह बताया गया कि बेदख़ली का ख़तरा बड़ा है। और कई बस्तियां रेलवे की ज़मीन पर हैं। पूरे देश में, रेलवे और डिफेंस की भूमि पर कई झुग्गी-बस्तियां हैं और उनके बेदख़ल होने का ख़तरा मंडरा रहा है।

स्वतःस्फूर्त शहरीकरण

सीपीआर (सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च) द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार दिल्ली में अनौपचारिक बस्तियों में लगभग 75% आबादी रहती है (हेलर, पैट्रिक, पार्थ इन एक्सक्लूजन…… एन ओवरव्यू ऑफ सिटीज ऑफ डेल्ही प्रोजेक्ट, 2015)।

दिल्ली के आया नगर के एक झुग्गी बस्ती में अपने एक मौलिक काम में एम एम आशीष गंजू रेडिकल सिटी नामक पुस्तक में स्वतःस्फूर्त शहरीकरण पर चर्चा करते हैं। इन स्लम बस्तियों में शहरीकरण की प्रक्रिया की स्वभाविकता एक ऐसी विशेषता है जो समावेशी शहरों के निर्माण में योजना अधिकारियों की विफलता का परिणाम है। जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है, ग़रीब और हाशिए पर मौजूद लोग इन बस्तियों में अपना स्थान पाते हैं लेकिन इनकी अपनी गतिशीलता है।

चूंकि गंजू ख़ुद एक योजनाकार थे और दिल्ली में एक मध्यवर्गीय कॉलोनी के बजाय एक झुग्गी में रहने की योजना बनाई। वह इन बस्तियों में मौजूद बारीकियों और जटिल संबंधों और शिकायत निवारण के तंत्र को भी सामने लाते हैं। यूट्यूब पर "एन आउट पोस्ट ऑफ़ डेल्ही" वीडियो में आया नगर नामक इस बस्ती का ज़िक्र है। गंजू लिखते हैं, "इस बस्ती में अब लगभग 2,00,000 लोग रह रहे हैं... मुख्य क्षेत्र गांव में वर्षा जल संचयन संरचना या जोहर है जो सीवेज संग्रह स्थान नहीं बन पाया है। दिल्ली के ग्रामीण इलाक़ों में ये जोहर और जल संग्रहण के अन्य ढांचे ज़्यादातर भर गए हैं और नष्ट हो गए हैं लेकिन आया नगर में हमने इस संरचना को दो दशकों तक जीवित रखा है। मुख्यमंत्री ने जोहर को फिर से विकसित करने के हमारे प्रयासों का समर्थन किया जिसे हम 20 से अधिक वर्षों से कर रहे हैं।

इन झुग्गियों में विशेष रूप से जल निकासी और सीवेज की चुनौतियों के बारे में बोलते हुए, वह समुदाय द्वारा निभाई गई भूमिका और संकट को कम करने में दिल्ली सरकार की मदद से बेहतर किए गए संसाधनों के बारे में लिखते हैं। यह महत्वपूर्ण क्यों है? क्योंकि दिल्ली में एसटीपी में गंदगी को ट्रीटमेंट करने से पहले औसतन इसे 15 किमी तक जाना होता है। ये स्थायी रूप नहीं हैं जहां गंदगी एक कार्यकर्ता के औसत समय से अधिक यात्रा करती है। आया नगर में बायो डाइजेस्टर की मदद से मिट्टी और अपशिष्ट जल का पहला शोधन किया जाता है, दूसरा शोधन रीड बेड में बायो-रेमेडिएशन के ज़रिए किया जाता है और तब शोधन किए गए पानी का रिसाइकल लोगों के इस्तेमाल के लिए किया जाता है।

विकेंद्रीकृत और लोकतांत्रिक हस्तक्षेप का ऐसा रूप अधिक से अधिक कैपिटल-इंटेंसिव टेक्नॉलोजी की मांग को लेकर नव-उदारवादी के लिए बड़ा व्यवधान है जिसका नतीजा न तो टिकाऊ है और न ही आकर्षक है। आया नगर मॉडल को भी डीयूएसआईबी ने मदद की थी और यह काम कर रहा है। गंजू इस परियोजना के बारे में लिखते हैं, “सैनिटेशन मैनेजमेंट में इस प्रयोग के निहितार्थ को स्थान-संबंधी योजना के संदर्भ में समझने की आवश्यकता है। शहरी क्षेत्र के आस पास विकेंद्रीकृत सीवेज ट्रीटमेंट और शोधित पानी के रिसाइकिल से हमें एक बार फिर से अनुकूल वातावरण तैयार करने की स्वतंत्रता मिलती है। शहरी रूप भारी इंजीनियरिंग की क्रूरता पर निर्भर नहीं है। यह व्यापक पाइपिंग नेटवर्क बिछाने के लिए आवश्यक है। यह लेआउट के निर्माण को प्रोत्साहित कर सकता है जो तकनीकी अनिवार्यताओं पर मानव की ज़रूरतों को प्राथमिकता देता है। शहर का डिज़ाइन फिर से नागरिक मूल्यों को बढ़ावा देने का एक प्रयोग हो सकता है जिसे हम बीसवीं शताब्दी में खो चुके हैं। (दुख की बात है कि हमने 7 मई, 2021 को कोविड -19 में गंजू को खो दिया।)

इस उदाहरण को इस लेख में लाने का उद्देश्य यह दिखाना है कि शहरीकरण के बस्ती रूप में लोगों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए और पुनर्वास और स्थानांतरण के संदर्भ में सोचने के बजाय रेट्रोफिटिंग, एक्यूपंक्चर आदि के द्वारा स्लम बस्तियों को डिज़ाइन करने में प्रतियोगिता आयोजित की जानी चाहिए। आईआईटी में अपने एक शोध को गौतम भान (इंडियन इंस्टिच्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट विभाग में प्रोफेसर) ने मेरी अध्यक्षता वाले एक सेशन में योजनाकारों को बटर पेपर देने का विचार प्रस्तुत किया जो उन्हें बहुत प्रिय रहे। नए शहरों को डिज़ाइन करने पर फिर से विचार किया जाना चाहिए और दी गई स्थिति में अंतर को पाटने के प्रयास किए जाने चाहिए।

डीयूएसबी ने हाल ही में दिल्ली में लगभग 621 अधिसूचित स्लम बस्तियों में स्लम बस्तियों के प्रबंधन के लिए एक रूपरेखा को अंतिम रूप देने के लिए एक बैठक की। डीयूएसबी अधिनियम इसे ऐसा करने की अनुमति देता है। हालांकि इस दिशा में काम करने के लिए 74वें संविधान संशोधन के तहत नगर निगमों से शासन मॉडल से लेकर मौजूदा राज्य सरकार तक जटिलता है। फिर भी, यदि डीयूएसबी लोगों के साथ जुड़ता है और निर्णय लेने के लिए किसी अन्य निकाय के रूप में सिर्फ कार्य नहीं करता है तो यह एक स्वागत योग्य क़दम होना चाहिए। बेहतर यह है कि झुग्गीवासियों को अपने दम पर निर्णय लेने के लिए लोकतांत्रिक रूप से सशक्त होना चाहिए और इससे उनके स्वयं के नेतृत्व के समूह को भी चुनौती मिलेगी जहां कुछ व्यक्ति उनका भविष्य तय करते हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

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